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पूँजीवादी संकट गम्भीर होने के साथ ही दुनिया-भर में दक्षिणपंथ का उभार तेज़

नवउदारवाद के इस दौर में पूँजीवादी व्यवस्था का संकट जैसे-जैसे गम्भीर होता जा रहा है, वैसे-वैसे दुनियाभर में फासीवादी उभार का एक नया दौर दिखायी दे रहा है। पूरी दुनिया में पूँजीवादी व्यवस्था लम्बे समय से संकट में फँसी हुई और उबरने के तमाम उपाय करने के बावजूद इसका संकट पहले से भी ज़्यादा गम्भीर होता जा रहा है। ऐसे में अपने मुनाफ़े की दर को कम होते जाने से बचाने के लिए दुनियाभर के पूँजीपति अपने देश के मज़दूरों और आम जनता के शोषण को बढ़ाते जा रहे हैं। जिन देशों में आम लोगों को पहले से कुछ बेहतर सुविधाएँ मिली हुई थीं वहाँ भी अब वे सुविधाएँ छीनी जा रही हैं। इस बढ़ते शोषण के ख़ि‍लाफ़ लोग सड़कों पर उतर रहे हैं। ऐसे में हर जगह के पूँजीपति अपने आख़िरी हथियार – फ़ासीवाद को‍ निकालने पर मजबूर हो रहे हैं। कहीं यह एकदम नंगे रूप में सामने आ चुका है तो कहीं इसने अभी नग्न फ़ासीवाद की शक़्ल नहीं ली है मगर उग्र दक्षिणपंथी ताक़तों के उभार के रूप में सामने आया है।

वेतन संहिता अधिनियम 2019 – मज़दूर अधिकारों पर बड़ा आघात

संघी सरकार सत्ता में दोबारा आते ही मुस्तैदी से अपने पूँजीपति आकाओं की सेवा में लग गयी है। पूँजीपतियों के हितों वाले विधेयक संसद में धड़ाधड़ पारित किये जा रहे हैं। सूचना-अधिकार संशोधन और यूएपीए संशोधन जैसे विधेयकों से एक तरफ़ आम अवाम की आवाज़ पर शिकंजे कसने की कोशिश की गयी है, दूसरी तरफ़ वेतन संहिता विधेयक से उनके न्यूनतम वेतन सम्बन्धी अधिकारों को एक तरह से ख़त्म ही कर दिया गया है। इसके अलावा मज़दूरों पर हर तरह से नकेल कसने के लिए और उनकी ज़िन्दगियों को पूरी तरह से मालिकों के रहमोकरम पर छोड़ देने के लिए ‘व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थल स्थिति विधेयक’ भी पेश किया जा चुका है, जबकि औद्योगिक सम्बन्ध और सामाजिक सुरक्षा से सम्बन्धित बिल पेश किये जाने बाक़ी हैं। व्यवसाय में सुलभता के लिए सरकार ने 44 केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को इन्हीं चार श्रम संहिताओं में बाँधने का फ़ैसला किया है।

‘आज़ादी कूच’ : एक सम्भावना-सम्पन्न आन्दोलन के अन्तरविरोध और भविष्य का प्रश्न

हम एक बार यह भी स्पष्ट करना चाहेंगे कि हमारी इस कॉमरेडाना आलोचना का मकसद है इस आन्दोलन के सक्षम और युवा नेतृत्व के समक्ष कुछ ज़रूरी सवालों को उठाना जिनका जवाब भविष्य में इसे देना होगा। आज समूचा जाति-उन्मूलन आन्दोलन और साथ ही हम जैसे क्रान्तिकारी संगठन व व्यक्ति जिग्नेश मेवानी की अगुवाई में चल रहे इस आन्दोलन को उम्मीद, अधीरता और अकुलाहट के साथ देख रहे हैं। किसी भी किस्म का विचारधारात्मक समझौता, वैचारिक स्पष्टवादिता की कमी और विचारधारा और विज्ञान की कीमत पर रणकौशल और कूटनीति करने की हमेशा भारी कीमत चुकानी पड़ती है, चाहे इसका नतीजा तत्काल सामने न आये, तो भी।

