कोरोना काल में मज़दूरों की जीवनस्थिति

– भारत

आज देशभर के मज़दूर कोरोना की मार के साथ-साथ सरकार की क्रूरता और मालिकों द्वारा बदस्तूर शोषण की मार झेल रहे हैं। बीते वर्ष से अब तक पूरे कोरोनाकाल में मज़दूरों-मेहनतकशों का जीवन स्तर नीचे गया है। खाने-पीने में कटौती करने से लेकर वेतन में कटौती होने या रोज़गार छीने जाने से मज़दूरों के हालात बद से बदतर हुए हैं।
कोरोना महामारी से बरपे इस क़हर ने पूँजीवादी व्यवस्था के पोर-पोर को नंगा करके रख दिया है। दूसरी लहर में लाखों लोग ऑक्सीजन, बेड, दवाइयों की कमी के कारण मारे गये। वहीं पिछले साल करोड़ों मज़दूरों को सरकार की लापरवाही के कारण हज़ारों किलोमीटर पैदल चलने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिसके कारण कई मज़दूरों की मौत भी हो गयी। दोनों ही बार मज़दूर आबादी को सरकार ने भूख, बीमारी और बेरोज़गारी से मरने के लिए छोड़ दिया।
पिछले डेढ़ साल से मज़दूरों के बीच अनिश्चितता का माहौल बना हुआ है। दो बार अनियोजित लॉकडाउन लगने के कारण बची-खुची कमाई भी समाप्त हो चुकी है। इसके अलावा उनके बीच पिछले साल की वे भयावह यादें अब भी ताज़ा हैं। अगर पिछले वर्ष की बात करें तो स्टैण्डर्ड वर्कर एक्शन ग्रुप के एक सर्वे के अनुसार पिछले साल 81.6 प्रतिशत प्रवासी मज़दूरों को लॉकडाउन के दौरान राशन नहीं मिला। एक्शन एड की एक रिपोर्ट बताती है कि 2020 में अनियोजित लॉकडाउन के कारण 78 प्रतिशत मज़दूरों के पास रोज़ी-रोटी कमाने का कोई साधन नहीं था। अन्य एक रिपोर्ट के अनुसार 85 प्रतिशत मज़दूरों को लॉकडाउन का वेतन नहीं मिला। 85 प्रतिशत मज़दूर अपने कमरे का किराया दे पाने में सक्षम नहीं थे। 84 प्रतिशत प्रवासी मज़दूरों को राशन नहीं मिला। इसी कारण पिछले साल क़रीब 8 से 10 करोड़ मज़दूरों का पलायन हुआ। बसों-ट्रकों में जानवरों की तरह लदकर, हज़ारों रुपये किराया लगाकर मज़दूर अपने गाँव गये। इसी पलायन में क़रीब 100 मज़दूरों की जान चली गयी और करोड़ों लोग भूख से बेहाल होकर पुलिस की मार खाते हुए हज़ारों किलोमीटर चलते रहे। यह इस देश की आज तक की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक है। इसी कारण आज भी मज़दूरों के बीच अनिश्चितता है जो इस पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा ही जनित है।
कोरोना की पहली लहर के बाद लॉकडाउन खुलते ही मज़दूरों का वापस आना शुरू हो गया। मज़दूर भी जानते हैं कि गाँव में रोटी-रोज़गार का प्रबन्ध हो पाना और ज़्यादा मुश्किल है। मज़दूरों की बहुत बड़ी आबादी ऐसी है जिनके पास गाँव में भी ज़मीन नहीं है, इसलिए रोज़गार की तलाश में उन्हें वापस शहर की ओर आना ही था। पर वापस आकर काम-धन्धा न मिलने के बाद उनकी ज़िन्दगी और मुश्किल हो गयी। बेरोज़गारी कोरोना से पहले भी एक बड़ी समस्या थी पर कोरोना संकट ने इसे अत्यधिक विकराल रूप दे दिया है। सेण्टर फ़ॉर मॉनिटरिंग इकोनॉमी के आँकड़ों के अनुसार