मज़दूर वर्ग की पार्टी कैसी हो? (तीसरी क़िस्त)
मज़दूरों का आर्थिक संघर्ष और राजनीतिक प्रचार का सवाल

सनी

देश के क्रान्तिकारियों के समक्ष मज़दूर आन्दोलन में मौजूद अर्थवादी भटकाव एक बड़ी चुनौती है। केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की संशोधनवादी ग़द्दारी के साथ ही कई तथाकथित “क्रान्तिकारी” भी अर्थवाद की बयार में बह चुके हैं। मज़दूरवाद, अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद तो दूसरी तरफ़ वामपन्थी दुस्साहसवाद की ग़ैर-क्रान्तिकारी धाराएँ मज़दूरों के बीच क्रान्तिकारी राजनीति को स्थापित नहीं होने देती हैं। इस लेखमाला की पिछली कड़ी में हमने मज़दूर वर्ग की पार्टी के राजनीतिक प्रचार के महत्व पर बात रखी थी। हालाँकि इसका यह मतलब नहीं होता कि मज़दूर वर्ग की पार्टी आर्थिक माँगों को नहीं उठाती है। मज़दूर वर्ग की पार्टी मज़दूरों के आर्थिक संघर्षों में भी भागीदारी करती है क्योंकि यह आर्थिक संघर्ष श्रम और पूँजी के अन्तरविरोध की ही अभिव्यक्ति होता है और इसे नेतृत्व देकर ही कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शक्तियाँ इस अन्तरविरोध को राजनीतिक अभिव्यक्ति दे सकती हैं, यानी उसे पूँजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग के राजनीतिक अन्तरविरोध का स्वरूप दे सकती हैं। दूसरे शब्दों में, केवल इसी के ज़रिए समाजवाद के आदर्श और उसूलों को, यानी समाजवादी राजनीतिक चेतना को मज़दूर आन्दोलन में प्रविष्ट कराया जा सकता है। कम्युनिस्ट इस अर्थवादी तर्क का विरोध करते हैं कि आर्थिक संघर्ष की प्रक्रिया में मज़दूर ख़ुद-ब-ख़ुद, स्वत:स्फूर्त रूप से उन्नत राजनीतिक चेतना अर्जित कर लेते हैं। लेख की इस कड़ी में हम आर्थिक संघर्ष पर पार्टी का रुख़, ट्रेड यूनियन राजनीति और कम्युनिस्ट राजनीति का फ़र्क़ तथा अतिवामपन्थी भटकाव और ट्रेडयूनियनवादी राजनीति के सम्बन्धों पर संक्षिप्त में बात रखेंगे।

कम्युनिस्ट पार्टी अपने प्रचार में मज़दूरों के आर्थिक संघर्षों तक ही ख़ुद को सीमित नहीं रखती है बल्कि मज़दूरों को एक राजनीतिक वर्ग के रूप में जागृत, गोलबन्द और संगठित कर उन्हें उनके ऐतिहासिक लक्ष्य से परिचित भी कराती है। लेनिन कहते हैं कि : मज़दूरों में राजनीतिक वर्गचेतना बाहर से ही लायी जा सकती है, यानी केवल आर्थिक संघर्ष के बाहर से, मज़दूरों और मालिकों के सम्बन्धों के क्षेत्र के बाहर से। वह जिस एकमात्र क्षेत्र से सकती है, वह राज्यसत्ता तथा सरकार के साथ सभी वर्गों तथा संस्तरों के सम्बन्धों का क्षेत्र है, वह सभी वर्गों के आपसी सम्बन्धों का क्षेत्र है।” 

