जनता का जीवन रसातल में तो चुनावबाज़ पार्टियों की सम्पत्तियाँ शिखरों पर क्यों?

– अरविन्द

हाल ही में एडीआर (असोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स) नामक संस्था ने विभिन्न पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियों की सम्पत्तियों और उनकी देनदारियों का विवरण पेश किया है। चुनावी चन्दा लेने में सबसे आगे रहने वाली भाजपा सम्पत्ति के मामले में भी सबसे आगे है। भाजपा की कुल घोषित सम्पत्ति सात पार्टियों की कुल घोषित सम्पत्ति का क़रीब 70 प्रतिशत है। एडीआर ने अपनी रिपोर्ट में सात राष्ट्रीय बुर्जुआ पार्टियों और 44 क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियों की सम्पत्तियों की जानकारी दी है। पूँजीवादी व्यवस्था के संकट के दौर में फ़ासीवादी भारतीय जनता पार्टी की सम्पत्तियों में दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ोत्तरी हो रही है। एडीआर का यह ब्यौरा चुनावबाज़ पार्टियों के द्वारा 2019-20 के वित्त वर्ष के दौरान घोषित किये गये सम्पत्ति के आँकड़ों के आधार पर तैयार किया है। कहना नहीं होगा कि यह घोषित धन पानी में तैर रहे बर्फ़ के टुकड़े का पानी के बाहर वाला ही हिस्सा है। बर्फ़ के टुकड़े के पानी के भीतरी हिस्से की तरह अघोषित धन का एडीआर को भी कोई अता-पता नहीं है। किस पार्टी का कितना अघोषित धन देश-विदेश में दबा पड़ा होगा या बाज़ार में लगा होगा इसकी हम-आपको कोई जानकारी नहीं है।

पूँजीपतियों की पहली पसन्द के तौर पर अब भी भाजपा ही सबसे आगे!

राष्ट्रीय पार्टियों द्वारा 6988 करोड़ 57 लाख रुपये की कुल घोषित सम्पत्ति में अकेली भाजपा का हिस्सा 4847 करोड़ 78 लाख रुपये है जोकि सभी पार्टियों की सम्पत्तियों का तक़रीबन 70 प्रतिशत बैठता है। वित्त वर्ष 2017 में भाजपा की कुल घोषित सम्पत्ति 1213 करोड़ 13 लाख तो वित्त वर्ष 2018 में 1483 करोड़ 35 लाख थी। इसी से अन्दाज़ा लग जाता है कि भाजपा असल में सेवा किसकी कर रही है और बदले में उसे मेवा कौन दे रहा है। वहीं भाजपा की तुलना में पूँजीपति वर्ग की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की कुल घोषित सम्पत्ति मात्र 588 करोड़ 16 लाख रुपये है जिससे बसपा भी अपनी 698 करोड़ 33 लाख रुपये की सम्पत्ति के साथ आगे है यानी दूसरे स्थान पर है। सीपीएम, तृणमूल कांग्रेस, सीपीआई और एनसीपी क्रमशः चौथे से सातवें स्थान तक हैं। फ़ासीवादी भाजपा बड़े पूँजीपति वर्ग की सबसे चहेती पार्टी बनी हुई है। देश की मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था में मुनाफ़े की गिरती दर के संकट ने, जोकि “अति उत्पादन” व आर्थिक मन्दी के तौर पर अभिव्यक्त हो रहा है, इस समय देश के हालात विस्फोटक बना दिये हैं। 2007-08 से ही देश की अर्थव्यस्था मन्द मन्दी का शिकार है। यह मन्द मन्दी बीच-बीच में गहरा भी जाती है। भयंकर बेरोज़गारी, ग़रीबी, मुफ़लिसी, महँगाई जैसी पूँजीवाद की नेमतों की वजह से जनता बिलबिला रही है। ऐसे में लोग अपने असल हालात और इसके पीछे के कारणों को समझकर इस व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की तरफ़ बढ़ सकते हैं। ठीक इसीलिए पूँजीपति वर्ग को फ़ासीवादी पार्टी भाजपा की ज़रूरत है। भाजपा जनता के असली मुद्दों को हिन्दू-मुसलमान, मन्दिर-मस्जिद और फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद की आड़ में छुपा सकती है और ऐसा करने में संघ परिवार कामयाब भी हो रहा है। यही कारण है पूँजीपति वर्ग बारिश की तरह भाजपा की झोली में पैसे की बरसात कर रहा है।
2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद के पिछले सात साल से इसे लगातार सबसे अधिक चन्दा मिल रहा है। चुनाव आयोग को सौंपी गयी वार्षिक फ़ण्ड रिपोर्ट में ख़ुद भाजपा ने यह जानकारी दी है कि उसे कॉर्पोरेट और व्यक्तिगत फ़ण्ड से ही साल 2019-20 में 785 करोड़ रुपये चन्दा मिला है। यह कांग्रेस को मिले 139 करोड़ के कुल चन्दे से पाँच गुणा अधिक है। इलेक्टोरल बॉण्ड्स से मिलने वाला चन्दा पार्टियों की आय का प्रमुख ज़रिया होता है क्योंकि इसमें देने वाले का विवरण साझा करना ज़रूरी नहीं होता है। चुनावबाज़ पार्टियों को वित्त वर्ष 2019-20 में ही इलेक्टोरल बॉण्ड्स से कुल 3429 करोड़ 56 लाख रुपये की राशि चन्दे के रूप में प्राप्त हुई है। इसका 87.29 फ़ीसदी हिस्सा अकेली चार पार्टियों को मिला है। इसमें भी भाजपा का हिस्सा सबसे अधिक है। इलेक्टोरल बॉण्ड्स से भाजपा को 2555 करोड़ रुपये मिले तो कांग्रेस को इससे मात्र 317 करोड़ 86 लाख रुपये प्राप्त हुए। यह चीज़ पूँजीपति वर्ग के सामने कांग्रेस की अप्रासंगिकता को भी दर्शाती है।
देश के धन्नासेठों की ओर से मिलने वाले घोषित चन्दे का ही ब्यौरा सामने आ पाता है। अघोषित तौर पर चुनावी पार्टियों और इनके नेताओं की तिजोरियों में कितना पैसा पहुँचता है उसका विवरण तो किसी के भी पास नहीं है। यही पैसा काले धन के रूप में विभिन्न धन्धों में लगा होता है, यही पैसा स्विस, पनामा और पैराडाइज़ जैसे टैक्स हैवन्स से घूमकर एफ़डीआई के तौर पर देश में दोबारा आता है और सफ़ेद हो जाता है। संकट के इस दौर में पूँजीपति वर्ग भाजपा पर मेहरबान है। पूँजीपति वर्ग की ओर से होने वाली मूसलाधार धनवर्षा के बदले में भाजपा भी जनता के संघर्षों को दबाने-कुचलने और उसे आपस में लड़ाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही है।

