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नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) को रद्द करो! इस जन विरोधी फ़ैसले को लागू करने के ख़िलाफ़ एक बार फिर जनता की लामबन्दी ज़रूरी!

चुनावों से ठीक पहले सीएए क़ानून को लागू करना वोटों के ध्रुवीकरण करने का एक तरीक़ा है। देशभर में राम मन्दिर के नाम पर लोगों को धर्म की राजनीति में उलझाये रखने के लिए जब मोदी सरकार ने पूरी राज्य मशीनरी, नौकरशाही, मीडिया को और दूसरी तरफ संघ परिवार ने अपने कार्यकर्ताओं को झोंक दिया लेकिन फ़िर भी उससे उतनी बड़ी हवा बनती नहीं दिखी, तब हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण करने के लिए सीएए क़ानून को फ़िर से सामने लाया गया। पिछली बार सीएए-एनआरसी विरोधी आन्दोलन के दौरान दिल्ली में दंगे कराने में संघ परिवार कामयाब हुआ था और मोदी सरकार अब इसी प्रकार से साम्प्रदायिक तनाव पैदा करके चुनाव में वोटों की मोटी फ़सल काटने की योजना बनाये हुए है।

कश्मीर के हालात और मोदी सरकार के दावों की सच्चाई

कश्मीर में हिरासत में हत्या हो जाना, सुरक्षा बलों द्वारा एनकाउंटर किया जाना, लोगों का अगवा कर लिया जाना, पेलेट बंदूकों से बच्चों को अंधा बना दिया जाना, बिना सुनवाई के जेलों में सड़ने छोड़ दिया जाना, सुरक्षा बलों द्वारा औरतों के साथ बलात्कार किया जाना – इन तमाम चीज़ों का सिलसिला लंबे समय से जारी है। कश्मीर की कितनी ही पीढ़ियों ने भारतीय राज्य का यह अमानवीय खूनी चेहरा देखा है। कश्मीरी अवाम के स्मृति पटल पर यह दाग़ तब से अंकित है जब से भारतीय राज्यसत्ता ने अफस्पा जैसे काले कानून को लागू किया और सुरक्षा बलों द्वारा कश्मीरी अवाम पर अत्याचार के सिलसिले शुरू हुए। लोगों के ज़ेहन में भारतीय राज्य के प्रति नफ़रत के बीज बोने के लिए ज़िम्मेदार खुद भारतीय राज्य और यहाँ की सेना है। वरना वही कश्मीरी जनता जिसने 1948  में भारतीय सेना का अपनी धरती पर फूलों से स्वागत किया था, वह क्यों आज उससे उतनी ही गहरी नफ़रत करती है?!

मज़दूरों को इतिहास क्यों जानना चाहिए?

आज भी जिस तरीक़े से फ़ासीवादी सत्ता द्वारा इतिहास को विकृत करके जनता के सामने पेश करने की कोशिश हो रही है ताकि जनता के बीच  साम्प्रदायिकता का ज़हर घोला जा सके, ऐसे में कोसाम्बी की लेखनी बेहद महत्त्व रखती है। आज ज़रूरत है आम मेहनतकश जनता को अपने देश के इतिहास के ऐसे वैज्ञानिक विश्लेषणों से परिचित करवाने की ताकि उन्हें फा़सीवादियों के झूठे प्रचार की ज़द में आने से रोका जा सके। आज ज़रूरत है जनता को  सही मायने में तथ्यों और उनके वैज्ञानिक विश्लेषण पर आधारित इतिहास से परिचित करवाने की। कोसाम्बी इस सन्दर्भ में एक बेहद ज़रूरी स्थान रखते हैं और आज इसी रूप में उन्हें याद किया जा सकता है कि उन्होंने हमेशा इतिहास की साम्प्रदायिक और अन्धराष्ट्रवादी व्याख्याओं का अपनी लेखनी के ज़रिये मुकाबला किया और जनता के पक्ष से लिखे गए इतिहास को स्थापित किया।

‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ : एक जनविद्रोह जो भारतीय पूँजीपति वर्ग के वर्चस्व से निकलकर क्रान्तिकारी दिशा में जा सकता था

‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ जनता के क्रान्तिकारी संघर्षों की विरासत का एक एहम हिस्सा है। 1942 में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में हुए जनउभार ने ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन का अन्त सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इस आन्दोलन में आम मेहनतकश जनता की बड़े स्तर पर भागीदारी थी। क़रीब 40 प्रतिशत मज़दूरों और किसानों ने इस आन्दोलन में हिस्सेदारी की और यह आन्दोलन सिर्फ़ शहरों तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि गाँव-गाँव में फैल गया था। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का अंग्रेज़ी हुकूमत पर क्या प्रभाव पड़ा इसको हम तभी के वायसराय लिनलिथगो के इस वक्तव्य से जान सकते हैं जो उन्होंने तभी के प्रधानमंत्री चर्चिल को लिखे पत्र में कहा था कि “यह 1857 के बाद का सबसे गम्भीर विद्रोह है जिसकी गम्भीरता और विस्तार को हम अब तक सैन्य सुरक्षा की दृष्टि से छुपाये हुए हैं।”

पितृसत्ता के ख़िलाफ़ कोई भी लड़ाई पूँजीवाद विरोधी लड़ाई से अलग रहकर सफल नहीं हो सकती!

