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क्रान्तिकारी सोवियत संघ में स्वास्थ्य सेवाएँ

सोवियत संघ में स्वास्थ्य सुविधा पूरी जनता को नि:शुल्क उपलब्ध थी। वहाँ गोरखपुर की तरह ऑक्सीजन सिलेण्डर के अभाव में बच्चे नहीं मरते थे और ना ही भूख से कोई मौत होती थी। सोवियत रूस में गृह युद्ध (1917-1922) के दौरान स्वास्थ्य सेवाएँ बहुत पिछड़ गयी थीं। 1921 में जब गृहयुद्ध में सोवियत सत्ता जीत गयी, तब रूस में सब जगह गृहयुद्ध के कारण बुरा हाल था। देशभर में टाइफ़ाइड और चेचक जैसी बीमारियों से कई लोग मर रहे थे। साबुन, दवा, भोजन, मकान, स्कूल, पानी आदि तमाम बुनियादी सुविधाओं का चारों तरफ़़़ अकाल था। मृत्यु दर कई गुना बढ़ गयी थी और प्रजनन दर घट गयी थी। चारों तरफ़़़ अव्यवस्था का आलम था। पूरा देश स्वास्थ्य कर्मियों, अस्पतालों, बिस्तरों, दवाइयों, विश्रामगृहों के अभाव की समस्या से जूझ रहा था। ऐसे में सोवियत सत्ता ने एक केन्द्रीयकृत चिकित्सा प्रणाली को अपनाने का फ़ैसला किया जिसका लक्ष्य था छोटी दूरी में इलाज करना और लम्बी दूरी में बीमारी से बचाव के साधनों-तरीक़ों पर ज़ोर देना ताकि लोगों के जीवन स्तर को सुधारा जा सके।

“रामराज्य” में राजस्थान में पसरी भयंकर बेरोज़गारी!

राजस्थान में पिछले 7 सालों में मात्र 2.55 लाख  सरकारी नौकरियाँ निकलीं और इनके लिए 1 करोड़ 8 लाख 23 हज़ार आवेदन किये गये यानी कि हर पद के लिए 44 अभ्यर्थियों के बीच मुकाबला हुआ! राजस्थान में हाल ही में रीट की परीक्षा हुई जिसमें केवल 54 हज़ार पद थे (शुरू में केवल 34 हज़ार पद थे जो कि चुनावी साल होने के कारण चालाकी से बढ़ाये गये) और लगभग 10 लाख नौजवानों ने परीक्षा दी। लेकिन उसमें भी भर्ती अटक गयी क्योंकि राजस्थान सरकार की काहिली के कारण पेपर आउट हो गया। क्लर्क ग्रेड परीक्षा में 6 लाख से अधिक उम्मीदवारों ने परीक्षा दी थी। पुलिस कांस्टेबल 2017 की परीक्षा में 5500 पद थे जिसके लिए 17 लाख आवेदन आये यानी कि एक पद के लिए 310 लोगों ने आवेदन किया।

”रामराज्य” में गाय के लिए बढ़ि‍या एम्बुलेंस और जनता के लिए बुनियादी सुविधाओं तक का अकाल!

एक ओर लखनऊ में उपमुख्यमन्त्री केशव प्रसाद मौर्य ने गाय ”माता” के लिए सचल एम्बुलेंस का उद्घाटन किया तो दूसरी ओर राजस्थान सरकार ने अदालत में स्वीकार किया है कि साल 2017 में अक्टूबर तक 15 हज़ार से अधिक नवजात शिशुओं की मौत हो चुकी है। नवम्बर और दिसम्बर के आँकड़े इसमें शामिल नहीं हैं। उनको मिलाकर ये संख्या और बढ़ जायेगी। डेढ़ हज़ार से अधिक नवजात शिशु तो केवल अक्टूबर में मारे गये। सामाजिक कार्यकर्ता चेतन कोठारी को सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के अनुसार भारत में नवजात बच्चों के मरने का आँकड़ा बड़ा ही भयावह है और इसमें मध्य प्रदेश और यूपी सबसे टॉप पर हैं।

40 प्रतिशत हैं बेरोज़गार, कौन है इसका जि़म्मेदार?

