दो कविताएँ

मैं दण्ड की माँग करता हूँ

– पाब्लो नेरूदा
(चीले देश के महाकवि)

अपने उन शहीदों के नाम पर
उन लोगों के लिए
मैं दण्ड की माँग करता हूँ
जिन्होंने हमारी पितृभूमि को
रक्तप्लावित कर दिया है
उन लोगों के लिए
मैं दण्ड की माँग करता हूँ
जिनके निर्देश पर
यह अन्याय, यह ख़ून हुआ
उसके लिए मैं दण्ड की माँग करता हूँ
विश्वासघाती
जो इन शवों पर खड़े होने की हिम्मत रखता है
उसके लिए मेरी माँग है
उसे दण्ड दो, उसे दण्ड दो
जिन लोगों ने हत्यारों को माफ़ कर दिया है
उनके लिए मैं दण्ड की माँग करता हूँ
मैं चारों ओर हाथ मलते
घूमता नहीं रह सकता
मैं उन्हें भूल नहीं सकता
मैं उनके ख़ून से सने हाथों को
छू नहीं सकता
मैं उनके लिए दण्ड चाहता हूँ
मैं नहीं चाहता कि उन्हें यहाँ-वहाँ
राजदूत बनाकर भेज दिया जाए
मैं यह भी नहीं चाहता
कि वे लोग यहीं छुपे रहें
मैं चाहता हूँ
उन पर मुक़दमा चले
यहीं, इस खुले आसमान के नीचे
ठीक यहीं
मैं उन्हें दण्डित होते देखना चाहता हूँ


मैं उन शहीदों से बात करना चाहता हूँ
लगता है वे लोग यहीं हैं
मेरे भाइयो! संघर्ष जारी रहेगा
अपनी लड़ाई हम जारी रखेंगे
कल-कारखानों में, खेत-खलिहानों में
गली-गली में यह लड़ाई जारी रहेगी
नमक/शोरा के खदानों में
यह लड़ाई जारी रहेगी
यह लड़ाई जारी रहेगी
वृक्षहीन समतल भूमि पर
ताँबें की भट्ठियों में धधक उठेगी
लाल-हरी लपटें
सुबह-सुबह कोयले का काला धुआँ
भरता जा रहा है जिन कोठरियों में
वहीं खींची जायेगी
युद्ध की रेखा
और हमारे हृदयों में
ये झण्डे जो तुम्हारे ख़ून के गवाह हैं
जब तक इनकी संख्या
कई गुना बढ़ नहीं जाती
सिर्फ़ लहराते ही नहीं रहें
और तेजी से फड़फड़ाने लगें
अक्षय वसन्त के इन्तज़ार में
लाखों-हज़ार पत्तों की तरह


हज़ारों साल तक
इस सड़क पर बिछे पत्थरों से
तुम्हारे कदमों की आवाज़
और आहटें आती रहेंगी
पत्थरों पर पड़े तुम्हारे ख़ून के दाग
अब किसी तरह मिटाये नहीं जा सकेंगे
हज़ारों कण्ठों की अजड्ड ध्वनि
इस सहमे हुए मौन को तोड़ देगी
तुम्हारी मौत को भूला नहीं जा सकेगा कभी भी
घण्टे की गूँजती हुई आवाज़
उसकी याद दिलाती रहेगी
बरसात में दीवारों की तरह नोनी पकड़ लेगी
नोनी लगी टूटी-पफूटी दीवारों के
काँप उठने के बावजूद
शहीदों तुम्हारे नामों की ज्वाला
कोई बुझा नहीं पायेगा
अत्याचारों के हज़ारों हाथ
जीवन्त आशाओं का गला नहीं दबा सकते
वह दिन आ रहा है
हम सारी दुनिया के लोग एकजुट हैं
हम अनेक लोग
आगे बढ़ते जा रहे हैं
सहने के ये आख़िरी दिन हैं
बहुत भारी लड़ाई लड़ के
फ़ैसले का वह एक दिन छीन लिया गया है
और तुम
ओ मेरे वंचित भाइयो!
ख़ामोशी से निकलकर तुम्हारी आवाज़ उठेगी
आजादी की असंख्य आवाज़ों से मिलने
मनुष्य की आशाएँ और आकांक्षाएँ
दिग्विजयी विद्युत्-छटाओं से मिलने
निकल पड़ी हैं

(‘सड़कों, चौराहों पर मौत और लाशें’ कविता का एक अंश)

एक दिवालिये की रिपोर्ट

– समी अल कासिम
(फ़िलिस्तीनी कवि)

अगर मुझे अपनी रोटी छोड़नी पड़े
अगर मुझे अपनी कमीज़ और अपना बिछौना बेचना पड़े
अगर मुझे पत्थर तोड़ने का काम करना पड़े
या कुली का
या मेहतर का
अगर मुझे तुम्हारा गोदाम साफ करना पड़े
या गोबर से खाना ढूँढ़ना पड़े
या भूखे रहना पड़े
और ख़ामोश
इनसानियत के दुश्मन
मैं समझौता नहीं करूँगा
आखिर तक मैं लड़ूँगा

जाओ मेरी जमीन का
आख़िरी टुकड़ा भी चुरा लो
जेल की कोठरी में
मेरी जवानी झोंक दो
मेरी विरासत लूट लो
मेरी किताबें जला दो
मेरी थाली में अपने कुत्तों को खिलाओ
जाओ मेरे गाँव की छतों पर
अपने आतंक के जाल फैला दो
इनसानियत के दुश्मन
मैं समझौता नहीं करूँगा
और आखिर तक मैं लड़ूँगा
अगर तुम मेरी आँखों में
सारी मोमबत्तियाँ पिघला दो
अगर तुम मेरे होंठों के
हर बोसे को जमा दो
अगर तुम मेरे माहौल को
गालियों से भर दो
या मेरे दुखों को दबा दो
मेरे साथ जालसाज़ी करो
मेरे बच्चों के चेहरे से हँसी उड़ा दो
और मेरी आँखों में अपमान की पीड़ा भर दो
इनसानियत के दुश्मन
मैं समझौता नहीं करूँगा
और आखिर तक मैं लड़ूँगा
मैं लड़ूँगा

इनसानियत के दुश्मन
बन्दरगाहों पर सिगनल उठा दिये गये हैं
वातावरण में संकेत ही संकेत हैं
मैं उन्हें हर जगह देख रहा हूँ
क्षितिज पर नौकाओं के पाल नज़र आ रहे हैं
वे आ रहे हैं
विरोध करते हुए
यूलिसिस की नौकाएँ लौट रही हैं
खोये हुए लोगों के समुद्र से
सूर्योदय हो रहा है
आदमी आगे बढ़ रहा है
और इसलिए
मैं कसम खाता हूँ
मैं समझौता नहीं करूँगा
और आखिर तक मैं लड़ूँगा
मैं लडूँगा

दोनों कविताओं का अनुवादः
रामकृष्ण पाण्डेय

मज़दूर बिगुल, जून 2022


 

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