अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) के अवसर पर
पितृसत्ता के ख़िलाफ़ कोई भी लड़ाई पूँजीवाद विरोधी लड़ाई से अलग रहकर सफल नहीं हो सकती!

– वारुणी

इस बार 8 मार्च को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के 111 साल पूरे हो जायेंगे। यह दिन बेशक स्त्रियों की मुक्ति के प्रतीक दिवस के रूप में मनाया जाता है परन्तु जिस प्रकार बुर्जुआ संस्थानों द्वारा इस दिन को सिर्फ़ एक रस्मी कवायद तक सीमित कर दिया गया है, जिस प्रकार स्त्री आन्दोलन को सिर्फ़ मध्यवर्गीय दायरे तक सीमित कर दिया गया है, जिस प्रकार इस दिन को उसकी क्रान्तिकारी विरासत से धूमिल किया जा रहा है और जिस प्रकार उसे उसके इतिहास से काटा जा रहा है, ऐसे में ज़रूरी है कि हम यह जानें कि कैसे स्त्री मज़दूरों के संघर्षों को याद करते हुए अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की शुरुआत हुई थी।
यह दिन मेहनतकश स्त्रियों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत है लेकिन आज मेहनतकश औरतों की एक बड़ी आबादी को यह पता ही नहीं है कि अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस की शुरुआत किस प्रकार हुई। ज्ञात हो कि मज़दूरों के संघर्षों की एक कड़ी में ही महिला मज़दूरों ने अपने अधिकारों की लड़ाई शुरू की थी। 1857 में 8 मार्च को अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में महिला कपड़ा मज़दूरों ने बेहतर मज़दूरी और कार्य स्थितियों के लिए विशाल प्रदर्शन का आयोजन किया जिसका सरकार ने बुरी तरह दमन किया। लेकिन इन महिलाओं ने दो वर्ष बाद अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए अपनी पहली यूनियन बनायी। इसके 51 वर्ष बाद 8 मार्च के दिन ही न्यूयॉर्क में क़रीब 20,000 महिला श्रमिकों ने बेहतर कार्य स्थितियों, वोट देने के अधिकार और बेहतर मज़दूरी के लिए प्रदर्शन किया। दो वर्ष बाद 1910 में कोपेनहेगेन में दुनियाभर की मज़दूर पार्टियों के अन्तरराष्ट्रीय मंच ने अन्तरराष्ट्रीय महिला सम्मेलन का आयोजन किया। इसी सम्मेलन में जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी की क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट नेता क्लारा ज़ेटकिन ने यह प्रस्ताव रखा कि 8 मार्च का दिन अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में पूरी दुनिया में मनाया जाये। इस प्रस्ताव को एकमत से स्वीकार किया गया और तब से पूरी दुनिया में 8 मार्च को अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस के तौर पर मनाया जा रहा है।
परन्तु आज भी भारत में एक बड़ी स्त्री मज़दूरों की आबादी अपनी इस विरासत से परिचित नहीं है। आज ज़रूरत है कि उन्हें उनके इस गौरवशाली इतिहास से परिचित कराया जाये। आज भी भारत में मेहनतकश स्त्रियों की एक बड़ी आबादी बराबर काम के लिए पुरुषों से कम वेतन पाती है। आज भी कई क्षेत्रों में उन्हें बेगार खटाया जाता है। कई जगह सबसे कठिन, उबाऊ और महीन काम स्त्रियों के ज़िम्मे आते हैं। फ़ैक्टरियों में सुबह से शाम तक 10-12 घण्टे खटकर अपने सस्ते श्रम को बेचना, छोटे-छोटे वर्कशॉप या घरों में ही पीस रेट पर सिलाई-कढ़ाई का महीन काम करना, कम पैसे पर घरों में घरेलू कामगार का काम करना, आंगनवाड़ी या आशा वर्कर के रूप में बतौर वॉलण्टियर बेगार खटना और इन सब कामों में लगे होने के बाद अपने घर में खाना बनाने से लेकर बच्चे सँभालने तक की सारी ज़िम्मेदारी औरत को ही उठानी होती है!
