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वज़ीरपुर के गरम रोला मज़दूरों का ऐतिहासिक आन्दोलन

वज़ीपुर मज़दूर आन्दोलन के दौरान गरम रोला मज़दूरों ने राज्यसत्ता के इस पूरे चरित्र को भी एक हद तक समझा है। चाहे वह श्रम विभाग हो, पुलिस हो, या अदालतें हों, मज़दूर यह समझ रहे हैं कि पूरी राज्यसत्ता की वास्तविक पक्षधरता क्या है, उसका वर्ग चरित्र क्या है और मज़दूर आन्दोलन केवल क़ानूनी सीमाओं के भीतर रहते हुए ज़्यादा कुछ हासिल नहीं कर सकता है। आन्दोलन के पूरे होने पर हम एक और विस्तृत रपट ‘मज़दूर बिगुल’ में पेश करेंगे और आन्दोलन की सकारात्मक और नकारात्मक शिक्षाओं पर विस्तार से अपनी बात रखेंगे। अभी आन्दोलन जारी है और हम उम्मीद करते हैं कि यह आन्दोलन अपने मुकाम तक पहुँचेगा।

वज़ीरपुर गरम रोला मज़दूर आन्दोलन में ‘इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ की घृणित ग़द्दारी और गरम रोला मज़दूरों का माकूल जवाब

इंमके की पूरी अवधारणा ही मार्क्सवाद-लेनिनवाद के मुताबिक ग़लत है। ये अपने आपको मज़दूर वर्ग का “राजनीतिक केन्द्र” बताते रहे हैं। इस पर हमारा शुरू से यह प्रश्न था कि ऐसे ही जनराजनीतिक केन्द्र के तौर पर रूस के कम्युनिस्ट आन्दोलन में एक्सेलरोद ने एक मज़दूर कांग्रेस का प्रस्ताव रखा था। इस पर लेनिन ने कड़ी आपत्ति दर्ज करायी थी और कहा था कि मज़दूरों का एक ही राजनीतिक केन्द्र होता है और वह है पार्टी। इसके अलावा, कोई भी राजनीतिक केन्द्र बनाने का प्रयास पार्टी की सौत को जन्म देगा और विसर्जनवादी धारा को आगे बढ़ायेगा।

भोंडसी जेल का एक दौरा जहाँ मारूति के 147 मज़दूर बिना अपराध सिद्धि के दो साल से कै़द हैं।

मई 2013 में जब मज़दूरों की पहली जमानती अर्जी ख़ारिज हुई थी तब हरियाणा और पंजाब उच्‍च न्‍यायालय ने टिप्‍पणी की थी कि ”श्रमिक अशान्ति के भय से विदेशी निवेशक भारत में पूँजी निवेश करने से मना कर सकते हैं”। यह मामला एक मिसाल की तरह इस्‍तेमाल किया जा रहा है। यदि आरोप साबित होते हैं तो सभी 147 मज़दूरों को सख्‍़त से सख्‍़त सजा होगी, यानी कि उनको दो दशकों से भी अधिक समय के लिए कै़द हो सकती है।

सभी बिरादर संगठन के साथियों के नामः ‘इंकलाबी मज़दूर केन्द्र’ के नये कुत्साप्रचार-पत्र के “तथ्यों” का सतथ्य व सप्रमाण खण्डन

इंमके के लोगों ने आत्मरक्षा में जो पत्र जारी किया है अगर उसके झूठ उन्होंने थोड़ा सोच समझकर गढ़े होते तो उनके लिए बेहतर होता। यहाँ तो उन्होंने अपना हरेक झूठ खुद ही बेनक़ाब कर दिया है।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के औद्योगिक इलाक़ों में सतह के नीचे आग धधक रही है!

श्रीराम पिस्टन फ़ैक्टरी की यह घटना न सिर्फ़ हीरो होण्डा, मारुति सुज़ुकी और ओरियण्ट क्राफ्रट के मज़दूर संघर्षों की अगली कड़ी है, बल्कि पूरे गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल-भिवाड़ी की विशाल औद्योगिक पट्टी में मज़दूर आबादी के भीतर, और विशेषकर आटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूरों के भीतर सुलग रहे गहरे असन्तोष का एक विस्फोट मात्र है। यह आग तो सतह के नीचे पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के औद्योगिक इलाक़ों में धधक रही है, जिसमें दिल्ली के भीतर के औद्योगिक क्षेत्रों के अतिरिक्त नोएडा, ग्रेटर नोएडा, साहिबाबाद, फ़रीदाबाद, बहादुरगढ़ और सोनीपत, पानीपत के औद्योगिक क्षेत्र भी आते हैं। राजधानी के महामहिमों के नन्दन कानन के चारों ओर आक्रोश का एक वलयाकार दावानल भड़क उठने की स्थिति में है।

