भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत (23 मार्च) की 91वीं बरसी पर
युद्ध आज भी जारी है…

– आशीष

“इन्क़लाब ज़िन्दाबाद” – भगतसिंह और उनके क्रान्तिकारी साथियों का यह नारा आज ट्रेड यूनियन के दलालों से लेकर फ़ासिस्टों के चेले तक भी लगाने लगे हैं। जनता को अगले पाँच साल तक कौन लूटेगा, इसका फ़ैसला करने के लिए होने वाले चुनावों की रैलियों में भी भगतसिंह की फ़ोटो घुमायी जाती है। आम लोग भी इन फरेबियों के शब्दजाल में फँसकर भूल जाते हैं कि यही लोग पिछले 75 साल से भगतसिंह और उनके साथियों के सपनों की हत्या में शामिल रहे हैं।
इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि आज भी ज़्यादातर लोगों को यही नहीं मालूम कि हमारे उन क्रान्तिकारी शहीदों ने किस तरह की आज़ादी का सपना देखा था। भगतसिंह को लोग असेम्बली में बम फेंकने वाले एक जोशीले क्रान्तिकारी नौजवान के रूप में तो जानते हैं, लेकिन एक विचारक के रूप में उन्हें नहीं जानते। उनके विचार, उनके सिद्धान्त आज भी ज़्यादातर लोगों के लिए अनजान हैं।
इस साल 23 मार्च को भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु का 91वाँ शहादत दिवस है। 1931 में इसी दिन ज़ालिम अंग्रेज़ हुकूमत ने इन तीनों महान क्रान्तिकारियों को फाँसी पर लटका दिया था। आइए, इस मौक़े पर थोथी जयजयकार करने के बजाय अपने इन महान पुरखों के विचारों को जानने-समझने की कोशिश करें और देश के करोड़ों मेहनतकश लोगों के लिए सच्ची आज़ादी लाने के उनके अधूरे सपनों को पूरा करने के लिए लड़ने का संकल्प लें।
लम्बे संघर्ष के बाद 15 अगस्त 1947 को देश ब्रिटेन की ग़ुलामी से आज़ाद हुआ। लेकिन यह आज़ादी शुरू से ही आधी-अधूरी और बीमार थी। आज देश का शासन भारतीय पूँजीपति वर्ग के हाथ में है और वही लोगों की मेहनत और संसाधनों का सबसे बड़ा लुटेरा भी है। साथ ही, इस लूट को जारी रखने और बढ़ाने के लिए वह पूँजी और तकनोलॉजी साम्राज्यवादी देशों से भी लेता है और बदले में इस लूट का एक हिस्सा उन्हें भी देता है। भगतसिंह ने कांग्रेस के नेतृत्व में जारी स्वतंत्रता आन्दोलन के बारे में चेतावनी देते हुए कहा था, “भारतीय पूँजीपति भारतीय लोगों को धोखा देकर विदेशी पूँजीपति से विश्वासघात की क़ीमत के रूप में कुछ हिस्सा प्राप्त करना चाहता है।” यह चेतावनी आज सच साबित हो चुकी है।
शासक वर्ग हमेशा ही महान क्रान्तिकारी विचारकों के मरने के बाद उन्हें बस देवता बना देने की कोशिश करता है ताकि लोग उनके प्रति श्रद्धा रखें, उनकी पूजा करें लेकिन उनके विचारों को जानने और उन पर अमल करने की राह पर न चलें। भगतसिंह, सुखदेव व राजगुरु सरीखे क्रान्तिकारी इसके अपवाद नहीं रहे। हर वर्ष इनके शहादत दिवस पर सभी प्रमुख चुनावबाज़ राजनीतिक दलों के नेता इनकी मूर्तियों पर फूलमाला चढ़ाते हैं और साथ ही इस बात की भरसक कोशिश करते रहते हैं कि इनके विचारों को आम मेहनतकश जनता तक नहीं पहुँचने दिया जाये। भगतसिंह एवं अन्य क्रान्तिकारियों के लिए जनता में आदर भावना को देखते हुए आरएसएस, खालिस्तानी और दूसरी प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ भी इनका नाम लेकर इनके विचारों को दूषित करने का असफल प्रयास करती रही हैं।
भगतसिंह और उनके साथी असल मायने में कौन थे? क्या वे केवल बहादुर और देशभक्त नौजवान थे? आख़िर क्या थे उनके विचार? आज भी शासक वर्ग इनके विचारों को जनता के बीच क्यों नहीं पहुँचने देना चाहते? भगतसिंह और उनके साथी न केवल बहादुर और देशभक्त थे बल्कि वे अपने समय तक के क्रान्तिकारियों की पीढ़ी में सबसे विचारवान एवं उन्नत चेतना से लैस क्रान्तिकारी थे। अपने जीवन के आरम्भिक दिनों में भगतसिंह कांग्रेस और गाँधी की राजनीति से प्रभावित थे लेकिन जल्दी ही उन्हें यह बात समझ में आ गयी कि कांग्रेस ज़मीन्दारों-रायबहादुरों-धन्नासेठों और पूँजीपति वर्ग की पार्टी है और अपने वर्ग हितों के हिसाब से जनता के आन्दोलन का इस्तेमाल कर रही है।
