श्रीलंका और पाकिस्तान में नवउदारवादी पूँजीवादी आपदा का क़हर झेलती आम मेहनतकश आबादी
यह आर्थिक-राजनीतिक उथल-पुथल भारत सहित
तमाम पूँजीवादी देशों के भविष्य का आईना है

– आनन्द

वैसे तो आज के दौर में दुनियाभर की मेहनतकश जनता मन्दी, छँटनी, महँगाई, आय में गिरावट और बेरोज़गारी का दंश झेल रही है, लेकिन कुछ देशों में अर्थव्यवस्था की हालत इतनी ख़राब हो चुकी है कि वे या तो पहले ही कंगाल जो चुके हैं या फिर कंगाली के कगार पर खड़े हैं और उनका भविष्य बेहद अनिश्चित दिख रहा है। ये ऐसे देश हैं जिनकी अर्थव्यस्थाएँ या तो बहुत छोटी हैं या उनका औद्योगिक आधार बहुत व्यापक नहीं है जिसकी वजह से वे बेहद बुनियादी ज़रूरतों की चीज़ों के लिए भी आयात पर निर्भर हैं या फिर उनकी अर्थव्यवस्थाएँ दशकों से विदेशी क़र्ज़ों के चंगुल में फँसी हैं। हमारे पड़ोसी मुल्क श्रीलंका और पाकिस्तान भी ऐसे देशों की श्रेणी में शामिल हैं और जहाँ घनघोर आर्थिक संकट की अभिव्यक्ति राजनीतिक संकट के रूप में दिखने लगी है। बेशक मौजूदा रूस-यूक्रेन जंग और दो साल से जारी कोरोना वैश्विक महामारी की वजह से इन देशों में आर्थिक संकट सतह पर दिखने लगा है, लेकिन इस संकट की जड़ें इन देशों में पिछले कई दशकों के दौरान निर्मित निरंकुश नवउदारवादी पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक ढाँचे में निहित हैं। आज श्रीलंका और पाकिस्तान में संकट का जो भयावह रूप देखने में आ रहा है वह विश्व पूँजीवाद के भविष्य का आईना है।

श्रीलंका में जारी आर्थिक-राजनीतिक संकट

श्रीलंका में आर्थिक हालात इतने ख़राब हो चुके हैं कि वहाँ की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी के लिए चावल, गेहूँ, दाल, दूध, चीनी जैसी बेहद बुनियादी ज़रूरत की चीज़ें ख़रीद पाना बेहद मुश्किल हो गया है। यही नहीं वहाँ जीवनदायी दवाओं तक की भी क़िल्लत हो गयी है। पेट्रोल और गैस भी आम आदमी की पहुँच के बाहर हो गये हैं और राजधानी कोलम्बो तक में 12 घण्टे की बिजली कटौती हो रही है। वहाँ काग़ज़ की इतनी क़िल्लत हो गयी है कि स्कूल-कॉलेजों में परीक्षा नहीं हो पा रही है। महँगाई की दर 19 प्रतिशत तक जा पहुँची हैं खाद्य पदार्थों की महँगाई 30 प्रतिशत के क़रीब पहुँच चुकी है जिससे यह साबित होता है कि श्रीलंका की जनता एक प्रकार की आपदा का सामना कर रही है। राशन, दूध, चीनी और दवा जैसी बुनियादी चीज़ों पर भी आयात पर निर्भर रहने वाले देश में विदेशी मुद्रा भण्डार ख़त्म होने की कगार पर है।
ग़ौरतलब है कि श्रीलंका में औद्योगिक विकास बेहद सीमित है, वहाँ चाय, कॉफ़ी, रबर, नारियल व मसालों जैसे प्राथमिक मालों और कुछ हद तक कपड़ों का ही निर्यात होता है। भारी आयात के लिए ज़रूरी विदेशी मुद्रा के लिए श्रीलंका की अर्थव्यवस्था पर्यटन और विदेशों में काम करने वाले नागरिकों द्वारा भेजे जाने वाले रेमिटेंस (विदेशी धनप्रेषण) पर निर्भर रहती है। लेकिन अप्रैल 2019 में कोलम्बों में चर्चों पर हुए भीषण आतंकवादी बम विस्फोटों और फिर अगले साल कोरोना महामारी की वजह से श्रीलंका में आने वाले पर्यटकों की संख्या में ज़बर्दस्त गिरावट हुई और महामारी की वजह से प्रवासी श्रीलंकाइयों की आमदनी में कटौती की वजह से रेमिटेंस में भी कमी आयी जिसकी वजह से आयात के लिए ज़रूरी विदेशी मुद्रा भण्डार की क़िल्लत होने लगी और जिसका नतीजा भुगतान सन्तुलन के संकट के रूप में सामने आया। यही नहीं इस दौरान श्रीलंका की मुद्रा का भी ज़बर्दस्त अवमूल्यन हुआ है जिसकी वजह से अन्य देशों से चीज़ें आयात करना और भी मुश्किल हो गया। इस संकट से निपटने के लिए श्रीलंका की सरकार को एक बार फिर आई.एम.एफ़ से लेकर भारत और चीन तक से क़र्ज़ लेना पड़ा है।