श्रीराम पिस्टन, भिवाड़ी के मज़दूरों के आक्रोश का विस्फोट और बर्बर पुलिस दमन

गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल से लेकर भिवाड़ी और खुशखेड़ा तक के कारख़ानों में लाखों मज़दूर आधुनिक गुलामों की तरह खट रहे हैं। लगभग हर कारख़ाने में अमानवीय वर्कलोड, ज़बरन ओवरटाइम, वेतन में कटौती, ठेकेदारी, यूनियन अधिकार छीने जाने जैसे साझा मुद्दे हैं। हमें यह समझना होगा कि आज अलग-अलग कारख़ाने की लड़ाइयों को जीत पाना मुश्किल है। अभी हाल ही में हुए मारुति सुजुकी आन्दोलन से सबक लेना भी ज़रूरी है जो अपने साहसपूर्ण संघर्ष के बावजूद एक कारख़ाना-केन्द्रित संघर्ष ही रहा। मारुति सुजुकी मज़दूरों द्वारा उठायी गयीं ज़्यादातर माँगें – यूनियन बनाने, ठेकाप्रथा ख़त्म करने से लेकर वर्कलोड कम करने – पूरे गुड़गाँव से लेकर बावल तक की औद्योगिक पट्टी के मज़दूरों की थीं। लेकिन फिर भी आन्दोलन समस्त मज़दूरों के साथ सेक्टरगत-इलाक़ाई एकता कायम करने में नाकाम रहा। इसलिए हमें समझना होगा कि हम कारख़ानों की चौहद्दियों में कैद रहकर अपनी माँगों पर विजय हासिल नहीं कर सकते, क्योंकि हरेक कारख़ाने के मज़दूरों के समक्ष मालिकान, प्रबन्धन, पुलिस और सरकार की संयुक्त ताक़त खड़ी होती है, जिसका मुकाबला मज़दूरों के बीच इलाक़ाई और सेक्टरगत एकता स्थापित करके ही किया जा सकता है

मारुति सुजुकी मज़दूरों की “जनजागरण पदयात्रा” जन्तर-मन्तर पर रस्मी कार्यक्रम के साथ समाप्त हुई

साफ है कि चुनावी मदारियों के वादों से मारुति मज़दूरों को कुछ हासिल नहीं होने वाला है लेकिन इस घटना ने एम.एस.डब्ल्यू.यू. के नेतृत्व के अवसरवादी चरित्र को फिर सामने ला दिया, जिनके मंच पर मज़दूरों को बिना जाँच-सबूत हत्या का दोषी ठहराने वाले योगेन्द्र यादव को कोई नहीं रोकता लेकिन मज़दूरों का पक्ष रखने वाले पत्रकार-समर्थक को रोक दिया जाता है। शायद मारुति मज़दूरों का नेतृत्व आज भी मज़दूरों की ताक़त से ज्यादा चुनावी दलालों से उम्मीद टिकाये बैठे है। तभी मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन के मंच पर सीपीआई, सीपीएम से लेकर आप के नेता भी मज़दूरों को बहकाने में सफल हो जाते हैं।

