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उत्तरी कोरिया के मिसाइल परीक्षण और तीखी होती अन्तर-साम्राज्यवादी कलह

कोरिया का पिछली एक सदी का इतिहास और इसका वर्तमान इस बात की गवाही भरता है कि कैसे अमेरिका छोटे देशों को अपने सैन्य अड्डे बनाकर विरोधियों को घेरने के लिए इस्तेमाल करता है और उनकी आर्थिक लूट करता है। जो देश इसकी इस “परियोजना” में शामिल नहीं होता, उसे “शैतान देश” घोषित करके अलग-थलग करना, व्यापारिक पाबन्दियाँ लगाकर ग़रीबी में धकेलना इसका मुख्य हथियार है। और अगर कोई यह भी झेल जाता है तो सीधा फ़ौजी हमला। सीरिया, इराक़, लीबिया, अफ़ग़ानिस्तान… साम्राज्यवादी चालों का शिकार बनने वालों की फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी है।

विश्व स्तर पर सुरक्षा ख़र्च और हथियारों के व्यापार में हैरतअंगेज़ बढ़ोत्तरी

अमेरिका “शान्ति” का दूत बनकर कभी इराक़ के परमाणु हथियारों से विश्व के ख़तरे की बात करता है और कभी सीरिया से, कभी इज़राइल द्वारा फि़लिस्तीन पर हमले करवाता है, कभी अलक़ायदा, फि़दाइन आदि की हिमायत करता है कभी विरोध, विश्व स्तर पर आतंकवाद का हौवा खड़ा करके छोटे-छोटे युद्धों को अंजाम देता है, ड्रोन हमलों के साथ पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, यमन, लीबिया, इराक़, सुमालिया आदि मुल्क़ों में मासूमों का क़त्ल करता है और किसी को भी मार कर आतंकवादी कहकर बात ख़त्म कर देता है। दो मुल्क़ों में आपसी टकरावों या किसी देश के अन्दरूनी टकरावों का फ़ायदा अपने हथियार बेचने के लिए उठाता है जैसे — र्इरान और इराक़, इज़राइल और फि़लिस्तीन, भारत और पाकिस्तान, उत्तरी और दक्षिणी कोरिया के झगड़े आदि। इसके बिना देशों के अन्दरूनी निजी झगड़ों जैसे – मिस्त्र, यूक्रेन, सीरीया आदि से भी फ़ायदा उठाता है। ये सारी करतूतें अमेरिका अपने हथियार बेचने के लिए अंजाम देता है।

अमेरिका है दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी!

अमेरिकी साम्राज्यवादी पूरी दुनिया के पैमाने पर आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का दावा करते हैं। सच्चाई यह है कि स्वयं अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी देश है। आज जिन इस्लामी कट्टरपन्थियों से लड़ने के नाम पर इराक़, अफगानिस्तान और दुनिया के कई देशों में अमेरिका बमबारी, नरसंहार और सैनिक कब्ज़ों, का सिलसिला जारी रखे हुए है, वे उसी के पैदा हुए भस्मासुर हैं। अमेरिका आतंकवाद के नाम पर दुनिया की जनता के विरुद्ध युद्ध छेड़े हुए है। वह अपने साम्राज्यवादी वर्चस्व के लिए युद्ध और आतंक का क़हर बरपा कर रहा है। अमेरिकी सत्ताधारियों के चुनिन्दा ऐतिहासिक अपराधों की एक सूची इस लेख में दी जा रही है।

अमरीका, यूरोप और पूरी दुनिया में पैदा हुए नस्लीय, फासीवादी उभार का कारण

अगर वे अपने मूल देश में संघ-भाजपा या किसी अन्य शेड या रंग के (मसलन इस्लामिक चरमपन्थ या अन्य कि़स्म के चरमपन्थ) पार्टी के फासीवाद के पक्ष में खड़े होंगे तो विदेश में उनकी कुटाई और हत्या उसकी तार्किक परिणति होगी। इसलिए उनको तमाम कि़स्म के देशी-विदेशी रंगभेद, नस्लीय उत्पीड़न, जातीय उत्पीड़न या कह लें कि पूँजीवादी शोषण और दमन के तमाम अलग-अलग रूपों का सबके साथ मिलजुलकर विरोध करना होगा वो चाहे उनके अपने मूल देश में हो या उस देश में जहाँ वे रह रहे हैं।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की नीतियाँ और जनता का प्रतिरोध

इन नीतियों की घोषणा दर्शाती है कि अमेरिकी जनता के लिए आने वाले दिन आसान नहीं होने जा रहे हैं। यह बात ट्रम्प पर भी लागू होती है। 45 प्रतिशत अमेरिकी जनता जिसका मोहभंग इस व्यवस्था से है और बाक़ी बची जनता इन नीतियों का समर्थन पूर्ण रूप से करेगी, ऐसा लगता नहीं है। इतनी घोर ग़ैरजनवादी, मुसलमान विरोधी, नस्लविरोधी और आप्रवासन विरोधी नीतियों को समर्थन मिलने की जो उम्मीद ट्रम्प को है, वैसा होने नहीं जा रहा है और यह अमेरिका की सड़कों पर दिख भी रहा है।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की जीत का मतलब क्या है?

