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मई दिवस की कहानी

मज़दूरों का त्योहार मई दिवस आठ घण्टे काम के दिन के लिए मज़दूरों के शानदार आन्दोलन से पैदा हुआ। उसके पहले मज़दूर चौदह से लेकर 16-18 घण्टे तक खटते थे। कई देशों में काम के घण्टों का कोई नियम ही नहीं था। “सूरज उगने से लेकर रात होने तक” मज़दूर कारख़ानों में काम करते थे। दुनियाभर में इस माँग को लेकर अलग-अलग आन्दोलन होते रहे थे। भारत में भी 1862 में ही मज़दूरों ने इस माँग पर कामबन्दी की थी। लेकिन पहली बार बड़े पैमाने पर इसकी शुरुआत अमेरिका में हुई।

बिना योजना थोपा गया लॉकडाउन और मज़दूरों के हालात

हमारा देश आज ज्वालामुखी के दहाने पर बैठा धधक रहा है। दूसरी तरफ़ हमारे देश का नीरो बाँसुरी बजा रहा है। कोरोना महामारी से बरपे इस क़हर ने पूँजीवादी स्वास्थ्य व्यवस्था के पोर-पोर को नंगा कर के रख दिया है। एक तरफ़ देश में लोग ऑक्सीजन, बेड, दवाइयों की कमी से मर रहे हैं, दूसरी तरफ़ फ़ासीवादी मोदी सरकार आपदा को अवसर में बदलते हुए पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने में मग्न है। जब कोरोना की पहली लहर के ख़त्म होने के बाद देश भर की स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करना चाहिए था, तब यह निकम्मी सरकार चुनाव लड़ने में व्यस्त थी।

“महाशक्ति” बनते देश में ऑक्सीजन, दवा, बेड की कमी से दम तोड़ते लोग!

कोरोना महामारी की दूसरी लहर भयावह रूप धारण कर चुकी है। इस दौरान विश्वगुरु भारत की चिकित्सा व्यवस्था के हालात भी खुलकर हमारे सामने आ गये हैं। देश में कोविड से होने वाली मौतों का आँकड़ा 2,38,270 पार कर चुका है। हर रोज़ 4.01 लाख से अधिक कोरोना पॉज़िटिव मामले दर्ज किये जा रहे हैं वहीं 4,187 मौतें आये दिन हो रही हैं। असल में संक्रमित लोगों और कोरोना से होने वाली मौतों के आँकड़े इससे कहीं अधिक हैं जिन्हें सरकार व मीडिया द्वारा लगातार दबाया जा रहा है।

पाँच राज्यों में सम्पन्न चुनावों के नतीजे और सर्वहारा वर्गीय नज़रिया

मार्च-अप्रैल 2021 में बंगाल सहित चार राज्यों असम, तमिलनाडु, केरल और पुद्दुचेरी केन्द्रशासित प्रदेश में सम्पन्न विधानसभा चुनावों के परिणाम हाल में सामने आये हैं। पश्चिम बंगाल में सत्ता फिर से तृणमूल कांग्रेस के हाथ में आयी है, जबकि यहाँ भाजपा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। असम में भी एक बार फिर से भाजपा गठबन्धन की सरकार बनने जा रही है। तमिलनाडु में कांग्रेस के साथ मिलकर द्रमुक गठबन्धन चुनाव में विजयी हुआ है और भाजपा के सहयोगी अन्नाद्रमुक गठबन्धन को हार का सामना करना पड़ा है।

इस देशव्यापी जनसंहार के लिए फ़ासिस्ट मोदी सरकार की आपराधिक लापरवाही ज़िम्मेदार है!

कोरोना महामारी की दूसरी लहर पूरे देश में क़हर बरपा कर रही है। बड़ी संख्या में लोग ऑक्सीजन जैसी बुनियादी ज़रूरत के अभाव, अस्पतालों में बेडों की कमी, जीवन रक्षक दवाओं की अनुपलब्धता व अन्य स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव के कारण मौत का शिकार हो रहे हैं। अस्पतालों के बाहर लोग रोते-बिलखते असहायता के साथ अपनों को मरता देख रहे हैं। कोरोना मामलों की प्रतिदिन संख्या इतनी अधिक है कि डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों के कन्धे भी इसके बोझ तले दब गये हैं।

