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इराकी जनता को तबाह करने के बाद अब इराक से वापसी का अमेरिकी ड्रामा

यह साम्राज्यवादी अन्धेरगर्दी, लफ्फाज़ी और बेशर्मी की इन्तहाँ है कि अमेरिका का राष्ट्रपति मंच से बोलता है कि इराकी जनता को मुक्त कर दिया गया है और वहाँ लोकतन्त्र की बहाली कर दी गयी है। यह अपना गन्दा और घायल चेहरा छिपाने के लिए दिया गया कथन मालूम पड़ता है। इराकी जनता ने भारी कुर्बानियों के बावजूद साम्राज्यवाद के विरुद्ध एक नायकत्वपूर्ण संघर्ष किया और अमेरिकी सैन्य गुण्डागर्दी के सामने घुटने नहीं टेके। और अन्तत: उन्होंने अमेरिकियों को अपने नापाक इरादे पूरे किये बग़ैर अपने देश से भगाने में सफलता हासिल करनी भी शुरू कर दी है। यह सच है कि इस थोपे गये साम्राज्यवादी युद्ध ने इराक को तबाह करके रख दिया है। इराक आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से बिखरी हुई स्थिति में है और अतीत में कई वर्ष पीछे चला गया है। लेकिन इराकी जनता ने यह साबित कर दिया है कि साम्राज्यवादी शक्ति के समक्ष कोई क्रान्तिकारी विकल्प न होने की सूरत में अगर जनता जीत नहीं सकती तो वह साम्राज्यवादी शक्तियों से हार भी नहीं मानती है। लेकिन साथ में इसका नकारात्मक सबक यह भी है कि आज साम्राज्यवादी हमले और कब्ज़े को उखाड़ फेंकने और उसे हरा देने की ताकत मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शक्तियों के नेतृत्व में ही हो सकता है।

अमेरिका की सूत मिलों में ज़िन्दगी की एक झलक — मदर जोंस

पूँजीवादी व्यवस्था को सिरे से उखाड़कर फेंक दिया जाये, इसके सिवा और कोई रास्ता मुझे दिखायी नहीं देता। जो बाप इस व्यवस्था को बनाये रखने के लिए वोट देता है, वह मेरी नजर में वैसा ही हत्यारा है मानो उसने पिस्तौल लेकर अपने बच्चों को गोली मार दी हो। लेकिन मुझे अपने चारों ओर समाजवाद की नई सुबह फूटने की निशानियाँ दिखायी दे रही हैं, और हर जगह अपने भरोसेमन्द साथियों के साथ मैं उस बेहतर दिन को लाने के लिए काम करूँगी और कामना करूँगी कि वह जल्दी आये।

बोलते आँकड़े चीखती सच्चाइयाँ

  • संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने जी-20 देशों की बैठक में कहा कि मन्दी का असर ग़रीब देशों में कहीं ज़्यादा पड़ता है सिर्फ नौकरी जाने या आमदनी कम होने के तौर पर ही नहीं, बल्कि स्वास्थ्य और शिक्षा सूचकों – जीवन सम्भाव्यता, स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या और पढ़ाई पूरी करने वाले बच्चों की संख्या में यह दिखायी देता है। आर्थिक मन्दी की सबसे ज़्यादा मार झेलने वाले लोगों में ग़रीब देशों की महिलाएँ, बच्चे और ग़रीब होते हैं। हाल में मन्दी के दौरान के आँकड़े बताते हैं कि स्कूली पढ़ाई छुड़वाने वाले बच्चों में लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या बहुत ज़्यादा थी।
  • मन्दी के नतीजे में चीज़ें महँगी होती हैं, ग़रीबी बढ़ती है और ग़रीबी बढ़ना अपने आप मृत्यु दर बढ़ने में बदल जाता है। जैसेकि सकल घरेलू उत्पाद में 3 प्रतिशत की कमी को प्रति 1000 शिशुओं के जन्म पर 47 से 120 और ज़्यादा मृत्यु दर से जोड़ा जा सकता है। विकासशील देशों में उस देश के अमीर बच्चों की तुलना में ग़रीब बच्चों के मरने की सम्भावना चार गुना बढ़ गयी है और लड़कों की तुलना में लड़कियों की शिशु मृत्युदर पाँच गुना बढ़ गयी है।
  • यह संकट ग़रीब देशों में कई लोगों के लिए जीवन और मौत का सवाल है और आर्थिक विकास, स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या और मृत्यु दर के पुराने स्तर पर पहुँचने में कई साल लग सकते हैं। अनुमान के मुताबिक 2010 में आर्थिक स्थिति बहाल होने तक मानव विकास को पहुँची चोट गम्भीर होगी और सामाजिक बहाली में कई साल लगेंगे। पुराने संकट का इतिहास बताता है कि इसके दुष्प्रभाव 2020 तक पड़ते रहेंगे।
  • विश्वव्यापी मन्दी पूँजीवाद की लाइलाज बीमारी का एक लक्षण है!