लुधियाना के टेक्सटाइल मज़दूरों की हड़ताल की जीत

मज़दूर संगठन की लगातार बढ़ती जा रही ताक़त से मालिक बौखलाहट में हैं। संगठन को कमज़ोर करने और तोड़ने के लिए वह लगातार कोशिशें कर रहे हैं। इस बार की हड़ताल से पहले अग्रणी भूमिका निभाने वाले और मज़दूरों को काम से निकालने की नीति मालिकों ने अपनायी है। सीज़नल काम होने की वजह से संगठन की ताक़त पूरे साल एक जैसी नहीं रहती। मज़दूर पीस रेट पर काम करते हैं और काम कम होने पर गाँव चले जाते हैं। मालिकों ने मन्दी के दिनों में अगुआ और सरगर्म भूमिका निभाने वाले मज़दूरों को काम से निकालना शुरू कर दिया, या गाँव से वापस आने पर उन्हें काम पर नहीं रखा। इस छँटनी को रुकवाने के लिए संगठन के पास अभी संगठित ताक़त की कमी है और आमतौर पर श्रम विभाग में शिकायत दर्ज करवाकर ही गुज़ारा करना पड़ता है। श्रम विभाग और श्रम अदालतों में मज़दूरों के केस लम्बे समय के लिए लटकते रहते हैं और इन्साफ़ नहीं मिलता। जिन कारख़ानों के मज़दूर संगठन के जीवन्त सम्पर्क में नहीं रहते, उन कारख़ानों में छँटनी की यह मुसीबत ज़्यादा आयी है। कारख़ानों से निकाले गये मज़दूर दूसरे इलाक़ों में जाकर काम कर रहे हैं, इससे अन्य इलाक़ों में भी संगठन के फैलाव की सम्भावना बनी है। दूरगामी तौर पर देखा जाये तो मालिकों के हमले के ये लाभ भी हुए हैं।

मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन के पुनर्गठन के नवीनतम प्रयासों की विफलता – इस अफ़सोसनाक हालत का ज़िम्मेदार कौन है?

“इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” ने अपने संकीर्ण सांगठनिक हितों के लिए “मज़दूरों की स्वतःस्फूर्तता” और “स्‍वतन्त्र नेतृत्व और निर्णय” की खूब दुहाई थी और खूब जश्न मनाया लेकिन सच्चाई यह थी कि आन्दोलन के नेतृत्व में कभी भी स्वतन्त्र रूप से निर्णय लेने का साहस और क्षमता नहीं रही और न ही इन अवसरवादियों और संघाधिपत्यवादियों ने कभी ऐसा साहस या क्षमता पैदा करने की प्रक्रिया को प्रेरित किया। पहले यह गुड़गाँव-मानेसर में केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के दल्लालों की पूँछ पकड़कर चलता रहा; उसके बाद “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” के रायबहादुरों के मन्त्र और रामबाण नुस्खे सुनता रहा; उसके बाद कैथल जाने पर वह धनी किसानों और कुलकों के नुमाइन्दे खाप पंचायतों की गोद में जा बैठा; और जब 19 मई के दमन के बाद खाप पंचायतों ने अपना रास्ता पकड़ा तो घूम-फिर कर यूनियन नेतृत्व फिर से केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के ग़द्दारों के सहारे आ गया कि शायद वे ही सरकार से कुछ सुनवाई-समझौता करा दें। इसमें “स्‍वतःस्फूर्तता और स्वतन्त्र निर्णय” कहाँ है!? मज़ेदार बात यह है कि इन अवसरवादी, अराजकतावादी और संघाधिपत्यवादी “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” को भी इस सारे कार्य-कलाप से कोई लाभ नहीं हुआ और न ही उनके संकीर्ण सांगठनिक हित इससे सध सके! हाँ, इससे पूरे आन्दोलन का नुकसान उन्होंने ज़रूर किया।

असंगठित क्षेत्र के बादाम मज़दूरों ने 60 से ज्यादा फ़ैक्ट्रियों में 6 दिन की हड़ताल से मालिकों को झुकाया

पिछली हड़ताल की गलतियों से मज़दूरों ने सीख लिया था कि मज़दूरों की व्यापक एकता और सही नेतृत्व ही उन्हें जीत दिला सकता है। केएमयू की पकड़ मज़दूरों में व्यापक और गहरी हुई थी इसकी वजहें थीं, मज़दूरों के बीच सतत राजनीतिक प्रचार करना, मालिक द्वारा पैसा रोके जाने या पुलिस या दबंगों द्वारा प्रताड़ित किये जाने पर मज़दूरों को संगठित करके संघर्ष करना। इसके अलावा इलाके में सुधार कार्य करना। इन सब कामों से केएमयू पर मज़दूरों का विश्वास बढ़ा था। इलाके में मौजूद दलाल ट्रेड यूनियन एक्टू का पूरी तरह से सफाया हो जाने का जिसके लोग मज़दूरों में भ्रम फैलाने और दलाली में लगे रहते थे, केएमयू को फायदा हुआ। अन्य पेशे के मज़दूरों जिनमें मुख्य रूप से भवन निर्माण मज़दूर, पेपर प्लेट मज़दूर, वॉकर फैक्ट्री मज़दूर आदि के खुलकर बादाम मज़दूरों के संघर्ष में साथ आने से मज़दूरों की इलाकाई एकता मजबूत हुई है।