नरेन्द्र मोदी का “स्वच्छ भारत अभियान” : जनता को मूर्ख बनाने की नयी नौटंकी

यह एक नौटंकी है जिससे कि जनता को बेवकूफ़ बनाया जा सके, जिसका कि मोदी सरकार के प्रतीकवाद से मोहभंग हो रहा है और जो अब यह समझ रही है कि मोदी सरकार पूँजीपतियों की टुकड़खोर है। वैसे तो हर पूँजीवादी सरकार ही पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी का ही काम करती है, लेकिन पूँजीपतियों के सामने दुम हिलाने और उनके तलवे चाटने में मोदी ने अब तक के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिये हैं। अगर पाँच महीने में ही मोदी सरकार की यह हालत है तो फिर आने वाले पाँच सालों में क्या होगा इसका अन्दाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है। लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि मोदी सरकार का यह प्रतीकवाद बहुत दिनों तक काम नहीं करने वाला और अन्ततः उसे अपने नंगे रूप में आना ही है और खुले व बर्बर दमन की नीतियों को अपनाना ही है। मोदी अपना दिखावटी स्वच्छता अभियान चलाकर ख़त्म कर लेगा। लेकिन जनता को भी अपने स्वच्छता अभियान की शुरुआत करनी होगी और भारत के नक्शे और फिर दुनिया के नक्शे से पूँजीवाद-रूपी गन्दगी को अपने बलिष्ठ हाथों से साफ़ करने की तैयारी करनी होगी।

मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन के पुनर्गठन के नवीनतम प्रयासों की विफलता – इस अफ़सोसनाक हालत का ज़िम्मेदार कौन है?

“इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” ने अपने संकीर्ण सांगठनिक हितों के लिए “मज़दूरों की स्वतःस्फूर्तता” और “स्‍वतन्त्र नेतृत्व और निर्णय” की खूब दुहाई थी और खूब जश्न मनाया लेकिन सच्चाई यह थी कि आन्दोलन के नेतृत्व में कभी भी स्वतन्त्र रूप से निर्णय लेने का साहस और क्षमता नहीं रही और न ही इन अवसरवादियों और संघाधिपत्यवादियों ने कभी ऐसा साहस या क्षमता पैदा करने की प्रक्रिया को प्रेरित किया। पहले यह गुड़गाँव-मानेसर में केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के दल्लालों की पूँछ पकड़कर चलता रहा; उसके बाद “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” के रायबहादुरों के मन्त्र और रामबाण नुस्खे सुनता रहा; उसके बाद कैथल जाने पर वह धनी किसानों और कुलकों के नुमाइन्दे खाप पंचायतों की गोद में जा बैठा; और जब 19 मई के दमन के बाद खाप पंचायतों ने अपना रास्ता पकड़ा तो घूम-फिर कर यूनियन नेतृत्व फिर से केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के ग़द्दारों के सहारे आ गया कि शायद वे ही सरकार से कुछ सुनवाई-समझौता करा दें। इसमें “स्‍वतःस्फूर्तता और स्वतन्त्र निर्णय” कहाँ है!? मज़ेदार बात यह है कि इन अवसरवादी, अराजकतावादी और संघाधिपत्यवादी “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” को भी इस सारे कार्य-कलाप से कोई लाभ नहीं हुआ और न ही उनके संकीर्ण सांगठनिक हित इससे सध सके! हाँ, इससे पूरे आन्दोलन का नुकसान उन्होंने ज़रूर किया।

मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन-एक सम्भावनासम्पन्न आन्दोलन का बिखराव की ओर जाना…

हमारा मानना है कि मारुति सुजुकी के मज़दूरों ने लम्बे समय तक एक साहसपूर्ण संघर्ष चलाया और वह साहस एक मिसाल है। लेकिन यूनियन नेतृत्व की ग़लत प्रवृत्तियों, अवसरवाद और व्यवहारवाद के कारण आन्दोलन को सही दिशा नहीं मिल सकी और यही कारण है कि आज आन्दोलन इस स्थिति में है। दूसरा कारण, आन्दोलन में ‘इंक़लाबी-क्रान्तिकारी’ कामरेडों की अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी, पुछल्लावादी सोच, और कानाफूसी और कुत्साप्रचार की राजनीति का असर है। और तीसरा असर है, एम.एस.डब्ल्यू.यू. के नेतृत्व का स्वयं का पुछल्लावाद

सीरिया: साम्राज्यवादी हस्तक्षेप और इस्लामी कट्टरपन्थ, दोनों को नकारना होगा जनता की ताक़तों को!

