Category Archives: मज़दूर आन्दोलन की समस्‍याएँ

पश्चिम बंगाल में भाजपा की सफलता और संसदीय वाम राजनीति के कुकर्म

पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मिली भारी सफलता बहुत से लोगों को हैरान करने वाली लग सकती है लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान बंगाल की राजनीतिक घटनाओं पर अगर नज़र डालें तो इसे समझा जा सकता है।

एक पंजाबी मज़दूर के शब्द ‘प्रवासी मज़दूरों ने पंजाब को गन्दा कर दिया है’ – क्या वाक़ई ऐसा है?

प्रवास करना मज़दूरों का शौक़ नहीं मजबूरी है। दूसरे मज़दूरों का पंजाब आना और पंजाबी मज़दूरों का विदेशों में जाना पूँजीवादी ढाँचे की नीतियों के कारण ही है। अगर आदमी को उसकी पारिवारिक रिहाइश के पास काम मिलेगा तो वह प्रवास नहीं करेगा, वो उसी जगह काम करने को तरजीह देगा और ऐसे विवाद भी खड़े नहीं होंगे। पर पूँजीवादी ढाँचे के अन्तर्गत विकास असमान होता है। पूँजीपति सस्ती श्रम शक्ति के साथ-साथ कारख़ाने के लिए सस्ते कच्चे माल की उपलब्धता, आवागमन के साधन, तैयार माल के लिए मण्डी, स्थानीय सरकार का कारख़ाने के प्रति नरम रुख़ आदि को ध्यान में रखकर ही कारख़ाना लगाता है ना कि लोगों के रोज़गार की ज़रूरतों को ध्यान में रख कर। यह असमान विकास कुछ क्षेत्रों में ज़्यादा तरक़्क़ी और कुछ को पीछे ले जाता है। यह पिछड़े हुए क्षेत्र उन्नत क्षेत्रों की तरफ़ सस्ती श्रम शक्ति के लगातार प्रवाह को यक़ीनी बनाते हैं। पक्के रोज़गार का न मिलना और पूँजीवादी विकास के फलस्वरूप छोटे-मोटे धन्धों का चौपट होना है इस प्रवाह को और तेज़ कर देता है। आज हमारे देश के ऐसे ही हालात हैं।सारे नागरिकों को पक्का रोज़गार, मुफ़्त शिक्षा और स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाएँ देना सरकार की ज़िम्मेदारी और लोगों का संवैधानिक

संगठित होकर ही बदल सकती है घरेलू मज़दूरों की बुरी हालत

घरेलू मज़दूरों के सिर्फ़ श्रम की ही लूट नहीं होती बल्कि उन्हें बुरे व्यवहार का सामना भी करना पड़ता है। गाली-गलोच, मारपीट आदि आम बात है। जाति, क्षेत्र, धर्म आधारित भेदभाव का बड़े स्तर पर सामना करना पड़ता है। घरेलू स्त्री मज़दूरों को शारीरिक शोषण का सामना भी करना पड़ता है। चोरी-डकैती के मामले में सबसे पहले शक इन मज़दूरों पर ही किया जाता है और उन्हें मालिकों और पुलिस द्वारा प्रताड़ित किया जाता है।

कम्पनी की लापरवाही से मज़दूर की मौत, सीटू नेताओं ने यहाँ भी की दलाली

बजाज संस लि. में रोज़ाना मज़दूरों के साथ हादसे होते हैं, ख़ासकर पावर प्रेस विभाग में। लेकिन सीटू नेता कभी इसके खि़लाफ़ आवाज़ नहीं उठाते। सीटू नेताओं ने मज़दूरों को पहले यह भी नहीं बताया था कि कुशलता के हिसाब से न्यूनतम वेतन का क्या क़ानूनी अधिकार है और मज़दूरों का कितना-कितना न्यूनतम वेतन बनता है। इन माँगों पर जब ‘बिगुल’ ने मज़दूरों को जगाया और मज़दूरों ने न्यूनतम वेतन और अन्य माँगों के लिए सीटू से अलग होकर संघर्ष शुरू किया तो सीटू नेताओं ने अपना आधार बचाने के लिए मैनेजमेण्ट को कहकर न्यूनतम वेतन लागू करवाया। मैनेजमेण्ट को भी डर था कि अगर मज़दूर जूझारू संघर्ष की राह चल पड़े और सीटू का आधार ख़त्म हो गया तो बहुत गम्भीर स्थिति हो जायेगी। इस तरह सीटू और मैनेजमेण्ट की मिलीभगत का बजाज संस लि. में लम्बा इतिहास है। जीतू की मौत के मामले में भी सीटू नेता दलाली खाने से बाज नहीं आये। बहुत से मज़दूर कहते हैं कि नहीं सोचा था कि सीटू नेता कम्पनी की दलाली करते-करते इतना नीचे गिर जायेंगे।

