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नोएडा की एक्सपोर्ट कम्पनियों में मज़दूरों की बदतर हालत

तमाम बुर्जुआ अर्थशास्त्री और सरकारी भोंपू जिन श्रम क़ानूनों को देश की आर्थिक प्रगति की राह का रोड़ा बताते रहते हैं उनकी असलियत जानने के लिए राजधानी से सटे औद्योगिक महानगर नोएडा में मज़दूरों की हालत को देखना ही काफ़ी है। राजधानी दिल्ली के बगल में स्थित नोएडा देश के सबसे बड़े औद्योगिक क्षेत्रों में से एक है। यहाँ सैकड़ों अत्याधुनिक फ़ैक्टरियों में लाखों मज़दूर काम करते हैं। इन फ़ैक्टरियों में मज़दूरों का शोषण और उत्पीड़न कोई नयी बात नहीं है। मगर हाल के दिनों में विभिन्न एक्सपोर्ट कम्पनियों में मज़दूरों के साथ होने वाली बदसलूकी बढ़ती जा रही है जिसके कारण मज़दूरों में मालिकों के ख़िलाफ़ आक्रोश भी गहराता जा रहा है। इन कम्पनियों में काम कर रही महिलाओं की हालत तो और भी बदतर तथा असहनीय है।

न्यूनतम वेतन क़ानून के ज़रिये केजरीवाल की नयी नौटंकी का पर्दाफ़ाश करो! संगठित होकर अपने हक़ हासिल करो!!

 अगर सरकार की सही मायने में यह मंशा होती कि यह क़ानून लागू किया जाये तो सबसे पहले तो यही सवाल बनता है कि दिल्ली की आप सरकार ने पुराने क़ानूनों को ही कितना लागू किया है? अगर सही मायने में केजरीवाल सरकार की यह मंशा होती तो वह सबसे पहले हर फ़ैक्टरी में मौजूदा श्रम क़ानूनों को लागू करवाने का प्रयास करती, परन्तु पंगु बनाये गये श्रम विभाग के ज़रिये यह सम्भव ही नहीं है। कैग की रिपोर्ट इनकी हक़ीक़त सामने ला देती है। इस रिपोर्ट के अनुसार कारख़ाना अधिनियम, 1948 (Factories Act, 1948) का भी पालन दिल्ली सरकार के विभागों द्वारा नहीं किया जा रहा है। वर्ष 2011 से लेकर 2015 के बीच केवल 11-25% पंजीकृत कारख़ानों का निरीक्षण किया गया। निश्चित ही  इस क़ानून से जिसको थोडा-बहुत फ़ायदा पहुँचेगा, वह सरकारी कर्मचारियों और संगठित क्षेत्र का छोटा-सा हिस्सा है, परन्तु यह लगातार सिकुड़ रहा है।

सावधान! श्रम क़ानूनों में बदलाव करके स्थायी रोज़गार को ख़त्म करने की दिशा में क़दम बढ़ा चुकी है सरकार

कहने की ज़रूरत नहीं कि पूँजीपतियों की तमाम संस्थाएँ और भाड़े के बुर्जुआ अर्थशास्त्री उछल-उछलकर सरकार के इन प्रस्तावित बदलावों का स्वागत कर रहे हैं और कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था में जोश भरने और रोज़गार पैदा करने का यही रास्ता है। कहा जा रहा है कि आज़ादी के तुरन्त बाद बनाये गये श्रम क़ानून विकास के रास्ते में बाधा हैं इसलिए इन्हें कचरे की पेटी में फेंक देना चाहिए और श्रम बाज़ारों को ‘’मुक्त’’ कर देना चाहिए। विश्व बैंक ने भी 2014 की एक रिपोर्ट में कह दिया था कि भारत में दुनिया के सबसे कठोर श्रम क़ानून हैं जिनके कारण यहाँ पर उद्योग व्यापार की तरक्की नहीं हो पा रही है।

श्रम क़ानूनों में ”सुधार” के नाम पर सौ साल के संघर्षों से हासिल अधिकार छीनने की तैयारी में है सरकार

सुधार से उनका सबसे पहला मतलब होता है कि मज़दूरों को और अच्छी तरह निचोड़ने के रास्ते में बची-खुशी बन्दिशों को भी हटा दिया जाये। मोदी सरकार इस माँग को पूरा करने में जी-जान से जुटी हुई है।
श्रम मंत्रालय संसद में छह विधेयक पारित कराने की को‍शिश में है। इनमें चार विधेयक हैं – बाल मज़दूरी (निषेध एवं विनियमन) संशोधन विधेयक, बोनस भुगतान (संशोधन) विधेयक, छोटे कारखाने (रोज़गार के विनियमन एवं सेवा शर्तें) विधेयक और कर्मचारी भविष्यनिधि एवं विविध प्रावधान विधेयक। इसके अलावा, 44 मौजूदा केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर चार संहिताएँ बनाने का काम जारी है, जिनमें से दो – मज़दूरी पर श्रम संहिता और औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता – पहले पेश की जा चुकी हैं और तीसरी – सामाजिक सुरक्षा पर श्रम संहिता – का मसौदा पिछले मार्च में जारी किया गया। कहने के लिए श्रम क़ानूनों को तर्कसंगत और सरल बनाने के लिए ऐसा किया जा रहा है। लेकिन इसका एक ही मकसद है, देशी-विदेशी कम्पनियों के लिए मज़दूरों के श्रम को सस्ती से सस्ती दरों पर और मनमानी शर्तों पर निचोड़ना आसान बनाना।