जनता को अगर भविष्य का विकल्प नहीं मिलेगा तो वह उसे अतीत में तलाशेगी और ट्रम्प ने इसी का इस्तेमाल किया। उसने “महान” अमेरिकी राष्ट्र के पुराने दिनों को वापस लाने का नारा दिया। उसने बेरोज़गारी से तंगहाल जनता को यह समझाया कि उसकी इस हालात के ज़िम्मेदार वे प्रवासी हैं जो मेक्सिको और एशिया-अफ्रीका के देशों से आकर उनकी नौकरियाँ खा जाते हैं। इसलिए वह इन प्रवासियों को देश से बाहर कर देगा और उनके आने पर रोक लगा देगा। उसने कहा कि हमारी कम्पनियाँ और पूँजीवादी घराने इसलिए मुनाफ़ा नहीं कमा पाते क्योंकि पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर उन्हें ज़्यादा खर्च करना पड़ता है। इसलिए पर्यावरण सुरक्षा के नियमों को किनारे लगाकर, वह कोयला जैसे उन ऊर्जा स्रोतों का और दोहन करेगा जो बहुत ज़्यादा प्रदूषण करते हैं। पूँजीपतियों को ज्यादा मुनाफ़ा मतलब जनता की बेहतरी!

फ़ासिस्ट ट्रम्प की जीत ने उतारा साम्राज्यवाद के चौधरी के मुँह से उदारवादी मुखौटा

डोनाल्ड ट्रम्प जैसे धुर दक्षिणपंथी और फ़ासिस्ट प्रवृत्ति के व्यक्ति के विश्व-पूँजीवाद की चोटी पर विराजमान होने से निश्‍चय ही अमेरिका ही नहीं बल्कि दुनिया भर के मज़दूरों की मुश्किलें और चुनौतियाँ आने वाले दिनों में बढ़ने वाली हैं। मज़दूर वर्ग को नस्लीय और धार्मिक आधार पर बाँटने की साज़‍िशें आने वाले दिनों में और परवान चढ़ने वाली हैं। लेकिन ट्रम्प की इस जीत से मज़दूर वर्ग को यह भी संकेत साफ़ मिलता है कि आज के दौर में बुर्जुआ लोकतंत्र से कोई उम्मीद करना अपने आपको झाँसा देना है। बुर्जुआ लोकतंत्र के दायरे के भीतर अपनी चेतना को क़ैद करने का नतीजा मोदी और ट्रम्प जैसे दानवों के रूप में ही सामने आयेगा। आज दुनिया के विभिन्न हिस्सों में परिस्थितियाँ चिल्ला-चिल्लाकर पूँजीवाद के विकल्प की माँग कर रही हैं। इसलिए वोट के ज़रिये लुटेरों के चेहरों को बदलने की चुनावी नौटंकी पर भरोसा करने की बजाय दुनिया के हर हिस्से में मज़दूर वर्ग को पूँजीवाद को कचरे की पेटी में डालकर उसका विकल्प खड़ा करने की अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी को निभाने के लिए आगे आना ही होगा।

अमेरिका : बच्चों में बढ़ती ग़रीबी-दर

अमेरिका के 4 करोड़ 65 लाख बच्चे भोजन की अपनी ज़रूरतों के लिए अमेरिकी सरकार द्वारा चलाए जाने वाले अनाज सहायता योजना, स्नैप (सप्लीमेंट न्यूट्रिशन असिस्टेंस प्रोग्राम) पर निर्भर हैं। इस योजना का ख़र्च सरकार उठाती है, मगर आर्थिंक संकट के चलते अब अमेरिकी सरकार इन फंडों में लगातार कटौती करती जा रही है। 2016 में ही सरकार द्वारा इस राशि में की गयी कटौती से 10 लाख लोग प्रभावित हुए हैं।

