विधानसभा चुनावों में भाजपा फिर क्यों जीती?
मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी के लिए इसका क्या मतलब है?
हमारे भावी प्रतिरोध की रणनीति क्या हो?

– सम्पादकीय

भाजपा को चार राज्यों में हालिया विधानसभा चुनावों में भारी जीत मिली है। यहाँ तक कि जिन राज्यों में भाजपा और कांग्रेस के बीच काँटे के मुक़ाबले की बात की जा रही थी, उन राज्यों में भी भाजपा ने आराम से कांग्रेस को पीछे छोड़कर बहुमत हासिल किया। देशव्यापी पैमाने पर जिस राज्य के चुनावों का प्रभाव सबसे ज़्यादा पड़ना था वह था उत्तर प्रदेश। वहाँ भाजपा की सीटों में कमी आयी और प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी पार्टी समाजवादी पार्टी की सीटों में अच्छी-ख़ासी बढ़ोत्तरी के बावजूद भाजपा ने आराम से बहुमत हासिल किया। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश को फ़ासीवाद की प्रयोगशाला बनाने का सबसे बर्बर क़िस्म का प्रयोग भी अब आगे बढ़ेगा, जिसका सिरमौर योगी आदित्यनाथ है।
मध्यवर्गीय प्रगतिशील दायरों में बहुत-से लोग जो यह उम्मीद लगाये बैठे थे कि इस बार बेरोज़गारी, महँगाई और ग़रीबी और साथ ही कोरोना में हुई लाखों मौतों और साथ ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश में धनी किसान-कुलक आन्दोलन के कारण भाजपा को उत्तर प्रदेश में बहुमत प्राप्त नहीं होगा और समाजवादी पार्टी-नीत गठबन्धन को जीत मिलेगी, उनकी आशाओं पर पानी फिर गया है। ज़ाहिर है, ऐसे लोग अब अवसाद में चले गये हैं और कई तो उत्तर प्रदेश की जनता को ही कोस रहे हैं! ऐसे लोगों से यही कहा जा सकता है, फिर अपने लिए वे नयी जनता चुन लें!
चुनावों में नतीजों का विश्लेषण महज़ ईवीएम की चोरी और उसके साथ होने वाली छेड़छाड़ के आधार पर भी नहीं किया जा सकता, हालाँकि निश्चित तौर पर ये धाँधली हुई है। लेकिन भाजपा जितने बड़े अन्तर से जीती है उसके आधार पर साफ़ कहा जा सकता है कि यदि ये धाँधली न होती तो भाजपा की जीत का अन्तर भले ही कम होता, लेकिन जीतती भाजपा ही।
ऐसे में मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी के अगुवा तत्वों को यह समझने की आवश्यकता है कि भाजपा की हालिया ज़बर्दस्त जीत के पीछे वास्तविक कारण क्या हैं। केवल इस समझ के आधार पर ही भविष्य में क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग अपने जनान्दोलन के ज़रिए संघ परिवार और भाजपा के प्रतिक्रियावादी फ़ासीवादी सामाजिक आन्दोलन को चुनौती और शिकस्त दे सकता है। इसके लिए बहुत सघन और व्यापक कार्य और मेहनत की ज़रूरत है। उसके बिना क्रान्तिकारी शक्तियों को भाजपा को हराने का सपना देखने का कोई हक़ नहीं होगा।
पहले भाजपा की विजय के प्रमुख सामान्य कारणों की चर्चा करनी आवश्यक है और उसके बाद हम मौजूदा चुनावों में उसकी जीत के विशिष्ट कारणों पर बात करेंगे।