इस बार 8 मार्च को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के 111 साल पूरे हो जायेंगे। यह दिन बेशक स्त्रियों की मुक्ति के प्रतीक दिवस के रूप में मनाया जाता है परन्तु जिस प्रकार बुर्जुआ संस्थानों द्वारा इस दिन को सिर्फ़ एक रस्मी कवायद तक सीमित कर दिया गया है, जिस प्रकार स्त्री आन्दोलन को सिर्फ़ मध्यवर्गीय दायरे तक सीमित कर दिया गया है, जिस प्रकार इस दिन को उसकी क्रान्तिकारी विरासत से धूमिल किया जा रहा है और जिस प्रकार उसे उसके इतिहास से काटा जा रहा है, ऐसे में ज़रूरी है कि हम यह जानें कि कैसे स्त्री मज़दूरों के संघर्षों को याद करते हुए अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की शुरुआत हुई थी।

बेरोज़गारी के भयंकर होते हालात और रेलवे के अभ्यर्थी छात्रों का आन्दोलन

बिहार और उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में रेलवे के एन.टी.पी.सी. के अभ्यार्थी आन्दोलनरत हैं। ज्ञात हो 24 जनवरी को बिहार के पटना, आरा व दरभंगा ज़िले में हज़ारों छात्रों ने बड़े स्तर पर रेल रोको आन्दोलन किया। उसके बाद से यह आन्दोलन अन्य राज्यों में भी फैल गया! लेकिन चूँकि मुख्य रूप से बिहार और उत्तर प्रदेश के ही छात्रों ने एन.टी.पी.सी. का फ़ॉर्म भरा था, तो ख़ासकर इन राज्यों में छात्रों का आन्दोलन उग्र होता गया। 24 जनवरी को राजेन्द्र नगर टर्मिनल पर और आरा स्टेशन पर क़रीब 7 घण्टे तक छात्रों ने रेलवे को जाम कर दिया।

सालों से उपेक्षित बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था की असलियत और कोरोना महामारी में उजागर होते उसके भयावह नतीजे!

जिस प्रकार देश में कोरोना महामारी की स्थिति को छुपाने में मोदी सरकार लगी हुई है, उसी प्रकार जदयू-भाजपा की गठबन्धन सरकार बिहार की ज़मीनी हक़ीक़त को दबाने की पूरी कोशिश कर रही है! कोरोना से हुई मौत के आँकड़ों में हेरफेर कर असली आँकड़ों को दबाने की पूरी कोशिश की गयी परन्तु सच्चाई किसी से नहीं छुपी है।

पूरे देश भर में बच्चियों का आर्तनाद नहीं, बल्कि उनकी धधकती हुई पुकार सुनो!

अभी न जाने कितने और ऐसे बालिका गृह हैं जहाँ सत्ता की साँठ-गाँठ से ऐसे कुकृत्य अभी भी जारी होंगे! केन्द्र द्वारा कोर्ट में पेश की गयी एक रिपोर्ट के अनुसार देश के विभिन्न भागों में आश्रय गृहों में 286 लड़कों सहित 1575 बच्चों का शारीरिक शोषण या यौन उत्पीड़न किया गया है। इस पूरे मामले को हम एक सामान्य घटना के तौर पर नहीं देख सकते! महज़ कुछ ब्रजेश ठाकुर जैसे लोग या प्रशासनिक लापरवाही इसकी ज़िम्मेदार नहीं, बल्कि सत्ता में बैठे कई लोग भी शामिल हैं इसमें! सरकार द्वारा संचालित इन बालिका गृहों में यौन शोषण और यहाँ तक कि जिस्मों की ख़रीद-बिक्री की इन घटनाओ ने आज पूरी व्यवस्था पर सवाल खड़ा किया है। यह घटना मानवद्रोही, सड़ान्ध मारती पूँजीवादी व्यवस्था की प्रातिनिधिक घटना है। इस घटना ने राजनेताओं, प्रशासन, नौकरशाही, पत्रकारिता व न्यायपालिका सबको कटघरे में खड़ा कर दिया है!

गौरक्षा का गोरखधन्धा – फ़ासीवाद का असली चेहरा

इस प्रतिबन्ध से मुस्लिम और हिन्दू दोनों ही अपनी आजीविका खो रहे हैं। वैसे तो संघ द्वारा यह प्रचार किया जाता है कि मुस्लिम ही मुख्यतः मांस का सेवन करते हैं, पर विभिन्न राज्यों में मुसलमानों की तुलना में, दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ी जातियों के समुदाय गोमांस ज़्यादा खाते हैं। एनएसएसओ के अनुमान के मुताबिक़, देश में 5.2 करोड़ लोग, मुख्य रूप से दलित और आदिवासी और विभिन्न समुदायों के ग़रीब लोग, गोमांस/भैंस का मांस खाते हैं। साफ़ है कि बीफ़ की खपत के मुद्दे को भी यहाँ वर्ग के आधार पर देखा जाना चाहिए। एक तरफ़ यह क़दम सीधे ग़रीबों को प्रोटीन पोषण के अपेक्षाकृत सस्ते स्रोत से वंचित कर रहा है, वहीं दूसरी ओर सत्ता में बैठे लोगों की मिलीभगत द्वारा समर्थित हिन्दू ब्रिगेड का यह आतंक अभियान, लाखों लोगों की आजीविका और उद्योग को पूरी तरह से मार रहा है।