क्रान्तिकारी मार्क्सवाद से भयाक्रान्त चीन के नकली कम्युनिस्ट शासक

1976 में चीन में हुई पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के बाद से ही वहाँ के शासक चीन में क्रान्तिकारी मार्क्सवाद और माओ की क्रान्तिकारी विरासत के पुनरुत्‍थान की सम्‍भावना से भयाक्रान्‍त रहे हैं। हाल के वर्षों में एक ओर चीन एक नयी साम्राज्‍यवादी शक्ति के रूप में उभर रहा है, दूसरी ओर चीन में दुनिया का सबसे विशाल औद्योगिक सर्वहारा वर्ग तैयार हुआ है जिसकी राजनीतिक चेतना और जुझारूपन लगातार बढ़ रहे हैं। बढ़ती ग़ैर-बराबरी, शोषण-दमन, ग़रीबी, बेरोज़गारी और अमीरों की कुत्सित ऐयाशियों के रूप में ”बाज़ार समाजवाद” की असलियत जैसे-जैसे लोगों के सामने आती जा रही है, वैसे-वैसे चीन के छात्रों-युवाओं में क्रान्तिकारी मार्क्सवाद को जानने-समझने और उसे मज़दूरों के बीच लेकर जानने के प्रयासों में भी तेज़ी आ रही है। इस बात से चीन के नये शासक ख़ौफ़ज़दा हैं और ऐसी तमाम कोशिशों को कुचल देने पर आमादा हैं।

देश-भर में 8-9 जनवरी को हुई आम हड़ताल से मज़दूरों ने क्या पाया? इस हड़ताल से क्या सबक़ निकलता है?

जहाँ तक केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की बात है तो इनसे पुछा जाये कि एकदिनी हड़ताल करने वाली इन यूनियनों की आका पार्टियाँ संसद विधानसभा में मज़दूर विरोधी क़ानून पारित होते समय क्यों चुप्पी मारकर बैठी रहती हैं? जब पहले से ही लचर श्रम क़ानूनों को और भी कमज़ोर करने के संशोधन संसद में पारित किये जा रहे होते हैं, तब ये ट्रेड यूनियनें और इनकी राजनीतिक पार्टियाँ कुम्भकर्ण की नींद सोये होते हैं। सोचने की बात है कि सीपीआई और सीपीएम जैसे संसदीय वामपन्थियों समेत सभी चुनावी पार्टियाँ संसद और वि‍धानसभाओं में हमेशा मज़दूर विरोधी नीतियाँ बनाती आयी हैं, तो फिर इनसे जुड़ी ट्रेड यूनियनें मज़दूरों के हक़ों के लिए कैसे लड़ सकती हैं?

गाँव के ग़रीबों का हित किसके साथ है?

बात यह है कि किसान भी तरह-तरह के हैं: ऐसे भी किसान हैं, जो ग़रीब और भूखे हैं, और ऐसे भी हैं, जो धनी बनते जाते हैं। फलतः ऐसे धनी किसानों की गिनती बढ़ रही है, जिनका झुकाव ज़मींदारों की ओर है और जो मज़दूरों के विरुद्ध धनियों का पक्ष लेंगे। शहरी मज़दूरों के साथ एकता चाहने वाले गाँव के ग़रीबों को बहुत सावधानी से इस बात पर विचार करना और उसकी छानबीन करनी चाहिए कि इस तरह से धनी किसान कितने हैं, वे कितने मज़बूत हैं और उनकी ताक़त से लड़ने के लिए हमें किस तरह के संगठन की ज़रूरत है। अभी हमने किसानों के बुरे सलाहकारों का जि़क्र किया था। इन लोगों को यह कहने का बहुत शौक़ है कि किसानों के पास ऐसा संगठन पहले ही मौजूद है। वह है मिर या ग्राम-समुदाय। वे कहते हैं, ग्राम-समुदाय एक बड़ी ताक़त है। ग्राम-समुदाय बहुत मज़बूती के साथ किसानों को ऐक्यबद्ध करता है; ग्राम-समुदाय के रूप में किसानों का संगठन (अर्थात संघ, यूनियन) विशाल (मतलब कि बहुत बड़ा, असीम) है।

मौजूदा किसान आन्दोलन और इनकी माँगें, क्या इनसे ”किसानी के संकट” और गाँव के ग़रीबों की समस्याओं का हल सम्भव है?

