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शुचिता और संस्कारों के भाजपाई ठेकेदार हमेशा ख़ुद अमानवीय-अनैतिक धन्धों और घृणित अपराधों में लिप्त क्यों पाये जाते हैं?

संघ परिवार और भाजपा से जुड़े लोग अक्सर ही देश में प्राचीन संस्कृति, संस्कारों, शुचिता, देशभक्ति और राष्ट्रवाद की दुहाई देते नज़र आ जाते हैं। बहुत सारे लोग तब ताज्जुब में पड़ जाते हैं जब संघियों-भाजपाइयों को स्त्री उत्पीड़न, बलात्कार, घरेलू कामगारों को यातना देने, बच्चों की तस्करी, बन्धक बनाना, यौन शोषण और हत्या तक के तरह-तरह के अवैध-अनैतिक धन्धों में शामिल पाते हैं। वैसे तो तमाम दलों और संगठनों में नाना प्रकार के लोग पाये जा सकते हैं लेकिन भाजपा और संघ परिवार में अक्सर ही घिनौनेपन की पराकाष्ठा देखने को मिलती है।

जनता का जीवन रसातल में तो चुनावबाज़ पार्टियों की सम्पत्तियाँ शिखरों पर क्यों?

हाल ही में एडीआर (असोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स) नामक संस्था ने विभिन्न पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियों की सम्पत्तियों और उनकी देनदारियों का विवरण पेश किया है। चुनावी चन्दा लेने में सबसे आगे रहने वाली भाजपा सम्पत्ति के मामले में भी सबसे आगे है। भाजपा की कुल घोषित सम्पत्ति सात पार्टियों की कुल घोषित सम्पत्ति का क़रीब 70 प्रतिशत है। एडीआर ने अपनी रिपोर्ट में सात राष्ट्रीय बुर्जुआ पार्टियों और 44 क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियों की सम्पत्तियों की जानकारी दी है।

ओबीसी आरक्षण बिल, जाति आधारित जनगणना और आरक्षण पर अस्मितावादी राजनीति के निहितार्थ

जातीय जनगणना के मुद्दे पर एक बार फिर से सियासत तेज़ होती दिखायी दे रही है। विभिन्न अस्मितावादी जातिवादी पार्टियाँ अपना जातीय समर्थन और जनाधार क़ायम रखने के लिए रस्साकशी हेतु आ जुटी हैं। राजग की सहयोगी पार्टी जद(यू) के नीतीश कुमार भाजपा की तरफ़ आँखें निकाल रहे हैं तो दूसरी ओर अपने राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी राजद के लालूप्रसाद यादव के लाल तेजस्वी यादव तथा अन्य दलों को साथ लेकर इस मसले पर प्रधानमंत्री मोदी से मुलाक़ात भी कर रहे हैं।

पंजाब के खेत मज़दूरों के बदतर हालात का ज़िम्मेदार कौन?

पंजाब का नाम आते ही हरेक के मन में एक ख़ुशहाल प्रदेश की छवि ही आती होगी। आये भी क्यों नहीं? यह राज्य हरित क्रान्ति की प्रयोगशाला बना और इसने खाद्यान्न उत्पादन के नये-नये कीर्तिमान स्थापित किये। लेकिन इस ख़ुशहाल छवि के पीछे एक चीज़ को हमसे छिपा दिया जाता है। वह चीज़ है इस चमक-दमक के पीछे ख़ून-पसीना बहाने वाले खेत मज़दूरों का जीवन।

“लव जिहाद” का झूठ संघ परिवार के दुष्प्रचार का हथियार है!

देश के पाँच राज्यों में तथाकथित लव जिहाद के विरोध के नाम पर क़ानून बनाने के ऐलान हो चुके हैं। जिन पाँच राज्यों में “लव जिहाद” के नाम पर क़ानून बनाने को लेकर देश की सियासत गरमायी हुई है वे हैं: उत्तरप्रदेश, हरियाणा, मध्यप्रदेश, असम और कर्नाटक। कहने की ज़रूरत नहीं है कि उपरोक्त पाँचों राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की ख़ुद की या इसके गठबन्धन से बनी सरकारें क़ायम हैं। उत्तरप्रदेश की योगी सरकार तो नया क़ानून ला भी चुकी है लेकिन इसने बड़े ही शातिराना ढंग से इसका नाम ‘उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध क़ानून – 2020’ रखा है जिसमें लव जिहाद शब्द का कोई ज़िक्र तक नहीं है।

जनता के पास नौकरी नहीं और सरकार बहादुर के पास नौकरियों के आँकड़े नहीं!

आज देश के नौजवानों के सामने सबसे बड़ी समस्या रोज़गार की है। इतना तो हम सभी जानते हैं कि किसी भी क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा की कोई कमी नहीं है। एक-एक नौकरी के पीछे हज़ारों-हज़ार आवेदन किये जाते हैं। पर नौकरी तो कुछ थोड़े ही लोगों को मिलती है। हर साल इन आवेदन करने वालों की संख्या बढ़ती जाती है। इस तरीक़े से बेरोज़गारी साल दर साल भयंकर रूप से बढ़ रही है। कांग्रेस के समय में बेरोज़गारी यदि दुलकी चाल से चल रही थी तो अब भाजपा के समय में सरपट दौड़ रही है।

