Category Archives: Slider

मोदी सरकार के दस साल और राज्यसत्ता का फ़ासीवादीकरण

पुलिस, सेना से लेकर सीबीआई, ईडी, रॉ जैसी संस्थाएँ आज नंगे तौर पर फ़ासीवादियों के हाथों की कठपुतली बनी हुई हैं। बीते साल प्रमुख अमेरिकी अख़बार ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ की एक रिपोर्ट ने यह खुलासा किया कि रॉ के एक उच्च अधिकारी कर्नल दिव्य सतपथी डिसिनफो लैब नामक एक फ़र्ज़ी रिसर्च कम्पनी बनाकर विदेश में रह रहे मोदी सरकार के विरोधियों को अपना निशाना बना रहे थे। रॉ द्वारा संचालित इस कंपनी का कार्यभार था मोदी-शाह हुकूमत के आलोचकों को और ऐसे समूहों को भारत के ख़िलाफ़ एक वैश्विक साज़िश के रूप मे पेश करना और उन्हें फ़र्ज़ी मुक़दमों में जेल भेजने का अधार बनाना।

राम मन्दिर के ज़रिये साम्प्रदायिक लहर पर सवार हो फिर सत्ता पाने की फ़िराक़ में मोदी सरकार

यह कोई धार्मिक नहीं, बल्कि एक राजनीतिक कार्यक्रम है। महँगाई को क़ाबू करने, बेरोज़गारी पर लगाम कसने, भ्रष्टाचार पर रोक लगाने, मज़दूरों-मेहनतकशों को रोज़गार-सुरक्षा, बेहतर काम और जीवन के हालात, बेहतर मज़दूरी, व अन्य श्रम अधिकार मुहैया कराने में बुरी तरह से नाकाम मोदी सरकार वही रणनीति अपना रही है, जो जनता की धार्मिक भावनाओं का शोषण कर उसे बेवकूफ़ बनाने के लिए भारतीय जनता पार्टी और उसका आका संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमेशा से अपनाते रहे हैं। चूँकि मोदी सरकार के पास पिछले 10 वर्षों में जनता के सामने पेश करने को कुछ भी नहीं है, इसलिए वह रामभरोसे सत्ता में पहुँचने का जुगाड़ करने में लगी हुई है। इसके लिए मोदी-शाह की जोड़ी के पास तीन प्रमुख हथियार हैं : पहला, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का देशव्यापी सांगठनिक काडर ढाँचा; दूसरा, भारत के पूँजीपति वर्ग की तरफ़ से अकूत धन-दौलत का समर्थन; और तीसरा, कोठे के दलालों जितनी नैतिकता से भी वंचित हो चुका भारत का गोदी मीडिया, जो खुलेआम साम्प्रदायिक दंगाई का काम कर रहा है और भाजपा व संघ परिवार की गोद में बैठा हुआ है।

भगतसिंह जनअधिकार यात्रा : फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ बुनियादी सवालों पर मेहनतकश जन समुदाय को जगाने और संगठित करने की मुहिम

आज देश की मेहनतकश जनता को इन माँगों पर अपने जुझारू जनान्दोलन खड़े करने होंगे, मौजूदा जनविरोधी सरकार को सबक सिखाना होगा और अपने जुझारू आन्दोलन के बूते यह सुनिश्चित करना होगा कि 2024 में आने वाली कोई भी सरकार हमारी इन माँगों को नज़रन्दाज़ न कर सके। शहीदे-आज़म भगतसिंह ने कहा था कि जो सरकार जनता को उसके बुनियादी अधिकारों से वंचित रखे, उसे उखाड़ फेंकना उसका अधिकार ही नहीं उसका कर्तव्य है। आज शहीदे-आज़म के इस सन्देश पर अमल करने का वक़्त है। आइये, हमारी इस मुहिम में, हमारे इस आन्दोलन में शामिल हों और एक बेहतर भविष्य के लिए संघर्ष का हिस्सा बनें।

कश्मीर के भारतीय औपनिवेशिक क़ब्ज़े पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर

आरएसएस ने पिछले सौ वर्षों में तमाम संस्थानों में अपनी पैठ जमायी है जिसमें न्यायपालिका प्रमुख है। इसने न्यायाधीशों से लेकर तमाम पदों पर अपने लोगों की भर्ती की है जिसके नतीजे के तौर पर आज हमें न्यायपालिका का साम्प्रदायिक चेहरा नज़र आ रहा है। आज संघ ने न्यायपालिका को भी संघ के प्रचार और फ़ासीवादी एजेण्डे को लागू करने का एक औजार बना दिया है। फ़ासीवाद की यह एक चारित्रिक अभिलाक्षणिकता होती है कि वह तमाम सरकारी व गैर सरकारी संस्थानों में अपनी पैठ जमाता है और इनके तहत अपने फ़ासीवादी एजेण्डे को पूरा करता है।

हर मुक्तिकामी, न्यायप्रिय और प्यार से लबरेज़ दिल के अन्दर धड़कता है गाज़ा!

1948 में ब्रिटेन के सहारे ज़ायनवादी इज़रायल ने जिस तरह निहत्थे और बेगुनाह फ़िलिस्तीनियों को बन्दूक की नोक पर उनके घरों और ज़मीन से बेदखल कर दिया था और उनकी 78 प्रतिशत ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया था आज उसकी तुलना इज़रायल द्वारा गाज़ा और वेस्ट बैंक पर हमले से की जा रही है। 1948 में बर्बरता की सारी सीमाओं को पार करते हुए इज़रायल ने आधिकारिक आकलन के अनुसार 15,000 फ़िलिस्तीनियों को मौत के घाट उतार दिया था, हालाँकि वास्तविक संख्या इससे दोगुनी या यहाँ तक कि तीन-गुनी हो सकती है। साथ ही, करीब 7 लाख फ़िलिस्तीनियों को, जो उस समय फ़िलिस्तीन की अरब आबादी का 80 फ़ीसदी थे, उनके घरों से बेदख़ल कर दिया गया और उनके ही देश में और आस-पास के देशों में शरणार्थी बना दिया गया। फ़िलिस्तीनियों के पास उनके देश का मात्र 22 प्रतिशत भू-भाग रह गया जो गाज़ा और वेस्ट बैंक का हिस्सा है। और आज वास्तव में ये दोनों क्षेत्र भी इज़रायल के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष औपनिवेशिक नियन्त्रण या घेरेबन्दी में हैं।

चुनावों के रास्ते फ़ासीवाद की निर्णायक पराजय सम्भव नहीं – क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग ही दे सकता है जनविरोधी फ़ासीवादी सत्ता को निर्णायक शिकस्त

हमें माँग करनी चाहिए कि धर्म का राजनीतिक व सामाजिक जीवन से पूर्ण विलगाव करने वाला एक सख़्त क़ानून बनाया जाना चाहिए जिसके अनुसार कोई भी व्यक्ति यदि सार्वजनिक राजनीतिक जीवन में किसी भी धर्म का ज़िक्र भी करता है, किसी धार्मिक समुदाय के प्रति टीका-टिप्पणी करता है, मन्दिर-मस्जिद का ज़िक्र भी करता है, तो उसे तत्काल गिरफ़्तार करने और राजनीतिक जीवन से उसे प्रतिबन्धित करने का क़ानून लाया जाये। इसमें क्या ग़लत है? इसे अगर सख़्ती से लागू किया जाये तो न तो कोई संघी फ़ासीवादी हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं का सियासत में इस्तेमाल कर पायेगा और न ही कोई ओवैसी राजनीति में मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल और न ही कोई सिख कट्टरपंथी अमृतपाल सिख जनता की धार्मिक भावनाओं का राजनीति में इस्तेमाल कर पायेगा। ऐसा क़ानून जो धर्म को पूर्ण रूप से व्यक्तिगत मसला बना दे, इसमें क्या ग़लत है? औपचारिक क़ानूनी अर्थों में भी देखा जाये तो अगर किसी दल का राजनीतिज्ञ जनता के बीच चुनाव लड़ने ला रहा है, कोई राजनीतिक अभियान चलाने जा रहा है, तो उसका मक़सद तो हर नागरिक के लिए नौकरी, शिक्षा, इलाज, घर आदि के अधिकारों को सुनिश्चित करना है न, चाहे उसका धर्म या जाति कुछ भी हो? तो फिर ऐसा क़ानून बनना ही चाहिए जो धर्म को राजनीति से पूर्ण रूप से अलग कर दे। इसके अभाव की वजह से ही हमारे देश में बेवजह का खून-ख़राबा और सिर-फुटौव्वल खूब होता है और फ़ासीवादी कुकुरमुत्तों को उगने के लिए खाद-पानी मिलता है। ऐसे क़ानून का नारा तो मूलत: 18वीं और 19वीं सदी में पूँजीपति वर्ग ने दिया था लेकिन अपनी अभूतपूर्व पतनशीलता के दौर में वह इस सच्चे क्रान्तिकारी सेक्युलरिज़्म का नारा भूल चुका है और आज उसे पहले से भी अधिक क्रान्तिकारी रूप में व ऊँचे वैज्ञानिक स्तर पर सर्वहारा वर्ग उठा रहा है।

बढ़ती बेरोज़गारी के ताज़ा आँकड़े और उसकी वजह

अक्टूबर 2023 के लिए सीएमआईई के आँकड़े बेरोज़गारी की एक भयावह तस्वीर पेश करते हैं। इतनी ख़राब परिभाषा के आधार पर भी अक्टूबर 2023 में भारत में बेरोज़गारी दर 10.05 प्रतिशत थी। इसमें ग्रामीण बेरोज़गारी दर 10.82 प्रतिशत थी, जबकि शहरी बेरोज़गारी दर 8.44 प्रतिशत थी। ज़ाहिर है, अगर बेरोज़गारी की परिभाषा में पक्की नौकरी के सवाल को जोड़ा जाये तो यह संख्या 40 प्रतिशत के पार जा सकती है। लेकिन अभी हम इसी परिभाषा को लेकर चलें तो भी भारत की करीब 53 करोड़ श्रमशक्ति (काम करने योग्य जनसंख्या) में से करीब 5.4 करोड़ के पास किसी प्रकार का रोज़गार नहीं है, न दिहाड़ी, न ठेके वाला, न कोई अपना छोटा-मोटा धन्धा…यानी कुछ भी नहीं! ज़ाहिर है, इसमें अनौपचारिक क्षेत्र के दिहाड़ी, ठेका व कैजुअल मज़दूरों की एक बड़ी संख्या को जोड़ दें, जिनके पास कोई रोज़गार सुरक्षा नहीं है, तो यह आँकड़ा 30 करोड़ के ऊपर चला जायेगा। लेकिन बेहद कमज़ोर परिभाषा के आधार पर भी देखें, तो बेरोज़गारी दर भयंकर है।

इज़रायली सेटलर उपनिवेशवादी ज़ायनवादी हत्यारों द्वारा फ़िलिस्तीनी जनता के जनसंहार का विरोध करो!

इज़रायल कोई देश नहीं है। जिस देश को आज साम्राज्यवाद इज़रायल के नाम पर प्रचारित करते हैं, वह वास्तव में फ़िलिस्तीन ही है, जिस पर पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने एक सेटलर उपनिवेशवादी चौकी बिठा रखी है। पश्चिमी साम्राज्यवादियों की इस उपनिवेशवादी चौकी का नाम इज़रायल है। इस चौकी को चलाने के लिए 1917 में ही यूरोप के नस्लवादी श्रेष्ठतावादी विचारधारा रखने वाले और यहूदी बुर्जुआ वर्ग व टुटपुँजिया वर्ग से आने वाले प्रतिक्रियावादी ज़ायनवादियों ने ली थी। इनका मकसद था आयरलैण्ड में ब्रिटिश बस्ती व चौकी (जिसे अल्स्टर कहा गया था) की तर्ज़ पर फ़िलिस्तीन में पश्चिमी साम्राज्यवाद की एक बस्ती और चौकी, एक यहूदी अल्स्टर बिठाना। फ़िलिस्तीन को ही इसके लिए क्यों चुना गया? ज़ायनवादियों ने अपने नस्लवादी यहूदी राज्य के लिए पहले लातिन अमेरिका व अफ्रीका के कुछ देशों पर भी विचार किया था। लेकिन 1908 में मध्य-पूर्व में तेल मिला। यह कुछ ही वर्षों के भीतर पश्चिमी साम्राज्यवाद के लिए सबसे रणनीतिक माल बन गया और इसलिए अब ज़ायनवादी आन्दोलन और ब्रिटिश साम्राज्यवाद में एक समझौता हुआ कि यह यहूदी उपनिवेशवादी व नस्ली श्रेष्ठतावादी राज्य फ़िलिस्तीन की जनता को बेदख़ल करके बनाया जाये।

