बढ़ती महँगाई और मज़दूरों के हालात

– भारत

‘बहुत हुई महँगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार’ याद कीजिए ये नारा 2014 में खूब प्रचलित हुआ था। आज इस मोदी सरकार को आए 7 साल से अधिक हो गए। जहां एक तरफ बढ़ती महँगाई से पूँजीपति अकूत मुनाफ़ा बना रहा हैं, जिसमें मोदी सरकार उनका भरपूर साथ दे रही है, जहां बीते एक वर्ष में महँगाई बेरोज़गारी ने आम जनता की कमर तोड़ कर रख दी है, वहीं मोदी के चहेते अदानी की संपत्ति बीते एक साल में 57 अरब डॉलर बढ़ी है। साल 2022 में अब तक कमाई के मामलें में गौतम अडानी टॉप पर हैं। अदानी जैसे बड़े पूँजीपति ही महँगाई के दौर में जनता की लूट से मालामाल नहीं हो रहे हैं, बल्कि धनी किसानों-कुलकों, बड़े व्यापारियों, छोटे व मँझोले मालिकों समेत समूचा पूँजीपति वर्ग ही इस बहती गंगा में हाथ धो रहा है। इसलिए गेहूँ की कीमतें अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में बढ़ते ही गेहूँ पैदा करने वाले धनी किसानों-कुलकों ने उसे सरकार को लाभकारी मूल्य पर बेचने से इंकार कर दिया और खुले बाज़ार में 30 से 40 प्रतिशत ऊँचे दामों पर बेचा! यही पूँजीवादी धनी किसान व और कुलक अभी कुछ समय पहले सरकारी लाभकारी मूल्य के रेट के लिए सरकार के खिलाफ आन्दोलन कर रहे थे, ‘मज़दूर-किसान एकता’ और ‘सार्वजनिक वितरण प्रणाली बचाओ’ का नारा दे रहे थे! लेकिन उन्हें लाभकारी मूल्य के रूप में केवल अपना न्यूनतम बेशी मुनाफ़ा सुरक्षित रखने वाला ‘सेफ्टी नेट’ चाहिए था लेकिन यह अधिकार भी चाहिए था कि बाज़ार में कीमतें जब भी ऊँची हों तो वे बाज़ार में और ऊँचा मुनाफ़ा कमा सकें। इन्हीं पूँजीवादी धनी किसानों-कुलकों ने आढ़तियों और व्यापारियों के रूप में गेहूँ की भारी जमाखोरी भी कर रखी है ताकि गेहूँ के निर्यात पर मोदी सरकार द्वारा आनन-फानन में रोक के बाद घरेलू बाज़ार में उसकी कीमतों को बढ़ा सकें, उस पर सट्टेबाज़ी कर सकें और ग़रीब मेहनतकश आबादी के पेट पर लात मार सकें।
देश की मेहनतकश आबादी बुनियादी ज़रूरत की चीज़ों से भी वंचित होती जा रही है। खाने-पीने और बुनियादी ज़रूरतों की चीज़ों की महँगाई बेरोकटोक बढ़ी है। इस महँगाई ने देश की तीन-चौथाई से भी अधिक आबादी के सामने जीने का संकट पैदा कर दिया है। सब्ज़ियों से लेकर अनाज और दूध तक के बेहिसाब बढ़ते दामों ने मेहनतकश जनता के साथ-साथ निम्न मध्यवर्गीय आबादी तक के लिए पेटभर पौष्टिक खाना खा पाना दूभर बना दिया है। रेल-बस के भाड़े, अस्पताल की फ़ीस-दवाएँ, स्कूल-कॉलेज के खर्चे, बिजली-पानी, मकानों के भाड़े—हर चीज़ में जैसे आग लगी हुई है। पिछले वित्त वर्ष में 6.95 फीसदी की दर से महँगाई बढ़ी है। पिछले एक वर्ष में ऑयल और फैट्स में 18.79 फीसदी की वृद्धि आई है और इसके साथ सब्जियों में 11.64, मसालों में 8.50 अनाज में 4.93 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है आज देश में महँगाई कितनी बढ़ गई है। आलू, प्याज, टमाटर, दाल, गेहूँ और चावल की क़ीमतें आसमान छू रही हैं जिसकी वजह से वे ग़रीबों की थाली से ग़ायब होती जा रही हैं।