वैसे तो घरेलू दासता सभी स्त्रियों को झेलनी पड़ती है लेकिन मेहनतकश औरतों की हालत नर्क से भी बदतर है। सस्ता होने के कारण स्त्रियों के श्रम को तमाम कम्पनियाँ और सरकारें बुरी तरह निचोड़ रही हैं। इस पूँजीवादी समाज में मज़दूर स्त्रियाँ न सिर्फ़ पूँजी की ग़ुलाम हैं बल्कि इसके साथ-साथ पितृसत्तात्मक उत्पीड़न का भी शिकार होती हैं। हर जगह उसे अपमान और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। पूँजीवाद के आविर्भाव के बाद बेशक स्त्रियों की एक विशाल आबादी काम के लिए घरों से बाहर निकल रही है लेकिन पूँजीवाद में भी स्त्रियों को उतनी ही आज़ादी प्राप्त हुई जितनी कि इस व्यवस्था को चलाते रहने के लिए उसकी ज़रूरत थी। पूँजीवाद ने स्त्रियों को घर की चौखट से बाहर निकाला भी तो केवल इसलिए ताकि उनका सस्ता श्रम निचोड़ा जा सके। कई लोग पूँजीवाद द्वारा लायी गयी इस आधुनिकता को ही स्त्री मुक्ति मान बैठते हैं लेकिन वे ग़लत हैं। उल्टे पूँजीवाद स्त्रियों की ग़ुलामी को एक नये रूप में स्थापित करता है। दूसरी तरफ़, यदि घरेलू कामकाज की बात करें तो आज भी स्त्रियों की बहुसंख्यक आबादी चूल्हे-चौखट में ही क़ैद है और वो तमाम स्त्री विरोधी सामन्ती व रूढ़िवादी मूल्य मान्यताएँ अभी भी क़ायम हैं।
पूँजीवाद में क़ानूनी तौर पर स्त्रियों को कई अधिकार मिले हैं लेकिन वह भी इस व्यवस्था ने ख़ुद ब ख़ुद नहीं दिये बल्कि लम्बे संघर्षों में उन अधिकारों को हासिल किया गया है। परन्तु आज भी वे अधिकार महज़ काग़ज़ी तौर पर मौजूद हैं। स्त्रियों को कई बुनियादी नागरिक अधिकार भी हासिल नहीं। आज सम्पत्तिशाली वर्ग से आने वाली स्त्रियों का एक तबक़ा भले ही घरेलू कामगारों या नौकरानियों को रख घरेलू कामों से छुटकारा पा चुका हो लेकिन मध्यम वर्ग और अन्य सम्पत्तिशाली वर्गों से आने वाली स्त्रियाँ अब भी घरेलू दासता से पूर्णतः मुक्त नहीं हैं। कई ज़रूरी फ़ैसलों में अब भी उनको कहने का अधिकार ना के बराबर होता है।
काग़ज़ी रूप में समान काम के लिए समान वेतन का क़ानून मौजूद है लेकिन धरातल पर वह कहीं भी मौजूद नहीं। एक स्त्री को जीवन के हर क्षेत्र में यौन-उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। पोस्को एक्ट से लेकर स्त्री विरोधी अपराध को रोकने के लिए कई क़ानून मौजूद हैं लेकिन फिर भी बलात्कार, यौन उत्पीड़न जैसी घटनाएँ बढ़ती ही जा रही हैं। पूँजीवादी माल उत्पादन में स्त्री भी एक माल के रूप में तब्दील कर दी गयी है। पूँजीवाद जिस कुसंस्कृति को परोस रहा है, वही ऐसी स्त्री विरोधी मानसिकता को पैदा करने का काम कर रहा है। यही कारण है कि स्त्री विरोधी अपराधों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। दूसरी तरफ़ पूँजीवाद की जिस आधुनिकता का राग अलापा जाता है उसकी सच्चाई यह है कि स्त्रियों को आज ना सिर्फ़ रुढ़िवादी धार्मिक मूल्यों-मान्यताओं का दबाव झेलना पड़ता है बल्कि तरह-तरह की फ़ासिस्ट प्रवृत्तियों और बीमार बुर्जुआ संस्कृति का दंश भी झेलना पड़ता है।
आज ज़रूरत है कि स्त्रियों की आज़ादी और बराबरी के अधिकार के लिए नये सिरे से संघर्षों को खड़ा किया जाये और जो अधिकार पहले से हमने हासिल किये हैं, उन्हें भी धरातल पर लागू करवाने के लिए संघर्ष किया जाये लेकिन स्त्री मुक्ति के संघर्ष को सिर्फ़ शहरी शिक्षित उच्च मध्यवर्ग तक सीमित नहीं रहने देना होगा बल्कि उसे मेहनतकश आबादी तक पहुँचाना होगा। हमें पूँजीवादी पितृसत्तात्मक विचारधारा के ख़िलाफ़ सतत् संघर्ष करना होगा। इसके साथ ही आर्थिक, सामाजिक व राजनितिक तौर पर स्त्री-पुरुष पूर्ण समानता के लिए लगातार संघर्ष करना होगा लेकिन हमें स्त्री मुक्ति के नाम पर स्त्री मुक्ति के आन्दोलन को महज़ स्त्री की पहचान की लड़ाई तक सीमित कर देने वाले एनजीओ संगठनों की घातक राजनीति के ख़िलाफ़ भी संघर्ष करना होगा। आज हमें यह समझना होगा कि पितृसत्ता के ख़िलाफ़ कोई भी लड़ाई पूँजीवाद विरोधी लड़ाई से अलग रहकर सफल नहीं हो सकती। दूसरी ओर यह भी सही है कि आधी आबादी की भागीदारी के बिना मज़दूर वर्ग भी अपनी मुक्ति की लड़ाई नहीं जीत सकता।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2022


 

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