कोरोना और इसके बाद पैदा किये गये हालात का मेहनतकश महिलाओं के जीवन पर असर

संकट के समय में जब संसाधन कम होते हैं और बाकी संस्थान और सेवायें बन्द होती हैं तब महिलाओं को दूरगामी परिणामों के साथ विकट स्थितियों का सामना करना पड़ता है। जो आगे चलकर उनमें कमजोरी, बिमारी और तनाव के रूप में सामने आती है। यही कुछ कोविड-19 के समय में भी हुआ। घर के लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने की जद्दोजहद के बीच अकसर महिलाएं ख़ुद पोषण युक्त खाना नहीं खा पाती थीं और ना ही खुद की सुरक्षा और स्वास्थ्य पर ध्यान दे पाती थीं। और आज ये बात कई रिसर्च में भी सामने आयी है कि न्यूट्रीशन की कमी पुरूषों की अपेक्षा स्त्रीयों में ज्यादा है। एक सर्वे में ये भी बात सामने आयी है कि लगभग 33 प्रतिशत महिलाओं को पूरे लॉकडॉउन के दौरान भरपूर नींद भी नसीब नहीं हुई।

हरियाणा में नौकरियों में स्थानीय लोगों को आरक्षण : मज़दूर वर्ग को बाँटने की साज़ि‍श

हरियाणा में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ने मार्च के पहले सप्ताह में राज्य में निजी क्षेत्र की प्रति माह 50 हज़ार रुपये तक की तनख़्वाह वाली नौकरियों में 75 प्रतिशत स्थानीय लोगों के लिए आरक्षण सम्बन्धी क़ानून पारित करवा लिया। इससे पहले गुजरात, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु व उत्तराखण्ड सहित कई राज्यों में भी इस तरह के क़ानून पारित हो चुके हैं या उनकी क़वायद चल रही है। हाल ही में झारखण्ड में भी यह क़वायद शुरू हो चुकी है।

खेतिहर मज़दूरों की बढ़ती आत्महत्याओं के लिए कौन ज़िम्मेदार है?

2011 की जनगणना के अनुसार देश में खेती में लगे हुए कुल 26.3 करोड़ लोगों में से 45% यानी 11.8 करोड़ किसान थे और शेष लगभग 55% यानी 14.5 करोड़ खेतिहर मज़दूर थे। पिछले 10 वर्षों में यदि किसानों के मज़दूर बनने की दर वही रही हो, जो कि 2000 से 2010 के बीच थी, तो माना जा सकता है कि खेतिहर मज़दूरों की संख्या 15 करोड़ से काफ़ी ऊपर जा चुकी होगी, जबकि किसानों की संख्या 11 करोड़ से और कम रह गयी होगी। मगर ग्रामीण क्षेत्र की सबसे बड़ी आबादी होने के बावजूद खेतिहर मज़दूरों की बदहाली और काम व जीवन के ख़राब हालात की बहुत कम चर्चा होती है।

पहली अप्रैल 2021 – देश के करोड़ों मज़दूरों के लिए एक काला दिन

देश के करोड़ों मज़दूरों के लिए पहली अप्रैल 2021 एक काला दिन है। यह वह तारीख़ है जिस दिन से मोदी सरकार ने मज़दूरों के अधिकारों पर अब तक की सबसे बड़ी चोट करने वाले चार लेबर कोड (श्रम संहिताएँ) लागू कर दिये हैं। मज़दूरों के ‍जुझारू संघर्षों के लम्बे इतिहास की बदौलत हमने जो अधिकार हासिल किये थे, जिन्हें विभिन्न श्रम क़ानूनों के रूप में दर्ज किया गया था, उन्हें एक झट‍के में ख़त्म करके चार लेबर कोड लागू कर दिये गये हैं जिनका एक ही मक़सद है – मज़दूरों को लूटने-खसोटने और जब चाहे रखने, जब चाहे बाहर करने की मालिकों को खुली छूट और मज़दूरों के लिए आवाज़ उठाना और संगठित होना ज़्यादा से ज़्यादा मुश्किल बना देना।

कौन हैं देविन्दर शर्मा और उनका “अर्थशास्त्र” और राजनीति किन वर्गों की सेवा करती है?

कोई भी संजीदा कम्युनिस्ट मौजूदा धनी किसान आन्दोलन की माँगों (मूलत: लाभकारी मूल्य की माँग) का समर्थन नहीं कर सकता है, क्योंकि पिछले कई दशकों के दौरान मार्क्सवादी और ग़ैर-मार्क्सवादी अध्येता यह दिखला चुके हैं कि लाभकारी मूल्य की पूरी व्यवस्था ग़रीब-विरोधी है और शुद्धत: धनी किसानों को राजकीय हस्तक्षेप द्वारा व्यापक मेहनतकश ग़रीब जनता की क़ीमत पर दिया जाने वाला बेशी मुनाफ़ा व लगान है।