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बेरोज़गारी ख़त्म करने के दावों के बीच बढ़ती बेरोज़गारी!

अधिकांश प्रतिष्ठानों ने अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए मज़दूरियों पर होने वाले ख़र्चों में बड़ी कटौतियाँ करने की योजनाएँ बनायी हैं और उत्पादन की आधुनिक तकनीकों का विकास उनके मनसूबों को पूरा करने में मदद पहुँचा रहा है। पूँजीवाद के आरम्भ से ही पूँजीपति वर्ग ने विज्ञान और तकनीकी पर अपनी इज़ारेदारी क़ायम कर ली थी। तब से लेकर आज तक उत्पादन की तकनीकों में होने वाले हर विकास ने पूँजीपतियों को पहले से अधिक ताक़तवर बनाया है और मज़दूरों का शोषण करने की उनकी ताक़त को कई गुना बढ़ा दिया है।

नकली देशभक्ति का शोर और सेना के जवानों की उठती आवाज़ें

इंसाफ़ और न्याय की इज़्ज़त करने वाले हर भारतीय का यह फ़र्ज़ बनता है कि वे यह देखें कि भारत की सेना के सिपाही की वर्दी के पीछे मज़दूर-किसान के घर से आने वाला एक ऐसा नौजवान खड़ा है जिसका इस्तेमाल उसी के वर्ग भाइयों के प्रतिरोध को कुचलने के लिए किया जाता है और बदले में वह अपने अफ़सरों के हाथों स्वयं वर्ग-उत्पीड़न का शिकार भी बनता है। आवाज़ उठाने वाले सैनिकों को देशभक्ति और देशद्रोही के चश्मे से देखना बन्द कर दिया जाना चाहिए और उनकी हर जायज़ जनवादी माँग का समर्थन करते हुए भी उनकी सेना के हर जनविरोधी दमनकारी कार्यवाही का डटकर पर्दाफ़ाश और विरोध किया जाना चाहिए।

आखि़र आपके गुप्तांगों की तस्वीर और डीएनए मैपिंग क्यों चाहती है सरकार?

इस दमनकारी विधेयक के पक्ष में सरकार के लचर तर्क बतातें हैं कि मामला जनता को इंसाफ़ दिलाने का नहीं बल्कि कुछ और ही है। सरकार के असली इरादों को समझने के लिए जरूरी है कि हम राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियों के संदर्भ में इसे समझने का प्रयास करें। उम्मीद है कि अमेरिकी नागरिक एडवर्ड स्नोडेन के मामले को पाठक अभी भूले नहीं होंगे। यह बात जगज़ाहिर हो चुकी है कि अमेरिकी राज्यसत्ता अपने हर एक नागरिक की जासूसी करती है और यह बात दुनिया की करीब-करीब सभी सरकारों पर लागू होती है। 1970 के दशक से तीख़ा होता विश्व पूँजीवाद का ढाँचागत संकट कमोबेश हर राज्य व्यवस्था को संभावित जन-असंतोषों के विस्फोट से भयाक्रांत किये हुए है। एक बात साफ़ है कि जनता पूँजीवादी शासन व्यवस्था की मार को चुपचाप नहीं सहेगी, वह इस व्यवस्था का विकल्प खड़ा करने के लिए आगे आएगी। इस ख़तरे के मद्देनज़र राज्य स्वयं को जनता के विरुद्ध हर किस्म की शक्ति से लैस कर लेना चाहता है। वह चाहता है कि उसके पास अपने नागरिकों के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा सूचनाएँ हों ताकि क्रांतिकारी बदलाव की घड़ियों में इन सूचनाओं का इस्तेमाल अपने विरोधियों यानी संघर्षरत जनता के सफ़ाये के लिये किया जा सके।

