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मुनाफ़े के गोरखधन्धे में बलि चढ़ता विज्ञान और छटपटाता इन्सान

कहने को तो विज्ञान मानव का सेवक है लेकिन पूँजीवाद में यह मात्र मुनाफ़ा कूटने का एक साधन बन कर रह गया है। मुनाफ़े की कभी न मिटने वाली भूख से ग्रस्त यह मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था मानव के साथ-साथ मानवीय मूल्य और मानवीय संवेदनाओं को भी निरन्तर निगलती करती जा रही है। विज्ञान की ही एक विधा चिकित्सा विज्ञान का उदाहरण हम देख सकते हैं।

पूँजीवाद और स्वास्थ्य सेवाओं की बीमारी

भारतीय संविधान के भाग 3, आर्टिकल 21 में एक मूलभूत अधिकार दिया गया है जिसको जीवन की रक्षा का अधिकार कहा जाता है, और साथ ही संविधान में वर्णित राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने तथा लोक स्वास्थ्य में सुधार करने को राज्य के कर्तव्य की बात कही गयी है। इस प्रकार हमारे देश के हर नागरिक के जीवन और स्वास्थ्य की रक्षा और देखभाल की ज़िम्मेदारी सीधे तौर पर सरकार की है। लेकिन असल में होता इसका उल्टा है।

बन्द होती सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कम्पनियाँ सरकार की मजबूरी या साज़िश?

किसी भी देश में सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह उस देश की जनता के पोषण, स्वास्थ्य और जीवन स्तर का ख़याल रखे। सिर्फ़ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की सरकारें लोगों के स्वास्थ्य का ख़याल रखने का दिखावा करती रही हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों से यह दिखावा भी बन्द होने लगा है। ख़ासतौर पर 1990 के दशक के बाद से सरकारें बेशर्मी के साथ जनता के हितों को रद्दी की टोकरी में फेंकती जा रही हैं। पिछले 20 साल में तो इस बेशर्मी में सुरसा के मुँह की तरह इज़ाफ़ा हुआ है और यह इज़ाफ़ा लगातार अधिक होता जा रहा है।

नक़ली दवाओं का जानलेवा धन्धा

ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने के चक्कर में दवाओं की क्वालिटी के साथ समझौता किया जाता है, मानकों को नीचे लाया जाता है, जो मानक हैं उनके अनुसार भी काम नहीं किया जाता। इसकी वजह से दवा की क्वालिटी ख़राब होती है। या फिर जानबूझकर मिलावट की जाती है, ग़लत लेबलिंग की जाती है। पहले से ही बर्बाद स्वास्थ्य ढाँचा वैसे ही बीमारियों से लड़ नहीं पा रहा था, नक़ली और घटिया दवाओं के कारोबार ने उसे बिलकुल ही पंगु बना दिया है। इन सबका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ रहा है भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की आम मेहनतकश आबादी को। यूँ ही मेहनतकश को स्वास्थ्य सुविधाएँ नहीं मिलती हैं, ऊपर से अगर अपनी दिन-रात की हाड़तोड़ मेहनत से की हुई कमाई से अगर दवा ख़रीदने की नौबत आ जाये तब भी उसे मिलता है दवा के रूप में ज़हर।

बुलन्दशहर की हिंसा : किसकी साज़िश?

3 दिसम्बर को बुलन्दशहर के महाव गाँव के खेतों में गाय के मांस के टुकड़े मिले थे। ये टुकड़े बाक़ायदा गन्ने के खेत में इस तरह से लटकाये गये थे जिससे दूर से दिखायी दे जायें। बाद में यह भी पता चल गया कि जानवर को कम से कम 48 घण्टे पहले मारकर वहाँ लाया गया था। ग़ौरतलब है कि इसके 3 दिन बाद यानी 6 दिसम्बर को बाबरी मस्जिद ध्वंस की बरसी आने वाली थी और राम मन्दिर का मुद्दा पहले से ही गरमाया हुआ था। इसी दिन घटनास्थल से 50 किलोमीटर दूर ही मुसलमानों का धार्मिक समागम इज़्तिमा हो रहा था जिसमें लाखों मुसलमान शिरक़त कर रहे थे। अफ़वाह यह भी फैलायी गयी थी कि गौहत्या की वारदात को इज़्तिमा में शामिल हुए लोगों ने अंजाम दिया है। सुदर्शन न्यूज़ नामक संघी न्यूज़ चैनल के मालिक सुरेश चह्वाणके ने तो बाक़ायदा इस बात की झूठी ख़बर भी फैलायी थी जिसका खण्डन यूपी पुलिस ने ट्वीट करके किया। यहाँ एक चीज़़ और देखने वाली थी कि महाव गाँव बुलन्दशहर-गढ़मुक्तेश्वर स्टेट हाइवे पर पड़ता है और इज़्तिमा के समापन के बाद इस मार्ग से लाखों मुसलमानों को गुज़रना था। ‘दैनिक जागरण’ की ख़बर के अनुसार महाव गाँव में गोवंश के अवशेष मिलने के बाद संघ परिवार के हिन्दू संगठन बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने चिरगाँवठी गाँव के पास बुलन्दशहर-गढ़मुक्तेश्वर स्टेट हाईवे पर मांस के टुकड़ों को ट्रैक्टर-ट्राली में रख कर जाम लगा दिया था।

अस्पताल में मौत का तांडव : जि़म्मेदार कौन?