जिस समय भगतसिंह क्रान्तिकारी आन्दोलन से जुड़े उस समय क्रान्तिकारी आन्दोलन में क्रान्तिकारी आतंकवाद की धारा प्रचलित थी। क्रान्तिकारी आतंकवाद की धारा से निर्णायक विच्छेद करने में भगतसिंह की भूमिका बेहद अहम थी। 1925 से 1929 के दौरान भगतसिंह, भगवतीचरण वोहरा और सुखदेव आदि ने रूस में मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में सम्पन्न बोल्शेविक क्रान्ति और उसके नेताओं के विचारों का गहन अध्ययन किया। उन्होंने अपने अन्य साथियों को भी अध्ययन के लिए प्रेरित किया। 1928 के अन्त तक भगतसिंह तथा उनके साथी समाजवाद को अपना लक्ष्य बताने लगे और अपने संगठन का भी नाम ‘हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ’ से बदलकर ‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ’ कर दिया। भगतसिंह अपनी फाँसी के समय तक मार्क्सवाद का अध्ययन करते रहे और मार्क्सवादी नज़रिए से अतीत, वर्तमान और भविष्य के मुद्दों पर अपने विचार प्रकट करते रहे। अदालत में अपने प्रसिद्ध बयान में भगतसिंह ने कहा था आज़ादी से हमारा अभिप्राय है एक ऐसे समाज का निर्माण जिसमें एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र तथा एक व्यक्ति द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति का शोषण बिल्कुल असम्भव हो जाये। अगर कांग्रेस के नेतृत्व में आज़ादी हासिल हुई तो वह सिर्फ़ ऊपर के 10 प्रतिशत लोगों की आज़ादी होगी, पूँजीपतियों-साहूकारों की आज़ादी होगी; देश के 90 प्रतिशत मज़दूरों-किसानों की ज़िन्दगी को शोषण और लूट से आज़ादी नहीं मिलेगी। उनकी यह चेतावनी एकदम सही साबित हुई।
आज़ादी मिलने के बाद दो प्रकार के भारत का निर्माण हुआ। एक मेहनत की लूट करने वाले मुट्ठीभर लोगों का भारत, जिसमें रहने वाले लुटेरों की सम्पत्तियों और अय्याशी के साधनों में दिन दूनी और रात चौगुनी वृद्धि हुई। दूसरा भारत वह है जिसमें अपनी श्रमशक्ति को बेचकर ज़िन्दा रहने वाली विशाल आबादी रहती है। जीवनभर हाड़-तोड़ मेहनत करने वालों के हिस्से में ग़रीबी, भुखमरी, बेघरी, और तंगहाली ही आयी है। चाहे कांग्रेस, भाजपा या क्षेत्रीय पार्टियाँ या फिर नक़ली लाल झण्डे वाली भाकपा, माकपा या लिबरेशन जैसी पार्टियाँ सत्ता में रहें, दूसरे दर्जे के हिन्दुस्तान में बसने वाली मेहनतकश अवाम की हालत दिनों-दिन बद से बदतर ही होती जा रही है| कोरोना महामारी के दौरान ग़रीबों-मेहनतकशों की रोज़ी-रोटी का इन्तज़ाम किये बिना लगाये गये अनियोजित लॉकडाउन और सरकारी कुप्रबन्धन की क़ीमत भी करोड़ों-करोड़ आम लोगों ने ही चुकायी। बड़े पूँजीपति तो इस दौरान भी “आपदा में अवसर” का लाभ उठाते हुए अपनी तिजोरियाँ भरते रहे।
भगतसिंह और उनके साथी इस ग़ैर-बराबरी, अन्याय, लूट और शोषण के ख़िलाफ़ थे। वे जनता की एकजुटता के दम पर ऐसे समतामूलक समाज की स्थापना चाहते थे जिसमें उत्पादन से लेकर राजकाज के पूरे ढाँचे पर आम मेहनतकश लोगों का अधिकार हो। इन शहीदों के विचारों से आज भी लोग अगर परिचित हो जायेंगे और एकजुट होकर संघर्ष करेंगे तो लुटेरों और उनकी नुमाइन्दगी करने वाली तमाम पार्टियों की लूट और शोषण के सभी हथियार ध्वस्त हो जायेंगे। लोग क्रान्तिकारियों के सही विचारों को नहीं जानें, आपस में बँटकर रहें, लूट-शोषण का खेल चलता रहे, ऐसी कोशिश तो सभी बुर्जुआ पार्टियाँ करती हैं लेकिन इस काम में फ़ासिस्ट संगठन आर.एस.एस. और उसके चुनावी चेहरे भाजपा और अनेक अनुषांगिक संगठनों का कोई जोड़ नहीं है। देश में साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने के उद्देश्य से संघी फ़ासिस्ट मन्दिर-मस्जिद, लव जिहाद, गौरक्षा, हिजाब जैसे नक़ली मुद्दों को हवा देते रहते हैं।