13 पॉइण्ट रोस्टर सिस्टम और शिक्षा एवं रोज़गार के लिए संघर्ष की दिशा का सवाल

आरक्षित वर्ग की शिक्षा और नौकरियों में भागीदारी वैसे ही कम हो रही है, ऊपर से यदि 13 पॉइण्ट रोस्टर सिस्टम लागू होता है तो यह आरक्षित श्रेणियों के ऊपर होने वाला कुठाराघात साबित होगा। पहले ही अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ी जातियों से सम्बन्धित नौकरियों के बैकलॉग तक पारदर्शिता के साथ नहीं भरे जाते, ऊपर से अब 13 पॉइण्ट रोस्टर सिस्टम थोप दिया गया! इसकी वजह से नौकरियों में लागू किये गये आरक्षण या प्रतिनिधित्व की गारण्टी का अब कोई मतलब नहीं रह जायेगा। यही कारण है कि तमाम प्रगतिशील और दलित व पिछड़े संगठन 13 पॉइण्ट रोस्टर सिस्टम का विरोध कर रहे हैं। निश्चित तौर पर आरक्षण के प्रति शासक वर्ग की मंशा वह नहीं थी जिसे आमतौर पर प्रचारित किया जाता है। आरक्षण भले ही एक अल्पकालिक राहत के तौर पर था किन्तु यह अल्पकालिक राहत भी ढंग से कभी लागू नहीं हो पायी।

कॉमरेड अरविन्द के स्मृतिदिवस के अवसर पर : भारतीय मज़दूर वर्ग की पहली राजनीतिक हड़ताल – एक प्रेरक और गौरवशाली इतिहास

23 जुलाई को करीब एक लाख मज़दूरों ने हड़ताल में हिस्सेदारी की। मुंबई की आम जनता भी मज़दूरों के साथ आ खड़ी हुई। 24 जुलाई को संघर्षरत जनता की लड़ाई सेना के हथियारबंद दस्तों के साथ फिर से शुरू हो गयी। गोलियों का जवाब ईंटो और पत्थरों की बारिश से दिया गया। बहुत से मज़दूर आम जनता के साथ शहीद हुए। इसी बीच पुलिस कमिश्नर ने मिल मालिकों से हड़ताल का विरोध करने के लिए कहा। मालिकों ने फैसला किया कि ‘उद्योग की भलाई’ के लिए मजदूरों को हड़ताल बंद कर देनी चाहिए। मिल मालिक एसोसिएशन के अध्यक्ष हरिलाल भाई विश्राम ने मिल मालिकों को सलाह दी -”आपकी ज़ि‍म्मेदारी यह देखना है कि सरकार को किसी तरह परेशान न किया जाए, कानून-कायदों को मानकर चला जाए। आप मज़दूरों को काम पर वापस जाने के लिए दबाव डालिए।” परन्तु मज़दूरों ने मालिकों-पुलिस-प्रशासन की तिकड़मों को धता बताते हुए अपने संघर्ष को जारी रखा। देश की जनता के सामने किये गए 6 दिन की हड़ताल के वायदे को मजदूरों ने शब्दशः निभाकर अपने जुझारूपन को स्थापित कर दिया।

मौजूदा दौर के किसान आन्दोलनों की प्रमुख माँगें बनाम छोटे किसानों, मज़दूरों और सर्वहारा वर्ग के साझा हित

ऐसे दौर में उजड़ते हुए किसान यानी सीमान्त, छोटे और ग़रीब किसान को बचाने के लिए जो माँगें उठायी जा रही हैं, जो नारे दिये जा रहे हैं, जो योजनाएँ सुझायी जा रही हैं – उनकी पड़ताल अत्यावश्यक है। क्या उक्त माँगें, नारे और योजनाएँ ग़रीब किसानों की सही सच्ची माँगें हो सकती हैं? उजड़ते छोटे किसानों की असल माँगें क्या हों यह सिर्फ़ भावना का सवाल नहीं है बल्कि तर्क का भी सवाल है। समाज परिवर्तन के क्रान्तिकारी आन्दोलन में चूँकि ग़रीब किसान मज़दूर वर्ग का सबसे विश्वस्त साथी है, इसलिए भी सर्वहारा के नज़रिये और वर्ग दृष्टिकोण से कुछ नुक्तों पर साफ़ नज़र होना ज़रूरी है।

आरक्षण आन्दोलन, रोज़गार की लड़ाई और वर्ग चेतना का सवाल

देश की तरह ही हरियाणा प्रदेश की जनता को भी यह बात समझनी होगी की हर जाति में मुट्ठीभर ऐसी आबादी है जो किसी भी तरह की प्रत्यक्ष उत्पादन की कार्रवाई में भागीदारी नहीं करती केवल पैदावार का बड़ा हिस्सा हड़प लेती है, और बहुसंख्या में ऐसी आबादी है जो अपनी खून-पसीने की मेहनत के बूते देश की हर सम्पदा का सृजन करती है। शोषक जमात के हित मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के साथ जुड़े होते हैं क्योंकि तमाम संसाधनों पर इनका नियंत्रण होता है जबकि मेहनतकश आवाम को इस व्यवस्था में अपनी हड्डियाँ गलाने के बावजूद केवल बेरोज़गारी, ग़रीबी, मुफ़लिसी और कुपोषण ही नसीब होते हैं। 35 बिरादरी बनाम एक बिरादरी के झगड़े में हमें नहीं पड़ना है क्योंकि असल में किसी भी समाज में दो ही बिरादरी होती हैं एक वो जो खुद मेहनत करती है और अपनी श्रम शक्ति को पूँजी के मालिकों के हाथों बेचने पर मजबूर होती है और दूसरी वह जो दूसरों की मेहनत पर जोंक की तरह पलती है। ग़रीब और मेहनतकश आबादी को वर्गीय आधार पर अपनी एकजुटता क़ायम करनी पड़ेगी। तभी एक ऐसे समाज की लड़ाई सफल हो सकेगी जिसमें हर हाथ को काम और हर व्‍यक्ति को सम्‍मान के साथ जीने का अधिकार मिलेगा।