चुनावबाज़ पार्टियों के छलके ख़ज़ाने और जनता का हाल बेहाल!

लेखा वर्ष 2019-20 में सात राष्ट्रीय चुनावी दलों की कुल घोषित सम्पत्ति 6988 करोड़ 57 लाख रुपये है। वहीं लेखा वर्ष 2016-17 में इनकी कुल घोषित सम्पत्ति 3260 करोड़ 81 लाख रुपये थी। 44 क्षेत्रीय पार्टियों की कुल घोषित सम्पत्ति 2129 करोड़ 38 लाख रुपये है। पूँजीपति वर्ग के विभिन्न धड़ों का प्रतिनिधित्व करने वाली ये पार्टियाँ अपने आक़ाओं की बदौलत मालामाल हो रही हैं। इनकी सम्पत्तियों का प्रमुख स्रोत होता है इन्हें मिलने वाला चन्दा। इन्हें मिलने वाले चन्दे का बड़ा हिस्सा मज़दूर वर्ग और आम जनता की मेहनत और उनके संसाधनों को निचोड़ने वाला पूँजीपति वर्ग और उसके विभिन्न चुनावी ट्रस्ट देते हैं। साल 2018 के आँकड़े देखें तो भाजपा को 92 फ़ीसदी चन्दा तो कांग्रेस को 85 फ़ीसदी चन्दा कॉर्पोरेट कम्पनियों और बड़े पूँजीपति घरानों से मिला था। इसके अलावा बड़े दुकानदार, धनी किसान, व्यापारी, व्यवसायी, ठेकेदार, उच्च आय सम्पन्न नौकरीपेशा उच्च मध्यवर्ग के लोग भी इन्हें चन्दा देते हैं।
जिस आम आदमी के नाम पर ये दल चुनावी गटरगंगा में उतरते हैं उसका हाल किसी से छुपा हुआ नहीं है। भारत में रहने वाली आबादी वैसे तो दुनिया की आबादी का छठा हिस्सा है लेकिन दुनिया की ग़रीब व कंगाल आबादी का आधा हिस्सा अकेले भारत में रहता है। हाल ही में आयी ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट बताती है कि हालिया वर्ष 2021 में 84 प्रतिशत घरों की आमदनी तेज़ी से घटी है। वहीं भारत के 100 सबसे अमीर परिवारों की आमदनी में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। देश के 98 धन्नासेठों के पास उतना धन इकट्ठा हो गया है जितना देश के 55 करोड़ लोगों के पास भी नहीं है। वहीं देश में खरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 हो गयी है। कहना नहीं होगा कि केन्द्र और राज्य स्तर पर विभिन्न पार्टियों की सरकारों ने महामारी के समय भी पूँजीपतियों को अपना ख़ज़ाना भरने का मौक़ा दिया है।
पूँजीपति वर्ग और शासक वर्ग के विभिन्न धड़े मज़दूरों, ग़रीब किसानों और आम मेहनतकश जनता की मेहनत और कुदरत को लूटते हैं। विभिन्न पार्टियों की सरकारें इस लूट को आसान बनाने का काम करती हैं। पूँजीपति वर्ग कमेरे वर्ग की श्रमशक्ति की अकूत लूट में से ही चन्दे के नाम पर चन्द टुकड़े चुनावबाज़ पार्टियों के सामने उछाल देता है। इसी से पूँजीपति वर्ग की विभिन्न पार्टियों के ख़ज़ाने में उछाल आ जाता है। विभिन्न प्रकार का भ्रष्टाचार व देश की ज़मीनों और संसाधनों पर क़ब्ज़ा भी चुनावबाज़ पार्टियों की सम्पत्तियों में बढ़ोत्तरी करता है।