“…आम मज़दूरों द्वारा अपने आन्दोलन की प्रक्रिया के दौरान विकसित स्वतंत्र विचारधारा का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता, इसलिए केवल ये रास्ते ही रह जाते हैं : या तो बुर्जुआ विचारधारा को चुना जाये या समाजवादी विचारधारा को। बीच का कोई रास्ता नहीं है (क्योंकि मानव-जाति ने कोई “तीसरी” विचारधारा पैदा नहीं की है, और इसके अलावा जो समाज वर्ग विरोधों के कारण बँटा हुआ है, उसमें कोई ग़ैर-वर्गीय या वर्गोपरि विचारधारा कभी नहीं हो सकती)। अतएव समाजवादी विचारधारा के महत्व को किसी भी तरह कम करके आँकने, उससे ज़रा भी मुँह मोड़ने का मतलब बुर्जुआ विचारधारा को मज़बूत करना होता है।”

लेनिन के द्वारा पेश इस उक्ति का विरोध करते हुए रूसी अर्थवादी अख़बार ‘रोबोचेये द्येलो’ अपने स्वत:स्फूर्ततावादी विचलन के चलते बताता है कि मज़दूर वर्ग वेतन भत्ते के लिए लड़ते हुए राजनीतिक चेतना ख़ुद-ब-ख़ुद पैदा कर लेता है। कम्युनिस्ट राजनीति को ट्रेडयूनियनवादी राजनीति में अपचयित करते हुए अर्थवादी इस स्वत:स्फूर्तता के सिद्धान्त को “मंज़िलों का सिद्धान्त” और “प्रक्रिया के रूप में कार्यनीति” के रूप में व्याख्यायित करते हैं। “मंज़िलों का सिद्धान्त” के अनुसार कम्युनिस्टों को मज़दूर वर्ग की चेतना के स्तर के अनुरूप ही लड़ना चाहिए और उनके बीच राजनीतिक प्रचार नहीं करना चाहिए। “प्रक्रिया के रूप में कार्यनीति” के अनुसार जनता के बीच काम करने के लिए कोई पूर्व निर्धारित योजना तैयार करना ग़लत होता है और यह रणनीति आन्दोलनों में ही विकसित होती है। अर्थवाद के “मंज़िलों का सिद्धान्त” और “प्रक्रिया के रूप में कार्यनीति” मार्क्सवाद-विरोधी हैं। यह कम्युनिस्ट पार्टी को मज़दूर वर्ग का हिरावल की जगह पुछल्ला बनाने की ही पेशकश है। कम्युनिस्ट पार्टी स्वयं मज़दूर वर्ग के उन्नततम तत्वों का ही दस्ता है और उसका काम ही मज़दूर वर्ग के व्यापक जनसमुदायों को एक सही विचारधारा व राजनीति के ज़रिए नेतृत्व देना है। स्वत:स्फूर्ततावाद का प्रस्ताव रखने वाला व्यक्ति चाहे या न चाहे, इरादतन या ग़ैर-इरादतन, कम्युनिस्ट राजनीति को कमज़ोर करता है और मज़दूर वर्ग पर बुर्जुआ वर्ग की विचारधारा को हावी होने देने का अवसर प्रदान करता है। अर्थवादी विचलन का हमला मार्क्सवाद-लेनिनवाद पर होता है। इतिहास में अर्थवाद की हर प्रजाति का विचारधारात्मक निशाना मार्क्सवाद पर ही रहा है। लेनिन के दौर में ‘आलोचना की स्वतंत्रता’ की आड़ में मार्क्सवाद पर हमला किया गया था। आज भी मार्क्सवाद में ‘इज़ाफ़े’ और ‘21वीं सदी के समाजवाद’ की तमाम अवधारणाओं का निशाना अक्सर लेनिनवादी पार्टी, राज्य तथा क्रान्ति के उसूल और सर्वहारा वर्ग की तानाशाही का उसूल हुआ करते हैं। लेनिन ने इन प्रवृत्तियों की आलोचना की तथा साथ ही इनकी राजनीतिक और सांगठनिक अभिव्यक्तियों पर भी चोट की। राजनीतिक तौर पर यह ट्रेडयूनियनवादी राजनीति के रूप में अभिव्यक्ति पाती है। यह मज़दूर आन्दोलन और समाजवाद के बीच दरार पैदा कर देती है। जबकि “सामाजिक जनवाद (पढ़ेंकम्युनिज़्म’ – लेखक) मज़दूर आन्दोलन और समाजवाद का सहमेल है। उसका काम मज़दूर आन्दोलन की हर अलग-अलग अवस्था में निष्क्रिय रूप से इसकी सेवा करना नहीं, बल्कि पूरे आन्दोलन के हितों का प्रतिनिधित्व करना, इस आन्दोलन को उसका अन्तिम लक्ष्य तथा उसके राजनीतिक कार्यभार बताना तथा इसकी राजनीतिक और विचारधारात्मक स्वतंत्रता की रक्षा करना है। सामाजिक जनवाद (कम्युनिज़्म) से कटकर मज़दूर आन्दोलन नगण्य और अनिवार्य रूप से पूँजीवादी बन जाता है। लेकिन आर्थिक (अर्थवादीलेखक) संघर्ष करने से मज़दूर वर्ग अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता खो देता है…हमारा मुख्य और मूल काम मज़दूर वर्ग के राजनीतिक विकास और राजनीतिक संगठन के कार्य में सहायता पहुँचाना है। इस काम को जो लोग पीछे ढकेल देते हैं, जो तमाम विशेष कामों और संघर्ष के विशिष्ट तरीक़ों को इस मुख्य काम के मातहत करने से इन्कार करते हैं, वे ग़लत रास्ते पर चल रहे हैं और आन्दोलन को भारी नुक़सान पहुँचा रहे हैं।”(लेनिन