इस आर्थिक संकट के दौरान श्रीलंका की सरकार की कुछ आत्मघाती नीतियों ने संकट को आपदा में तब्दील करने का काम किया। मसलन गोटाबाया राजपक्षे सरकार ने 2019 के अन्त में सत्ता पर आसीन होने के बाद प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों की दरों में भारी कटौती कर दी जिसकी वजह से सरकारी ख़ज़ाना ख़ाली होने लगा और राजकोषीय घाटे में भारी बढ़ोतरी हुई। इसका सीधा नतीजा यह हुआ कि कोरोना महामारी के दौरान सरकार आम लोगों को बुनियादी ज़रूरतें तक नहीं पूरी कर सकी। इसके अलावा संकट के इस दौर में पिछले साल गोटाबाया राजपक्षे सरकार ने एक सनक-भरा फ़ैसला लेते हुए अचानक रासायनिक खादों और कीटनाशकों के आयात पर प्रतिबन्ध लगा दिया। यह प्रतिबन्ध जैविक खेती को बढ़ावा देने के नाम पर किया गया। लेकिन बिना किसी तैयारी के थोप दिये गये इस फ़ैसले का नतीजा श्रीलंका के कृषि उत्पादन में 40 फ़ीसदी तक की गिरावट के रूप में सामने आया जिसकी वजह से छोटे-मँझौले किसान और खेतिहर मज़दूर त्राहि-त्राहि करने लगे। ग़ौरतलब है कि श्रीलंका में खाद्य संकट पैदा करने वाला यह सनक-भरा प्रतिबन्ध तब लगाया गया था जब कोरोना महामारी अपने चरम पर थी जिसकी वजह से बहुत-से लोग शहरों से गाँवों की ओर पलायन कर रहे थे और छोटी-मोटी खेतीबाड़ी करके अपना पेट पालने की जद्दोजहद कर रहे थे। रही-सही कसर रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से तेल की क़ीमतों में आये उछाल ने पूरी कर दी जिसकी वजह से श्रीलंका में महँगाई अपने चरम पर जा पहुँची और लोगों के सब्र का प्याला छलक पड़ा और वे सड़कों पर उतरकर राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के इस्तीफ़े की माँग करने लगे। विरोध-प्रदर्शन उग्र होता देख सरकार को आर्थिक आपातकाल तक घोषित करना पड़ा। हालाँकि बाद में आपातकाल हटा लिया गया, लेकिन अभी भी राजपक्षे सरकार के भविष्य पर एक सवालिया निशान बरक़रार है और लोग यह कयास लगा रहे हैं कि राजपक्षे का हश्र भी इमरान ख़ान जैसा होगा।
उपरोक्त वजहें श्रीलंका की अर्थव्यवस्था के संकट की तात्कालिक वजहें हैं। लेकिन श्रीलंका के आर्थिक संकट की जड़ समझने के लिए हमें पिछले साढ़े 4 दशकों के दौरान निर्मित हुए निरंकुश नवउदारवादी पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक ढाँचे के इतिहास को समझना होगा। 1977 में श्रीलंका दक्षिण एशिया का पहला ऐसा देश बना जहाँ नवउदारवाद के प्रयोग की शुरुआत हुई। तत्कालीन श्रीलंकाई प्रधानमंत्री जे.