भाजपा की विजय के पीछे सक्रिय सामान्य कारक

1. संघ परिवार का फ़ासीवादी संगठन
यह पहला महत्वपूर्ण कारक है जो भाजपा को अन्य सभी पूँजीवादी पार्टियों के ऊपर एक बड़ी बढ़त देता है। यह कोई आम पूँजीवादी पार्टी नहीं है, बल्कि एक फ़ासीवादी पूँजीवादी चुनावी पार्टी है। इसके पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का समूचा काडर-आधारित फ़ासीवादी सांगठनिक ढाँचा खड़ा है। यह केवल चुनावों के दौरान सक्रिय नहीं होता। यह पूरे साल सक्रिय रहता है। इसके प्रचारक इसकी विचारधारा और राजनीति का प्रचार पूरे साल अपनी शाखाओं, अपने स्कूलों, अपनी सुधार संस्थाओं आदि के ज़रिए करते रहते हैं। ये दीमक के समान समाज के पोरों में लगातार सक्रिय रहते हैं और हमेशा दिखाई नहीं पड़ते। लेकिन तृणमूल धरातल पर व्यापक जनता (विशेषकर, टुटपुँजिया वर्गों और लम्पट मज़दूर वर्ग) के बीच दिमाग़ों में ज़हर घोलने का काम ये लगातार करते रहते हैं।
ये पूँजीवाद के कुकर्मों का दोष किसी न किसी अल्पसंख्यक समुदाय, विशेषकर मुसलमान आबादी पर डालते हैं। लोगों को संघ का प्रचार यह यक़ीन दिलाने की कोशिश करता है कि देश की सभी प्रमुख समस्याओं के दोषी मुसलमान हैं और यदि वे न हों तो देश को वापस उसके प्राचीन अतीत के गौरव तक पहुँचाया जा सकता है। वास्तव में, ऐसा कोई शुद्ध गौरवशाली अतीत था ही नहीं और हर देश की तरह भारत के अतीत में भी जनता का गौरवशाली इतिहास भी शामिल है और शासक वर्गों के कुकर्मों का काला इतिहास भी शामिल है।
लेकिन संघ परिवार एक शुद्ध रूप से गौरवशाली हिन्दू अतीत का मिथक या झूठ रचता है और बेरोज़गारी, ग़रीबी, अनिश्चितता, असुरक्षा से परेशानहाल टुटपुँजिया व मेहनतकश आबादी को यह यक़ीन दिलाता है कि मुसलमानों को सबक़ सिखाकर वापस उस अतीत को हासिल किया जा सकता है जिसमें सबकुछ अच्छा हो जायेगा! और ऐसा करने के लिए एक मज़बूत नेता (जैसे कि मोदी और योगी!) की ज़रूरत है, जो राष्ट्र को उन्नति के उस शिखर पर पहुँचा दे! लोग यह भूल जाते हैं कि इन फ़ासीवादी नेताओं की मज़बूती किस वर्ग के पक्ष में खड़ी है और वह किस प्रकार पूँजीपति वर्ग की सेवा करती है और मज़दूर वर्ग और मेहनतकश अवाम को दबाने के काम आती है। बहरहाल, इसी कहानी को इतनी बार दुहराया जाता है कि अपने जीवन की परेशानियों से थकी व्यापक टुटपुँजिया आबादी और मेहनतकश आबादी के एक अच्छे–ख़ासे हिस्से को वाक़ई अपने दुश्मन के तौर पर मुसलमान और अन्य अल्पसंख्यक नज़र आने लगते हैं और उसे लगता है कि ऐसा कोई “मज़बूत नेता” आयेगा और “रामराज” स्थापित करके चुटकियों में उसकी समस्याओं का समाधान कर देगा।
लेकिन सच्चाई यह है कि व्यापक मेहनतकश जनता के जीवन में मौजूद सामाजिक और आर्थिक असुरक्षा के लिए मौजूदा मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था ज़िम्मेदार है। लोगों को भोजन नहीं मिलता तो इसका कारण यह नहीं है कि भोजन की कमी है, या यदि उनको कपड़ा या मकान व अन्य ज़रूरी संसाधन नहीं मिलते तो इसका यह कारण नहीं है कि उनकी कमी है। फिर कारण क्या है? कारण वह व्यवस्था है जो मुनाफ़े पर टिकी है न कि समाज के लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने पर। ऐसी व्यवस्था में चाहे बच्चे भूख से मरते हों, औरतें कुपोषित हों, मज़दूर भूख और कुपोषण के शिकार हों, लेकिन अम्बानी, अडानी, टाटा, बिड़ला समेत समूचे पूँजीपति वर्ग का मुनाफ़ा सुरक्षित रहना चाहिए। स्वयं मोदी सरकार इस पूँजीपति वर्ग की सबसे बड़ी सेवक है। यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है। बेरोज़गारी का कारण भी मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था ही है, वरना जिस देश में पर्याप्त प्राकृतिक संसाधन हों और पर्याप्त श्रम करने योग्य लोग हों, वहाँ बेरोज़गारी होनी ही नहीं चाहिए। क्योंकि प्राकृतिक संसाधनों व मानवीय श्रम के मेल से ही रोज़गार पैदा होता है। लेकिन चूँकि पूँजीपतियों का मुनाफ़ा सुरक्षित रखना होता है, इसलिए देश में 60 करोड़ से ज़्यादा लोग 10-12 घण्टे काम करते हैं, जबकि दूसरी ओर 30 करोड़ लोग बेरोज़गार घूमते हैं। क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि लोग कोल्हू के बैल के समान 12 घण्टे खटने की बजाय 6 घण्टे काम करें और बदले में 60 करोड़ नये रोज़गार पैदा किये जायें? हो सकता है। लेकिन मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था में नहीं क्योंकि इससे पूँजीपति वर्ग का मुनाफ़ा मारा जायेगा।
पूँजीवादी व्यवस्था के इन्हीं कुकर्मों को छिपाने और उसके लिए मुसलमानों या अन्य अल्पसंख्यकों को ज़िम्मेदार ठहराकर एक नक़ली दुश्मन खड़ा करने का काम फ़ासीवाद करता है। यही काम भारत में संघ परिवार करता है। यह व्यापक जनता के बीच मौजूद धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल करता है, उनकी पिछड़ी चेतना का लाभ उठाता है और अपने ही वर्ग भाइयों व बहनों को उनका दुश्मन बना देता है। किसलिए? ताकि पूँजीपति वर्ग और पूँजीवाद को कठघरे से बाहर कर सके। दूसरे शब्दों में, यह पूँजीवाद और पूँजीपति वर्ग की सेवा के लिए टुटपुँजिया वर्गों की असुरक्षा का इस्तेमाल करता है और उनका एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन खड़ा करता है, जिसके निशाने पर मज़दूर वर्ग, उनकी ट्रेड यूनियनें, अल्पसंख्यक समुदाय, और प्रगतिशील शक्तियाँ होती हैं। जो भी इस प्रतिक्रियावादी उभार के तानाशाहाना नायक (जैसे कि मोदी) के विरुद्ध होता है, उसे “राष्ट्र-विरोधी” क़रार दे दिया जाता है और फ़ासीवादी सरकार ही देश या राष्ट्र बन जाती है। जो मोदी का विरोध करे, वह राष्ट्रद्रोही या देशद्रोही क़रार दे दिया जाता है।
यह पूरा काम संघ परिवार व भाजपा अपने काडरों के व्यापक नेटवर्क के ज़रिए करते हैं, जिसे वे 1925 से पूरे देश में फैलाने का काम कर रहे हैं। अपनी लाखों शाखाओं, अपने सरस्वती शिशु मन्दिरों, सुधार की संस्थाओं व प्रचार माध्यमों के ज़रिए करोड़ों टुटपुँजिया वर्गीय लोगों में लगातार धार्मिक उन्माद और साम्प्रदायिकता का ज़हर भरा जाता है। इनके प्रचारक सालभर सक्रिय रहकर यह काम करते हैं।
यह संघ परिवार की वास्तविक शक्ति है और इसे चुनौती केवल और केवल मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी ही दे सकती है, जो स्वयं एक अनुशासित और बोल्शेविक उसूलों पर बना संगठन होती है। आज इनका उभार उस मंज़िल में है, जिसमें यह काम न तो कांग्रेस कर सकती है, न सपा, न बसपा, न माकपा, न भाकपा, न भाकपा (माले)। कई प्रदेशों में क्षेत्रीय बुर्जुआज़ी की नुमाइन्दगी करने वाली पार्टियाँ अपने प्रदेश में कुछ समय के लिए भाजपा को सत्ता में आने से रोक सकती हैं। लेकिन उन्हीं प्रदेशों में ऐसी पार्टियाँ भी हैं, जो भाजपा के साथ गठबन्धन बनाकर सरकार भी बनाती रहती हैं। देश स्तर पर फ़िलहाल अभी कोई गठबन्धन या कांग्रेस भाजपा को चुनावी मैदान में चुनौती देने की स्थिति में नहीं है। यदि बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी और आर्थिक व सामाजिक असुरक्षा का ही प्रकोप एक स्थिति से अधिक बढ़ता है, तो भाजपा चुनाव हार सकती है लेकिन वह विपक्ष की शक्तियों की जीत से ज़्यादा भाजपा की हार होगी। लेकिन अभी भाजपा सरकार इसे भी रोकने के लिए एक विशेष क़दम उठा रही है : सबसे ग़रीब आबादी के लिए ख़ैराती कल्याणकारी योजनाएँ, मुफ़्त राशन आदि, जो कि इस निर्धनतम जनता के लिए भीख से ज़्यादा कुछ नहीं है, लेकिन उनकी हालत इतनी बुरी है कि यह ख़ैरात भी उनका वोट भाजपा की ओर स्थानान्तरित कर देती है और ख़ासकर तब जबकि इसे हिन्दुत्व की राजनीति से मिश्रित कर उनकी धार्मिक भावनाओं का भी इस्तेमाल किया जाता है।

