Category Archives: मज़दूर आन्दोलन की समस्‍याएँ

ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूरों के बीच माँगपत्रक आन्दोलन की शुरुआत

देश के विकास का बखान करते वक़्त सबसे पहले ऑटोमोबाइल पट्टी की बात आती है और हो भी क्यों न? देश के सकल घरेलू उत्पाद का क़रीब 7.1 फ़ीसदी हिस्सा ऑटोमोबाइल सेक्टर से ही आता है। ऑटोमोबाइल सेक्टर के उत्पादन का आधा से अधिक हिस्सा गुडगाँव-मानेसर-धारुहेड़ा–बावल से लेकर भिवाड़ी-ख़ुशखेड़ा-नीमराना में फैली औद्योगिक पट्टी से आता है। यह पट्टी देशी-विदेशी पूँजी के लिए अकूत मुनाफ़़ा लूटने का चारागाह है। किन्तु, यहाँ पर काम कर रहे मज़दूरों का जीवन नर्क से बदतर है। यहाँ हज़ारों कारख़ाना इकाइयों में काम कर रहे लाखों मज़दूर प्रतिदिन 10-12 घण्टा कमरतोड़ मेहनत करने के बावजूद बमुश्किल किसी तरह 8-10 हज़ार रुपये  प्रतिमाह कमा पाते हैं। काम के हालात इस तरह हैं कि मज़दूरों को एक मिनट के अन्दर 13 प्रक्रियाओं से गुज़रना होता है।

त्रिपुरा चुनाव : चेत जाइए, जुझारू बनिए, नहीं तो बिला जायेंगे!

लेकिन संसदीय वामपंथी और उदारवादी लोग शायद अब भी इस मुग़ालते में जी रहे हैं कि सूफि़याना कलाम सुनाकर, गंगा-जमनी तहजीब की दुहाई देकर, मोमबत्ती जुलूस निकालकर, ज्ञापन-प्रतिवेदन देकर, क़ानून और “पवित्र” संविधान की दुहाई देकर, तराजू के “सेक्युलर” पलड़े और फ़ासिस्ट पलड़े के बीच कूदते रहने वाले छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों और नरम केसरिया लाइन वाली कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाकर और चुनाव जीतकर फ़ासिस्टों के क़हर से निजात पा लेंगे। ये लोग भला कब चेतेंगे?

त्रिपुरा विधानसभा चुनाव के नतीजे और संसदीय वाम का संकट

त्रिपुरा में वाम मोर्चे की सरकार और माणिक सरकार के बारे में बुर्जुआ मीडिया में जो ख़बरें आती थीं और सोशल मीडिया पर बीस साल से बिना किसी गम्भीर चुनौती के साफ़-सुथरी सरकार चला रहे माणिक सरकार के बारे में वामपन्थी लोग जो कुछ लिखते रहते थे, उसमें त्रिपुरा की ज़मीनी हकीक़त न के बराबर होती थी। इसीलिए वाम मोर्चे की इस क़दर बुरी पराजय से लोगों को काफ़ी सदमा लगा। त्रिपुरी समाज के अन्तर्विरोधों की ज़मीनी सच्चाइयों को जाने बिना वर्तमान चुनाव-परिणामों को ठीक से नहीं समझा जा सकता, पर उनकी चर्चा से पहले कुछ और ग़ौरतलब तथ्यों को हम सूत्रवत गिना देना चाहते हैं।

महाराष्ट्र में किसानों और आदिवासियों का ‘लाँग मार्च’ : आन्दोलन के मुद्दे, नतीजे और सबक़

पिछले दिनों महाराष्ट्र में किसानों और आदिवासियों का बड़ा आन्दोलन हुआ हालाँकि इसके प्रचार में व साथ ही नामकरण में आदिवासियों का अलग से नाम नहीं था। उत्तरी महाराष्ट्र के नासिक से हज़ारों लोग 9 मार्च को विधानसभा घेराव के लिए पैदल मार्च करते हुए चलना शुरू हुए, पैदल जत्थे में बच्चे-बूढ़े-महिलाएँ और जवान सभी शामिल थे। मुम्बई पहुँचने तक रास्ते से जत्थे में और लोग भी जुड़ते चले गये। 12 तारीख़ को किसान और आदिवासी मुम्बई के ऐतिहासिक ‘आज़ाद मैदान’ पहुँचे।

हरियाणा में आँगनवाड़ी महिलाकर्मियों का आन्दोलन : सीटू और अन्य संशोधनवादी ट्रेड यूनियनों की इसमें भागीदारी या फिर इस आन्दोलन से गद्दारी?!