आर. जयवर्धने ने 1973 के तेल झटके की वजह से हुए भुगतान सन्तुलन के संकट से निपटने के लिए अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ़.) से क़र्ज़ लिया जिसकी शर्तों को पूरा करते हुए में श्रीलंका की अर्थव्यव्यवस्था के उदारीकरण की शुरुआत की गयी। व्यापार सम्बन्धी नियंत्रण ढीले किये गये, खाद्य सब्सिडी में कटौती की गयी, मज़दूरी में कटौती की गयी और मौद्रिक व राजकोषीय नीति को सख़्त बनाया गया। उसके बाद जयवर्धने की सरकार ने 1979 से 1984 के बीच दो और बड़े क़र्ज़ लिये। नवउदारवादी नीतियों की वजह से जनता की ज़िन्दगी की बदहाली से ध्यान भटकाने के लिए सिंहला अन्धराष्ट्रवाद और तमिल अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ नफ़रत को हवा दी गयी जिसका नतीजा 1983 में राज्य द्वारा प्रायोजित तमिलों के भीषण नरसंहार के रूप में सामने आया। उसके बाद 26 सालों तक श्रीलंका गृहयुद्ध की आग में झुलसता रहा। इस दौरान सरकारी बजट का भारी हिस्सा रक्षा क्षेत्र की ओर निर्देशित किया गया जिसकी वजह से श्रीलंका की अर्थव्यवस्था की उत्पादकता में भारी गिरावट आयी और राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी हुई। 2009 में गृहयुद्ध के भीषण हिंसक अन्त के बाद महिन्दा राजपक्षे की सरकार ने एक बार फिर आई.एम.एफ़. से 2.6 बिलियन डॉलर का क़र्ज़ लिया। 2009 से 2012 के बीच श्रीलंका की अर्थव्यवस्था में उछाल आया जब सट्टेबाज़ वैश्विक वित्तीय पूँजी ने श्रीलंका की ओर रुख़ किया, परन्तु 2012 में विश्व बाज़ार में प्राथमिक मालों की क़ीमतों में गिरावट से श्रीलंका की अर्थव्यवस्था डगमगाने लगी और उसके बाद से श्रीलंका के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि में गिरावट लगातार जारी है। 2016 में श्रीलंका ने 16वीं बार आई.एम.एफ़ से क़र्ज़ लिया।
इस प्रकार हम पाते हैं कि पिछले साढ़े 4 दशकों के दौरान श्रीलंका की अर्थव्यवस्था लगातार आई.एम.एफ़. द्वारा दिये गये क़र्जों के चंगुल में फँसती गयी है और उसका स्वतंत्र औद्योगिक विकास नहीं हो सका है जिसकी वजह से आयात पर उसकी निर्भरता लगातार बढ़ती गयी है। इस दौरान आर्थिक कट्टरपन्थी नीतियों के ही अनुरूप श्रीलंका की सत्ता अधिकांशत: दक्षिणपन्थी निरंकुश शासकों के हाथ में रही है जिनकी सनक-भरी नीतियों ने वहाँ की मेहनतकश अवाम का जीना दूभर कर दिया है।

पाकिस्तान में जारी आर्थिक-राजनीतिक उथल-पुथल

जिस समय श्रीलंका के आर्थिक संकट की ख़बरें अन्तरराष्ट्रीय मीडिया की सुर्ख़ियों में आनी शुरू हुईं ठीक उसी समय पाकिस्तान में जारी नाटकीय राजनीतिक और संवैधानिक संकट की पटकथा भी लिखी जा रही थी। मार्च के अन्त में पाकिस्तान के समूचे विपक्ष ने एकजुट होकर वहाँ की नेशनल असेम्बली में इमरान ख़ान की सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव प्रस्तुत किया। यहाँ तक कि सत्तारूढ़ पाकिस्तान तहरीक़े इन्साफ़ पार्टी के कई सदस्य भी विपक्ष में जा मिले जिसके बाद इमरान ख़ान की सरकार का गिरना तय हो गया। परन्तु 3 अप्रैल को एक नाटकीय घटनाक्रम में इस अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग से पहले ही उपसभापति ने प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया और उसके बाद इमरान ख़ान की सिफ़ारिश पर राष्ट्रपति आरिफ़ अल्वी ने नेशनल असेम्बली भंग कर दी और चुनाव की तैयारी का ऐलान कर दिया गया। इस प्रकार पाकिस्तान में एक संवैधानिक संकट खड़ा हो गया। इसके बाद विपक्ष ने उच्चतम न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया जिसने नेशनल असेम्बली को फिर से बहाल कर दिया और अविश्वास प्रस्ताव की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का हुक्म दिया। 9 अप्रैल की रात को नेशनल असेम्बली में अविश्वास प्रस्ताव के बहुमत से पारित होने के बाद अन्तत: इमरान ख़ान की सरकार गिर गयी।
