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वाचन संस्‍कृति – मेहनतकशों और मुनाफाखोरों के शासन में फर्क

आखिरकार इतना फ़र्क क्यों है? क्यों एक ऐसा देश जहाँ 1917 की क्रांति से पहले 83% लोग अनपढ़ थे वह महज़ 3 दशकों के अंदर ही दुनिया का सब से पढ़ने-लिखने वाला देश बन गया और क्यों भारत, जिस को कि आज़ाद हुए 70 साल हो गए हैं, वहाँ अभी भी पढ़ने की संस्कृति बेहद कम है? फ़र्क दोनों देशों की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक  व्‍यवस्‍था का है। फ़र्क भारत के पूंजीवाद और सोवियत यूनियन के समाजवाद का है।

सोवियत संघ में सांस्कृतिक प्रगति – एक जायज़ा (दूसरी किश्त) 

1917 की समाजवादी क्रान्ति को अंजाम देने वाली बाेल्शेविक पार्टी कला की अहमियत के प्रति पूरी सचेत थी। वह जानती थी कि कला लोगों के आत्मिक जीवन को ऊँचा उठाने, उनको सुसंकृत बनाने में कितनी सहायक होती है। अभी जब सिनेमा अपने शुरुआती दौर में ही था, तो हमें उसी समय पर ही लेनिन का वह प्रसिद्ध कथन मिलता है, जो उन्होंने लुनाचार्स्की के साथ अपनी मुलाक़ात के दौरान कहा था, “सब कलाओं में से सिनेमा हमारे लिए सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है।” क्रान्ति के फ़ौरन बाद ही से सोवियत सरकार की तरफ़ से बाेल्शेविक पार्टी की इस समझ पर अमल का काम भी शुरू हो गया। जल्द ही ये प्रयास किये गये कि पूरे सोवियत संघ में संस्कृति के केन्द्रों का विस्तार किया जाये।

सोवियत संघ में सांस्कृतिक प्रगति – एक जायज़ा (पहली किश्त)

एक ऐसा देश जहाँ क्रान्ति से पहले हालत भारत जैसी ही थी, जहाँ  60% से ज़्यादा लोग अनपढ़ थे वह सिर्फ़़ 36 सालों में सांस्कृतिक लिहाज़ से (इस मामले में ख़ास किताबों की संस्कृति) इतना आगे निकल जाता है कि भारत अपने 70 सालों के ‘आज़ादी’ के सफ़र के बाद भी उसके आगे बेहद बौना नज़र आता है? और यह सब वह क्रान्ति-पश्चात चले तीन वर्षों के गृह-युद्ध को सहते हुए, सत्ता से उतारे शोषक वर्गों की ओर से पैदा की जा रही अन्दरूनी गड़बड़ियों के चलते और नाज़ी फ़ासीवादियों के ख़िलाफ़ चले महान युद्ध का नुक़सान उठाते हुए हासिल किया जिस युद्ध में कि सोवियत संघ की आर्थिकता का बड़ा हिस्सा तबाह और बरबाद हो गया था, 2 करोड़ से ज़्यादा नौजवानों को लामिसाली कुर्बानियाँ देनी पड़ीं थीं।

यमन संकट और अन्तरराष्ट्रीय मीडिया की साज़िशी चुप्पी

यमन में मौजूदा उथलपुथल की तार तो अरब बहार के समय से ही जोड़ी जा सकती है जब यमन में भी ट्यूनिशिया, मिस्र की तरह ही लोग तत्कालीन राष्ट्रपति अली अब्दुल्लाह सालेह के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए थे। यमन अरब के सबसे ग़रीब देशों में से है जहाँ तक़रीबन 40% आबादी ग़रीबी में रहती है। और इसी ग़रीबी, बेरोज़गारी जैसे मुद्दों को लेकर जनता का गुस्सा लगातार सालेह के ख़िलाफ़ बढ़ रहा था जिसने यमन पर 33 सालों तक (पहले यमन अरब गणतन्त्र के राष्ट्रपति के तौर पर और 1990 में दक्षिणी यमन के साथ एकीकृत होने के बाद पूरे यमन में) बतौर राष्ट्रपति हुक़ूमत की।

जनता की बदहाली के दम पर दिनों-दिन बढ़ रही है भारत के धन्नासेठों की आमदनी

जहां एक ओर तो आम लोग अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर भी चिंतित हैं कि अगर कोई घर में बड़ी बीमारी का शिकार हो जाये तो उसके इलाज पर वर्षों की कमाई लग जाती है वहीं दूसरी ओर भारत के धन्नासेठ दिनों-दिन अमीर होते जा रहे हैं और सरकारें भी अपनी नीतियों द्वारा उनकी पूरी सेवा करती रहती हैं। यह पूँजीवादी व्यवस्था लोगों से उनकी बुनियादी ज़रूरतें भी दिनों-दिन छीन रही है जबकि ऊपर वाला वर्ग अय्याशी में डूबा हुआ है। ऐसी मानवद्रोही व्यवस्था को बदलना आज हर इंसाफ़पसंद व्यक्ति की माँग होनी चाहिए।