कौशल विकास: मज़दूरों के लिए नया झुनझुना और पूँजीपतियों के लिए रसमलाई

सरकार का कहना है कि सरकारी स्कूलों और आईटीआई संस्थानों को कम्पनियों द्वारा विभिन्न कोर्स चलाने के लिए दिया जायेगा, इस तरह ग़रीबों और निम्न मध्यवर्ग के बेटे-बेटियों को कुशल श्रमिक बनाने का रास्ता तैयार किया गया है। लेकिन चूँकि पहले से ही असंगठित क्षेत्र में करीब 44 करोड़ कामगार काम कर रहे हैं उनको कुशल श्रमिक बनाने के लिए अलग से एक विशेष योजना तैयार की गयी है, मोदी सरकार इन 44 करोड़ कामगारों को कारख़ानों में प्रशिक्षण देने वाली है और यहीं पर इस योजना का असली पेंच है। सवाल यह है कि जब इतने कारख़ाने हैं ही नहीं तब भला इतने बड़े-बड़े दावे क्यों किये जा रहे हैं! असल में यह कौशल विकास के नाम पर मज़दूरों को लूटने और पूँजीपतियों को सस्ता श्रम उपलब्ध कराने का हथकण्डा मात्र है। देश में एपेरेन्टिस एक्ट 1961 नाम का एक क़ानून है जिसके तहत चुनिन्दा उद्योगों में ट्रेनिंग की पहले से ही व्यवस्था मौजूद है। इस क़ानून के तहत कारख़ानों में काम करने वाले एपेरेन्टिस या ट्रेनी पहले से ही ज़्यादातर श्रम क़ानूनों के दायरे से बाहर हैं। सरकार के अनुसार इस समय देश में मात्र 23800 कारख़ाने ऐसे हैं जो एपेरेन्टिस एक्ट 1961 के अन्तर्गत आते हैं। सरकार की मंशा है कि अगले 5 सालों में इन कारख़ानों की संख्या बढ़ाकर 1 लाख कर दी जाये। ज़ाहिर सी बात है कि यह योजना केवल 5 साल के लिए नहीं है और इसका मक़सद है कि ट्रेनिंग या कौशल विकास के नाम पर ज़्यादा से ज़्यादा कारख़ानों को श्रम क़ानूनों और न्यूनतम वेतन के क़ानूनों के दायरे से बाहर कर दिया जाये।

इण्डोनेशिया में 10 लाख कम्युनिस्टों के क़त्लेआम के पचास वर्ष

जनसमर्थन और सांगठनिक विस्तार के नज़रिये से देखा जाये तो इण्डोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी बेहद मज़बूत पार्टी थी लेकिन विचारधारात्मक तौर पर वह पहले ही ख़ुद को नख-दन्तविहीन बना चुकी थी। असल में 1950 के दशक में ही उसने समाजवादी लक्ष्य हासिल करने का शान्तिपूर्ण रास्ता चुना। वर्ष 1965 तक उसने न सिर्फ़ अपने सशस्त्र दस्तों को निशस्त्र किया बल्कि अपना भूमिगत ढाँचा भी समाप्त कर दिया। विचारधारा के स्तर पर वह पूरी तरह सोवियत संशोधनवाद के साथ जाकर खड़ी हो गयी। उसने इण्डोनेशियाई राज्यसत्ता की संशोधनवादी व्याख्या प्रस्तुत की और दावा किया कि यहाँ के राज्य के दो पहलू हैं – एक प्रतिक्रियावादी और दूसरा प्रगतिशील। उन्होंने यहाँ तक कहा कि इण्डोनेशियाई राज्य का प्रगतिशील पहलू ही प्रधान पहलू है। यह बात पूरी तरह ग़लत है और अब तक के क्रान्तिकारी इतिहास के सबक़ों के खि़लाफ़ है। राज्य हमेशा से ही जनता के ऊपर बल प्रयोग का साधन रहा है। शोषकों के हाथों में यह एक ऐसा उपकरण है जिसके ज़रिये वह शोषणकारी व्यवस्थाओं का बचाव करते हैं। पूँजीवाद के अन्तर्गत प्रगतिशील पहलू वाले राज्य की बात करना क्रान्ति के रास्ते को छोड़ने के बराबर है। यह राजनीतिक लाइन पहले भी इतिहास में असफल रही है और एक बार फिर उसे ग़लत साबित होना ही था। लेकिन इस ग़लत राजनीतिक लाइन की क़ीमत थी 10 लाख कम्युनिस्टों की मौत और लाखों को काल कोठरी।

उथल-पथल से गुज़रता दक्षिण अफ्रीका का मज़दूर आन्दोलन

दक्षिण अफ्रीका के अलग-अलग हिस्सों में बेरोज़गारी की दर 30 से 50 प्रतिशत तक बढ़ गयी। मज़दूरियों में भारी गिरावट आयी और मज़दूरों की काम की परिस्थितियाँ बहुत ख़राब हो गयीं। मज़दूरों के वेतनों में ज़बरदस्त कटौतियाँ की जाने लगीं। वॉक्सवैगन (कार बनाने वाली कम्पनी) जैसी कम्पनियों ने काम के दिन सप्ताह में 5 दिन से बढ़ाकर 6 दिन कर दिये। एक कार्यदिवस के दौरान मिलने वाले 2 इंटरवल तथा 2 चायब्रेक को घटाकर एक कर दिया गया। विरोध करने वाले मज़दूरों और उनके नेताओं को काम से निकाला जाने लगा। सन 2012 में मरिकाना प्लेटिनम खदान मज़दूरों के आन्दोलन को राज्यसत्ता के हाथों जघन्य हत्याकाण्ड का सामना करना पड़ा जिसमें 34 खदान मज़दूरों को पुलिस ने गोलियों से भून दिया। केवल 2009 से 2012 के बीच दक्षिण अफ्रीकी जनता ने 3000 विरोध प्रदर्शन किये जिनमें लाखों लोगों ने हिस्सा लिया।