अगर मेहनतकशों के जीवन की बात करें उनका जीवन और कठिन होता जा रहा है। आज किसी भी शहर में जीवन व्यापन के लिए कम से कम 25000 रुपए मासिक चाहिए। पर देश की लगभग तीन-चौथाई आबादी प्रति दिन सिर्फ़ 30 से 40 रुपये पर गुज़ारा करती है। इनके भोजन में पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, विटामिन जैसे ज़रूरी तत्व सन्तुलित मात्रा में नहीं रहते। देश के क़रीब 55 करोड़ असंगठित मज़दूरों की आबादी का पेट बमुश्किल भर पाता है लेकिन उन्हें पौष्टिक खाना तो कभी नहीं मिलता। सरकारी नियम के अनुसार औद्योगिक मज़दूरों को 2700 कैलोरी और भारी काम करने वाले को 3000 कैलोरी भोजन मिलना चाहिए। अधिकांश आबादी को तो इतना भोजन पहले ही नहीं मिल पाता था और इस महँगाई के दौर में तो और भी मुश्किल हो गया है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग 63 फ़ीसदी भारतीय बच्चे भूखे सोते हैं। सोचिए, उन बच्चो का इस महँगाई में क्या हाल होगा। मज़दूर-मेहनतकश 12-14 घण्टे अपना हाड़ मांस गला के इतना ही कमा पाते हैं कि अपने पेट का गड्ढा भर सकें, पर इस समय वह भी मुश्किल होता जा रहा है। महँगाई के कारण बहुत-से लोग नियमित दाल, हरी सब्ज़ी, अण्डे आदि खाना या चाय पीना छोड़ चुके हैं।
जूता फैक्ट्री में काम करने वाले अनिल बताते हैं कि महँगाई के कारण अपनी ज़िन्दगी के सबसे बुरे दौर से गुज़र रहे हैं। 12 घण्टे काम करने के बाद महीने के अंत में सिर्फ 9500 रुपए हाथ में आते हैं और तुरन्त खत्म हो जाते है। कमरे के किराए का 3000 चला जाता है। और चार लोगो के परिवार का राशन खरीदने में ही 5500 तक खर्च हो जाते हैं। बाक़ी किसी भी काम के लिए पैसा बचता ही नहीं है और अन्त में उधार लेना पड़ता है। अनिल बताते हैं कि हाथ में 500-1000 रुपए बड़ी मुश्किल से बच भी जाते थे पर अब तो सारा पैसा खाने में ही खर्च हो जाता है। बच्चो को ट्यूशन पढ़ाना तक बन्द करना पड़ा। यहां तक की गांव में माता-पिता को भी पैसे नहीं भेज पाते।
निर्माण कार्य में लगे गंगाराम बताते हैं कि अब तो महीने में मुश्किल से 15 दिन काम मिलता है। रोज़ लेबर चौक पर खड़े होते हैं और ज़्यादातर खाली हाथ ही लौटना पड़ता है। उनकी पत्नी फैक्ट्री में काम करती है जिसमें उसे 5500 रुपए मिलते हैं। दोनो के काम करने पर भी महीने में बमुश्किल 11000 कमा पाते हैं। खाने की चीज़ों के दाम बढ़ने से उनके परिवार का गुज़ारा करना मुश्किल हो गया है। उनकी आय का भी ज़्यादातर हिस्सा सिर्फ खाने में खर्च होता है। बाक़ी अन्य ज़रूरत की चीज़ों में कटौती करने को मज़बूर हैं। स्कूल की फीस न भरने के कारण उनके बच्चे को भी स्कूल से निकाल दिया गया।
वास्तव में महँगाई मुनाफ़े की अन्तहीन हवस पर टिके पूँजीवादी ढाँचे में ही निहित है। सरकारी नीतियाँ भी महँगाई के लिए ज़िम्मेदार होती हैं। भोजन सामग्री में महँगाई की असली वजह ये है कि खेती की उपज के कारोबार पर पूँजीवादी धनी किसानों-कुलकों, बड़े व्यापारियों, आढ़तियों, दलालों, सटोरियों और कालाबाज़ारियों का क़ब्ज़ा है। आज सिर्फ़ मज़दूरी बढ़ाने की लड़ाई लड़ना ही पर्याप्त नहीं है क्योंकि अगर मज़दूरी कुछ बढ़ भी जाये तो दूसरी तरफ़ महँगाई बढ़ जाने से हालात और भी बदतर हो जाते हैं। जब तक मुनाफ़े के लिए उत्पादन होगा तब तक महँगाई की समस्या बार-बार प्रकट होगी और इसकी कीमत हमेशा आम मेहनतकश आबादी को चुकानी होगी। इसलिए इस मुनाफ़े की व्यवस्था के ख़ात्मे की तैयारी करनी होगी।

मज़दूर बिगुल, जून 2022


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments