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क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला-8 : मार्क्स के आर्थिक चिन्तन के विकास के प्रमुख चरण

अभी तक हमने पढ़ा कि मूल्य का श्रम सिद्धान्त एडम स्मिथ से शुरू होकर डेविड रिकार्डो से होता हुआ किस प्रकार मार्क्स के वैज्ञानिक मूल्य के श्रम सिद्धान्त तक पहुँचा। हमने देखा कि पूँजीवादी समाज के अध्ययन की शुरुआत केवल माल से ही हो सकती है क्योंकि पूँजीवादी समाज में समृद्धि मालों के एक विशाल समुच्चय के रूप में प्रकट होती है। दूसरे शब्दों में, पूँजीवादी समाज में अधिक से अधिक वस्तुएँ और सेवाएँ माल में तब्दील होती जाती हैं। माल वह वस्तु है जो मानव श्रम से पैदा होता है और उसका उत्पादन विनिमय हेतु होता है। यानी माल का एक उपयोग-मूल्य होता है और एक विनिमय-मूल्य होता है।

भारत-चीन सीमा पर मामूली झड़प और फ़ासीवादी प्रचारतंत्र को मिला अन्धराष्ट्रवादी उन्माद उभारने का मौक़ा

दिसम्बर 9 को तवांग के यांगसे क्षेत्र में भारतीय सेना और चीन की सेना के बीच मुठभेड़ हुई। यह मुठभेड़ बन्दूक़ों या हथियारों से नहीं बल्कि छड़ी, डण्डे और लाठी से हुई। दोनों तरफ़ की सेना के जवानों को मामूली चोटें आयीं लेकिन किसी की मौत नहीं हुई है। अख़बारों में या समाचार चैनलों में यह ख़बर 12 दिसम्बर के बाद आनी शुरू हुई। गोदी मीडिया के चैनलों ने जवानों की इस मुठभेड़ को इस तरह प्रचारित करना शुरू किया मानो सीमा पर कोई भयंकर युद्ध चल रहा है या युद्ध की तैयारी हो रही है! वह 4 से 5 मिनट का वीडियो आप लोगों में से भी कइयों ने देखा होगा और आपको भी लगा होगा कि यह तो बेहद मामूली झड़प है अगर हम इसकी तुलना सीमा पर होने वाली लड़ाइयों से करें।

हज़ारों मज़दूरों के ख़ून की क़ीमत पर मना फ़ुटबाल विश्व कप का जश्न

साल 2010 में क़तर ने अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और जापान जैसे देशों को पछाड़कर 2022 में होने वाले फ़ुटबाल विश्व कप की मेज़बानी हासिल की। 20 नवम्बर से 18 दिसम्बर तक होने वाले 29 दिनों के फ़ुटबाल विश्व कप की तैयारी के लिए क़तर ने पिछले 12 सालों में पानी की तरह पैसा बहाया। इस विश्व कप को अबतक का सबसे महँगा फ़ुटबाल विश्व कप बताया जा रहा है। इन 12 सालों में क़तर ने हर हफ़्ते 400 करोड़ रुपये ख़र्च किये। इसका कुल बजट 17.81 लाख करोड़ तक पहुँच गया है, जो अर्जेण्टीना, न्यूज़ीलैण्ड जैसे 10 देशों के सालाना बजट से भी ज़्यादा है।

समान नागरिक संहिता पर मज़दूर वर्ग का नज़रिया क्या होना चाहिए?

समान नागरिक संहिता (यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड) का मामला एक बार फिर सुर्ख़ियों में है। गत 9 दिसम्बर को भाजपा नेता किरोड़ी लाल मीना ने राज्यसभा में एक प्राइवेट मेम्बर बिल प्रस्तुत किया जिसमें पूरे देश के स्तर पर समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए एक कमेटी बनाने की बात कही गयी है। इससे पहले नवम्बर-दिसम्बर के विधानसभा चुनावों के पहले गुजरात, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड की भाजपा सरकारों ने भी अपने-अपने राज्यों में समान नागरिक संहिता लाने की मंशा ज़ाहिर की थी। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भाजपा जैसी फ़ासिस्ट पार्टी द्वारा समान नागरिक संहिता की वकालत करने के पीछे विभिन्न धर्म की महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिलाने की मंशा नहीं बल्कि उसकी मुस्लिम-विरोधी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीतिक चाल काम कर रही है।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला-7 : मूल्य के श्रम सिद्धान्त का विकास: एडम स्मिथ, डेविड रिकार्डो और मार्क्स – 2 (डेविड रिकार्डो)

अब तक हमने क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्र के पिता एडम स्मिथ के महत्वपूर्ण योगदानों और कमियों को देखा। हमने देखा कि किस प्रकार एक ओर एडम स्मिथ ने मूल्य का श्रम सिद्धान्त दिया और बताया कि हर माल का मूल्य उसमें लगे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष श्रम की मात्रा से तय होता है। दूसरे शब्दों में, हर माल का मूल्य उसमें लगे उत्पादन के साधनों के उत्पादन में ख़र्च हुए श्रम की मात्रा और स्वयं उस माल के उत्पादन में प्रत्यक्ष तौर पर लगे श्रम की मात्रा के योग से तय होता है। इस खोज को एडम स्मिथ के योग्य उत्तराधिकारी डेविड रिकार्डो ने राजनीतिक अर्थशास्त्र के सबसे अहम सिद्धान्तों में गिना। लेकिन एडम स्मिथ अपने इस सिद्धान्त को साधारण माल उत्पादन पर ही सुसंगत रूप में लागू कर सके, यानी माल उत्पादन के उस दौर पर जब अभी उत्पादन के साधनों का स्वामी स्वयं प्रत्यक्ष उत्पादक ही है; यानी, जब तक पूँजीवादी माल उत्पादन का दौर शुरू नहीं हुआ था।

दुनिया की सबसे बड़ी तकलोलॉजी कम्पनियों में भारी छँटनी

जिस समय कोरोना महामारी अपने चरम पर थी, उस समय दुनिया के तमाम देशों में लॉकडाउन की वजह से उत्पादन ठप हो जाने के कारण ज़्यादातर सेक्टरों में कम्पनियों के मुनाफ़े में गिरावट आयी थी। लेकिन उस दौर में चूँकि लोग ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्मों पर पहले से ज़्यादा समय बिताते थे इसलिए कम्प्यूटर व इण्टरनेट की दुनिया से जुड़े कुछ सेक्टरों जैसे आईटी, ई-कॉमर्स, सोशल मीडिया आदि में चन्द इज़ारेदार कम्पनियों के मुनाफ़े में ज़बर्दस्त उछाल देखने में आया था। लेकिन लॉकडाउन हटने के बाद ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्मों पर लोगों की मौजूदगी के समय में कमी आने की वजह से और विश्व पूँजीवाद के आसन्न संकट की आहट सुनकर इन कम्पनियों को भी अपने मुनाफ़े की दर में गिरावट का ख़तरा दिखने लगा है।

दिल्ली एमसीडी चुनाव में मेहनतकश जनता के समक्ष विकल्प क्या है?

4 दिसम्बर को दिल्ली में एमसीडी के चुनाव होने वाले हैं। मतलब यह कि फिर से सभी चुनावबाज़ पार्टियों द्वारा झूठे वादों के पुल बाँधे जायेंगे। चाहे भाजपा हो, कांग्रेस हो या आम आदमी पार्टी, सभी के द्वारा जुमले फेंके जायेंगे। ऐसे में मेहनतकश जनता के पास सिर्फ़ कम बुरा प्रतिनिधि चुनने का ही विकल्प होता है और आज के समय में तो कम बुरा तय करना भी मुश्किल होता जा रहा है। सच्चाई तो यही है कि इन सभी में से कोई भी मज़दूर-मेहनतकश जनता का विकल्प नहीं है।

‘आधुनिक रोम’ में ग़ुलामों की तरह खटते मज़दूर

गुड़गाँव के इफ़्को चौक मेट्रो स्टेशन से गुड़गाँव शहर (या भाजपा द्वारा किये नामकरण के अनुसार गुरुग्राम) को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि आप किसी जादुई नगरी में आ गये हों। आधुनिक स्थापत्यकला (तकनीकी भाषा में कहें तो ‘उत्तरआधुनिक स्थापत्यकला’) के एक से एक नमूनों में शीशे-सी जगमगाती मीनारों की आड़ी-तिरछी आकृतियों से शहर की रंगत अलग ही लगती है। पर इस जगमग शहर की सड़कों पर मज़दूरों को अपने परिवारों के साथ घूमने की इजाज़त नहीं, इस शहर के पार्कों में हम जा नहीं सकते, भले ही सड़कों को चमकाने और पार्कों को सुन्दर बनाने की ज़िम्मेदारी हमारे ऊपर ही आती हो।

‘सीओपी’ से यदि पर्यावरण विनाश रुकना है तब तो विनाश की ही सम्भावना अधिक है!

पिछले महीने मिस्र के शर्म अल-शेख़ शहर में 6 नवम्बर से 20 नवम्बर तक जलवायु संकट पर ‘कॉन्फ़्रेंस ऑफ़ पार्टीज़’ का सत्ताइसवाँ सम्मलेन (सीओपी-27) आयोजित किया गया। एक बार फिर तमाम छोटे-बड़े देशों के प्रतिनिधियों ने अन्तरराष्ट्रीय मंच पर इकट्ठा होकर जलवायु संकट पर घड़ियाली आँसू बहाये, पर्यावरणीय विनाश पर शोक-विलाप किया, पृथ्वी को तबाही से बचाने की अपीलें की। इसके अलावा, जलवायु संकट के लिए कौन-से देश ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं और कौन इसके लिए आर्थिक भरपाई करेगा, इस मुद्दे पर भी लम्बी खींचातानी चली।

ईडब्ल्यूएस आरक्षण : मेहनतकश जनता को बाँटने की शासक वर्ग की एक और साज़िश

भाजपा की मोदी सरकार जनता को बाँटने के एक नये उपकरण के साथ सामने आयी है : ईडब्ल्यूएस आरक्षण। इसका वास्तविक मक़सद जनता के बीच जातिगत पूर्वाग्रहों को हवा देना और सवर्ण मध्यवर्गीय वोटों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करना है। यह आरक्षण की पूरी पूँजीवादी राजनीति में ही एक नया अध्याय है। जातिगत आधार पर मौजूद आरक्षण की पूरी राजनीति का भी देश के पूँजीपति वर्ग ने बहुत ही कुशलता से इस्तेमाल किया है, जबकि निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के हावी होने के साथ आरक्षण के पक्ष या विपक्ष में खड़ी राजनीति का आधार लगातार कमज़ोर होता गया है।