गहराते आर्थिक संकट के बीच बढ़ रहा वैश्विक व्यापार युद्ध का ख़तरा

इतिहास का तथ्‍य यही है कि पूँजीपति वर्ग अपने मुनाफ़े के लिए युद्ध जैसे अपराधों को लगातार अंजाम देता रहा है। आज इसके मुकाबले के लिए और इसे रोकने के लिए गाँधीवादी, शान्तिवादी कार्यक्रमों और अपीलों की नहीं बल्कि एक रैडिकल, जुझारू अमन-पसन्द आन्दोलन की ज़रूरत है जिसकी धुरी में मज़दूर वर्ग के वर्ग-संघर्ष के नये संस्करण होंगे।

पनामा पेपर्स मामला : पूँजीवादी पतन का एक प्रतिनिधि उदाहरण

फ़र्ज़ी कंपनियाँ बनाकर पूरे विश्व के धन-कुबेर किस तरीके से अपनी कमाई को टैक्सों से बचाते हैं, यही इज़हार हुआ है पनामा की एक कंपनी ‘मोसाक फोंसेका’ के बारे में हुए खुलासे से। ये खुलासे इतिहास के इस तरह के सबसे बड़े खुलासे बताए जा रहे हैं क्योंकि कुल दस्तावेज़ों की गिनती 1।15 करोड़ से भी ज़्यादा है । इन खुलासों से इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था की सड़न नज़र आती है क्योंकि इन खुलासों में कोई एक-आध दर्जन व्यक्तियों मात्र के नाम नहीं है बल्कि पूरे विश्व में फैले इस फ़र्ज़ी कारोबार की कड़ियाँ पूँजीपतियों, राजनेतायों, फ़िल्मी कलाकारों, खिलाड़ियों आदि से जुड़ी हैं ।

बोलते आँकड़े, चीखती सच्चाइयाँ! – अमीर और गरीब आबादी के बीच आर्थिक गैर-बराबरी

ऑक्सफैम की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक अमीर और गरीब आबादी के बीच आर्थिक गैर-बराबरी इतिहास के पहले किसी भी दौर से ज्यादा हो चुकी है। 2008 से शुरू हुए आर्थिक संकट के बाद से तो यह गैर-बराबरी और अधिक गति से बढ़ी है। रिपोर्ट के मुताबिक विश्व के 62 सबसे अमीर व्यक्तियों की कुल संपदा विश्व की 50% सबसे गरीब आबादी की संपदा के बराबर है, यानी 62 व्यक्तियों की कुल संपदा 350 करोड़ लोगों की संपदा के बराबर है! 2010 के बाद से दुनिया की सबसे गरीब आबादी में से 50 फीसदी की संपत्ति करीब 1,000 अरब डॉलर घटी है। यानी उनकी संपत्ति में 41% की जोरदार गिरावट आई है। रिपोर्ट के अनुसार 2010 में दुनिया की सबसे गरीब आबादी के 50 फीसदी के पास जितनी धन संपदा थी, उतनी ही संपत्ति दुनिया के 388 सबसे अधिक अमीर लोगों के पास थी. उसके बाद यह आंकड़ा लगातार घट रहा है. 2011 में यह घटकर 177 पर आ गया है, 2012 में 159, 2013 में 92 और 2014 में 80 पर आ गया।

मुनाफ़े की अन्धी हवस में हादसों में मरते मजदूर

हर साल विश्व में कोयला खान हादसों में 20,000 से ज्यादा मज़दूरों की मौत होती है और इसमें बड़ा हिस्सा चीन के भीतर होने वाले हादसों का होता है। भारत में भी अक्सर कोयला खदानों में होने वाली दुर्घटनाओं में मज़दूरों की मौत होती रहती है। लगातार ऐसे हादसों का घटित होना इस पूरी मुनाफे पर टिकी हुई व्यवस्था का ही परिणाम है जिसमें मुनाफ़े के आगे इंसान की जान की कोई क़ीमत नहीं है। हादसों के बाद प्रशासन और सरकारों की ओर से सुरक्षा को लेकर कुछ दिखावटी फैसले किये जाते हैं लेकिन कुछ ही समय बाद मुनाफे के आगे ऐसे फैसलों की असल औकात दिख जाती है और काम फिर से पहले की तरह चलता रहता है। मुनाफे पर टिकी हुई इस पूरी व्यवस्था को उखाड़ कर ही ऐसे हादसों की संभावना को बेहद कम किया जा सकता है।

महीनों से आर्थिक नाकाबन्दी की मार झेलते नेपाल के लोग

इस नाकेबन्दी के कारण नेपाल में ज़रूरी वस्तुओं की भारी किल्लत हो गयी है। हालात इतने गम्भीर हो चुके हैं कि यूनिसेफ़ को घोषणा करनी पड़ी है कि यदि आने वाले महीनों में इसका कोई हल न निकाला गया तो पाँच साल से कम उम्र के 30 लाख बच्चे मौत या फिर भयंकर बीमारी के दहाने में पहुँच जायेंगे।