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उत्तराखण्ड समान नागरिकता क़ानून: अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने वाला और नागरिकों के निजी जीवन में राज्यसत्ता की दखलन्दाज़ी बढ़ाने वाला पितृसत्तात्मक फ़ासीवादी क़ानून

इस क़ानून के समर्थकों का दावा है कि यह महिलाओं के सशक्तीकरण की दिशा में उठाया गया क़दम है, जबकि सच्चाई यह है कि इस क़ानून के तमाम प्रावधान ऐसे हैं जो स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार नहीं देते हैं और पितृसत्तात्मक समाज को स्त्रियों की यौनिकता, उनकी निजता को नियन्त्रित करने का खुला मौक़ा देते हैं। इस क़ानून के सबसे ख़तरनाक प्रावधान ‘लिव-इन’ से जुड़े हैं जो राज्यसत्ता व समाज के रूढ़िवादी तत्वों को लोगों के निजी जीवन में दखलन्दाज़ी करने का पूरा अधिकार देते हैं। इन प्रावधानों की वजह से अन्तरधार्मिक व अन्तरजातीय सम्बन्धों पर पहरेदारी और सख़्त हो जायेगी। इन तमाम प्रतिगामी प्रावधानों को देखते हुए इस बात में शक की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती है कि यह अल्पसंख्यक-विरोधी एवं स्त्री-विरोधी क़ानून आज के दौर में फ़ासीवादी शासन को क़ायम रखने का औज़ार है। इसमें क़तई आश्चर्य की बात नहीं है कि भाजपा शासित मध्य प्रदेश व गुजरात की सरकारों ने भी इस प्रकार के क़ानून बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है।

समान नागरिक संहिता पर मज़दूर वर्ग का नज़रिया क्या होना चाहिए?

समान नागरिक संहिता (यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड) का मामला एक बार फिर सुर्ख़ियों में है। गत 9 दिसम्बर को भाजपा नेता किरोड़ी लाल मीना ने राज्यसभा में एक प्राइवेट मेम्बर बिल प्रस्तुत किया जिसमें पूरे देश के स्तर पर समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए एक कमेटी बनाने की बात कही गयी है। इससे पहले नवम्बर-दिसम्बर के विधानसभा चुनावों के पहले गुजरात, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड की भाजपा सरकारों ने भी अपने-अपने राज्यों में समान नागरिक संहिता लाने की मंशा ज़ाहिर की थी। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भाजपा जैसी फ़ासिस्ट पार्टी द्वारा समान नागरिक संहिता की वकालत करने के पीछे विभिन्न धर्म की महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिलाने की मंशा नहीं बल्कि उसकी मुस्लिम-विरोधी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीतिक चाल काम कर रही है।

दुनिया की सबसे बड़ी तकलोलॉजी कम्पनियों में भारी छँटनी

जिस समय कोरोना महामारी अपने चरम पर थी, उस समय दुनिया के तमाम देशों में लॉकडाउन की वजह से उत्पादन ठप हो जाने के कारण ज़्यादातर सेक्टरों में कम्पनियों के मुनाफ़े में गिरावट आयी थी। लेकिन उस दौर में चूँकि लोग ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्मों पर पहले से ज़्यादा समय बिताते थे इसलिए कम्प्यूटर व इण्टरनेट की दुनिया से जुड़े कुछ सेक्टरों जैसे आईटी, ई-कॉमर्स, सोशल मीडिया आदि में चन्द इज़ारेदार कम्पनियों के मुनाफ़े में ज़बर्दस्त उछाल देखने में आया था। लेकिन लॉकडाउन हटने के बाद ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्मों पर लोगों की मौजूदगी के समय में कमी आने की वजह से और विश्व पूँजीवाद के आसन्न संकट की आहट सुनकर इन कम्पनियों को भी अपने मुनाफ़े की दर में गिरावट का ख़तरा दिखने लगा है।

आज़ाद ज़िन्दगी के लिए ज़ालिम इस्लामी कट्टरपन्थी पूँजीवादी निज़ाम के ख़िलाफ़ ईरान की औरतों की बग़ावत

गत 16 सितम्बर को ईरान की राजधानी तेहरान में महसा अमीनी नामक कुर्द मूल की 22 वर्षीय ईरानी युवती की मौत के बाद शुरू हुआ आन्दोलन सत्ता के बर्बर दमन के बावजूद जारी है। ग़ौरतलब है कि महसा को 13 सितम्बर को ईरान की कुख्यात नैतिकता पुलिस ने इस आरोप में गिरफ़्तार करके हिरासत में लिया था कि उसने सही ढंग से हिजाब नहीं पहना था और उसके बाल दिख रहे थे। हिरासत में उसको दी गयी यंत्रणा की वजह से वह कोमा में चली गयी और तीन दिन बाद उसकी मौत हो गयी।

तेलंगाना में निज़ाम की सत्ता के पतन की 75वीं बरसी पर जश्न मनाने की होड़ में भाजपा और टीआरएस ने की इतिहास के साथ बदसलूकी

गत 17 सितम्बर को तेलंगाना में निज़ाम की सत्ता के पतन की 75वीं बरसी के मौक़े पर हैदराबाद शहर में भाजपा और टीआरएस के बीच जश्न मनाने की बेशर्म होड़ देखने में आयी। पूरा शहर दोनों पार्टियों के पोस्टरों व बैनरों से पाट दिया गया था। शहर में दोनों पार्टियों द्वारा कई स्थानों पर रैलियाँ निकाली गयीं और जनता की हाड़तोड़ मेहनत से कमाये गये करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाये गये। भाजपा व केन्द्र सरकार ने इस दिन को ‘हैदराबाद मुक्ति दिवस’ के रूप में मनाया, जबकि टीआरएस व तेलंगाना सरकार ने इसे ‘राष्ट्रीय एकता दिवस’ के रूप में मनाया। ग़ौरतलब है कि भाजपा पिछले कई सालों से 17 सितम्बर को ‘हैदराबाद मुक्ति दिवस’ के रूप में मनाने की मुहिम चलाती आयी थी।

कविता कृष्णन : सर्वहारा वर्ग की नयी ग़द्दार

कविता कृष्णन : भाकपा (माले) लिबरेशन जैसी पतिततम संशोधनवादी पार्टी में परवरिश और कम्युनिज़्म-विरोधी अमेरिकी साम्राज्यवादी दुष्प्रचार की बौद्धिक ख़ुराक से तैयार हुई सर्वहारा वर्ग की नयी ग़द्दार आनन्द वैसे…

“सादगीपसन्द” और “परोपकारी” पूँजीपतियों की असलियत

भारत में अम्बानी और अदानी जैसे पूँजीपतियों के लुटेरे चरित्र के बारे में सभी जानते हैं और यहाँ तक कि पूँजीवादी मीडिया में भी ऐसे पूँजीपतियों के भ्रष्ट व अनैतिक आचरण के बारे में तमाम ख़बरें प्रकाशित हो चुकी हैं। परन्तु नारायण मूर्ति व अज़ीम प्रेमजी जैसे पूँजीपतियों की छवि न सिर्फ़ नौकरियाँ पैदा करके समाज का उद्धार करने वालों के रूप में स्थापित है बल्कि उनकी सादगी, दयालुता, परोपकार व नैतिकता के तमाम क़िस्से समाज में प्रचलित हैं और मीडिया में भी अक्सर उनकी शान में क़सीदे पढ़े जाते हैं।

हैदराबाद में कबाड़ गोदाम में लगी आग में झुलसकर 11 मज़दूरों की मौत, एक की हालत गम्भीर

गत 23 मार्च को हैदराबाद के भोईगुड़ा इलाक़े में एक कबाड़ गोदाम में भोर के क़रीब 3 बजे आग लग गयी जिसमें झुलसकर 11 मज़दूरों की मौत हो गयी। एक अन्य मज़दूर अपनी जान बचाने के लिए गोदाम की पहली मंज़िल पर स्थित कमरे से नीचे कूद गया और उसे बेहद गम्भीर हालत में अस्पताल में भर्ती कराया गया है। बताया जा रहा है कि आग इलेक्ट्रिक शॉर्ट-सर्किट की वजह से लगी थी। गोदाम में आसानी से आग पकड़ने वाली तमाम ज्वलनशील चीज़ें (जैसे केबल, अख़बार, प्लास्टिक आदि) पड़ी हुई थीं जिसकी वजह से आग जल्द ही पूरी इमारत में फैल गयी। बिहार के कटिहार और छपरा ज़िले से आकर गोदाम में काम करने वाले 12 मज़दूर गोदाम की पहली मंज़िल पर एक छोटे-से कमरे में रहते थे।

श्रीलंका और पाकिस्तान में नवउदारवादी पूँजीवादी आपदा का क़हर झेलती आम मेहनतकश आबादी

वैसे तो आज के दौर में दुनियाभर की मेहनतकश जनता मन्दी, छँटनी, महँगाई, आय में गिरावट और बेरोज़गारी का दंश झेल रही है, लेकिन कुछ देशों में अर्थव्यवस्था की हालत इतनी ख़राब हो चुकी है कि वे या तो पहले ही कंगाल जो चुके हैं या फिर कंगाली के कगार पर खड़े हैं और उनका भविष्य बेहद अनिश्चित दिख रहा है। ये ऐसे देश हैं जिनकी अर्थव्यस्थाएँ या तो बहुत छोटी हैं या उनका औद्योगिक आधार बहुत व्यापक नहीं है जिसकी वजह से वे बेहद बुनियादी ज़रूरतों की चीज़ों के लिए भी आयात पर निर्भर हैं या फिर उनकी अर्थव्यवस्थाएँ दशकों से विदेशी क़र्ज़ों के चंगुल में फँसी हैं।

‘आज़ादी के अमृत महोत्सव’ के बहाने मोदी ने की पूँजीपतियों के मन की बात

मोदी को वैसे भी अपने अधिकारों की बात करने वाले और जनता के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले लोग फूटी आँख नहीं सुहाते। कुछ समय पहले मोदी ने ऐसे लोगों को ‘आन्दोलनजीवी’ और परजीवी तक कहा था। मानवाधिकारों से तो मोदी और उनकी पार्टी का छत्तीस का आँकड़ा रहा है। पहले ही देश के तमाम सम्मानित मानवाधिकार कर्मी फ़र्ज़ी आरोपों में सालों से जेलों में सड़ रहे हैं। अपने इस ताज़ा बयान से मोदी ने साफ़ इशारा किया है कि अधिकारों की बात करना ही अपने आप में राष्ट्र-विरोधी काम समझा जायेगा क्योंकि इससे राष्ट्र कमज़ोर होता है।