दूसरी बात यह कि इसका मतलब यह नहीं होता है कि कम्युनिस्ट पार्टी मज़दूरों के जीवन के रोज़मर्रा के ठोस प्रश्नों को नहीं उठाती है। निश्चित ही कम्युनिस्ट पार्टी यह करेगी। कम्युनिस्ट मज़दूरों के जीवन के ठोस प्रश्नों को उठाते हैं क्योंकि केवल इसी के ज़रिए वह मज़दूर वर्ग को राजनीतिक रूप से सचेत बना सकती है, रोज़मर्रा के मसलों पर संगठन के ज़रिए इन मसलों के पूँजीवादी व्यवस्था से रिश्ते को मज़दूरों के बीच स्पष्ट कर सकती है, उन्हें यह समझा सकती है कि उनकी जीवन व कार्यस्थितियों की समस्याएँ आकस्मिक नहीं हैं, बल्कि पूँजीवाद द्वारा जनित हैं, उनका दुश्मन एक मालिक नहीं बल्कि मालिकों का समूचा वर्ग और उसकी राज्यसत्ता है। और इसी के ज़रिए वह मज़दूर वर्ग को एक राजनीतिक वर्ग के रूप में यानी सर्वहारा वर्ग के रूप में संगठित कर सकती है और उन्हें राजनीतिक चेतना के उच्चतम स्तर, यानी पार्टी राजनीतिक चेतना तक विकसित कर सकती है। इसीलिए लेनिन बताते हैं : “कम्युनिस्टों को मज़दूरों के सभी प्रारम्भिक संघर्षों और आन्दोलनों में भाग लेना चाहिए तथा काम के घण्टों, काम की परिस्थितियों, मज़दूरी आदि को लेकर उनके और पूँजीपतियों के बीच होने वाले सभी टकरावों में मज़दूरों के हितों की हिफ़ाज़त करनी चाहिए। कम्युनिस्टों को मज़दूर वर्ग के जीवन के ठोस प्रश्नों पर भी ध्यान देना चाहिए। उन्हें इन प्रश्नों की सही समझदारी हासिल करने में मज़दूरों की सहायता करनी चाहिए। उन्हें मज़दूरों का ध्यान सर्वाधिक स्पष्ट अन्यायों की ओर आकर्षित करना चाहिए तथा अपनी माँगों को व्यावहारिक तथा सटीक रूप से सूत्रबद्ध करने में उनकी सहायता करनी चाहिए। इस तरह वे मज़दूर वर्ग के भीतर एकजुटता की स्पिरिट और देश के सभी मज़दूरों के भीतर एक एकीकृत मज़दूर वर्ग के रूप में, जो कि सर्वहारा की विश्व सेना का एक हिस्सा है, सामुदायिक हितों की चेतना जागृत कर पायेंगे। सिर्फ़ इस प्रकार के रोज़मर्रा के प्रारम्भिक कर्तव्यों की पूर्ति करके तथा सर्वहारा के सभी संघर्षों में भाग लेकर ही कम्युनिस्ट पार्टी एक सच्ची कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में विकसित हो सकती है। सिर्फ़ इस प्रकार के तरीक़ों को अपनाकर ही वह घिसे-पिटे, तथाकथित शुद्ध समाजवादी प्रचार करने वाले, सिर्फ़ नये सदस्य भर्ती करने वाले तथा सुधारों और सभी संसदीय सम्भावनाओं का इस्तेमाल कर पाने की सम्भावनाओं या असम्भावनाओं की बातें करते रहने वाले प्रचारकों से अपने को अलग कर सकेगी। शोषकों के विरुद्ध चलने वाले शोषितों के रोज़मर्रा के संघर्षों और विवादों में पार्टी-सदस्यों का आत्मत्यागपूर्ण और चेतन सहयोग न केवल सर्वहारा अधिनायकत्व की विजय के लिए बल्कि उससे भी अधिक, इस अधिनायकत्व को क़ायम रखने के लिए नितान्त आवश्यक है। पूँजीवाद के हमलों के ख़िलाफ़ छोटे-छोटे संघर्षों को करने के संघर्ष में सर्वहारा वर्ग का सुव्यवस्थित नेतृत्व कर पाने की क्षमता प्राप्त करते हुए मेहनतकश जनसमुदाय का हिरावल दस्ता बन सकेगी।”