12 फ़रवरी से हड़ताल पर बैठी हरियाणा की आँगनवाड़ी महिलाकर्मियों की माँग थी कि उनका मानदेय बढ़ाया जाये और उन्हें कर्मचारी का दर्ज़ा दिया जाये। समेकित बाल विकास विभाग और आँगनवाड़ी की देशभर में खस्ता हालत से शायद ही कोई अनजान होगा। हरियाणा की आँगनवाड़ी भी अव्यवस्था से अछूती नहीं है। आँगनवाड़ियों में खाने की गुणवत्ता का निम्न स्तर, राशन की आपूर्ति में देरी के साथ-साथ तमाम समस्याएँ सरकार की नीतियों पर सवाल खड़े करती हैं। आँगनवाड़ी महिलाकर्मियों पर काम का दबाव निश्चय ही योजना को प्रभावित करता है।

बजट और आर्थिक सर्वेक्षण : झूठ का एक और पुलिन्दा

सबके लिए स्वास्थ्य की व्यवस्था के बजाय 10 करोड़ ग़रीब परिवारों के लिए घोषित की गयी बीमा योजना का फ़ायदा कृषि बीमा की तरह बीमा कम्पनियों को ही होगा। स्वास्थ्य बीमा योजना स्वास्थ्य सेवाओं के पूर्ण निजीकरण का ऐलान ही है, जिसका फ़ायदा निजी सामान्य बीमा कम्पनियों और मुनाफ़े के लिए मरीज के साथ कुछ भी करने को तैयार फ़ोर्टिस, अपोलो, जैसे निजी कॉर्पोरेट अस्पतालों को ही होगा। कृषि बीमा के नाम पर ऐसा पहले ही हो चुका है जहाँ 22 हज़ार करोड़ रुपये का प्रीमियम जमा हुआ और 8 हज़ार करोड़ के दावे का भुगतान – बीमा कम्पनियों को 14 हज़ार करोड़ रुपये का सीधा लाभ जिसका एक हिस्सा तो बैंकों ने किसानों के खातों से ज़बरदस्ती निकाला और दूसरा आम जनता के टैक्स के पैसे से गया।

छोटे व सीमान्त किसानों को उजाड़ने और कृषि के पूँजीवादी विकास की रफ़्तार तेज़ करने की दिशा में एक और क़दम

अब भारतीय पूँजीवादी राज्य छोटे-सीमान्त किसानों को ज़मीन के मालिकाने को छोड़ पाने के सांस्कृतिक प्रतिरोध को बाईपास करके इस पहले ही धीमी गति से परन्तु निरन्तर जारी प्रक्रिया को तेज़ और औपचारिक बनाने के लिए क़ानूनी प्रावधान कर रहा है। इन क़रारों के अन्तर्गत होने वाली कृषि प्रभावी रूप से व्यवसायी कॉर्पोरेट खेती ही होगी जिसमें इन छोटे ज़मीन मालिकों को ज़मीन का कुछ किराया ही प्राप्त होगा या ख़ुद श्रम शक्ति बेचने पर मज़दूरी भी। लेकिन अधिक पूँजी निवेश और उन्नत यन्त्रों के प्रयोग से श्रम शक्ति की ज़रूरत भी बहुत कम हो जायेगी तथा ये मुख्यतः अन्य उद्योगों में श्रमिक बनने के लिए मुक्त हो जायेंगे।