2. विशेष तौर पर बड़े पूँजीपति वर्ग और आम तौर पर समूचे पूँजीपति का भारी आर्थिक समर्थन
यह दूसरा आम कारक है जो कि भाजपा को पूँजीवादी चुनावी राजनीति में फ़िलहाल एक अजेय शक्ति बनाता है। यहाँ तक कि जब भाजपा बहुमत नहीं भी जीत पाती है तो पूँजीपति वर्ग के प्रचण्ड आर्थिक समर्थन की वजह से वह बहुमत ख़रीद तक लेती है! सामान्य तौर पर, यह कहा जा सकता है कि जिस पूँजीवादी चुनावी पार्टी को पूँजीपति वर्ग के सबसे बड़े हिस्से और सबसे बड़े पूँजीपतियों का समर्थन हासिल होता है आम तौर पर वही चुनावों के खेल में भी जीतती है।
सभी जानते हैं कि पूँजीपति वर्ग द्वारा चुनावी पार्टियों को मिलने वाले चन्दे का 85 प्रतिशत तक हिस्सा आज अकेले भाजपा को मिल रहा है। भाजपा की आर्थिक शक्तिमत्ता ज़बर्दस्त है। वह टेलीविज़न चैनलों, मीडिया व पत्रकारों को ख़रीद सकती है, वह वोट ख़रीद सकती है, बहुमत न मिलने पर दूसरी पार्टियों के विधायकों-सांसदों को ख़रीद सकती है और यह सारा काम खुलेआम होता है। अब यह आम बात है कि हर चुनावों के बाद बाक़ी पार्टियाँ अपने विधायकों-सांसदों को ख़रीदे जाने से बचाने के लिए फ़ार्महाउसों और होटलों में क़ैद करती हैं! पूँजीवादी राजनीति इतने नंगे तौर पर बाज़ारू हो चुकी है कि एक बच्चा भी समझ सकता है कि सारा खेल पैसे का पैसे वालों का है, इसमें मज़दूरों-मेहनतकशों की कोई जगह हो ही नहीं सकती है।
देश-विदेश से पूँजीपतियों, उच्च मध्यवर्ग, धनी एनआरआई लोगों द्वारा संघ परिवार और भाजपा को मिलने वाला आर्थिक सहयोग अकूत है। सवाल यह है कि पूँजीपति वर्ग के बड़े हिस्सा का यह प्रचण्ड आर्थिक समर्थन एकतरफ़ा तरीक़े से भाजपा की ओर क्यों स्थानान्तरित हुआ है। कारण स्पष्ट है।
भाजपा पूँजीपति वर्ग की सेवा और चाकरी जिस प्रतिबद्धता से करती है, अन्य कोई पूँजीवादी पार्टी उस तरह से नहीं कर सकती। चाहे वह बैंकों के हज़ारों करोड़ रुपये के क़र्ज़ डकार जाने की छूट देना हो, हर वर्ष हज़ारों करोड़ के पैकेज पूँजीपतियों को सौंपने हों, उन्हें करों से छूट देनी हो, कौड़ियों के दाम ज़मीन, पानी, बिजली मुहैया कराना हो, इसमें भाजपा का कोई जोड़ नहीं है। साथ ही मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध और उसकी हड़तालों व आन्दोलनों को बर्बरता से कुचलने के मामले में भी अन्य सभी पूँजीवादी पार्टियाँ भाजपा से मीलों पीछे हैं। न सिर्फ़ मज़दूर आन्दोलनों को भाजपा की सरकारें कुचलने का काम करती हैं, बल्कि उन्हें धर्म और जाति के नाम पर भीतर से तोड़ने में भी भाजपा का कोई सानी नहीं है। भाजपा सरकार द्वारा लाये गये नये लेबर कोड पूँजीपति वर्ग की लूट के रास्ते से सारी बाधाएँ ख़त्म करने के लिए ही लाये गये हैं। अब इनके लागू होते ही मज़दूरों से क़ानूनी तौर पर 10-12 घण्टे काम करवाने, उनके लिए यूनियन बनाना कठिन करने और उनके संघर्षों को कुचलने का पूरा इन्तज़ाम हो जायेगा।
इस समय पूँजीपति वर्ग को इसी की तो ज़रूरत है। 2011-12 से ही भारत का पूँजीपति वर्ग मुनाफ़े की गिरती दरों के संकट का शिकार है। मन्दी से निपटने के लिए उसे मज़दूर वर्ग के शोषण को बढ़ाने और इस प्रकार मुनाफ़े की औसत दर को बढ़ाने की ज़रूरत है। इसके रास्ते में पुराने श्रम क़ानून थोड़ी-मोड़ी बाधा पैदा करते थे क्योंकि वे भी 93 प्रतिशत मज़दूरों के लिए लागू ही नहीं होते थे, जो अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। लेकिन जो थोड़े-बहुत संगठित व औपचारिक क्षेत्र के मज़दूरों के लिए लागू होते हैं, वे भी अब पूँजीपति वर्ग की आँखों में चुभ रहा है क्योंकि वह मुनाफ़े की गिरती दर के संकट से इस समय बुरी तरह से बिलबिला रहा है। इसी संकट से मुक्त करने के लिए मोदी सरकार बड़े पूँजीपति वर्ग को तोहफ़ों पर तोहफ़े दे रही है और साथ ही मज़दूर वर्ग के खुले, नंगे और बर्बर शोषण के रास्ते में आने वाले हर रोड़े को हटा रही है।
पूँजीपति वर्ग की इस अभूतपूर्व और अद्वितीय चाकरी के कारण ही पूँजीपति वर्ग का बड़ा हिस्सा एकमत होकर मोदी और भाजपा को समर्थन दे रहा है। उन्हें यह भी समझ आता है कि मज़दूर आन्दोलन को कुचलने और उसके मुक़ाबले टुटपुँजिया वर्गों का एक प्रतिक्रियावादी फ़ासीवादी आन्दोलन खड़ा करने का काम भी यही संघ परिवार और भाजपा कर सकते हैं। यही कारण है कि उन्हें पूँजीपति वर्ग का ज़बर्दस्त आर्थिक समर्थन भी प्राप्त है और इसी के बूते भाजपा की विराट चुनावी मशीनरी लगातार सक्रिय रहती है, चाहे वह मीडिया, पत्रकारों, आदि को ख़रीदने का काम हो, वोट ख़रीदने का काम हो, अन्य पार्टियों के विधायकों, सांसदों व नेताओं को ख़रीदने का काम हो। यह दूसरा सबसे अहम कारक है जो संघ परिवार और भाजपा को एक ऐसी शक्ति बना देता है जिससे अन्य पूँजीवादी पार्टियाँ फ़िलहाल निपट नहीं सकती हैं।
इसका एक कारण तो अन्य पूँजीवादी पार्टियों को पूँजीपति वर्ग से मिलने वाले आर्थिक समर्थन में आयी भारी कमी है, लेकिन साथ ही पूँजीवादी राजनीति की अन्य धाराओं का विगत चार दशकों में अभूतपूर्व रूप से हुआ पतन भी इसका लिए ज़िम्मेदार है। आज से तीन-चार दशक पहले समाजवादियों के दलों के नेतागण भी तमाम मुद्दों पर सड़कों पर उतरा करते थे, हालाँकि वे ऐसा छोटे पूँजीपति वर्ग और खाते-पीते मध्यवर्ग के हितों के लिए ही ज़्यादा करते थे या फिर कभी वे मज़दूर वर्ग के बारे में बोलते भी थे तो पूँजीवादी व्यवस्था की रक्षा करने के लिए और सुधारवादी नज़रिए से। लेकिन कम-से-कम तब वे सड़कों पर एक हद तक उतरते थे। लेकिन अब वह दौर भी बीत चुका है। कांग्रेस के लिए यह दौर और भी पहले बीत चुका था। संशोधनवादी पार्टियों की भी यही हालत है और जब कभी वे सड़कों पर उतरती हैं तो भी रस्म अदायगी के तौर पर और यह रस्म अदायगी भी वे व्यापक मज़दूर आबादी के लिए नहीं करतीं बल्कि बैंक-बीमा क्षेत्र में काम करने वाले सफ़ेद कॉलर कर्मचारियों के लिए ज़्यादा करती हैं। बाक़ी मज़दूर आन्दोलन में उनकी भूमिका विश्वासघात और समझौतापरस्ती की ही हुआ करती है। यही कारण है कि इनकी जो थोड़ी-बहुत शक्ति बची थी उसमें भी पिछले दो दशकों में तेज़ी से गिरावट आयी है। कुल मिलाकर यह स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि तमाम पूँजीवादी पार्टियाँ केवल चुनाव के पहले के तीन-चार महीनों में सक्रिय होती हैं, जबकि भाजपा और संघ परिवार की समूची मशीनरी पूरे साल सक्रिय रहती है और अपने प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन को मज़बूत बनाने में लगी रहती है। इस प्रकार की राजनीति और कोई भी पूँजीवादी राजनीतिक दल नहीं कर रहा है। भाजपा और संघ परिवार अपनी विचारधारा और राजनीति को लेकर अपने काडर-आधारित सांग‍ठनिक ढाँचे के साथ इस काम को लगातार अंजाम दे रहे हैं।