आज पर्व त्योहारों में भी साम्प्रदायिक उन्माद का रंग घोला जा रहा है, राजनीतिक गोटी लाल करने के मंसूबे से साम्प्रदायिक दंगे तक करवाये जाते हैं। इस प्रकार की स्थिति से निपटने के लिए भगतसिंह ने वर्गीय आधार पर एकता क़ायम करने की बात करते हुए कहा था, “लोगों को आपस में लड़ने से रोकने के लिए वर्ग चेतना की ज़रूरत है। ग़रीब मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकण्डों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी ग़रीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इन यत्नों में तुम्हारा नुक़सान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी ज़ंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी।”
जीवन के अन्तिम दिनों तक भगतसिंह संगठन की आवश्यकता को बेहतर तरीक़े से समझ चुके थे। ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’ नामक दस्तावेज़ में वे अपनी इस समझ को व्यवस्थित रूप में पेश करते हैं। हर नौजवान को इस दस्तावेज़ को ज़रूर पढ़ना चाहिए। जेल से विद्यार्थियों के नाम भेजे गये एक पत्र में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने देश के सभी इन्साफ़पसन्द नौजवानों के नाम जो सन्देश भेजा था, वह आज पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है।
उन्होंने कहा था, “इस समय हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठायें। आज विद्यार्थियों के सामने इससे भी महत्त्वपूर्ण काम है।… नौजवानों को क्रान्ति का यह सन्देश देश के कोने-कोने में पहुँचाना है, फ़ैक्टरी-कारख़ानों के क्षेत्रों में, गन्दी बस्तियों और गाँवों की जर्जर झोंपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रान्ति की अलख जगानी है जिससे आज़ादी आयेगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।”
आज जो लोग लुटेरी सत्ता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों को “देशद्रोही” घोषित कर देते हैं वे ख़ुद अंग्रेज़ों की दलाली किया करते थे। आज वे जिसे “वीर” सावरकर कहकर पूजते हैं, वह “वीर” उस समय अंग्रेज़ों के समक्ष माफ़ीनामे लिख रहा था और अंग्रेज़ों से मोटी पेंशन ले रहा था। यह वही समय था जब फाँसी के तीन दिन पहले भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु पंजाब के गवर्नर को ख़त लिखकर कह रहे थे कि “हमें फाँसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाये।”
उस पत्र में भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु लिखते हैं,
“हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह युद्ध तब तक चलता रहेगा, जब तक कि शक्तिशाली व्यक्ति भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार जमाये रखेंगे। चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज़ पूँजीपति, अंग्रेज़ शासक या सर्वथा भारतीय ही हों। उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। यदि शुद्ध भारतीय पूँजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का ख़ून चूसा जा रहा हो तब भी इस स्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता।…यह युद्ध चलता रहेगा। इसमें छोटी-छोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया जायेगा। बहुत सम्भव है कि यह युद्ध भयानक स्वरूप धारण कर ले। यह उस समय तक समाप्त नहीं होगा जब तक कि समाज का वर्तमान ढाँचा समाप्त नहीं हो जाता, प्रत्येक व्यवस्था में परिवर्तन या क्रान्ति नहीं हो जाती और सृष्टि में एक नवीन युग का सूत्रपात नहीं हो जाता।
“निकट भविष्य में यह युद्ध अन्तिम रूप में लड़ा जायेगा और तब यह निर्णायक युद्ध होगा। साम्राज्यवाद एवं पूँजीवाद कुछ समय के मेहमान हैं। यही वह युद्ध है जिसमें हमने प्रत्यक्ष रूप में भाग लिया है। हम इसके लिए अपने पर गर्व करते हैं कि इस युद्ध को न तो हमने प्रारम्भ ही किया है, न यह हमारे जीवन के साथ समाप्त ही होगा।”
वह युद्ध आज भी जारी है। उसे अंजाम तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी इतिहास ने आज की युवा पीढ़ी को सौंपी है। क्या आप इस न्याययुद्ध में अपनी भूमिका निभाने के लिए तैयार हैं?

मज़दूर बिगुल, मार्च 2022


 

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