देश के ग़रीब किसानों के हालात वाक़ई बद से बदतर हो रहे हैं। 30 दिसम्बर 2016 को जारी की गयी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (‘एनसीआरबी’) के आँकड़ों के अनुसार साल 2015 में कुल 12,602 किसानों और खेत मज़दूरों ने आत्महत्याएँ की थीं। अपनी जान देने वालों में 7,114 ख़ुदकाश्त किसान, 893 पट्टे पर ज़मीन लेकर खेती करने वाले किसान और 4,595 खेत मज़दूर शामिल थे। 2014 की ‘एनसीआरबी’ की रिपोर्ट के अनुसार 2014 में कुल 12,360 किसानों और खेत मज़दूरों ने जान दी थी। इनमें 4,949 ख़ुदकाश्त किसान, 701 पट्टे पर ज़मीन लेकर खेती करने वाले किसान और 6,710 खेत मज़दूर थे। 2018 के आँकड़े बताते हैं कि मोदी सरकार के चार साल के शासन काल में 50 हज़ार से ज़्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। कहना नहीं होगा कि न केवल किसान बल्कि खेत मज़दूर भी आत्महत्याओं की भेंट चढ़ते हैं। पूँजीवाद में छोटा माल उत्पादक हमेशा संकट में रहता है तथा यही चीज़ किसानी पर भी लागू होती है।

संशोधनवादियों के लिए कार्ल मार्क्स की प्रासंगिकता!

कैडर के स्तर पर बहुत से इमानदार लोग भी कुटिल नेतृत्व द्वारा बहला-फुसला कर चेले मूंड लिए जाते हैं। भारत में फ़ासीवाद के चरित्र और इससे मुक़ाबले की “रणनीति” को लेकर सीपीआई (एम) में येचुरी धड़े और करात धड़े के बीच बहस है किन्तु भाजपा के प्रतिक्रियावादी-दक्षिणपन्थी होने पर तो सभी एकमत हैं ही तो फ़िर क्या कारण है कि “चीनी समाजवादी लोकगणराज्य” का राष्ट्रपति मोदी के साथ गलबहियाँ करता नज़र आ रहा है?! भारत में करोड़ों-अरबों के चीनी निवेश पर इनकी क्या राय है? संशोधनवादियों की ये फ़ितरत होती है कि वे नाम तो मार्क्स का लेते हैं किन्तु सत्तासीन होने के बाद नीतियाँ पूँजीवाद की ही आगे बढ़ाते हैं। भारत की तथाकथित वामपन्थी पार्टियाँ भी नेहरू के समय खड़े किये गये पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद के लिए आँसू तो खूब बहाती हैं किन्तु जब सत्ता में भागीदारी की बात आती है तो उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों की शुरुआत करने वाली और लम्बे समय तक इन नीतियों की सबसे बड़ी पक्षपोषक रहने वाली पार्टी कांग्रेस के साथ गलबहियाँ कर लेते हैं।

हरियाणा में नगर परिषद, नगर निगम, नगर पालिका के कर्मचारियों की हड़ताल समाप्त

हड़ताल का नेतृत्व नगरपालिका कर्मचारी संघ, हरियाणा ने किया था जोकि जोकि सर्व कर्मचारी संघ, हरियाणा से सम्बन्ध रखता है। 16 दिन की हड़ताल का कुल परिणाम यह निकला की कर्मचारियों की तनख्वाह 11,700 से बढ़ाकर 13,500 कर दी गयी है। पक्का करने की माँग, ठेका प्रथा ख़त्म करने की माँग और समान काम का समान वेतन देनें की माँग पर सरकार ने वही पुराना कमेटी बैठने का झुनझुना कर्मचारी नेताओं को थमा दिया जिसे लेकर वे अपने-अपने घर आ गये। इस चीज़ में कोई दोराय नहीं है कि फ़िलहाली तौर पर मिल रहे संघर्षों के हासिल को अपने पास रख लिया जाये और आगे के संघर्षों की तैयारी की जाये। किन्तु फ़िलहाल और लम्बे समय से देश सहित हरियाणा प्रदेश में भी मज़दूर-कर्मचारी आन्दोलनों में अर्थवाद पूरी तरह से हावी है।