3. आर्थिक संकट हमेशा ही प्रतिक्रिया और अक्सर फ़ासीवादी प्रतिक्रिया को जन्म देता है
तीसरा आम कारक जिसने संघ परिवार और भाजपा की पूँजीवादी राजनीति को देश में हाशिये से निकालकर सबसे ताक़तवर स्थान पर पहुँचा दिया है वह है आर्थिक संकट का सन्दर्भ जिसमें हमेशा ही प्रतिक्रियावादी राजनीति की विभिन्न विषैली बेलें पनपती हैं। सिर्फ़ काडर-आधारित संगठन के आधार पर ही भाजपा को यदि शीर्ष पर पहुँचना होता तो वह 1980 के दशक के पहले ही अपने उभार पर जाना शुरू कर देती। 1980 के दशक से भाजपा को पूँजीपति वर्ग का मिलने वाला समर्थन भी लगातार बढ़ता गया है। लेकिन भाजपा और संघ परिवार का फ़ासीवादी संगठन अपने आपको टुटपुँजिया वर्ग के एक फ़ासीवादी आन्दोलन में तब्दील करने का काम 1980 के दशक से और विशेष तौर पर राम मन्दिर आन्दोलन के दौर से ही कर पाया। उसकी एक वजह थी।
वजह यह थी कि 1970 के दशक से ही एक आर्थिक मन्दी ने देश को अपनी जकड़बन्दी में लेना शुरू कर दिया था। वैश्विक मन्दी का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी नज़र आ रहा था। 1987 में वैश्विक अर्थव्यवस्था का संकट अभूतपूर्व रूप से गहराया और इसका असर भी भारतीय अर्थव्यवस्था तक पहुँचा। भारत की पब्लिक सेक्टर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था 1960 के उत्तरार्द्ध से ही आन्तरिक संकटों से ग्रस्त थी। 1980 के दशक में कुछ समय के लिए एक तेज़ी का दौर भी आया था लेकिन 1980 के दशक के ख़ात्मे तक वह तेज़ी मन्दी में तब्दील हो चुका था। जैसे-जैसे मन्दी गहरायी वैसे-वैसे भारतीय समाज में टुटपुँजिया वर्ग की प्रतिक्रिया का आधार भी गहराया। इन टुटपुँजिया वर्गों का सबसे बड़ा डर और दुस्वप्न था मज़दूर बन जाने का डर। इसी डर का भाजपा और संघ परिवार ने जमकर इस्तेमाल किया। और यही कारण था कि 1980 के दशक, विशेष तौर पर उसके मध्य और उत्तरार्द्ध से भाजपा और संघ परिवार का फ़ासीवाद एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन की शक्ल लेता गया। यह संकट कभी थोड़ा कम कभी थोड़ा ज़्यादा रहते हुए जारी रहा और 2007 में वैश्विक महामन्दी की शुरुआत और 2011-12 तक इसके असर के भारतीय अर्थव्यवस्था में विकराल रूप में अभिव्यक्त होने के साथ फ़ासीवादी उभार भी और तेज़ हुआ और अन्ततः 2014 में मोदी की जीत के साथ अपने नये मुक़ाम पर पहुँचा।
इसलिए आर्थिक मन्दी और संकट की भारत में फ़ासीवाद के उभार में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वास्तव में, हर देश में ही फ़ासीवादी उभार के पीछे मौजूद बुनियादी अन्तर्विरोध आर्थिक संकट ही रहा है, हालाँकि तात्कालिक तौर पर प्रधान अन्तर्विरोध की भूमिका पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक संकट ने निभायी है। भारत में भी पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक संकट को 2008-9 से 2011-12 तक सामने आये विशालकाय घोटालों में देखा जा सकता है, जो कि आम तौर पर पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक संकट की ही अभिव्यक्ति हुआ करते हैं। इसी पृष्ठभूमि में भाजपा पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ 2014 में सत्ता में पहुँची थी। इसका यह अर्थ नहीं है कि आर्थिक संकट के समाप्त होने पर फ़ासीवादी उभार का अवसान भी शुरू हो जायेगा। यह अनिवार्य नहीं है। लेकिन यह भी तय है कि उसके उभार के पीछे आम आर्थिक और राजनीतिक सन्दर्भ तैयार करने का काम आर्थिक संकट ने ही किया है। यह आर्थिक संकट ही है जिससे उपजी असुरक्षा टुटपुँजिया वर्गों की फ़ासीवादी प्रतिक्रिया का सामाजिक आधार बनाती है और यही पूँजीपति वर्ग को भी फ़ासीवाद को प्रचण्ड समर्थन देने की ओर ले जाती है।

उपरोक्त तीन सामान्य कारक हैं जो आम तौर पर भाजपा को सभी चुनावों में अन्य चुनावबाज़ पूँजीवादी पार्टियों पर एक बढ़त देते हैं और जो हाल अन्य पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियों का हो चुका है, उसमें ये भाजपा को उपरोक्त कारणों से चुनौती देने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि चुनावों में भाजपा नहीं हार सकती है। लेकिन यह भी सही है कि वर्तमान स्थिति में यह भाजपा की हार अधिक होगी और विपक्षी पार्टियों की जीत कम। मसलन, बेरोज़गारी, ग़रीबी, महँगाई और भुखमरी के बढ़ते जाने के साथ भाजपा आर्थिक कारकों के कारण चुनाव हार सकती है और अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पूँजीवादी पार्टियों को इसका लाभ मिल सकता है। लेकिन उस सूरत में भी यह चुनावी हार संघी फ़ासीवाद की निर्णायक हार नहीं होगी।
बहरहाल, अब हम उन विशिष्ट तात्कालिक कारणों पर चर्चा करते हैं, जो मौजूदा चुनावों में भाजपा की चुनावी जीत का कारण बने।

भाजपा की चुनावी जीत के विशिष्ट तात्कालिक कारक

चुनाव से पहले सभी कयास लगा रहे थे कि योगी सरकार बुरी तरह अलोकप्रिय है। युवाओं के बीच बेरोज़गारी के कारण और बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ हुए आन्दोलन के दमन के कारण भारी असन्तोष है। धनी किसानों व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों के बीच खेती क़ानूनों व लखीमपुर खीरी हत्याकाण्ड को लेकर असन्तोष है। कोरोना महामारी के दौरान आपराधिक कुप्रबन्धन और लाखों की संख्या में हुई मौतों के कारण व्यापक आबादी में असन्तोष है। लेकिन इन सबके बावजूद भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़ा। क्यों? यह सच है कि समाजवादी पार्टी के गठबन्धन को भाजपा के वोट प्रतिशत से मात्र 8 प्रतिशत कम वोट मिले और यह असन्तोष वाक़ई था जिसके कारण समाजवादी पार्टी गठबन्धन पहले से अपनी सीटों की संख्या बढ़ा पाया। लेकिन इसके बावजूद यह असन्तोष भाजपा और उसकी योगी सरकार के विरोध में पूरी तरह से रूपान्तरित नहीं हुआ। उल्टे भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़ा। यह क्यों हुआ? आइए समझते हैं।