मौजूदा दौर के किसान आन्दोलनों की प्रमुख माँगें बनाम छोटे किसानों, मज़दूरों और सर्वहारा वर्ग के साझा हित

ऐसे दौर में उजड़ते हुए किसान यानी सीमान्त, छोटे और ग़रीब किसान को बचाने के लिए जो माँगें उठायी जा रही हैं, जो नारे दिये जा रहे हैं, जो योजनाएँ सुझायी जा रही हैं – उनकी पड़ताल अत्यावश्यक है। क्या उक्त माँगें, नारे और योजनाएँ ग़रीब किसानों की सही सच्ची माँगें हो सकती हैं? उजड़ते छोटे किसानों की असल माँगें क्या हों यह सिर्फ़ भावना का सवाल नहीं है बल्कि तर्क का भी सवाल है। समाज परिवर्तन के क्रान्तिकारी आन्दोलन में चूँकि ग़रीब किसान मज़दूर वर्ग का सबसे विश्वस्त साथी है, इसलिए भी सर्वहारा के नज़रिये और वर्ग दृष्टिकोण से कुछ नुक्तों पर साफ़ नज़र होना ज़रूरी है।

वाम गठबंधन की भारी जीत के बाद : नेपाल किस ओर?

बहुत सारे भावुकतावादी कम्युनिस्टों में संशोधनवादी वाम गठबन्धन की भारी जीत से यदि कुछ ज़्यादा ही उम्मीदें पैदा हो गयी हैं तो यह अच्छी बात नहीं है क्योंकि मिथ्या उम्मीद नाउम्मीदी से भी बुरी चीज़ होती है। एक अच्छी बात यह है कि संघर्षों में तपी-मंजी नेपाल की कम्युनिस्ट कतारों का एक अच्छा-खासा हिस्सा इस बात को समझता जा रहा है और आने वाले दिनों में इसे वह और बेहतर तरीके से तथा और तेज़ी से समझेगा।

मौजूदा दौर के किसान आन्दोलन और स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करने का सवाल

लाभकारी मूल्य बढ़ाने की बात की जाती है तो यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि ग़रीब किसानों का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा है जोकि बाज़ार में बेचता कम है, जबकि बाज़ार से ख़रीदता ज़्यादा है। उदाहरण के लिए हमारी तरफ़ का दो एकड़ का एक किसान अपनी ज़रूरतानुसार अनाज रखकर यदि बाज़ार या मण्डी में साल भर में 50 मन यानी 20 क्विण्टल गेहूँ और 10 मन यानी 4 क्विण्टल बाजरा भले ही बेच लेगा, किन्तु उसे साल-भर बाज़ार से चीनी, चाय पत्ती, तम्बाकू, रिफ़ाइण्ड-सरसों तेल, पशुओं के लिए खल-बिनोला, फ़ल-साग़-सब्ज़ी, दाल-चावल, सूती वस्त्र इत्यादि तो ख़रीदने ही पड़ेंगे और बहुत सारे औद्योगिक उत्पाद में भी कच्चे माल के तौर पर कृषि उत्पाद का ही इस्तेमाल होता है। और ध्यान देने योग्य बात यह है कि ख़रीदी जाने वाली वस्तुओं (कृषि उत्पाद) का कुल मूल्य बाज़ार में बेची जाने कृषि उपज से कहीं ज़्यादा ही बैठेगा! फिर यदि फ़सलों के दाम बढ़ेंगे यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ेगा तो सभी फ़सलों का ही बढ़ेगा। ठीक इसीलिए ग़रीब किसान के लिए लाभकारी मूल्य की माँग एक घाटे का सौदा है। जबकि धनी किसान के मामले में स्थिति अलग होगी। यदि इसी इलाक़े का एक 20 एकड़ वाला किसान 400 क्विण्टल गेहूँ और 80 क्विण्टल बाजरा मण्डी में बेचेगा तो उसके लिए स्थिति मुनाफ़े वाली होगी, क्योंकि वह जितनी उपज बाज़ार में बेचता है, उससे बहुत कम ही ख़रीदता है।