सीरिया में जारी गृहयुद्ध अब क़रीब दो वर्ष पूरे करने वाला है। सीरिया के शासक बशर अल असद की दमनकारी तानाशाह सत्ता के ख़िलाफ़ जनविद्रोह की शुरुआत वास्तव में अरब विश्व में दो वर्ष पहले शुरू हुए जनउभार के साथ ही हुई थी। इस जनविद्रोह ने मिस्र और ट्यूनीशिया में तानाशाह सत्ताओं को उखाड़ फेंका। हालाँकि किसी इंक़लाबी मज़दूर पार्टी की ग़ैर-मौजूदगी में इन देशों में जो नयी सत्ताएँ आयीं उन्होंने जनता की आकांक्षाओं को पूरा नहीं किया और वे साम्राज्यवाद के प्रति समझौतापरस्त रुख़ रखती हैं। लेकिन एक बात तय है कि अरब में उठे जनविद्रोह ने साम्राज्यवादियों की नींदें उड़ा दी हैं। अमेरिकी और यूरोपीय साम्राज्यवादी जानते हैं कि जनता की क्रान्तिकारी चेतना का जिन्न एक बार बोतल से निकल गया तो वह कभी भी ख़तरनाक रुख़ अख्त़ियार कर सकता है। इसलिए अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने इन जनविद्रोहों को कुचलने की बजाय उनका समर्थन करके उन्हें सहयोजित करने का क़दम उठाया है। मिस्र और ट्यूनीशिया में काफ़ी हद तक यह साम्राज्यवादी साज़िश कामयाब भी हुई है। अल असद की सत्ता के खि़लाफ़ जो जनविद्रोह शुरू हुआ था, शुरू में अमेरिका ने उसे समर्थन नहीं दिया था और असद से कुछ सुधार लागू करने के लिए कहा था ताकि यह जनविद्रोह किसी बड़े परिवर्तन की तरफ न बढ़े। लेकिन जल्द ही उसने असद की सत्ता को ख़त्म करने की नीति को खुले तौर पर अपना लिया। दो वर्षों से जारी सीरियाई गृहयुद्ध में क़रीब 8,000 लोग मारे जा चुके हैं और इससे कहीं ज़्यादा विस्थापित हो चुके हैं। अमेरिका विद्रोहियों का समर्थन करके सीरिया में एक ऐसा नियन्त्रित सत्ता परिवर्तन चाहता है जो कि उसके हितों के अनुकूल हो।

दलित मुक्ति का रास्ता मज़दूर इंक़लाब से होकर जाता है, पहचान की खोखली राजनीति से नहीं!

दलित मुक्ति की पूरी ऐतिहासिक परियोजना वास्तव में मज़दूर वर्ग की मुक्ति और फिर पूरी मानवता की मुक्ति की कम्युनिस्ट परियोजना के साथ ही मुकाम तक पहुँच सकती है। जिस समाज में आर्थिक समानता मौजूद नहीं होगी, उसमें सामाजिक और राजनीतिक समानता की सारी बातें अन्त में व्यर्थ ही सिद्ध होंगी। एक आर्थिक और राजनीतिक रूप से न्यायसंगत व्यवस्था ही सामाजिक न्याय के प्रश्न को हल कर सकती है। हमें अगड़ों-पिछड़ों की, दलित-सवर्ण की और ऊँचे-नीचे की समानता या समान अवसर की बात नहीं करनी होगी; हमें इन बँटवारों को ही हमेशा के लिए ख़त्म करने के लक्ष्य पर काम करना होगा। यह लक्ष्य सिर्फ़ एक रास्ते से ही हासिल किया जा सकता है मज़दूर इंकलाब के ज़रिये समाजवादी व्यवस्था और मज़दूर सत्ता की स्थापना के रास्ते। जिस दलित आबादी का 97 फ़ीसदी आज भी खेतिहर, शहरी औद्योगिक मज़दूर है वह मज़दूर क्रान्ति से ही मुक्त हो सकता है। इसे सरल और सहज तर्क से समझा जा सकता है, किसी गूढ़, जटिल दार्शनिक या राजनीतिक शब्दजाल की ज़रूरत नहीं है। आज पूरी दलित अस्मितावादी राजनीति पूँजीवादी व्यवस्था की ही सेवा करती है। ग़ैर-मुद्दों, प्रतीकवाद और रस्मवाद पर केन्द्रित अम्बेडकरवादी राजनीति आज कोई वास्तविक हक़ दिला ही नहीं सकती है क्योंकि यह वास्तविक ठोस मुद्दे उठाती ही नहीं है। उल्टे यह मज़दूर आबादी की एकता स्थापित करने की प्रक्रिया को कमज़ोर करती है और इस रूप में श्रम की ताक़त को कमज़ोर बनाती है और पूँजी की ताक़त को मज़बूत। इस राजनीति को हर क़दम पर बेनकाब करने की ज़रूरत है और दलित मुक्ति की एक ठोस, वैज्ञानिक, वास्तविक और वैज्ञानिक परियोजना पेश करने की ज़रूरत है।

फ़्रांस : होलान्दे की जीत सरकोज़ी की नग्न अमीरपरस्त और साम्राज्यवादी नीतियों के ख़िलाफ जनता की नफरत का नतीजा है, समाजवाद की जीत नहीं

फ़्रांस में सामाजिक जनवादियों की जीत वास्तव में पूँजीवाद के संकट का एक परिणाम है। विश्व पूँजीवाद मन्दी के जिस भँवर में फँसा हुआ है उसकी कुछ राजनीतिक कीमत तो उसे चुकानी ही थी। नवउदारवादी नीतियों का खुले तौर पर पालन करने वाली पार्टियाँ अलग-अलग देशों में चुनावों में हार रही हैं। यूनान में भी एक वामपंथी गठबन्धन ने चुनावों में प्रभावी प्रदर्शन किया। संकट के शुरू होने के बाद से यूरोप में 11 सरकारें बदल चुकी हैं। कुछ चुनाव के ज़रिये और कुछ शासक वर्ग के अलग-अलग धड़ों के बीच गठबन्धन के ज़रिये। आर्थिक संकट का पूरा बोझ पूँजीपति वर्ग जनता पर डाल रहा है। यह आर्थिक संकट बैंकों की सट्टेबाज़ी और जुआबाज़ी के कारण पैदा हुआ था। जब बैंकों के दिवालिया होने की हालत हुई तो वित्तीय इजारेदार पूँजी के इशारों पर चलने वाली सरकारों ने जनता के पैसों से बैंकों को बचाया। और जब सरकारी ख़ज़ाने में सरकारी कर्मचारियों को वेतन देने लायक पैसे की भी कमी पड़ने लगी तो फिर तमाम सरकारी कल्याणकारी नीतियों, सामाजिक सुरक्षा योजनाओं, शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार आदि के मद में कटौती की जाने लगी। मेहनतकश जनता समाज की सारी ज़रूरतों को पूरा करती है, सारे सामान बनाती है, सारी समृद्धि पैदा करती है और उस समृद्धि को संचित करने वाला पूँजीपति वर्ग जब अपने ही अति-उत्पादन और पूँजी की प्रचुरता के संकट का शिकार हो जाता है तो उस संकट का बोझ मेहनतकश जनता पर डाल दिया जाता है और उसको बताया जाता है कि यह ”राष्ट्रीय संकट” है और उन्हें अपनी ”देशभक्ति” का प्रमाण देने के लिए पेट पर पट्टी बाँध लेनी चाहिए! इस समय पूरे यूरोप में यही हो रहा है।

ज़रूर प्रधानमन्त्री जी! बचे-खुचे श्रम-क़ानूनों को भी क्यों न ख़त्म कर दिया जाये क्योंकि अब वे भी मुनाफ़े की हवस में बाधा बन रहे हैं!

साफ़ है कि प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने मन्दी के दौर में पूँजी के घटते मुनाफ़े की भरपाई करने के लिए मज़दूरों को और अधिक लूटने का इन्तज़ाम करने की बात कही है। राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन में उनका यह बेशर्म भाषण इस बात का संकेत है कि आने वाले समय में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों की लूट को और अधिक आसान और प्रभावी बनाने के लिए बचे-खुचे श्रम क़ानूनों में भी संशोधन किया जायेगा। हर मज़दूर जानता है कि जो क़ानून उनके लिए किताबों में पहले से ही दर्ज़ हैं वे भी आज देश में लागू नहीं होते। ठेका मज़दूरी क़ानून के मुताबिक़ हर ठेका मज़दूर को न्यूनतम मज़दूरी, आठ घण्टे के काम के दिन का अधिकार, ई.एस.आई., पी.एफ़ आदि की सुविधा, साप्ताहिक छुट्टी, डबल रेट से ओवरटाइम का हक़ मिलना चाहिए। लेकिन देश के क़रीब 50 करोड़ असंगठित क्षेत्र में मज़दूरों को कहीं भी यह हक़ हासिल नहीं है।