1. सर्वाधिक ग़रीब आबादी के लिए ख़ैराती कल्याणकारी नीतियों और हिन्दुत्व का घातक मिश्रण
यह पहला महत्वपूर्ण कारक है। भाजपा की योगी सरकार ने चुनाव के तीन-चार महीने पहले से ही तमाम ख़ैराती कल्याणकारी नीतियों को लागू किया। मिसाल के तौर पर, श्रम कार्ड के तहत रु. 1500 मज़ूदरों के बीच देना, महीने में दो बार 40-40 किलोग्राम तक राशन सर्वाधिक निर्धनतम परिवारों में निःशुल्क बाँटना, ग़रीब किसानों को रु. 6000 सालाना देना, बैंक में नक़दी स्थानान्तरण करना, आदि। इसके अलावा, प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत अचानक तेज़ी से पैसे दिये जाने लगे, गैस सिलिण्डर कनेक्शन बाँटने की रफ़्तार भी तेज़ कर दी गयी। आचार संहिता लागू होने के बाद भी योगी सरकार ये काम करती रही और भाजपा की जेब में बैठा चुनाव आयोग यह सब मूक दर्शक बना देखता रहा।
जैसा कि आप देख सकते हैं ये कल्याणकारी नीतियाँ किसी ग़रीब को ग़रीबी के जीवन से बाहर नहीं निकाल सकती हैं। ये मामूली ख़ैरात थीं जो कि ग़रीब परिवारों को भुखमरी के स्तर पर ज़िन्दा रखने के लिए भी मुश्किल से ही सक्षम थीं। लेकिन जो निर्धनतम परिवार हैं, जो सबसे ग़रीब दलित खेतिहर मज़दूर हैं, असंगठित क्षेत्र के मज़दूर हैं, उनके लिए यह फिर भी भाजपा को समर्थन देने का एक कारण बन गया क्योंकि उनके जीवन के हालात इतने हताशापूर्ण थे, कि इस मामूली ख़ैरात से भी उन्हें कुछ तात्कालिक राहत मिलती महसूस हुई। इसके साथ ही व्यापक निर्धनतम खेत मज़दूर व असंगठित मज़दूर आबादी में इस प्रकार के ख़ैराती कल्याणवाद को धर्म और योगी के सन्यासी बाबा होने की छवि के साथ मिश्रित किया गया। कम राजनीतिक चेतना के कारण ख़ैराती कल्याणवाद और हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिकता का मिश्रण भाजपा के लिए फ़िलहाल काम कर गया।
इसकी एक वजह यह भी थी कि सबसे ग़रीब मज़दूर और दलित आबादी के जीवन के हालात पहले से इतने बुरे हैं कि इतनी मामूली ख़ैरात भी एक कारक बन गयी, जबकि उल्टे इसे व्यापक ग़रीब आबादी में ग़ुस्से और अपमान का कारण बनना चाहिए था। ऐसा न होने के दो कारण रहे। पहला, इस ख़ैराती कल्याणवाद को धर्म के साथ मिश्रित करना और दूसरा इस आबादी में राजनीतिक चेतना की भारी कमी। निश्चित तौर पर, राजनीतिक चेतना में इस कमी के लिए देश का क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन भी ज़िम्मेदार है। इस आन्दोलन का बड़ा हिस्सा हाल ही में ग़रीब किसानों और खेतिहर मज़दूरों के शोषकों-उत्पीड़कों धनी किसानों-कुलकों के आन्दोलन की पूँछ पकड़कर घूम रहा था जो कि एमएसपी जैसी जनविरोधी माँग पर हो रहा था जो समूची ग़रीब जनता को नुक़सान पहुँचाता है। ऐसे ही कुलकवादी कम्युनिस्ट इस बात का मज़ाक़ उड़ा रहे थे कि मोदी व योगी की सरकारों द्वारा ग़रीब किसानों को साल के रु. 6000 देने से क्या फ़र्क़ पड़ता है? इसका असर इन्हें इसलिए नहीं समझ आया क्योंकि इनकी आँखों पर कुलकों-धनी किसानों का चश्मा लग चुका था। एक ग़रीब किसान परिवार जो अपने खानेभर के भोजन का एक हिस्सा पैदा कर लेता है और बाक़ी उसके सदस्य उजरती श्रम करते हैं, उनकी असली समस्या नक़दी की कमी की होती है। काम मिलने की अनिश्चितता और बढ़ती बेरोज़गारी के कारण यह समस्या हालिया दिनों में और भी ज़्यादा गहरा गयी थी। उसके लिए सालभर का एक साथ रु. 6000 मिलना उसे कुछ राहत का झूठा अहसास देता है। यह ख़ैरात भी उसकी हताशापूर्ण स्थिति में कुछ राहत का भ्रम पैदा करती है। निश्चित तौर पर, धनी किसानों-कुलकों के लिए इसका कुछ भी अर्थ नहीं है। लेकिन औसतन रु. 12-13 प्रति व्यक्ति प्रतिदिन कमा पाने वाले निर्धनतम किसान व खेतिहर मज़दूर परिवार के लिए यह रक़म भी मायने रखने लगती है क्योंकि उसे पूँजीवादी व्यवस्था ने पहले ही रसातल में पहुँचा दिया है। ऊपर से क्रान्तिकारी शक्तियों की उनके बीच अनुपस्थिति (क्योंकि उनका बहुलांश तो कुलकों की ट्रॉलियों में सवार है!) उनके बीच राजनीतिक चेतना की कमी के लिए भी ज़िम्मेदार है, जिसके होने पर ये ख़ैरात किसी राहत का भ्रम पैदा करने की बजाय उनमें और ज़्यादा ग़ुस्सा और असन्तोष पैदा करती। यही बात शहर के असंगठित मज़दूरों पर भी लागू होती है। उनके बीच भी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ताक़तों की उपस्थिति बेहद कम है। तमाम कम्युनिस्टों को लगता है कि केवल बड़े कारख़ानों में काम करने वाला संगठित मज़दूर ही क्रान्तिकारी क्षमता रखता है, इसलिए वे असंगठित और अनौपचारिक क्षेत्र के मज़दूरों की विशाल आबादी की उपेक्षा करते हैं। संघ परिवार और भाजपा अपने ख़ैराती कल्याणवाद और हिन्दुत्ववाद के मिश्रण से इसी आबादी को लक्षित कर रहे हैं और उसका असर बीते विधानसभा चुनावों में साफ़ तौर पर नज़र आया है।
इससे जुड़ा हुआ सबसे महत्वपूर्ण कार्यभार यह है कि क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शक्तियाँ इस ग़रीब-दलित किसान व खेतिहर मज़दूर आबादी में अपनी जड़ों को मज़बूत करें, उनके बीच संजीदगी और धैर्य से राजनीतिक कार्य करें, उनकी राजनीतिक चेतना का स्तरोन्नयन करें और उनके बीच सांस्कृतिक कार्य और सुधार कार्य के ज़रिए साम्प्रदायिकता और हिन्दुत्व की जड़ों पर हमला करें। इसके बिना फ़ासीवाद को पराजित करने का सपना देखना शेख़चिल्ली का सपना बन जायेगा। और जब हम फ़ासीवाद की पराजय की बात कर रहे हैं, तो उसका अर्थ चुनावी पराजय नहीं बल्कि फ़ासीवाद के विरुद्ध एक क्रान्तिकारी जनान्दोलन खड़ा करने की बात कर रहे हैं। अगर ऐसा जनान्दोलन खड़ा होता है, तो आम तौर पर समाज में फ़ासीवादी शक्तियाँ अपनी पकड़ को खोयेंगी और उनके लिए चुनावों में भी अच्छा प्रदर्शन कर पाना मुश्किल होगा। अपने आप में महज़ एक चुनावी रणनीति कभी भी फ़ासीवाद को शिकस्त नहीं दे सकती है।