ब्रिक्स और जी-20 शिखर सम्मेलनों में साम्राज्यवाद के बदलते समीकरणों की अनुगूँजें

चाहे यूक्रेन में जारी युद्ध हो या फिर दक्षिण चीन सागर व ताईवान में चीन व अमेरिका के बीच जारी तनाव हो, ये सभी आज के साम्राज्यवादी विश्व में दो साम्राज्यवादी खेमों के बीच जारी होड़ को ही दिखा रहे हैं। आने वाले दिनों में प्रबल सम्भावना इस बात की है कि यह होड़ और अधिक विध्वंसक रूप लेगी। इसी होड़ की अभिव्यक्ति ही हमें ब्रिक्स व जी-20 जैसे मंचों पर जारी कूटनीतिक रस्साकशी के रूप में दिखती है। इसलिए मज़दूर वर्ग को इन सम्मेलनों में शासक वर्गों द्वारा शान्ति व सौहार्द की फ़रेबी बयानबाज़ी के झाँसे में आने की बजाय इन्हें साम्राज्यवाद के अन्तरविरोधों के विकास की प्रक्रिया के रूप में देखना चाहिए। साथ ही हमें आज की ठोस सच्चाईयों को पुराने सूत्रीकरणों में जबरन फ़िट करने की बजाय खुले दिमाग़ से आज की परिस्थितियों को अध्ययन करना होगा। केवल तभी हम इस साम्राज्यवादी दुनिया को क्रान्तिकारी दिशा में बदलने की दिशा में कारगर क़दम उठा सकेंगे।     

गाज़ा पर इज़रायली सेटलर औपनिवेशिक घेरेबन्दी मुर्दाबाद! गाज़ा पर इज़रायली कब्ज़ा मुर्दाबाद! फ़िलिस्तीनी जनता का मुक्ति संघर्ष ज़िन्दाबाद!

कोई भी व्यक्ति जिसमें न्याय, बराबरी और निष्पक्षता की थोड़ी भी भावना है, वह स्वस्थ मन से इज़रायली सेटलर उपनिवेशवादी राज्य का समर्थन नहीं कर सकता! हम सभी जानते हैं कि इस मसले का केवल एक ही समाधान है- फ़िलिस्तीन का एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में स्थापित होना जहाँ मुस्लिम, यहूदी और ईसाई एक साथ रह सकें। हमास का उद्देश्य ऐसे किसी धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करना है या नहीं, यह इज़रायली सेटलर्स द्वारा औपनिवेशिक गु़लामी और नस्लवादी रंगभेद का विरोध करने के फिलिस्तीनियों के अधिकार का आधार नहीं बन सकता है; अपने नेतृत्व का चुनाव करने का अधिकार फिलिस्तीनियों का अपना अधिकार है और सच तो यह है कि हमास इज़रायल के खा़त्मे या यहूदियों के क़त्लेआम की बात नहीं कर रहा, आप ख़ुद इसे देख सकते हैं! वो 1967 के दौर में मौजूद सीमाओं को वापस बहाल करने की माँग कर रहा है, द्वि-राज्य समाधान की बात कर रहा है और नये सेटलर उपनिवेश पर रोक और 100000 गाज़ाई बन्दियों के रिहाई की माँग कर रहा है।