दक्षिण चीन सागर की घटनाएँ और साम्राज्यवादी ताक़तों के बीच बढ़ता तनाव

अमेरिका के खिलाफ चीन को रूस में एक स्वाभाविक सहयोगी भी मिल गया है | यह दोनों मुल्क अब यह कोशिश कर रहे हैं कि विश्व में अमेरिका की आर्थिक ताकत के प्रभाव का कोई विकल्प पेश किया जाये | इसीलिए यह अपना खुद का कारोबार भी अमेरिकी डॉलर को छोड़ खुद की मुद्राओं में करने लगे हैं | इनकी अगुवाई में ब्रिक्स का बनना भी अमेरिकी अगुवाई वाले जी-7 जैसे गुटों को एक चुनौती ही थी | वहीं, एशिया में अपनी स्थिति को और मजबूत करने के लिए चीन ने 2014 में ‘एशिया अवसंरचनात्मक निवेश बैंक’ की स्थापना की | चीन के बढ़ते इन क़दमों से अमेरिका के कान खड़े होना स्वाभाविक ही था | वहीं, यह भी परेशानी का एक सबब था कि यूरोप में अमेरिका के अब तक सहयोगी रहे ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी जैसे देश भी, इस आर्थिक संकट के चलते चीन के प्रति नरमी दिखाने लगे थे और उन्होंने भी इस बैंक की सदस्य्ता लेने का ऐलान कर दिया | संकट में बुरी तरह फंसे इन देशों की कंपनियों के लिए चीन एक बड़ी मंडी है और चीन खुद भी यूरोप में एक बड़ा निवेशक है | सो यह स्वाभाविक ही था कि यह देश चीन के प्रति नरमी दिखाते | चीन के राष्ट्रपति ज़ाई जिनपिंग के पिछले महीने इंग्लैण्ड दौरे के दौरान उनका जमकर स्वागत हुआ और इंग्लैण्ड और चीन के दरमियान बड़े समझौतों पर दस्तखत हुए। उसके तुरंत बाद जर्मनी और फ़्रांस के राजनेताओं ने भी अपने-अपने देश के पूँजीपतियों के बड़े काफिलों सहत चीन का दौरा किया और चीन-यूरोप के बढ़ते संबंधों को और पक्का किया |

अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा का अखाड़ा बना सीरिया

2016 में डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्‍ट्रपति पद की प्रमुख उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन और रिपब्लिकन पार्टी के ज़्यादातर नेता सीरिया के ऊपर “उड़ान प्रतिबंधित क्षेत्र” बनाने की तजवीज कर रहे हैं। लेकिन अमेरिकी सरकार के ज़्यादा सूझबूझ वाले राजनीतिज्ञ समझते हैं कि ऐसा करना ख़ुद अमेरिका के लिए घातक होगा क्योंकि “उड़ान प्रतिबंधित क्षेत्र” बनाने का मतलब होगा उन रूसी जहाज़ों को भी निशाना बनाना जो इस समय सीरिया में तैनात हैं, यानी रूस के साथ सीधे युद्ध में उलझना। लेकिन इस समय अमेरिका यह नहीं चाहता। फ़िलहाल वह सीरिया के तथाकथित ‘सेकुलर’ बागियों को मदद पहुँचाने तक ही सीमित रहना चाहता है। आर्थिक संकट की वजह से अमेरिका की राजनीतिक ताकत पर भी असर पड़ा है। इसलिए भी वह रूस के साथ सीधी टक्कर फ़िलहाल नहीं चाहता। अमेरिका की गिरती राजनीतिक ताकत का प्रत्यक्ष संकेत सयुंक्त राष्ट्र संघ की महासभा में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का भाषण था। ओबामा ने अपने पहले भाषण में रूस की ओर से आई.एस.आई.एस के अलावा तथाकथित “सेकुलर” बागियों को भी मारने के लिए उसकी ज़ोरदार निंदा की। पुतिन ने भी जब अपनी बारी में सीरिया मामले पर अमेरिका की नीति की आलोचना की तो ओबामा ने अपने दूसरे भाषण में रुख बदलते हुए रूस के साथ बातचीत के लिए तैयार होने की बात कही। ओबामा ने कहा कि सीरिया के साथ किसी भी समझौते की शर्त राष्‍ट्रपति बशर अल-असद का अपने पद से हटना है लेकिन वह तब तक राष्‍ट्रपति बना रह सकता है जब तक कि इस मसले का कोई समाधान नहीं निकल आता। साथ ही ओबामा ने यह भी कहा कि नयी बनने वाली सरकार में मौजूदा बाथ पार्टी के नुमाइंदे भी शामिल हो सकते हैं। सीरिया से किसी भी तरह का समझौता नहीं करने की पोजीशन से लेकर अब उसके नुमाइंदों को नयी सरकार में मौका देने की बात करना साफ़ तौर पर अमेरिका की गिरती साख को दर्शा रहा है।