2. ग़ैर-जाटव दलित और ग़ैर-यादव पिछड़ी जातियों के और आंशिक तौर पर जाटव दलित आबादी के वोट का बड़े पैमाने पर भाजपा को जाना कोई जातिगत परिघटना नहीं बल्कि वर्गीय परिघटना है
यह पहले कारक से जुड़ा हुआ कारक है। इस चुनाव में मुसलमान व यादव वोट बड़े पैमाने पर सपा गठबन्धन को गया और उसके वोट प्रतिशत और सीटों में बढ़ोत्तरी का मुख्य कारण यही था। लेकिन इसके मुक़ाबले भाजपा की ओर ग़ैर-जाटव दलित वोटों और ग़ैर-यादव ओबीसी वोटों का स्थानान्तरण निरपेक्ष अर्थों में कहीं ज़्यादा था। इसकी वजह क्या रही? इसकी वजह यह है कि इस दलित और ओबीसी आबादी का बड़ा हिस्सा ग़रीब किसान व खेतिहर मज़दूरों तथा असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों का है। ठीक यही आबादी है जिसके बीच योगी सरकार ने वह ख़ैराती कल्याणवाद और हिन्दुत्व का मिश्रण पेश किया है, जिसकी हमने ऊपर चर्चा की है।
कई अस्मितावादी विश्लेषक और यहाँ तक कि तथाकथित कम्युनिस्ट भी इसे एक जातिगत परिघटना के रूप में देख रहे हैं कि योगी की जीत इसलिए हुई क्योंकि फलाँ-फलाँ जातियों ने सपा गठबन्धन को वोट नहीं दिया इसलिए अखिलेश यादव नहीं जीत पाये। मामला इतना सीधा नहीं है। साथ ही इस पूरे “विश्लेषण” से विश्लेषण ग़ायब है क्योंकि विश्लेषण का अर्थ होता है कारणों की पड़ताल करना। इन जातियों के वोट का भाजपा की ओर बड़े पैमाने पर पिछले आठ वर्षों में स्थानान्तरित होना दिखाता है कि अपने विचारधारात्मक व राजनीतिक प्रचार के ज़रिए, ख़ैराती कल्याणवाद और हिन्तुत्ववाद के मिश्रण के ज़रिए कमण्डल की राजनीति ने मण्डल की राजनीति को बेअसर कर दिया है। वजह क्या है? वजह यह है कि मण्डल की राजनीति करने वालों के पास कोई विचारधारात्मक व राजनीतिक हथियार नहीं है, सिवाय आरक्षण की राजनीति के। वे एक बेहद दरिद्र क़िस्म का अस्मितावाद चलाते हैं, जो कि जातिगत अस्मिता पर आधारित है। चूँकि जातियाँ स्वयं अन्दरूनी तौर पर भी अस्मिताओं और उपअस्मिताओं में टूटी हुईं हैं और समूची पिछड़ी आबादी और समूची दलित आबादी के लिए दो विराट अस्मिताओं का निर्माण कर भाजपा के हिन्दुत्ववादी अस्मितावाद का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता है। अस्मितावाद की ही राजनीति करनी होगी, तो उसमें अन्ततः भाजपा ही जीतेगी जो कि देशभर एक एकल हिन्दू अस्मिता बनाने (हिन्दू अस्मिता का सामीकरण या semitization) का काम लम्बे समय से कर रही है और जिस काम को तमाम चुनौतियों के बावजूद करने में वह सफल रही है क्योंकि यह धार्मिक साम्प्रदायिक अस्मिता अस्मितावादी गोलबन्दी की कहीं बड़ी इकाई मुहैया कराती है। दूसरी बात, भाजपा ने जातिगत समीकरणों को और अस्मिताओं को तोड़ा नहीं है, बल्कि स्वयं उसका इस्तेमाल किया है, लेकिन उसे हिन्दुत्व की कहीं ज़्यादा व्यापक ढाँचे में समायोजित और सहयोजित कर लिया है।
इस काम को करने में एक तरफ़ भाजपा ने टुटपुँजिया वर्गों की प्रतिक्रिया और हिन्दुत्ववाद के मिश्रण का इस्तेमाल किया है, वहीं निर्धनतम ग़रीब किसान व मज़दूर आबादी में ख़ैराती कल्याणवाद और हिन्दुत्ववाद के मिश्रण का इस्तेमाल किया है। इन दोनों हथियारों के ज़रिए सम्पूर्ण दलित एकता और सम्पूर्ण ओबीसी एकता की उसने धज्जियाँ उड़ा दी हैं क्योंकि वर्गीय कारणों से ऐसी कोई एकता बन ही नहीं सकती है। वर्ग अन्तर्विरोधों को प्रतिक्रियावादी विकृत रूप से अभिव्यक्त करते हुए और उसे हिन्दुत्व के साथ मिश्रित करते हुए संघ परिवार और भाजपा ने सम्पूर्ण दलित एकता और सम्पूर्ण ओबीसी एकता के अस्मितावादी नारे को क़ब्र में पहुँचा दिया। ऊपर से यदि कोई ‘बहुजन एकता’ की बात करता है, यानी ग़रीब किसान व खेतिहर मज़दूर दलितों तथा उनके प्रमुख शोषक किसान जातियों की एकता की बात, तो उसकी तो आप टोपी फ़ौरन हवा में उछाल दीजिए और उसे किसी मानसिक चिकित्सालय में भर्ती कीजिए! ऐसी कोई बहुजन एकता सम्भव ही नहीं है। दलित मज़दूरों और उनके शोषक और उत्पीड़क धनी व उच्च मध्यम किसानों में कोई एकता कैसे सम्भव है? बहुजन एकता का यह अम्बेडकरवादी सपना पैदा ही एक मरे हुए बच्चे के रूप में हुआ था। इसे दफ़्न करके ही जनता के जनान्दोलनों को आगे बढ़ाया जा सकता है।

3. भाजपा की जीत में बसपा की अहम भूमिका : आज के दौर में अम्बेडकरवादी व्यवहारवाद का तार्किक परिणाम
बहुत-से लोग इस बात को पहचान रहे हैं कि भाजपा की जीत सिर्फ़ भाजपा द्वारा अपनी राजनीति और प्रचार के प्रबन्धन पर आधारित नहीं थी, बल्कि भाजपा तमाम विपक्षी पार्टियों की राजनीति और प्रचार को भी प्रबन्धित कर रही थी। इसमें सबसे प्रमुख नाम मायावती की बसपा का है और दूसरा नाम ओवैसी का। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि बसपा की भूमिका के बिना भाजपा की जीत का अन्तर इतना बड़ा नहीं होता। इसको कुछ उदाहरण से समझिए।
एक जानी-मानी पत्रकार ने उत्तर प्रदेश के शहरों और गाँवों का व्यापक दौरा चुनावों के पहले और उसके दौरान किया था। उनके सर्वेक्षण में जो बातें सामने आयीं वे कुछ इस प्रकार हैं।
अधिकांश दलित बस्तियों में, जिनमें जाटव दलित आबादी रहती है, लोग यह कह रहे थे कि बहनजी के आदेश पर इस बार भाजपा को वोट दिया जायेगा क्योंकि मोदी जी इसके बाद बहनजी को राष्ट्रपति बनवायेंगे! यही कारण था कि पिछले चुनावों में भाजपा को जाटव आबादी का 8 प्रतिशत वोट प्राप्त हुआ था जबकि इस बार यह प्रतिशत बढ़कर 21 प्रतिशत हो गया! बसपा का उत्तर प्रदेश से सूपड़ा साफ़ होने का यही कारण था। यानी भाजपा को न सिर्फ़ ग़ैर-जाटव दलित आबादी का 41 प्रतिशत वोट प्राप्त हुआ, उसे जाटव दलित आबादी का भी 21 प्रतिशत वोट प्राप्त हुआ, जबकि बसपा को जाटव आबादी का भी 27 प्रतिशत वोट ही प्राप्त हुआ। इसके कारण भी वर्गीय हैं, न कि अपने आप में जातिगत जैसा कि ऊपर हमने दिखलाया है।
साथ ही, यह व्यापक मेहनतकश दलित आबादी में पहचान की राजनीति की गहरी जड़ों को दिखलाता है। उसके लिए अभी भी अस्मितावादी प्रतीकवाद उसके जीवन के ठोस मसलों से ज़्यादा अहम है। उसके लिए मायावती का राष्ट्रपति बन जाना और उसके साथ उसकी जाति की “शान” में इज़ाफ़ा होना ज़्यादा महत्वपूर्ण है, बनिस्बत इसके कि उसे रोज़गार, शिक्षा और चिकित्सा का हक़ मिले, एक बेहतर जीवन मिले। यह अस्मितावाद समूचे दलित मुक्ति के प्रोजेक्ट को लगातार भीतर से कुतर रहा है। इसकी शुरुआत मायावती और कांशीराम से नहीं होती बल्कि अम्बेडकर से ही हो जाती है, जिनकी पूरी परियोजना दलित आबादी के एक हिस्से को सरकारी नौकरियों और ऊँचे पदों तक पहुँचाना और एक बहुजन अस्मिता का निर्माण करना था। उनके युग में इस अस्मितावाद का वह पतन सम्भव ही नहीं था, जो आज मायावती व पासवान व उदित राज जैसों के साथ हम देख रहे हैं। हर राजनीति की एक ऐतिहासिक यात्रा हम देख सकते हैं। आज मायावती, पासवान और उदित राज से इतर भी जो अम्बेडकरवादी राजनीति है, वह कहीं भी अस्मितावाद से आगे नहीं जाती है।
आज मायावती की राजनीति के पूरी तरह से भाजपा और संघ परिवार की गोद में बैठने पर कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए। अस्मितावादी राजनीतियों की यात्रा अक्सर इसी प्रकार अपनी परिणति पर पहुँचती है। याद करें, एक समय तमाम वामपन्थी भी कांशीराम और मायावती को बड़ा प्रगतिशील माना करते थे और उसे दलित अस्मिता का उभार बताते थे। लेकिन अब वह अस्मिता का उभार कहाँ पहुँचा, यह सभी के सामने है।
बसपा ने भाजपा को कैसे मदद पहुँचायी? एक उदाहरण से समझिए। पूर्वी उत्तर प्रदेश में फ़ाजिलपुर की सीट से स्वामी प्रसाद मौर्या ने चुनाव लड़ा, जिनका कुछ ग़ैर-यादव ओबीसी जातियों में ख़ासा आधार था। लेकिन बसपा ने उसी सीट से एक अपेक्षाकृत गुमनाम उम्मीदवार खड़ा किया, जो पहले समाजवादी पार्टी में था और मुसलमान था और टिकट न मिलने के कारण नाराज़ था। उसे बसपा ने टिकट दिया और वोटों का ऐसा ध्रुवीकरण किया जिसके कारण वहाँ सपा गठबन्धन की हार हुई। इसी प्रकार अन्य सीटों पर भी कहीं मुसलमान तो कहीं ओबीसी उम्मीदवार खड़ा करके बसपा ने सपा गठबन्धन के काफ़ी वोट काटे। इसलिए बसपा की भूमिका भाजपा की जीत में काफ़ी महत्वपूर्ण थी।

