Tag Archives: पावेल

हमारे देश और दुनिया में पैदा हुई वैक्सीन की किल्लत का ज़िम्मेदार कौन?

कोविड-19 महामारी के बीच जब दुनिया के विभिन्न हिस्सों में कार्यरत वैज्ञानिकों की मेहनत रंग लायी और वैक्सीन के सफल निर्माण और शुरुआती ट्रायलों में उसकी प्रत्यक्ष प्रभाविता की ख़बरें आयीं तो दुनिया को इस अँधेरे समय में आशा की किरण दिखायी दी। लेकिन वैक्सीन निर्माण और उसके वितरण के रास्ते में रोड़ा बनकर खड़ी मुनाफ़ाख़ोर फ़ार्मा कम्पनियाँ, मौजूदा पेटेण्ट क़ानून और बौद्धिक सम्पत्ति अधिकारों के पूँजीवादी नियम, विज्ञान द्वारा पैदा की गयी इस आशा की इस किरण को लगातार मद्धम किये जा रहे हैं।

बाल कुपोषण के भयावह आँकड़े व सरकारों की अपराधी उदासीनता

बीती 13 जनवरी को झारखण्ड की रघुबर सरकार ने मिड डे मील के तहत बच्चों को मिलने वाले अण्डों में कटौती की घोषणा करते हुए इसे हफ़्ते में तीन से दो करने का फै़सला ले लिया। सरकार ने इसका कारण बताया है कि हर दिन बच्चों को अण्डा खिलाना सरकार के लिए “महँगा” सौदा पड़ रहा है। ताज्जुब की बात है कि राज्य की खनिज सम्पदाओं, जंगलों, पहाड़ों को अपने कॉर्पोरेट मित्रों के हाथों औने-पौने दाम पर बेचना सरकार को कभी “महँगा” नहीं पड़ा। ग़ौरतलब है कि झारखण्ड देश के सबसे कुपोषित राज्यों में से एक है और खनिज व प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इस राज्य के 62% बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। राज्य के कुल कुपोषित बच्चों में से 47% बच्चों में ‘स्टण्टिंग’ यानी उम्र के अनुपात में औसत से कम लम्बाई पायी गयी है जो कि कुपोषण की वजह से शरीर पर पड़ने वाले अपरिवर्तनीय प्रभावों में से एक है। पूरे देश के कुपोषण के आँकड़ों पर नज़र डालें तो UNICEF के अनुसार भारत में 5 वर्ष से कम उम्र के 39% बच्चे स्टण्टिंग के शिकार हैं।

उद्योगपतियों को खरबों की सौगात देने वाली झाारखण्ड सरकार को ग़रीब कुपोषित बच्चों को पौष्टिक भोजन देना ”महँगा” लग रहा है!

झारखंड सरकार ने मिडडे मील के तहत बच्चों को मिलने वाले अंडों में कटौती करते हुए इसे हफ्ते में तीन से दो करने का फैसला किया है। सरकार ने कहा है कि हर दिन बच्चों को अंडा खिलाना सरकार को “महँगा” पड़ रहा है। बाकी औने पौने दाम पर खनिज संपदाओं, जंगलों को अपने कॉर्पोरेट मित्रों को बेचना सरकार को “महँगा” नहीं पड़ता। गौरतलब है झारखंड देश के सबसे कुपोषित राज्यों में से एक है और झारखंड के कुल 62% बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। कुल कुपोषित बच्चों में से 47% बच्चों में stunting यानी उम्र की अनुपात में औसत से कम लंबाई पाई गई है जो कि कुपोषण की वजह से शरीर पर पड़ने वाले स्थाई प्रभावों में से एक है।

बेअसर होती एण्टीबायोटिक दवाएँ : मुनाफ़े के जाल में फँसे फ़ार्मा उद्योग का विनाशकारी भस्मासुर

बेअसर होती एण्टीबायोटिक दवाएँ मुनाफ़े के जाल में फँसे फ़ार्मा उद्योग का विनाशकारी भस्मासुर डॉ॰ पावेल पराशर एण्टीबायोटिक यानी प्रतिजैविक का जन्म चिकित्सा विज्ञान की एक महान परिघटना थी। 1928…

आरएसएस का “गर्भ विज्ञान संस्कार” – जाहिल नस्लवादी मानसिकता का नव-नाज़ी संस्करण

हमारे देश के ये संघी फासिस्ट तो जहालत के मामले में नाज़ियों से भी दो क़दम आगे हैं। ये जाहिल, मूर्ख और मध्ययुगीन मानसिकता वाले हैं, इसमें तो कोई शक की गुंजाइश नहीं, लेकिन यह नस्लवादी विचारधारा जो इनके रग-रग में बसी है, उसकी भी नंगी नुमाइश 21वीं सदी में ये स्वदेशी फ़ासिस्ट अब बिना किसी शर्म या संकोच के कर रहे हैं। इनके इस “गर्भ विज्ञान” का वैसे तो कोई वैज्ञानिक आघार भी नहीं है। लेकिन सही मायने में “उत्तम सन्तति” यानी स्वस्थ जच्चा-बच्चा की बात की जाये, तो वह इनकी सरकार के एजेण्डा में दूर-दूर तक कहीं नहीं है। साल दर साल स्वास्थ्य बजट में कटौती करती मोदी सरकार इस तथ्य की बेशर्मी के साथ अनदेखी करती आयी है कि मातृत्व मृत्यु दर, मातृत्व, शिशु व बाल कुपोषण के आँकड़ों के मामले में भारत दुनिया के सबसे पिछड़े देशों की क़तार में खड़ा है।

तर्कवादी चिन्तक कलबुर्गी की हत्या – धार्मिक कट्टरपंथी ताकतों की एक और कायरतापूर्ण हरकत

प्रसिद्ध साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हो चुके प्रोफेसर कलबुर्गी धारवाड़ स्थिति कर्नाटक विश्वविद्यालय में कन्नड़ विभाग के विभागाध्यक्ष रहे व बाद में हम्पी स्थित कन्नड़ विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे। एक मुखर बुद्धिजीवी और तर्कवादी के रूप में कलबुर्गी का जीवन धार्मिक कुरीतियों, अन्धविश्वास, जाति-प्रथा, आडम्बरों और सड़ी-गली पुरानी मान्यताओं और परम्पराओं के विरुद्ध बहादुराना संघर्ष की मिसाल रहा। इस दौरान कट्टरपंथी संगठनों की तरफ से उन्हें लगातार धमकियों और हमलों का सामना करना पड़ा पर इन धमकियों और हमलों को मुंह चिढ़ाते हुए कलबुर्गी अपने शोध-कार्य और उसके प्रचार-प्रसार में सदा मग्न रहे। प्रोफेसर कलबुर्गी एक ऐसे शोधकर्ता और इतिहासकार थे जिनकी इतिहास के अध्ययन, शोध और उद्देश्य को लेकर समझ यथास्थितिवाद के विरुद्ध निरंतर संघर्ष करती थी। साथ ही कलबुर्गी अपने शोध कार्यों को अकादमिक गलियारों से बाहर नाटक, कहानियों, बहस-मुहाबसों के रूप में व्यवहार में लाने को हमेशा तत्पर रहते थे और यथास्थितिवाद के संरक्षकों, धार्मिक कट्टरपंथियों को उनकी यही बात सबसे ज्यादा असहज करती थी और इसीलिए उनकी कायरतापूर्ण हत्या कर दी गई