ग़ौरतलब है कि इमरान ख़ान की पार्टी तहरीक़े इन्साफ़ के सत्ता में आने के पीछे पाकिस्तानी सेना का बहुत बड़ा हाथ था क्योंकि सेना पुरानी पार्टियों और नेताओं के बदले नयी पार्टी और नये नेता पर अपना दाँव लगाना चाहती थी ताकि वह अपने मनमुताबिक़ नीतियाँ बनवा सके। साथ ही इमरान ख़ान को मध्यवर्ग के एक हिस्से का भी समर्थन प्राप्त था जो उनके भ्रष्टाचार-मुक्त नये पाकिस्तान के खोखले नारे पर मोहित था। परन्तु सत्ता में आने के बाद इमरान ख़ान और सेना के बीच कई मुद्दों पर मतभेद उभरने लगे। ये मतभेद पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के मुखिया की नियुक्ति और विदेश नीति जैसे मसलों पर खुलकर सामने आये। ऐसी भी ख़बरें सामने आयीं कि इमरान ख़ान अपनी पसन्द के किसी सैन्य अधिकारी को सेना प्रमुख बनाना चाहते हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध में इमरान ख़ान का रूस की ओर स्पष्ट झुकाव भी सेना को गवारा नहीं था क्योंकि वह अमेरिका के साथ अपने पुराने प्रगाढ़ रिश्ते को बिगाड़ना नहीं चाहती है।
ग़ौरतलब है कि आज़ादी के बाद पाकिस्तान में जिस विशिष्ट तरीक़े से पूँजीवादी विकास हुआ उसका नतीजा यह हुआ कि वहाँ पूँजीपति वर्ग का बड़ा हिस्सा सैन्य पृष्ठभूमि से आता है। वहाँ के कई प्रमुख उद्योग सेना द्वारा संचालित ट्रस्टों द्वारा चलाये जाते हैं और तमाम सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी उद्योगों में पूँजी निवेश करते हैं। पाकिस्तान के पहले सैन्य तानाशाह अयूब ख़ान ज़माने से ही इस सैन्य पूँजीपति वर्ग के अमेरिका से गहरे सम्बन्ध रहे हैं। ज़िया-उल-हक़ की इस्लामिक कट्टरपन्थी सैन्य तानाशाही के दौर में इस वर्ग की अमेरिकी साम्राज्यवादियों से क़रीबी परवान चढ़ी जब इसने अफ़ग़ान युद्ध के दौरान हथियारों और ड्रग्स के कारोबार में अकूत मुनाफ़ा कूटा। परवेज़ मुशर्रफ़ की सैन्य तानाशाही के दौर में इस सैन्य परजीवी वर्ग ने जॉर्ज बुश द्वारा घोषित तथाकथित आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध में शामिल होने की एवज में अमेरिकी साम्राज्यवादियों से जमकर पैसा वसूला। इस सैन्य पूँजीपति वर्ग के हाथों में ही पाकिस्तान की राज्यसत्ता की बागडोर रहती है, चाहे वहाँ प्रत्यक्ष सैन्य शासन हो या कोई नागरिक सरकार हो। जब भी कोई नागरिक सरकार सेना की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जाने लगती है तो उसकी उल्टी गिनती शुरू हो जाती है। यही इमरान ख़ान के साथ हुआ। इमरान ख़ान नेशनल असेम्बली का विश्वास खोने से पहले ही पाकिस्तान की सेना का विश्वास खो चुके थे जिसकी वजह से उनकी सरकार का गिरना तय था।
पाकिस्तान में सतह पर जारी इस राजनीतिक उठापठक के पीछे वहाँ की अर्थव्यवस्था का गम्भीर संकट भी काफ़ी हद तक िज़म्मेदार है। ग़ौरतलब है कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था दशकों से आई.एम.एफ़ द्वारा दिये गये क़र्ज़ पर निर्भर है और कोई भी शासक पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को इस चंगुल से बाहर नहीं निकाल पाया है। इमरान ख़ान ने अमेरिका और आई.एम.एफ़ के ख़िलाफ़ जुमलेबाज़ी तो बहुत की लेकिन सच तो यह है कि उनकी सरकार को भी आई.एम.एफ़ के सामने हाथ फैलाना पड़ा जब उन्होंने 2019 में आई.एम.