कुल मिलाकर यह कि कम्युनिस्ट आन्दोलन सुधारों के लिए लड़ाई को समाजवाद के क्रान्तिकारी संघर्ष के अधीन उसी तरह रखता है, जैसे कोई एक भाग अपने पूर्ण के अधीन होता है।यही वह समझदारी है जो एक तरफ़ हमें अर्थवादी भटकाव से भी बचाती है तो दूसरी तरफ़ “वामपन्थी” भटकाव से भी बचाती है, जो वास्तविक स्थितियों के बारे में वस्तुगत समझदारी रखने की बजाय, शेख़चिल्ली के समान उसके काफ़ी आगे उछलते-कूदते चलती है। इन दोनों ही छोरों का जन्म स्वत:स्फूर्तवाद के आगे नतमस्तक होने के चलते होता है। “अर्थवादी और दुस्साहसवादी स्वत:स्फूर्तवाद के अलग छोरों के आगे नतमस्तक होते हैं। अर्थवादी “शुद्ध और साधारण मज़दूर आन्दोलन” के आगे नतमस्तक होते हैं तो दुस्साहसवादी उन बुद्धिजीवियों के आवेशपूर्ण रोष के आगे नतमस्तक होते हैं जो क्रान्तिकारी आन्दोलन और मज़दूर वर्ग के आन्दोलन को एकीकृत करने की क़ाबिलियत या परिस्थिति में नहीं होते।” (लेनिन)

अतिवामपन्थी राजनीति आर्थिक माँगों के लिए लड़ने को और ट्रेडयूनियन बनाकर संघर्ष करने को ही संशोधनवाद क़रार देने तक पहुँच जाती है। हमें इस ग़लत समझदारी का भी पर्दाफ़ाश करना चाहिए। लेनिन ने इस विचलन की आलोचना करते हुए कहा कि “मज़दूरों द्वारा काम करने की परिस्थितियों में मामूली सुधारों की माँग को लेकर चलाये जाने वाले आन्दोलनों के प्रति तिरस्कार का रुख़ अपनाना या कम्युनिस्ट कार्यक्रम और अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सशस्त्र क्रान्तिकारी संघर्ष की आवश्यकता के नाम पर उनके प्रति निष्क्रियता का रुख़ अपनाना कम्युनिस्टों के लिए भारी भूल होगी। मज़दूर अपनी जिन माँगों को लेकर पूँजीपतियों से लड़ने के लिए तैयार और रज़ामन्द हों, वे चाहे कितनी भी छोटी या मामूली क्यों न हों, कम्युनिस्टों को संघर्ष में शामिल न होने के लिए उन माँगों के छोटी होने का बहाना नहीं बनाना चाहिए। हमारी आन्दोलनात्मक गतिविधियों के ख़िलाफ़ इस तरह के इलज़ाम की गुंजाइश नहीं रहनी चाहिए कि हम मज़दूरों को मूर्खतापूर्ण हड़तालों या अन्य नासमझी-भरी कार्रवाइयों के लिए उभाड़ते और उकसाते हैं। संघर्षरत जनता के बीच कम्युनिस्टों को यह प्रतिष्ठा अर्जित करने की चेष्टा करनी चाहिए कि वे हिम्मत वाले और संघर्षो में कारगर भूमिका निभाने वाले लोग हैं।”