संशोधनवादी वामपन्थी पार्टियाँ भी सम्पत्ति के मामले में पीछे नहीं हैं

सम्पत्ति के मामले में नामधारी वामपन्थी पार्टियाँ भी देश की चोटी की पाँच घोषित बुर्जुआ पार्टियों की पंगत में विराजमान हैं। हालाँकि उनकी तुलना में इनकी सम्पत्ति काफ़ी कम है। माकपा (सीपीएम) की कुल घोषित सम्पत्ति 569 करोड़ 52 लाख है जबकि भाकपा (सीपीआई) की कुल घोषित सम्पत्ति 29 करोड़ 78 लाख है। सम्पत्ति के मामले में सात राष्ट्रीय चुनावबाज़ पार्टियों में माकपा चौथे तो भाकपा छठे स्थान पर हैं। ये पार्टियाँ दम तो मज़दूर वर्ग की राजनीति का भरती हैं लेकिन मज़दूर वर्ग को अर्थवाद व संविधानवाद के गोल घेरे में गोल-गोल घुमाकर काम असल में पूँजीपति वर्ग की दूसरी सुरक्षा पंक्ति का करती हैं। मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु को इन्होंने (भाकपा ने 1951 में और माकपा 1964 में इसके बिना ही पैदा हुई थी) तिलांजली दे दी है इसीलिए इन्हें संसोधनवादी कहा गया है। संशोधनवादी वामपन्थी पार्टियों को छोटे पूँजीपति वर्ग, संगठित सफ़ेद कॉलर कुलीन मज़दूर और संगठित क्षेत्र के कुछ अन्य मज़दूर, मध्यवर्ग का एक छोटा हिस्सा, धनी व उच्च-मध्यम पूँजीवादी किसान वर्ग के कई हिस्से चन्दा देते हैं। इसके अलावा इनकी अर्थवादी ट्रेड-यूनियनों से जुड़े कर्मचारी भी इन्हें चन्दा देते हैं जोकि पार्टी फ़ण्ड में भी आता है। इन पार्टियों के ही अनुसार वित्त वर्ष 2020 में सीपीएम को 93 करोड़ दो लाख रुपये और सीपीआई को तीन करोड़ दो लाख रुपये चन्दा प्राप्त हुआ था।

जो जिसका (पैसा) खाता है वह उसीका (हुक्म) बजाता है!

कुल मिलाकर कहा जाये तो पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपति तो मालामाल होते ही हैं, इनके हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली विभिन्न चुनावबाज़ पार्टियाँ भी मालामाल रहती हैं। जो जिसका खाता है वह उसी का हुक्म बजाता है! पूँजीवादी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए विभिन्न पूँजीवादी दल वोट का खेल खेलते रहते हैं। एक ओर जनता की आँखों पर लोकतंत्र के भ्रम का पर्दा पड़ा रहता है और दूसरी ओर उसकी लूट बदस्तूर जारी रहती है। पूँजीपति वर्ग के द्वारा जनता की मेहनत और कुदरत की लूट में से कुछ हिस्सा चुनावबाज़ पार्टियों को भी दे दिया जाता है। यही नहीं कई बार तो धन्नासेठ, नेता और माफ़िया एक ही व्यक्ति होता है। आज पूँजीपति वर्ग को भाजपा जैसी फ़ासीवादी पार्टी की सबसे अधिक ज़रूरत है इसलिए वह उसी पर सबसे अधिक धन लुटा रहा है। बदले में भाजपा भी पूँजीपरस्त नीतियों के द्वारा पूँजीपति वर्ग की सेवा कर रही है। नोटबन्दी, एफ़डीआई, जीएसटी, नेप, सार्वजानिक क्षेत्रों की बर्बादी और मौद्रीकरण इसी के पर्याय हैं। देश के कमेरे लोग व्यवस्था को अन्त तक न पहुँचा दें इसलिए फ़ासीवादी भाजपा अन्य चुनावबाज़ पार्टियों से अलग स्तर पर जाकर जनता को धर्म-जाति-क्षेत्र के नाम पर बाँटने में लगी रहती है और अपने आक़ाओं के नमक का क़र्ज़ अदा करती है।

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2022


 

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