4. झूठे प्रचार को अनन्त दुहराव के ज़रिए सच के तौर पर स्थापित करने की भाजपा की रणनीति
यह फ़ासीवाद की आम ख़ासियत होती है कि वह झूठों को दुहराकर मिथक के रूप में स्थापित कर देता है। मौजूदा चुनावों में भी भाजपा ने कुछ सफ़ेद झूठों को अपनी भारी-भरकम विराट प्रचार मशीनरी द्वारा इतनी बार दुहराया कि वह जनता के लिए एक आकाशवाणी समान सत्य बात बन गयी, मानो यह सबको ही पता है और इसका तो कोई सबूत देने की भी ज़रूरत नहीं है।
मिसाल के तौर पर एक झूठ यह था कि योगी सरकार ने सपा के मुसलमानों और गुण्डों की दबंगई ख़त्म कर दी और अब प्रदेश में सुशासन स्थापित हो गया है, कोई गुण्डागर्दी या वसूली नहीं कर सकता है! इससे बड़ा झूठ और कोई हो नहीं सकता। योगी के राज में नेताओं, विधायकों द्वारा अपराध, बलात्कार, वसूली और भ्रष्टाचार के मामलों ने सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिये थे। लेकिन अपने कोर वोट बैंक यानी उच्च व मध्य मध्यम वर्ग तथा ठेकेदारों व व्यापारियों के बीच पहले भाजपा ने इस बात को स्थापित किया और उसके बाद इस वाचाल तबक़े ने आम आबादी में इस झूठ को फैलाने का जमकर काम किया। ग़ौरतलब है कि इन वर्गों में अधिकांश सवर्ण जातियों से व वैश्य जातियों से आते हैं, यानी ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया आदि। लेकिन यहाँ भी कारण जातिगत नहीं बल्कि वर्गीय है। लेकिन चूँकि हमारे देशों में जाति समूहों और वर्ग समूहों का आंशिक अतिच्छादन मौजूद है और जातिवादी चेतना का असर है, इसलिए अक्सर लोग जातिगत समीकरण के तौर पर प्रकट हो रही घटना के पीछे मौजूद असली वर्गीय गतिकी को नहीं देख पाते हैं। सच्चाई तो यह है कि मुसलमानों के बीच भी भाजपा को वोट प्रतिशत 6 प्रतिशत से बढ़कर 8 प्रतिशत पहुँच गया है! यानी खाते-पीते मुसलमानों और विशेषकर शिया खाते-पीते मुसलमानों की एक अच्छी-ख़ासी आबादी ने भाजपा को वोट दिया है! वजह यह है कि तमाम छोटे-बड़े पूँजीपतियों के लिए योगी सरकार ने लूट और मुनाफ़ाख़ोरी के तमाम रोड़े और बाधाएँ ख़त्म कर दी हैं और धन्धा करने को आसान बना दिया है। मज़दूरों के तमाम अधिकारों को विभिन्न प्रकार के काले क़ानूनों, जैसे कि एस्मा, आदि द्वारा छीन लिया गया है। इसलिए भी योगी सरकार समूचे पूँजीपति वर्ग की प्यारी बनी हुई है। इस वर्ग ने ही योगी सरकार के इस झूठ को स्थापित करने में सबसे बड़ा योगदान किया है, क्योंकि उसके लिए तो “सुशासन”, “रामराज” आ गया है!
इसके अलावा, मीडिया के ज़रिए भी भाजपा ने इस झूठ को इतनी बार दुहराया कि ग़रीब आबादी के बीच भी इसका पर्याप्त असर देखा गया। एक जानी-मानी पत्रकार के उत्तर प्रदेश दौरों की डायरी से पता चला कि अधिकांश जगहों पर ग़रीब घरों की महिलाएँ बोल रही थीं कि महँगाई की वजह से जीना दूभर हो गया है लेकिन वोट योगी को जायेगा क्योंकि उसने महिलाओं को सुरक्षा प्रदान की है और अपराधियों को दुरुस्त कर दिया है। एक पुलिस एनकाउण्टर राज्य बनाकर अपराध को कम कर देने की यह मध्यवर्गीय धारणा मीडिया के ज़रिए आम मेहनतकश आबादी में भी घुसा दी गयी थी। यह झूठ एक पल में ढह जाता है यदि आप उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के तहत महिलाओं के विरुद्ध बढ़े अपराधों पर नज़र डालते हैं। उल्टे यह पहली बार हो रहा है कि इतने विधायक-मंत्री सीधे ऐसे अपराधों में लिप्त पाये गये हैं और योगी सरकार ने बाक़ायदा उन्हें बचाने का काम किया है।

उपरोक्त विशिष्ट कारण थे, जिन्होंने सामान्य कारणों के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में भाजपा को फिर से सत्ता में पहुँचाने में योगदान किया है। अन्य सभी कारण, मसलन, ईवीएम धाँधली केवल सहायक भूमिका में थे और अपने आप में वे इस जीत को व्याख्यायित नहीं कर सकते।
अन्त से पहले एक और महत्वपूर्ण कारक पर चर्चा करना आवश्यक है।