सरकारी व निजी क्षेत्र दोनों जगह हालत बहुत खराब है और बेरोज़गारी की समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है। निजी सम्पत्ति और मुनाफ़े पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था में इस समस्या का कोई समाधान सम्भव नहीं है क्योंकि पूँजीवाद में पूँजीपति वर्ग जनता के लिए नहीं, अपनी तिजोरी भरने के लिए उत्पादन करता है। इसलिए पूँजीवाद में बेरोज़गारी बनी रहती है। बेरोज़गारों की फ़ौज हर समय बनाये रखना पूँजीवाद के हित में होता है क्योंकि इससे मालिकों को मनमानी मज़दूरी पर लोगों को रखने की छूट मिल जाती है। ये समस्या तभी ख़त्म की जा सकती है जब सामूहिक सम्पत्ति पर टिकी समाजवादी व्यवस्था का निर्माण किया जाये जहाँ उत्पादन निजी मुनाफ़े के लिए नहीं हो, बल्कि मानव समाज की ज़रूरतें पूरी करने के लिए हो। तभी रोज़गार-विहीन विकास के पूँजीवादी सिद्धान्त को धता बताकर हर हाथ को काम और हर व्यक्ति का सम्मानजनक जीवन का अधिकार सुनिश्चि‍त किया जा सकेगा।

स्मार्ट सिटी के नाम पर ग़रीबों को उजाड़ रही राजस्थान सरकार

दूसरी बात यह है कि कच्ची बस्ती में रहने वाले लोग भी इस देश के नागरिक हैं, इसलिए उनको रोज़ी-रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा और आवास की सुविधा देना इस सरकार की जि़म्मेदारी है। सरकार शहरों को आधुनिक बनाये, सड़कों को चौड़ा करे, यातायात की व्यवस्था को ठीक करे – इससे जनता को कोई परहेज़ नहीं है, लेकिन ऐसा करने की प्रक्रिया में सरकार यदि आम जनता को उजाड़े और प्रभावशाली लोगों को भाँति-भाँति की छूटें, रियायतें, लाभ आदि दे, तो स्पष्ट हो जाता है कि यह सरकार केवल धनपशुओं की सरकार है, जो धनी तबक़ों के हितों की रक्षा करने के लिए ग़रीबों को कुचलती है।

अमरीका, यूरोप और पूरी दुनिया में पैदा हुए नस्लीय, फासीवादी उभार का कारण

अगर वे अपने मूल देश में संघ-भाजपा या किसी अन्य शेड या रंग के (मसलन इस्लामिक चरमपन्थ या अन्य कि़स्म के चरमपन्थ) पार्टी के फासीवाद के पक्ष में खड़े होंगे तो विदेश में उनकी कुटाई और हत्या उसकी तार्किक परिणति होगी। इसलिए उनको तमाम कि़स्म के देशी-विदेशी रंगभेद, नस्लीय उत्पीड़न, जातीय उत्पीड़न या कह लें कि पूँजीवादी शोषण और दमन के तमाम अलग-अलग रूपों का सबके साथ मिलजुलकर विरोध करना होगा वो चाहे उनके अपने मूल देश में हो या उस देश में जहाँ वे रह रहे हैं।

“अच्छे दिन” के कानफाड़ू शोर के बीच 2% बढ़ गयी किसानों और मज़दूरों की आत्महत्या दर!

हम इस लेख में इस बात को समझने की कोशिश करेंगे कि मुख्यत: कौन सा किसान आत्महत्या कर रहा है – धनी किसान या छोटे ग़रीब किसान और क्यूँ?! राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़ों के अनुसार साल 2015 में कृषि सेक्टर से जुड़ी 12602 आत्महत्याओं में 8007 किसान थे और 4595 कृषि मज़दूर। साल 2014 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 5650 और कृषि मज़दूरों की 6710 थी यानी कुल मिलाकर 12360 आत्महत्याएँ। इन आँकड़ों के अनुसार किसानों की आत्महत्या के मामले में एक साल में जहाँ 42 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई वहीं कृषि मज़दूरों की आत्महत्या की दर में 31.5 फ़ीसदी की कमी आयी है व आत्महत्या करने वाले कुल किसान व कृषि मज़दूरों की संख्या 2014 के मुक़ाबलेे 2 फ़ीसदी बढ़ गयी है।

विकलांगों के आये “अच्छे दिन”, “रामराज्य” में विकलांगों की पुलिस कर रही पिटाई!

राजस्थान के महिला एवं बाल विकास मंत्री ने तो आन्दोलनकारियों से मिलने तक से इंकार कर दिया। उनके इस असंवेदनशील व्यवहार का विरोध करने पर पुलिस ने एक विकलांग व्यक्ति को थप्‍पड़ जड़ दिया। इसके पहले आन्दोलन की शुरुआत में पुलिस ने आन्दोलनकारियों पर बर्बर लाठीचार्ज किया गया व एक महिला आन्देालनकारी की तिपहिया साइकिल तोड़ दी।