एफ़ से 6 बिलियन डॉलर का क़र्ज़ लिया। यही नहीं इमरान की सरकार ने सऊदी अरब, यूएई और चीन के सामने भी हाथ फैलाये। इन सबके बावजूद अब एक बार फिर पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था कंगाली के कगार पर खड़ी है और उसे एक बार फिर से आई.एम.एफ़. के बेलआउट पैकेज की दरकार है। आई.एम.एफ़ ने फ़िलहाल पाकिस्तान में राजनीतिक स्थिरता आने तक बेलआउट पैकेज को मुल्तवी कर दिया है। ग़ौरतलब है कि 1958 से लेकर अब तक पाकिस्तान ने 22 बार आई.एम.एफ़ से क़र्ज़ लिया है और अब वहाँ की अर्थव्यवस्था की हालत इतनी ख़राब हो चुकी है कि उसे पुराने क़र्ज़ का सूद चुकाने के लिए भी नया क़र्ज़ लेना पड़ता है।
इमरान ख़ान ने सत्ता में आने के बाद नया पाकिस्तान बनाने के वायदे किये थे। लेकिन उनके चार साल के शासन के दौरान पाकिस्तान की सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में साल-दर-साल भारी गिरावट हुई। पाकिस्तान का विदेशी मुद्रा भण्डार भी पिछले 4 सालों में तेज़ी से सिकुड़ा है, पाकिस्तानी रुपये का ज़बर्दस्त अवमूल्यन हुआ है और महँगाई भी अपने चरम पर है। खाद्य पदार्थों की क़ीमतें सबसे ज़्यादा बढ़ी हैं जिसका सीधा असर आम मेहनतकश अवाम की बदहाली के रूप में सामने आ रहा है। नये उद्योग-धन्धे लगाने के वायदे धरे के धरे रह गये और नया पाकिस्तान तो दूर इमरान ख़ान अपने देश के नागरिकों के लिए पुराने पाकिस्तान का भी सबसे ख़स्ताहाल संस्करण छोड़कर गये हैं। अपने फिसड्डी प्रदर्शन की इस कड़वी सच्चाई को छिपाने के लिए ही उन्होंने विदेशी साज़िश जैसे सस्ते जुमलों का इस्तेमाल करने की हास्यास्पद कोशिश की और उसमें भी अपनी जगहँसायी ही करायी।
इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रीलंका और पाकिस्तान दोनों ही देशों में नवउदारवादी पूँजीवाद भयानक तबाही का सबब बना है। हाल के दिनों में मिस्र, घाना, ज़ाम्बिया, इक्वाडोर, सूरीनाम, बेलीज़ की अर्थव्यवस्थाओं को भी कंगाल होने से बचने के लिए आई.एम.एफ़. की शरण में जाना पड़ा है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि आर्थिक संकट की ये सुनामी देर-सबेर भारत सहित उन तमाम देशों को अपने आगोश में लेगी जो नवउदारवादी नीतियों पर अमल कर रहे हैं। कई अर्थशास्त्री इस संकट से बचने के लिए नवउदारवाद के बरक्स कल्याणकारी बुर्जुआ राज्य का कीन्सियाई नुस्ख़ा आज़माने का सुझाव दे रहे हैं। लेकिन वे भूल जाते हैं कि विश्व इतिहास में कल्याणकारी बुर्जुआ राज्य का दौर एक ख़ास परिस्थिति की देन था जब द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूँजीवाद ने दो दशकों तक अभूतपूर्व तेज़ी का दौर देखा था जिसकी बदौलत बुर्जुआ राज्य के लिए कल्याणकारी कीन्सियाई नुस्ख़ों का ख़र्च उठाना मुमकिन हुआ था। आज विश्व पूँजीवाद जिस अवस्था में जा पहुँचा है उसमें उसके लिए यह मुमकिन ही नहीं है। इस सच्चाई की भी अनदेखी नहीं की जा सकती है कि कल्याणकारी बुर्जुआ राज्य के दौर में भी पूँजीवाद मुनाफ़े की गिरती दर के संकट से निजात नहीं पा सका था और उसके अन्तरविरोधों की परिणति ही नवउदारवाद के रूप में सामने आयी थी। नवउदारवादी पूँजीवाद के अन्तरविरोधों का समाधान आमूलगामी समाजवादी क्रान्ति और सर्वहारा राज्यसत्ता के ज़रिए ही मुमकिन है।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2022


 

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