‘पुष्पा’, ‘केजीएफ़’… उन्‍हें बंजर सपने बेचो!

सुहास

पिछले कुछ वर्षों में ऐसी फ़िल्मों की एक बाढ़-सी आयी है जिसमें नायक किसी मज़दूर-वर्गीय पृष्ठभूमि से आता है और फिर सभी प्रतिकूल परिस्थितियों का मुक़ाबला करते हुए और उन पर विजय पाते हुए वह कोई बड़ा डॉन बन जाता है। इनमें से अधिकांश फ़िल्में दक्षिण भारतीय भाषाओं में बनी हैं और बाद में हिन्दी में डब की गयी हैं। लेकिन इन डब फ़िल्मों को उत्तर भारत के हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि पूरे भारत में ही काफ़ी सफलता मिली है। इन फ़िल्मों को भारी संख्या में देखने वालों में एक अच्छी-ख़ासी आबादी मेहनतकश वर्गों के लोग और विशेषकर मज़दूर हैं। हम मज़दूर अपने इलाक़ों में युवा मज़दूरों व आम तौर पर नौजवानों को ‘पुष्पा’ फ़िल्म के नायक की शैली के नृत्य की नक़ल करते, उसकी अदाओं की नक़ल करते और उसके डायलॉग मारते देख सकते हैं। इसी प्रकार ‘केजीएफ़’ फ़िल्म के नायक के संवादों और शैली की नक़ल करते हुए भी पर्याप्त युवा मज़दूर व नौजवान मिल जाते हैं। इन फ़िल्मों और उनके गीतों (अक्सर फूहड़ और अश्लील गीतों) की लोकप्रियता सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर रही है। इसकी क्या वजह है? इन फ़िल्मों में ऐसा क्या है कि हमारे बीच तमाम मज़दूर इसके दीवाने हुए जा रहे हैं?

इसकी पहली वजह यह है कि इन फ़िल्मों में हीरो किसी मज़दूरवर्गीय पृष्ठभूमि से आता है। वह ग़रीबी से संघर्ष करता है, हर प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों से अकेले अपनी व्यक्तिगत बहादुरी और बिन्दासपन के बूते जीत हासिल करता है और कालान्तर में ख़ुद अपनी शेरदिली और दुस्साहसिक कारनामों के ज़रिए एक अपराधी बन जाता है और इसी अपराध की बुनियाद पर वह अन्तत: एक बड़ा कारोबारी बन जाता है, जिसने ख़ुद बहुत-से मज़दूरों को काम पर रखा होता है। चूँकि यह हीरो मज़दूरवर्गीय पृष्ठभूमि से आता है, बचपन में ही बहुत-से ज़ुल्म झेलता है, पुलिस की मार झेलता है, उसकी माँ या परिवार वालों को दबंग गुण्डे, अपराधी और पूँजीपति सताते हैं, और हर क़दम पर उसे ज़ि‍ल्लत का सामना करना पड़ता है, इसलिए आज के समाज के आम मज़दूर युवा कहीं न कहीं अपनी छाया को उसमें देखते हैं। कारण यह कि वास्तव में एक ग़रीब मज़दूरवर्गीय युवा को अक्सर ही वास्तव में इस प्रकार की स्थितियों का सामना करना पड़ता है। यदि वह ख़ुद मज़दूरी कर रहा होता है, तो आये दिन उसे मालिकों-सेठों के हाथों मारपीट, गाली-गलौच, अपमान, उत्पीड़न और दमन का सामना करना पड़ता है। अगर वह दलित पृष्ठभूमि से आता है तो यह शोषण, दमन और उत्पीड़न और भी भयंकर रूप धारण करता है। ‘पुष्पा’ फ़िल्म का नायक भी किसी तथाकथित “निचली” जाति से आता है, जिसकी माँ के साथ किसी ऊँची जाति का धनी आदमी रिश्ते बनाता है और बाद में उसे पत्नी के रूप में नहीं अपनाता है। पुष्पा को बचपन में ही जातिगत अपमान, ‘नाजायज़’ होने के तानों और वर्गीय शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। लेकिन उसके बावजूद पुष्पा इस ऊँची जाति के आदमी के प्रति पुत्र समान भावनाएँ और आकांक्षाएँ रखता है और उसकी माँ भी उसे अपना पति देव मानती है! यह स्वयं एक बेहद ही घिनौनी और अपमानजनक प्रतिक्रियावादी पिछड़ी सोच है। एक दूसरे अर्थ में ‘केजीएफ़’ के नायक को भी ग़रीबी और दमन-उत्पीड़न के बर्बरतम रूपों का सामना करना पड़ता है। इन फ़िल्मों में इस अन्याय और अपमान का जो चित्रण होता है वह निश्चित ही मज़दूरों के भीतर की नफ़रत और ग़ुस्से को उभारता है क्योंकि उसमें वह पूँजीवादी वर्ग समाज में पूँजीपति वर्ग और उसकी पुलिस व नौकरशाही द्वारा अपने साथ किये जाने वाले बर्ताव की छवि देखते हैं।