ऑक्सीजन की सप्लाई रुकी पड़ी थी और एक-एक कर बच्चों की मौत हो रही थी। अस्पताल के डॉक्टरों ने पुष्पा सेल्स के अधिकारियों को फ़ोन कर ऑक्सीजन भेजने की गुहार लगायी तो कम्पनी ने पैसे माँगे। तब कॉलेज प्रशासन भी नींद से जागा और 22 लाख रुपये बकाया के भुगतान की कवायद शुरू की। पैसे आने के बाद ही पुष्पा सेल्स ने लिक्विड ऑक्सीजन के टैंकर भेजने का फ़ैसला किया। लेकिन तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी और 40 बच्चे भी मर चुके थे। यह ख़बर आने तक कहा जा रहा था कि यह टैंकर शनिवार की शाम या रविवार तक ही अस्पताल में पहुँच पायेगा। मौत के ऊपर लापरवाही और लालच का यह खेल भी नया नहीं है। पिछले साल अप्रैल में भी इस कम्पनी ने 50 लाख बकाया होने के बाद इसी तरह ऑक्सीजन की सप्लाई रोक दी थी।

बन्द होती सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कम्पनियाँ : सरकार की मजबूरी या साजिश?

किसी समय यह कम्पनी भी पूरे देश के लिए दवाएँ बनाती थी। कई बार तो यह एकमात्र कम्पनी होती थी जो किसी महामारी के समय दवाएँ उपलब्ध करवाती थी। लेकिन अब सरकार ने इसको भी ऑर्डर्स देने बन्द कर दिये हैं। इसके अलावा हिन्दुस्तान एण्टीबायोटिक्स लिमिटेड (HAL) भी ऐसी ही एक सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कम्पनी है। इसकी नींव 1954 में पहली एण्टीबायोटिक दवा पेनिसिलिन का आविष्कार करने वाले महान वैज्ञानिक अलेग्जेंडर फ़्लेमिंग ने रखी थी। तब से ही यह कम्पनी सस्ती दरों पर एण्टीबायोटिक दवाएँ बना रही है। एक प्राइवेट कम्पनी ने सिप्रोफ्लोक्सासिन नाम की एक एण्टीबायोटिक 35 रुपये प्रति टेबलेट की दर से लांच की थी तो इस कम्पनी ने यही दवा 7 रुपये की दर से उपलब्ध करवाई थी।

सुधार के नाम पर मेडिकल शिक्षा को बर्बाद करने की तैयारी

यह असल में मेडिकल एजुकेशन और स्वास्थ्य सेवाओं को यह पूरी तरह से पूँजीपतियों के हाथ में सौंप देने की साजिश है। साफ़ तौर पर दिख रहा है कि सरकार को न तो भ्रष्टचार से कोई मतलब है, न ही मेडिकल शिक्षा की गुणवत्ता से और न ही स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार से। सरकार को मतलब है तो बस प्राइवेट और कॉर्पोरेट सेक्टर को मुनाफ़ा पहुँचाने से। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार किसी भी देश को अपने सकल घरेलू उत्पाद का पाँच प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर लगाना चाहिए लेकिन भारत दो प्रतिशत से भी कम लगाता है, बल्कि बीते वित्त वर्ष में तो सिर्फ़ 1.58 प्रतिशत ही लगाया था और इसमें सरकारी मेडिकल कॉलेजों पर लगाया गया पैसा भी शामिल है।

विकास के शोर के बीच भूख से दम तोड़ता मेहनतकश

भारत में कुल पैदावार का चालीस प्रतिशत गेहूँ हर साल बर्बाद हो जाता है। लेकिन गाय की पूजा से देशभक्ति को जोड़ने वाली सरकार को देश के भूखे मरते लोगों की चिन्ता क्यों होने लगी? बहरहाल सरकार का कहना है कि यह अनाज ख़राब भण्डारण और परिवहन की वजह से ख़राब होता है। लेकिन सवाल ये है कि भण्डारण और परिवहन की ज़ि‍म्मेवारी किसकी है? इस सम्बन्ध में 2001 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गयी थी जिसमें कहा गया था कि देश की बड़ी आबादी भूखों मरती है और अनाज गोदामों में सड़ता है।

पूँजीवाद और स्वास्थ्य सेवाओं की बीमारी

अगर डॉक्टरों की बात की जाये तो भारत में स्वास्थ्य सेवाओं में डॉक्टरों की भारी कमी का आलम ये है कि भारत में दस हजार की आबादी पर सरकारी और प्राइवेट मिलाकर कुल डॉक्टर ही 7 हैं और अगर अस्पतालों में बिस्तरों की बात करें तो दस हजार की आबादी पर सिर्फ 9 बिस्तर मौजूद हैं। इस पर भी उदारीकरण और निजीकरण के चलते इन सीमित डॉक्टरों और स्वास्थ्य सेवाओं का केन्द्रीकरण भी शहरों में ही सीमित हो कर रह गया है. एक अध्ययन के अनुसार भारत में 75 प्रतिशत डिस्पेंसरियां, 60 प्रतिशत अस्पताल और 80 प्रतिशत डॉक्टर शहरों में हैं जहाँ भारत की केवल 28 आबादी निवास करती है।