    वर्तमान विश्वव्यापी मन्दी और आर्थिक तबाही के बारे में, एकदम सरल और सीधे-सादे ढंग से यदि पूरी बात को समझने की कोशिश की जाये, तो यह कहा जा सकता है कि अन्तहीन मुनाफ़े की अन्धी हवस में बेतहाशा भागती बेलगाम वित्तीय पूँजी अन्ततः बन्द गली की आखि़री दीवार से जा टकरायी है। एकबारगी सब कुछ बिखर गया है। पूँजीवादी वित्त और उत्पादन की दुनिया में अराजकता फैल गयी है। कोई इस विश्वव्यापी मन्दी को “वित्तीय सुनामी” कह रहा है तो कोई “वित्तीय पर्ल हार्बर”, और कोई इसकी तुलना वर्ल्ड ट्रेड टॉवर के ध्वंस से कर रहा है। दरअसल वित्तीय पूँजी का आन्तरिक तर्क काम ही इस प्रकार करता है कि निरुपाय संकट के मुक़ाम पर पहुँचकर वह आत्मघाती आतंकवादी के समान व्यवहार करते हुए विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की पूरी अट्टालिका में काफ़ी हद तक या पूरी तरह से ध्वंस करने वाला विस्फोट कर देती है।

    बोलते आँकड़े चीखती सच्चाइयाँ

  • मंदी की शुरुआत से अब तक अमेरिका में 40 लाख नौकरियाँ जा चुकी हैं। सिर्फ पिछले तीन महीनों में 18 लाख लोगों की नौकरी चली गयी है। इसी दर से अगले दो साल में एक करोड़ 40 लाख रोजगार खत्म होने का अन्देशा ज़ाहिर किया जा रहा है।
  • अमेरिका में इस समय एक करोड़ 16 लाख बेरोजगार और 78 लाख अर्द्धबेरोजगार हैं।
  • जापान में बेरोजगारी में पिछले 41 वर्ष में सबसे तेज बढ़ोत्तरी हुई है। मार्च तक कम से कम 4 लाख अस्थायी मज़दूर निकाल दिये जायेंगे। इनमें से बहुत से तो बेघर हो जायेंगे क्योंकि वे फैक्ट्री की डॉरमिट्री में ही रहते थे।
  • चीन के 13 करोड़ प्रवासी मजदूरों में से 2 करोड़ बेरोजगार हो चुके है।
  • यूरोपीय संघ के 27 देशों में बेरोजगारी की दर 8.7 प्रतिशत हो चुकी है। फ्रांस में यह दर 10.6 प्रतिशत है जबकि स्पेन में बेरोजगारी की दर 14.4 प्रतिशत तक पहुँच चुकी है।
  • अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन की हाल की रिपोर्ट के अनुसार इस वर्ष के अन्त तक दुनिया भर में 5 करोड़ से ज्यादा रोजगार छिन जायेंगे।
  • जंगल की आग की तरह फैलती विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी करोड़ों मेहनतकशों के रोज़गार निगल चुकी है

    हर पूँजीवादी संकट का सबसे सीधा असर छँटनी और बेरोजगारी बढ़ने के रूप में सामने आता है। वैसे तो पूँजीवादी व्यवस्था में हमेशा ही बेरोजगारों की एक स्थायी ‘‘रिजर्व आर्मी’’ बनाये रखी जाती है ताकि पूँजीपति अपनी मर्जी से मजदूरी की दर तय कर सकें। लेकिन आर्थिक संकटों के दौर में यह सिलसिला और तेज हो जाता है। अपना मुनाफा बचाने के लिए पूँजीपति बेमुरौव्वती से मजदूरों की छँटनी कर देते हैं और बचे हुए मजदूरों को बुरी तरह निचोड़ते हैं। ऐसी स्थिति में जो आबादी बेरोजगारी से बची रह जायेगी उसे भी पहले से ज्यादा लूटा-खसोटा जायेगा, मजदूरों के रहे-सहे अधिकार भी छीन लिये जायेंगे। भारत और चीन जैसे देशों में तो पहले से ही तीन चौथाई से अधिक कामगार अस्थायी, ठेके या दिहाड़ी पर काम करते हैं जिन्हें किसी तरह की रोजगार सुरक्षा या बीमा, स्वास्थ्य सहायता जैसी न्यूनतम सुविधाएँ जो दूर, सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है। बढ़ती मन्दी के दौर में इस भारी मेहनतकश की ही पीठ पर सबसे अधिक कोड़े बरसाये जायेंगे। निम्न मध्यवर्ग की भारी आबादी पर भी मन्दी का भारी असर होगा। पिछले कुछ वर्षों में इस वर्ग के एक हिस्से को सेवा क्षेत्र में, सेल्स आदि में, निजी कम्पनियों के दफ़्तरों में जो छोटी-मोटी नौकरियां मिल जा रही थीं, उनमें तेजी से कमी आयेगी।

    सद्दाम को फाँसी : बर्बरों का न्याय

    सद्दाम हुसैन निश्‍चय ही एक पूँजीवादी शासक था और कुर्दों और शियाओं पर अस्सी और नब्बे के दशक में उसकी सत्ता ने जु़ल्म भी किये थे । पर उसके विरुद्ध संघर्ष इराकी जनता का काम था । अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने मात्र इन अन्तरविरोधों का लाभ उठाया और इस बहाने इराक की तेल सम्पदा पर कब्जा जमाने की कोशिश की । सद्दाम को “सजा” अपनी जनता पर दमन की नहीं, बल्कि इस बात की मिली कि उसने अमेरिकी साम्राज्यवादी वर्चस्व के मंसूबों को चुनौती दी ।