उत्तर-पूर्व की उत्पीड़ित राष्ट्रीयताएँ और दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता

केन्द्रीय सत्ता के विरुद्ध उपजे जनअसन्तोष को बन्दूक़ की नोंक पर दबाने के मक़सद से 1959 से ही पूरे उत्तर-पूर्व में आर्म्ड फ़ोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट (आफ्स्पा) लागू है। यह दमनकारी काला क़ानून सेना और अर्द्धसैनिक बलों को उत्तर-पूर्व की जनता के ऊपर मनमाना व्यवहार करने की पूरी छूट देता है। अंग्रेज़ों की ही तरह दिल्ली की सरकार की उत्तर-पूर्व के इलाक़े में बुनियादी दिलचस्पी भूराजनीतिक-रणनीतिक ही है। इसीलिए इन समस्याओं का राजनीतिक समाधान ढूँढ़ने की बजाय दमन का जमकर इस्तेमाल किया गया। इसके अलावा इन राज्यों में विकसित हो रहे नये मध्यम वर्ग को प्रलोभन और दबाव के सहारे सरकारी पिट्ठू बनाने की रणनीति भी अपनायी गयी। उत्तर-पूर्व के पूरे इलाक़े की शेष भारत के साथ सांस्कृतिक-आत्मिक एकता का आधार तैयार करने के लिए सरकार ने शायद ही कभी कुछ किया हो। आलम तो यह है कि इतिहास की पुस्तकों में इस भूभाग का उल्लेख तक नहीं मिलता। इस क्षेत्र के लोगों की सांस्कृतिक विभिन्नता की मूल वजह यह भी है कि यहाँ का समाज ज़्यादा खुला है, उसमें औरतों को कहीं ज़्यादा आज़ादी और बराबरी हासिल है तथा यहाँ जाति-व्यवस्था अनुपस्थित है।

औद्योगिक कचरे से दोआबा क्षेत्र का भूजल और नदियाँ हुईं ज़हरीली

देश के विभिन्न हिस्सों में फैले सभी औद्योगिक क्षेत्रों में औद्योगिक कचरा यूँ ही बिना किसी ट्रीटमेण्ट या रिसाइक्लिंग के आसपास की नदियों या जलाशयों में छोड़ दिया जाता है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि पूँजीपति ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़े के लक्ष्य की सनक में इतने डूबे रहते हैं कि कारख़ाने के भीतर श्रम क़ानूनों को ताक पर रखकर मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़ने से भी जब उनका जी नहीं भरता तो वे कचरे के ट्रीटमेण्ट में लगने वाले ख़र्च से बचने के लिए तमाम पर्यावरण सम्बन्धी क़ानूनों और कायदों को ताक पर रखकर ज़हरीले कचरे को आसपास की नदियों अथवा जलाशयों में बिना ट्रीट किये छोड़ देते हैं। यही वजह है कि इस देश की तमाम नदियाँ तेज़ी से परनाले में तब्दील होती जा रही हैं।

आखि‍र क्या हो रहा है पाकिस्तान में?

सेना, तहरीक़-ए-इसाफ़ और कादरी तथा पाकिस्तान की जनता का एक छोटा सा मध्यमवर्गीय हिस्सा अपनी-अपनी वजहों से पाकिस्तानी सरकार के खि़लाफ़ उतर पड़ा है। लेकिन इन तथाकथित आन्दोलनो की आड़ में यह सच्चाई आँख से ओझल कर दी जाती है कि पाकिस्तान के मौजूदा अराजक माहौल के लिए वहाँ के आर्थिक संकट की एक बड़ी भूमिका है। 2008 की शुरुआत से ही पाकिस्तान के आर्थिक हालात बेहद ख़राब हैं। आर्थिक संकट से उबरने के लिए विश्व मुद्रा कोष से लिए गये कर्ज़ ने हालात बद से बदतर बना दिये हैं। इन क़र्जों की अदायगी पाकिस्तान की आम मेहनतकश आबादी पर करों का भारी बोझ लादकर तथा सामाजिक कल्याण-कारी ख़र्चों में कटौती करके की जा रही है जिससे वहाँ की जनता त्राहि-त्राहि कर रही है और एक भयंकर जनाक्रोश पनप रहा है।

सावधान! कहीं आप मालिकों की भाषा तो नहीं बोल रहे?

देश का पूँजीपति वर्ग राजनीतिक तौर पर बेहद जागरूक और संगठित है। उसे पता है कि अपने वर्ग के आम हितों की रक्षा कैसे की जाती है। अब दारोमदार इस बात पर है कि हमारे देश के मज़दूर भी अपने साझा वर्ग हितों को समझने की शुरुआत कब तक करेंगे। हालांकि इसके समय की भविष्यवाणी करना तो काफ़ी कठिन है लेकिन एक बात तय है कि उनके पास गँवाने के लिए बहुत अधिक वक़्त नहीं है।