उत्तर प्रदेश के कुलकों-धनी किसानों ने जमकर किया भाजपा का समर्थन

उत्तर प्रदेश चुनावों के नतीजे आने के बाद कम-से-कम हमारे देश के अक्ल के अन्धे कुलकवादी कम्युनिस्टों की आँखें खुल जानी चाहिए जो यह उम्मीद लगाये बैठे थे कि धनी किसानों-कुलकों का ग़ुस्सा मोदी सरकार और योगी सरकार को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में मज़ा चखायेगा। आइए ठोस सच्चाई को देखते हैं। 2017 में भाजपा को धनी जाट कुलकों का 37 प्रतिशत वोट मिला था। याद रहे तब खेती क़ानून नहीं आये थे और उनको लेकर कोई ग़ुस्सा नहीं था। इस बार 54 प्रतिशत जाट वोट भाजपा को गये हैं। और इस बार तो ऐसे कुलकवादियों के अनुसार खेती क़ानूनों और लखीमपुर खीरी की घटना को लेकर धनी किसानों-कुलकों में इतना ग़ुस्सा था कि भाजपा का सूपड़ा पश्चिमी उत्तर प्रदेश से साफ़ होने वाला था। लेकिन यह क्या? भाजपा का इन धनी किसानों-कुलकों के बीच वोट प्रतिशत और भी बढ़ गया! यहाँ तक कि लखीमपुर खीरी की चारों सीटें भाजपा ने जीत लीं! यह कैसे हो गया? यह सवाल इस समय कुलकवादी कम्युनिस्टों के चुनौटीभर दिमाग़ को अन्दर से खाये जा रहा है। ऐसे तमाम “यथार्थवादी कम्युनिस्टों” ने सदमे में आकर ऐसी चुप्पी साधी है कि उनके मुँह से बकार नहीं फूट रही है! यदि वे वास्तव में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट होते तो उन्हें इतना सदमा नहीं लगता और उनका मानसिक स्वास्थ्य अभी अच्छी हालत में होता।
सच यह है कि इन धनी किसानों-कुलकों को खेती क़ानून से जो नाराज़गी थी, वह उस प्यार पर हावी नहीं हो सकी जो कि शासक वर्ग का हिस्सा होने के कारण इन धनी किसानों-कुलकों को भाजपा से था। इन्हें लगता था कि खेती क़ानून तो तात्कालिक मसला है और हम चौधरियों (शासक वर्ग) का आपसी मसला है, वह तो हम सुलटा लेंगे। लेकिन मुसलमानों को “सबक़ सिखाने” और खेतिहर मज़दूरों को “औक़ात में रखने” के लिए तो भाजपा का शासन आना ज़रूरी है! यह भी ग़ौरतलब है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों में भी एक खाता-पीता समुदाय अच्छी-ख़ासी संख्या में है। जिस प्रकार नात्सियों ने वायदा किया था कि धनी यहूदियों की सम्पत्ति छीनकर आर्य नस्ल के जर्मनों के हवाले कर दी जायेगी और उनका सफ़ाया होगा तो इनकी सारी सम्पत्ति पर जर्मनों का ही क़ब्ज़ा होगा, ऐसा ही नारा और नैरेटिव भीतर-भीतर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुलकों-धनी किसानों के बीच भी स्थापित किया गया है।
कुलकों और धनी किसानों के बारे में कई मूर्ख कह रहे हैं कि भाजपा को वोट देकर वे मूर्ख बन गये हैं। सच्चाई यह है कि कुलकों और धनी किसानों ने भाजपा को वोट देकर तीक्ष्ण वर्ग चेतना का परिचय दिया है। वे इस बात को पहचानते हैं कि निश्चित तौर पर खेती क़ानूनों पर उनका बड़े पूँजीपति वर्ग से आन्तरिक अन्तर्विरोध हो सकता है और छोटे-मँझोले पूँजीपति वर्ग और बड़े पूँजीपति वर्ग के बीच यह अन्तर्विरोध होता ही है। छोटा-मँझोला पूँजीपति वर्ग बड़े पूँजीपति वर्ग से प्रतिस्पर्द्धा के कारण उजड़ने से बचने के लिए राज्य का संरक्षण चाहता है और उसकी पूरी लड़ाई ही एमएसपी द्वारा इस संरक्षण को बचाने के लिए है। लेकिन वह यह भी समझता है कि व्यापक मेहनतकश जनता के बरक्स पूँजीपति वर्ग एकजुट है। यही वजह है कि कई साक्षात्कारों और सर्वेक्षणों के दौरान कुलकों और धनी किसानों ने साफ़ बोला कि खेती क़ानूनों पर जो असहमति है वह तो शासक वर्ग का आन्तरिक मसला है। लेकिन असली दूरगामी दुश्मन मेहनतकश जनता और मुसलमान हैं। इसलिए वास्तव में मूर्ख ये धनी किसान और कुलक नहीं हैं, बल्कि स्वयं हमारे कुलकवादी कम्युनिस्ट हैं, जो आकाशकुसुम की अभिलाषा में हाथ फैलाये बैठे थे और हाथ में गिरी कौवे की टट्टी!

अन्त में…

यह समझने की ज़रूरत है कि फ़ासीवादी उभार के समक्ष जब तक जनता के क्रान्तिकारी जनान्दोलन नहीं खड़े किये जाते, न सिर्फ़ भाजपा और संघ परिवार का हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद चुनावों में हावी रहेगा, बल्कि वह चुनावों में हावी न रहने पर भी ज़ंजीर से बँधे कुत्ते के समान पूँजीवाद व पूँजीपति वर्ग की ही सेवा करेगा और उनकी पैदल सेना के तौर पर मज़दूरों-मेहनतकशों और उनके आन्दोलनों पर हमले करता रहेगा।
इसके लिए यह ज़रूरी है कि एक ओर कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी व्यापक मेहनतकश जनता और विशेष तौर पर शहरों व गाँवों में असंगठित क्षेत्र के मज़दूर वर्ग के बीच सघन और व्यापक राजनीतिक कार्य करके उनके क्रान्तिकारी जनान्दोलन खड़ा करें और उनमें राजनीतिक चेतना का स्तरोन्नयन करें; वहीं यह भी ज़रूरी है कि वे गाँवों में व्यापक ग़रीब व निम्न-मध्यम किसान आबादी व खेतिहर मज़दूरों को उनके अलग वर्गीय संगठनों में संगठित करें, उनके बीच सघन और व्यापक राजनीतिक प्रचार करें, उनके बीच राजनीतिक चेतना का स्तरोन्नयन करें और उन्हें कुलकों व धनी किसानों के राजनीतिक प्रभाव से पूरी तरह से मुक्त करें। जब तक ये दो कार्यभार पूरे नहीं होते, तब तक फ़ासीवादी उभार को चुनौती देना सम्भव नहीं हो पायेगा।
दूसरा महत्वपूर्ण कार्यभार यह है कि टुटपुँजिया वर्गों के बीच अपने राजनीतिक व सांस्कृतिक कार्य, क्रान्तिकारी सुधार कार्य व शैक्षणिक कार्यों के ज़रिए क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ताक़तों को अपना गहरा आधार बनाना चाहिए। टुटपुँजिया वर्ग वह होता है जो कि स्वयं पूँजीपति वर्ग नहीं है और नियमित तौर पर उजरती श्रम का शोषण करने की स्थिति में नहीं होता है। वह अक्सर स्वयं अपनी श्रमशक्ति भी बेचता है और आर्थिक तौर पर वह मज़दूर वर्ग से कुछ ऊपर भी होता है, साधारण माल उत्पादन में लगा होता है, या कुछ बेहतर वेतन देने वाली नौकरी में लगा कर्मचारी होता है। यह अपने आपको मज़दूर वर्ग से ऊपर समझता है और इसका ऊपरी हिस्सा पूँजीपति बन जाने के सपने भी पालता रहता है। लेकिन जिस रफ़्तार से वह ये सपने देखता है, उससे तेज़ रफ़्तार से पूँजीवादी व्यवस्था उसके इन सपनों को तोड़ती भी रहती है। इसका बड़ा हिस्सा लगातार सर्वहाराकरण की दहलीज़ पर खड़ा होता है, जो कि उसका सबसे बुरा दुस्वप्न होता है। उसकी इसी असुरक्षा का इस्तेमाल फ़ासीवादी शक्तियाँ करती हैं और उसकी असुरक्षा और अनिश्चितता से पैदा ग़ुस्से और चिड़चिड़ाहट को एक नक़ली शत्रु यानी मुसलमानों की ओर मोड़ देती हैं। क्रान्तिकारी शक्तियों का काम है कि वह लगातार उनके बीच काम करें, उनके बीच अपनी मौजूदगी को बनाये रखे और उसे ठोस उदाहरणों और प्रमाणों से दिखलाये कि उसके जीवन की अनिश्चितता और असुरक्षा के लिए पूँजीवादी व्यवस्था ज़िम्मेदार है, पूँजीपति वर्ग ज़िम्मेदार है, उसकी नैसर्गिक एकता मज़दूर वर्ग के साथ बनती है और केवल समाजवादी व्यवस्था ही उन्हें इस असुरक्षा और अनिश्चितता से स्थायी तौर पर निजात दिला सकती है। यह एक लम्बा और श्रमसाध्य काम है। लेकिन इसकी उपेक्षा करने की क़ीमत क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों ने पहले भी चुकायी है और आज भी फ़ासीवादी उभार के रूप में चुका रहे हैं।
उपरोक्त कार्यभारों को पूरा किये बिना महज़ किसी चुनावी रणनीति या रणकौशल के ज़रिए संघी भाजपाई फ़ासीवाद को शिकस्त नहीं दी जा सकती है। आगे हम इस मसले पर और विस्तार से भी लिखेंगे, लेकिन अभी कुछ सबसे अहम मुद्दों को चिह्नित करना आवश्यक था क्योंकि इससे ठोस कार्यभार निकालना और उन पर अमल करना हमारे सभी क्रान्तिकारी साथियों की ज़िम्मेदारी है।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2022


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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