दूसरी बात : इस नफ़रत और ग़ुस्से के परिणामस्वरूप इन फ़िल्मों का नायक यह प्रश्न नहीं उठाता है कि मौजूदा समाज में जो मज़दूर समूची धन-सम्पदा को पैदा करते हैं, हरेक चीज़ बनाते हैं, हरेक सेवा प्रदान करते हैं और समूचे देश की अर्थव्यवस्था की बुनियाद हैं, उनके साथ यह सुलूक क्यों होता है? वह यह सवाल नहीं उठाता है कि सारे कल-कारख़ानों, खानों-खदानों और खेतों-खलिहानों पर मुट्ठीभर परजीवी धन्नासेठों का क़ब्ज़ा क्यों है जो ख़ुद कुछ भी नहीं करते और जोंकों के समान मज़दूर वर्ग के शरीर पर चिपके हुए उसका ख़ून पी रहे हैं? वह मालिकों, सेठों, व्यापारियों, अपराधियों, पुलिस व सरकारी तंत्र के अहलकारों द्वारा शोषण, उत्पीड़न, दमन और अपमान का मुक़ाबला करने के लिए अपने जैसे हज़ारों-लाखों मज़दूरों को एकजुट करने के बारे में नहीं सोचता है, जो उसी के समान इस अन्याय और अपमान का सामना कर रहे होते हैं। वह कभी समूची व्यवस्था पर कोई प्रश्न उठाता नहीं दिखता है और न ही यह सवाल पूछता है कि क्या कोई दूसरी व्यवस्था सम्भव है? क्या किसी अन्य प्रकार का समाज सम्भव है? क्या कोई ऐसा समाज नहीं बनाया जा सकता जिसमें जो मज़दूर उत्पादन करते हैं, वे ही उत्पादन के साधन के मालिक हों? क्या कोई ऐसा समाज नहीं बनाया जा सकता जिसमें कि मेहनतकश वर्ग अपनी राजसत्ता क़ायम करें और समूचे उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे को अपनी सामूहिक मेधा और शक्ति के बूते चलायें? नहीं! आपका पुष्पा या रॉकी भाई यह सवाल कभी नहीं पूछता! तो फिर पुष्पा या रॉकी भाई क्या करता है? ऐसा प्रश्न पूछना तो दूर, वह पूँजीवादी समाज के शोषण और अन्याय के विरुद्ध आम तौर पर ही कोई सवाल नहीं उठाता है, बल्कि वह ख़ुद एक पूँजीपति बन जाना चाहता है, अपनी ‘डे‍यरिंग’ (शेरदिली) के बल पर! वह अपने साथी मज़दूरों के साथ कोई एकजुटता क़ायम कर इस अन्याय और शोषण को चुनौती देने के बारे में भी नहीं सोचता है, बल्कि ख़ुद ऐसी स्थिति में पहुँच जाना चाहता है, जहाँ स्वयं वह शोषक बन चुका हो! यह पूँजीवादी व्यक्तिवाद को मज़दूर वर्ग में बोने के लिए किया जाता है। वर्गीय सामूहिक प्रतिरोध और संघर्ष नहीं, पूँजीपति बनने के लिए नायकवादी और व्यक्तिवादी प्रतिरोध!

तो नायक ख़ुद एक पूँजीपति बनना चाहता है। उसे पता होता है कि हर पूँजीपति के धन के साम्राज्य की बुनियाद में अपराध, क़त्ल, धोखा और भ्रष्टाचार होता है। इसलिए वह अपराध की दुनिया से शुरुआत करता है। जब वह दर्जनों क़त्ल करके, हर प्रकार का दुराचार करके अपराध की दुनिया पर अपनी हुकूमत क़ायम कर लेता है, तब वह अपनी अपराध की दुनिया को कारोबार में तब्दील करता है। पहले यह कारोबार ग़ैर-क़ानूनी होता है। बाद में, वह अपने कारोबार को कारोबार की बारीकियाँ सीखकर क़ानूनी स्वरूप देने की तैयारियाँ करता है। इसके लिए भी उसे कई नये अपराध और हत्याएँ करनी पड़ती हैं। अन्त में, वह ख़ुद एक बड़ा पूँजीपति बन जाता है जो ख़ुद सैंकड़ों मज़दूरों और मेहनतकशों का शोषण कर रहा होता है। हाँ, वह सीधे किसी मज़दूर का अपमान नहीं करता, उसका जातिगत अपमान नहीं करता, रॉबिन हुड की तरह कई मज़दूरों और ग़रीबों की भलाई भी करता रहता है और उसके मज़दूर अपने मालिक से नफ़रत नहीं करते बल्कि प्यार करते हैं! क्योंकि वह उनके बीच से ही उठा होता है। वे भूल जाते हैं कि बेशक वह उनके बीच से उठा हो सकता है, लेकिन अब वह उनका मालिक ही है और अब वह उनकी मेहनत को लूटने का ही काम करता है और यह उनकी मेहनत ही है जो उसके कारोबारी और अपराधी साम्राज्य की बुनियाद में है। इन सबके बावजूद वह उससे प्यार करते हैं, उससे डरते हैं, उसका सम्मान करते हैं और उस पर गर्व तक करते हैं, क्योंकि वह उनके आहत अस्मितागत अहं की थोड़ी मालिश करता है। उन्हें इस बात में ही राहत और शान्ति मिलती है कि मज़दूर पृष्ठभूमि और तथाकथित निचली जाति की पृष्ठभूमि से उठने के बावजूद वह ख़ुद दुनिया का राजा बन गया और उसने अन्य पूँजीपतियों को मज़ा चखा दिया। यह दीगर बात है कि अब वह ख़ुद एक पूँजीपति के तौर पर उनका शोषण ही करता है! लुब्बेलुआब यह कि मज़दूर की वर्गीय चेतना की जगहमज़दूर अस्मिताले लेती है जिस पर किसी मज़दूरवर्गीय पृष्ठभूमि से उठे दबंग के ज़रिए गर्व करना सिखाया जाता है।

ऐसी फ़िल्मों में हीरोइनों का जो चित्रण होता है, उसमें भी हम शासक वर्गों की औरतों के प्रति घटिया सोच को देख सकते हैं, जिससे हम मज़दूर भी अक्सर प्रभावित होते हैं। हीरो-हीरोइन के रिश्ते में हीरो की भूमिका हमेशा स्वामी, मालिक जैसी होती है। हीरोइन अगर घमण्डी होती है, तो फ़िल्म का एक ठीक-ठाक हिस्सा हीरो द्वारा हीरोइन के घमण्ड को तोड़ने और उसे अपने पौरुष के समक्ष समर्पण करा देने में ख़र्च किया जाता है। हीरोइन भी अन्त में ख़ुशी-ख़ुशी हीरो के स्वामित्व को स्वीकार कर लेती है। अक्सर उसके आत्मसम्मान की भावना विलेन द्वारा किसी बलात्कार के प्रयास और फिर हीरो द्वारा उसे बचा लिये जाने के प्रकरण से समाप्त होती है, जिसके बाद वह अपने सारे आत्मसम्मान को तेल लेने भेज देती है और हीरो के चरणों में समर्पित हो जाती है। नाचने और हीरो को लुभाने और ख़ुश करने के अलावा इसके बाद हीरोइन के जीवन में कुछ भी नहीं बचता है। मज़दूर वर्ग के भीतर स्त्रियों को पूँजीवादी शोषण की मशीनरी में घसीट लिये जाने के कारण जितनी आज़ादी और जनवाद मिलता है, ऐसी फ़िल्मों में उसे भी छीन लिया जाता है। एक अन्य बात जिस पर ग़ौर किया जा सकता है वह यह है कि हमारा मज़दूरवर्गीय पृष्ठभूमि से उठा नायक अक्सर एक ऐसी नायिका को अपने “पौरुष” के बल पर जीतता है, जो स्वयं मज़दूर वर्ग से नहीं आती है, बल्कि मध्यवर्गीय या उच्चवर्गीय पृष्ठभूमि से आती है। नतीजतन, वर्ग अन्तरविरोध का एक मूर्खतापूर्ण समाधान पेश करने (यानी एक मज़दूरवर्गीय पृष्ठभूमि के नायक द्वारा पौरुष के बल पर एक मध्यर्गीय या उच्चवर्गीय औरत को “जीत” लिया जाना!) के लिए भी स्त्री के शरीर को युद्ध का मैदान बनाया जाता है। जबकि सर्वहारा वर्ग की सोच यह होती है कि वह हर सामाजिक तौर पर दमित व उत्पीड़ि‍त समुदाय की मुक्ति का समर्थन करता है और उसकी मुक्ति की लड़ाई को एक सही वर्गीय दिशा देने का प्रयास करता है।

स्त्रियों के प्रति ऐसी सोच और आम तौर पर लैंगिक जेण्डरगत सम्बन्धों के बारे में ऐसी घटिया और घिनौनी सोच पर क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग केवल थूक ही सकता है। इस प्रकार की सोच उन प्रतिक्रियावादी और शोषणकारी शासक वर्गों की ही हो सकती है, जिनका हित शोषण समेत सामाजिक उत्पीड़न के तमाम रूपों को बनाये रखने में है, मसलन औरतों का उत्पीड़न, दलितों का उत्पीड़न, आदि। क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग स्त्रियों और पुरुषों की सच्ची समानता में यक़ीन रखता है और जानता है कि दुनिया में कोई बड़ा सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन औरतों की आबादी की भागीदारी और उनके जुझारूपन के बिना नहीं हुआ है। वह वर्गयुद्ध में कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ने में और बराबरी में यक़ीन करता है।

लेकिन ‘पुष्पा’ और ‘केजीएफ़’ जैसी फ़िल्में मज़दूर वर्ग के दिमाग़ में भी अपनी सड़ी-गली विचारधाराओं को डालता है। निश्चित तौर पर, हम पर इसका प्रभाव पड़ता है और इसका फ़ायदा अन्तत: मालिक वर्ग को ही होता है क्योंकि ऐसी सड़ी-गली विचारधाराओं का असर हमारे संघर्ष को भीतर से कमज़ोर बनाता है। ये फ़िल्में शुरू से अन्त तक ऐसी सड़ी-गली विचारधाराओं और प्रतिक्रियावादी मूल्यों से लबालब भरी होती हैं और इनके सभी पहलुओं की आलोचना पेश करना ‘मज़दूर बिगुल’ के पृष्ठों पर सम्भव नहीं है। लेकिन इन पर हमें विस्तृत चर्चा रखनी चाहिए और समझना चाहिए कि पूँजीपति वर्ग की फ़िल्में और आम तौर पर उनकी कला हमें क्या सिखा रही है।

कला का काम हमारी चाहतों, आकांक्षाओं और उम्मीदों का चित्रण करना नहीं है, मज़दूर साथियो! नहीं! कला का काम होता है यह सिखाना कि हम क्या चाहें, किन चीज़ों की आकांक्षा करें, किन चीज़ों की उम्मीद करें। हमें बताया जाता है कि तुम पुष्पा या रॉकी भाई जैसा बनने की चाहत, आकांक्षा और उम्मीद पालो! हमें पुष्पा और रॉकी भाई की काल्पनिक कहानी ऐसे सुनायी जाती है कि हम उसमें अपने अक्स को तलाशते हैं। ढाई-तीन घण्टे हम अपने जीवन की कड़वी सच्चाइयों से दूर पलायन कर जाते हैं और पुष्पा और रॉकी भाई के रूप में पर्दे पर वह जीवन जी रहे होते हैं, जो वास्तव में हम कभी जी ही नहीं सकते। हमें वे सपने दिये जाते हैं, जो बंजर हैं। फ़िल्म में पुष्पा ज़रूर बोल सकता है कि ‘अपुन झुकेगा नहीं’ लेकिन हम मज़दूर जानते हैं कि अकेले हमारी कोई ताक़त नहीं है और अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में रोटी की ख़ातिर हमें क़दम-क़दम पर अपने मालिक या ठेकेदार के समक्ष झुकना पड़ता है, उनके द्वारा गाली-गलौच और अपमान को सहना पड़ता है। जब कभी हमारा ग़ुस्सा फटने को भी होता है, तो अपने मासूम बच्चे का चेहरा हमारे ज़ेहन से एक बार गुज़र जाता है, और हम रुक जाते हैं और ख़ून का घूँट पीकर हर प्रकार के अपमान और अन्याय को बर्दाश्त कर जाते हैं। क्योंकि हम जानते हैं कि मालिक वर्ग के पास पैसे, पुलिस और सरकार की ताक़त है और एक अकेले मज़दूर के तौर पर किसी भी मज़दूर की कोई औक़ात नहीं है। यह कड़वी बात है लेकिन यह सच है, आप सभी जानते हैं। लेकिन ‘पुष्पा’ और ‘केजीएफ़’ जैसी फ़िल्में हमें इस कड़वे यथार्थ से कुछ समय के लिए पलायन का एक रास्ता देते हैं, जिसमें हम असली जीवन के अन्धकार से दूर भाग जाते हैं और एक काल्पनिक जीवन को जीने की कोशिश करते हैं, जो हम वाकई कभी नहीं जी सकते क्योंकि एक अकेले मज़दूर की पूँजीपति के सामने कोई ताक़त या औक़ात नहीं है।

हमारी वास्तविक शक्ति हमारी एकजुटता में है। पूँजीपति की पैसे की ताक़त उसके सामने कुछ भी नहीं है क्योंकि अन्तत: पूँजीपति की पूँजी हमारी श्रमशक्ति के दोहन से निचोड़े गये मुनाफ़े से ही आती है। हमारी सामूहिकता के समक्ष वह कुछ नहीं कर सकता है। एक कारख़ाने के पैमाने पर, एक पेशे के पैमाने पर और पूरे देश में समूची अर्थव्यवस्था और समूचे मज़दूर वर्ग के पैमाने पर ऐसी सामूहिकता और ऐसी एकजुटता क़ायम करके ही हम अपने विरुद्ध हो रहे अन्याय और अपमान के विरुद्ध लड़ सकते हैं। लेकिन इन तरह की फ़िल्मों में इस प्रकार के रास्ते के बारे में सोचने पर ही निषेध होता है। हमें ऐसी फ़िल्म देखते हुए प्रतिरोध के इस सच्चे और व्यावहारिक रास्ते के बारे में सोचने की इजाज़त ही नहीं होती। उस समय हमें पूँजीवादी व्यक्तिवाद और नायकवाद की अफ़ीम सुंघा दी जाती है जो कि हमें कड़वे यथार्थ से पलायन कराने में मदद करती है और कुछ समय हम अपनी सच्चाई और उसके दुख से दूर भाग जाते हैं। इसीलिए इस प्रकार की फ़िल्में वास्तव में पलायनवादी फ़िल्में हैं, जो कि हमें वास्तविकता को समझने और उस वास्तविकता के मुताबिक़ सही क़दम उठाने की दिशा में नहीं प्रेरित करती हैं, बल्कि हमें वास्तविकता को देखने से रोकने का काम करती हैं और इस रूप में पूँजीवादी विचारधारा के काम को पूरा करती हैं : हमें सच्चाई देखने से रोकने का काम। इसी को अंग्रेज़ी भाषा में ‘फ़ेटिश’ कहा जाता है।

मज़दूर वर्ग को ऐसी फ़िल्मों की ज़रूरत है जो कि मौजूदा पूँजीवादी समाज में निहित शोषण, उत्पीड़न और दमन के पहलुओं को सच्चाई के साथ उजागर करें। समस्या को सही तरीक़े से पेश करने में उसके समाधान की सम्भावनाएँ भी छिपी होती हैं। यदि किसी अन्तरविरोध को सही तरीक़े से चित्रित किया जाये, सही तरीक़े से समझा जाये तो उसके समाधान की बात को उपदेश के समान पेश करने की कोई ज़रूरत नहीं होती है और न ही कला का यह काम होता है कि हर फ़िल्म के अन्त में क्रान्ति के रास्ते की रूपरेखा पेश कर दी जाये। वास्तव में, कला का पहला कार्य है यथार्थ का ईमानदार चित्रण करना, सही प्रातिनिधिक तथ्‍यों की पहचान करना जो कि यथार्थ के सारतत्व को पेश करते हों। मसलन, किसी एक मज़दूर का पूँजीपति बन जाना सम्भव है और यह समूचे सामाजिक यथार्थ का हिस्सा हो सकता है। लेकिन यह सामाजिक यथार्थ का कोई प्राति‍निधिक हिस्सा नहीं है। मसलन, कोई बच्चा एक हाथ में छह उंगलियों के साथ पैदा हो, तो यह सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता है कि मनुष्यों के एक हाथ में छह उंगलियाँ होती हैं!

पूँजीवादी कला अप्रातिनिधिक यथार्थ के किसी एक पहलू को उठाकर उसका सामान्यीकरण करती है और फिर हमें विशेष प्रकार की चाहतें, आकांक्षाएँ और सपने पालने के लिए प्रशिक्षित करती है, जो कि पूँजीपति वर्ग के लिए फ़ायदेमन्द हो। सर्वहारा वर्ग की कला समूचे सामाजिक यथार्थ के सारतत्व को पकड़ती है क्योंकि वह उसके प्रातिनिधिक पहलुओं को पकड़ती है, उनका कलात्मक अमूर्तन और सामान्यीकरण करती है। इसलिए वह सच के साथ खड़ी होती है। इसीलिए वह अन्तरविरोधों को सही रूप में पेश कर सकती है। और इसीलिए उसे अन्त में क्रान्ति के बारे में उपदेश देने की कोई आवश्यकता नहीं होती है, बल्कि अन्तरविरोधों का उसका सही और सटीक चित्रण स्वत: ही हमें अन्तत: सही दिशा में सोचने के लिए प्रेरित करता है। वास्तव में कौन सही दिशा में सोचता है या सोच सकता है, यह उस व्यक्ति की वस्तुगत सामाजिक व राजनीतिक वर्गीय अवस्थिति पर भी निर्भर करता है। लेकिन निश्चित ही सर्वहारा कला यथार्थ के एक सटीक, ईमानदार और वैज्ञानिक चित्रण के ज़रिए समाज की प्रातिनिधिक सच्चाइयों और उसके अन्तरविरोधों को समझने में हमारी मदद करती है।

‘पुष्पा’, ‘केजीएफ़’ आदि जैसी फ़िल्में इसका ठीक उल्टा काम करती हैं। वे ख़ास तौर पर ख़तरनाक इसलिए हैं क्योंकि उनकी विषयवस्तु किसी एनआरआई अमीर भारतीय का प्रेम प्रसंग नहीं है, बल्कि एक ऐसा नायक है जो स्वयं मज़दूर वर्ग से आता है और फिर कहानी उसे पूँजीपति बना देती है और इस वजह से ऐसी फ़िल्मों का ऊपर बताये गये कारणों से हम मज़दूरों और विशेषकर हमारे नौजवानों पर काफ़ी असर होता है। इसके बारे में एक आलोचनात्मक दृष्टि देना हमारे लिए ज़रूरी है। ज़ाहिर है, मौजूदा लेख में हम इन फ़िल्मों की विस्तृत सैद्धान्तिक और कलात्मक आलोचना नहीं पेश कर सकते और कुछ विशिष्ट पहलुओं की ओर संकेत करके ही हमें सन्तोष करना पड़ा है। इस लेख में हमारा उद्देश्य बहुत ही विनम्र है : इन फ़िल्मों के सामाजिक प्रकार्य को चित्रित करना और उसके ज़रिए पूँजीपति वर्ग द्वारा बेची जा रही कला के सामाजिक प्रकार्य को आम तौर पर चिह्नित करना। आगे हम अलग-अलग फ़िल्मों के माध्यम से इस विषय पर और विस्तार से भी लिखने का प्रयास करेंगे।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2022


 

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