अगस्त महीने में देश में 16 लाख लोग बेरोज़गार हो गये। अगस्त महीने में बेरोज़गारी दर 8.32 प्रतिशत हो गयी। इससे अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि हालात कितने भयानक हैं। औद्योगिक क्षेत्रों, सर्विस सेक्टर हर जगह मज़दूरों-नौजवानों की भीड़ रोज़गार की तलाश में भटकती मिल जायेगी। इस तरह की भीड़ कम्पनियों के गेटों के अन्दर और बाहर दोनों जगह देखने को मिलती है। बीते दिनों गुडगाँव के एक कारख़ाने का वीडियो सामने आया जिसमें कम्पनी गेट पर तीन-चार सौ महिला और पुरुष मज़दूर रोज़गार के लिए खड़े हैं। कुछ मज़दूरों से बात करने पर पता चलता है कि वे हर रोज़ सुबह अपने घर का काम जल्दी-जल्दी निपटाकर रोज़गार की तलाश में निकल पड़ते हैं कि कहीं आज काम मिल जाये। लेकिन काम बहुत ही कम लोगों को मिल पाता है। अधिकांश मज़दूर निराश होकर घर लौट जाते हैं। कई मज़दूर तो गुड़गाँव के बाहर हरियाणा के विभिन्न ज़िलों व देश के विभिन्न राज्यों में काम खोज रहे हैं। काम जो मिलता है पहले से कम वेतन या बढ़ती महँगाई की तुलना में बहुत कम मिलता है।
कई मज़दूर काम न मिलने की वजह से फल, सब्ज़ी, घरेलू आदि समान की रेहड़ी-ठेला लगाने लगे हैं। लेकिन पहले से लगा रहे रेहड़ी वाले बता रहे थे कि रेहड़ी-ठेले वालों की संख्या बढ़ने की वजह से आमदनी भी कम होती जा रही है, दूसरी तरफ़ महँगाई की मार बढ़ रही है। अब हालात ये हैं कि मज़दूरों के पास एक महीने का ख़र्च चलाने का भी पैसा नहीं है। इसी कारण बहुत मज़दूर ऊँची ब्याज़दर पर पैसे उधार ले रहे हैं। अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी द्वारा पाँच हज़ार मज़दूरों पर किये गये सर्वे की रिपोर्ट बताती है कि 46 प्रतिशत मज़दूरों ने इस दौरान क़र्ज़ लिया। इस समय मज़दूरों को अपने जीवन की बुनियादी ज़रूरतों के सामान तक इकट्ठा करने के लिए जूझना पड़ रहा है। यही रिपोर्ट बताती है कि 80 प्रतिशत मज़दूर अपने खाने तक में कटौती कर रहे हैं। 47 प्रतिशत मज़दूरों के पास अपना ज़रूरी सामान ख़रीदने तक के पैसे नहीं है।
एक तरफ़ बेरोज़गारी अपने चरम पर है, तो दूसरी तरफ़ जहाँ काम मिल भी रहा है या जो मज़दूर काम कर भी रहे हैं वहाँ से आठ घण्टे काम का नियम ही लुप्त हो चुका है। मज़दूरों को भी मजबूरी में बारह घण्टे काम करना ही पड़ता है, क्योंकि छः-सात हज़ार रुपये महीना में घर तो चलने वाला नहीं है। आपदा को अवसर में तब्दील करते हुए मालिकों ने मज़दूरों के वेतन में पन्द्रह सौ-दो हज़ार रुपये तक की कटौती की है। अब औद्योगिक क्षेत्रों में मज़दूरों की आठ घण्टे की तनख़्वाह 6,500-7,000 रुपये के बीच है और चार घण्टे ओवरटाइम लगाने के बाद 9,000 रुपये तक बमुश्किल बनते हैं। यह तनख़्वाह तो सिर्फ़ पुरुषों की है, महिलाओं की आठ घण्टे की पगार 5000-6000 रुपये है।
वज़ीरपुर की गरम रोला फ़ैक्टरी में काम कर रहे धीरेन्द्र बताते हैं कि अप्रैल से लेकर जुलाई तक कोई काम नहीं मिला। मुम्बई भी काम की तलाश में गये लेकिन वहाँ भी काम नहीं मिला। फिर पूरी दिल्ली में काम तलाशने के बाद कहीं जाकर एक फ़ैक्टरी में काम मिला। यहाँ काम तो मिल गया पर मालिक जानवर की तरह खटा रहा है। चार लोगों का काम अकेले से करवाता है। बारह घण्‍टे से कम कोई काम नहीं है। ऊपर से तनख़्वाह के नाम पर नौ हज़ार रुपये ही देता है। उसी में घर पैसे भी भेजने होते हैं, उसी में से उधार भी चुकाना होता है।
एक ओर विकास के आँकड़े उछाले जा रहे हैं दूसरी ओर देश में ग़रीबों, बेरोज़गारों, बेघर लोगों की तादाद भी लगातार बढ़ती गयी है। देश की लगभग 47 करोड़ मज़दूर आबादी में से 93 प्रतिशत, या 43 करोड़ मज़दूर असंगठित क्षेत्र में धकेल दिये गये हैं जहाँ वे बिना किसी क़ानूनी सुरक्षा के ग़ुलामों जैसी परिस्थितियों में काम करने के लिए मजबूर हैं। इनमें से बहुत बड़ी संख्या ने पिछले डेढ़ साल में अपना रोज़गार खो दिया है। इस साल के शुरुआती पाँच महीनों में ही ढाई करोड़ से ज़्यादा लोग रोज़गार गँवा चुके हैं। असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे मज़दूरों के लिए श्रम क़ानून या किसी भी प्रकार की सुरक्षा का कोई महत्व नहीं है। सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी असंगठित क्षेत्र में ही है। सेण्टर फ़ॉर मॉनिटरिंग इण्डियन इकोनॉमी (सीएमआइई) के अनुसार, अप्रैल से लेकर अगस्त तक जितनी बेरोज़गारी बढ़ी है, उसमें तीन चौथाई हिस्सा असंगठित क्षेत्र का है।
दिहाड़ी पर काम करने वाले गंगाराम बताते है कि पिछले साल से काम मिलना तो बन्द ही हो गया है। रोज़ लेबर चौक पर जाते हैं, सुबह से शाम तक खड़े रहने के बाद भी काम नहीं मिलता। पहले महीने में पन्द्रह-बीस दिन काम मिल जाता था जिससे घर चल जाता था, पर अब पाँच दिन भी बड़ी मुश्किल से मिलता है। कम्पनी में भी जाते हैं, तो वहाँ भी ठेके पर ही काम करवाया जाता है। आज काम है, कल होगा या नहीं, यह पता नहीं। महँगाई इतनी बढ़ गयी है कि कुछ खाने का सामान ख़रीदने से पहले भी कई बार सोचना पड़ता है। पिछले साल से दो वक़्त की रोटी मिलना भी मुश्किल हो रहा है।
यही हाल आज देशभर के मज़दूरों-मेहनतकशों का है। पर सवाल यह बनता है कि आख़िर इसका ज़िम्मेदार कौन है? क्यों आज देश के मज़दूरों-मेहनतकशों के ये हालात हैं? क्योंकि आपदा को अवसर में बदलते हुए यह फ़ासिस्ट मोदी सरकार तन-मन-धन से पूँजीपति वर्ग की सेवा करने में मगन है। अपने आक़ाओं के मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए यह करोड़ों मज़दूरों का जीवन ख़त्म करने के लिए भी तैयार है।
फ़ासीवादी मोदी सरकार कोरोना के प्रति शुरुआत से ही पाशविक लापरवाही बरतती आयी है, जो अब अपने क्रूरतम रूप में है। जब पूरी दुनिया में कोरोना फैल रहा था, तब मोदी ‘नमस्ते ट्रम्प’ करा रहा था, दिल्ली दंगों के सफल प्रयोग किये जा रहे थे, सीएए-एनआरसी आन्दोलनों को कुचला जा रहा था। इसके बाद कोरोना से लड़ने के नाम पर आनन-फ़ानन में लॉकडाउन लगा दिया और तुरन्त घड़ियाली आँसू बहाते हुए पीएम केयर्स फ़ण्ड बनाया गया जिसके पैसे का आजतक कोई हिसाब-किताब नहीं दिया गया। जब देश चिताओं के ढेर में तब्दील हो रहा था, तब भी ये हत्यारे सेण्ट्रल विस्टा का काम बिना रुके करवा रहे थे। अनियोजित लॉकडाउन के अलावा जो सबसे बड़ा हमला मोदी सरकार ने मज़दूरों पर किया है, वह है काग़ज़ों पर बचे-खुचे श्रम क़ानूनों को समाप्त कर, चार लेबरकोड बनाना। इस क़ानून के लागू होने के बाद वेतन का भुगतान अधिनियम 1936, न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948, बोनस भुगतान अधिनियम 1965 और समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 को ख़त्म कर दिया गया है। इसके अन्तर्गत पूरे देश के लिए वेतन का न्यूनतम स्तर निर्धारित किया जायेगा। सरकार ने मालिकों के प्रति उदारता दिखाते हुए प्रतिदिन के लिए स्तरीय मज़दूरी 178 रुपये करने की घोषणा कर दी है यानी 26 दिन का 4628 रुपये। इसी के साथ जिन कारख़ानों में 300 तक मज़दूर हैं उनकी छँटनी करने के लिए सरकार की इजाज़त लेने की ज़रूरत नहीं होगी (पहले यह संख्या सौ थी)। मैनेजमेण्ट को साठ दिन का नोटिस दिये बिना मज़दूर हड़ताल पर नहीं जा सकते। यह सब क़ानून तब लागू किये गये जब कोरोना के कारण पूरे देश में लॉकडाउन जैसे हालात बने हुए थे। ऐसे समय में भी मोदी सरकार मालिकों की जेब भरने में कोई कोताही नहीं बरत रही है। इसी के साथ राज्य सरकारें भी मज़दूरों को लूटने की आज़ादी देने में पीछे नहीं हैं।
कोरोना से पहले ही पूँजीवादी व्यवस्था भयानक मन्दी के दौर से गुज़र रही थी, कोरोना काल ने इस संकट को और गहरा बना दिया है। मालिकों के मुनाफ़े की दर गिरने के कारण मन्दी उत्पन्न होती है। अपनी मुनाफ़े की दर को बढ़ाने के लिए पूँजीपति वर्ग किसी भी हद तक जा सकता है और उसका सबसे बड़ा निशाना मज़दूर वर्ग ही होता है। इसी कारण कोरोना के इस पूरे दौर में भी आपदा को अवसर में तब्दील करते हुए पूँजीपति वर्ग मज़दूरों के अधिकार को छीनने का काम अपनी मैनेजिंग कमेटी के द्वारा जारी रखे हुए है।
लगातार चौड़ी होती जा रही शासक वर्गों और वंचितों-शोषितों की यह खाई दिन-ब-दिन मेहनतकशों के दिल में बग़ावत की आग को हवा दे रही है। इसलिए आज संगठित होकर वेतन बढ़ाने की लड़ाई से लेकर पक्के रोज़गार की लड़ाई लड़नी होगी। पर मज़दूर वर्ग सिर्फ़ अपनी मज़दूरी में बढ़ोत्तरी के लिए लड़कर कुछ नहीं हासिल कर सकता। मज़दूरों को मज़दूरी बढ़ाने के लिए लड़ने के साथ-साथ मज़दूरी की पूरी व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए भी लड़ना होगा। एक ऐसा समाज बनाने के लिए लड़ना होगा जहाँ उत्पादन के साधनों पर मुट्ठीभर थैलीशाहों का क़ब्ज़ा न हो, और मेहनत के फल सभी के लिए बराबरी से उपलब्ध हो।

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2021


 

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