लेनिन के अवदानों और रूसी क्रान्ति की रोशनी में हम भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन में अर्थवादी और अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी प्रवृत्तियों के उद्भव और विकास को समझ सकते हैं। ‘मज़दूर बिगुल’ के पन्नों पर ही एक मज़दूर अख़बार के चरित्र पर चली बहस में (सर्वहारा वर्ग का हिरावल दस्ता बनने की बजाय उसका पिछवाड़ा निहारने की ज़िद, ‘बिगुल’, अगस्त 1999) हमने भारत में सुधारवादी अवसरवाद के विपरीत छोर पर दुस्साहसवाद और संघाधिपत्यवाद पैदा होने को इंगित किया था। ट्रेडयूनियनों के प्रति पार्टी के रवैये के बारे में वोइनोव (.वी. लुनाचार्स्कीकी पुस्तिका की भूमिका में लेनिन ने लिखा था, पश्चिमी यूरोप के बहुतेरे देशों में क्रान्तिकारी संघाधिपत्यवादी अवसरवाद, सुधारवाद और संसदीय जड़वामनवाद का एक प्रत्यक्ष और अपरिहार्य परिणाम था। हमारे देश में भीदूमा कार्रवाईके पहले क़दमों ने अवसरवाद को अपार विस्तार प्रदान किया ओर मेंशेविकों को कैडेटों के जीहज़ूरियों में तब्दील कर दिया। मिसाल के तौर पर, प्लेख़ानोव, अपने दैनन्दिन राजनीतिक कार्य में वस्तुत: प्रोकोपोविच और कुस्कोवा महाशयों के साथ घुलमिल गये। 1900 में उन्होंने बर्नस्टीनवाद के लिए, रूसी सर्वहारा का सिर्फ़पिछवाड़ाही निहारने के लिए, उनकी भर्त्सना की थी (‘राबोचेये देलोके सम्पादक मण्डल के लिए Vademecum, जेनेवा, 1900) पर 1906-07 में पहले ही मतपत्रों ने प्लेख़ानोव को इन सज्जनों की बाँहों में धकेल दिया जो अब रूसी उदारतावाद कापिछवाड़ानिहार रहे हैं। संघाधिपत्यवाद रूस की ज़मीन परप्रतिष्ठितसामाजिक जनवादियों के इस लज्जास्पद आचरण के विरुद्ध प्रतिक्रिया की तरह उत्पन्न हुए बिना नहीं रह सकता।

हमारे देश में भी तेलंगाना संघर्ष की पराजय के बाद संशोधनवादी राजनीति हावी रही जिसकी अति-प्रतिक्रिया के तौर पर ही चारु मजूमदार का “वामपन्थी” दुस्साहसवादी भटकाव पैदा हुआ। संशोधनवाद की एक प्रतिक्रिया यदि “वामपन्थी” दुस्साहसवाद की धारा के रूप में हो रही है तो दूसरी प्रतिक्रिया अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद के रूप में सामने आती है। यह पुछल्लावाद ही है जो क्रान्तिकारियों को जनता की पूँछ पकड़कर लटकने की राय देता है। हमें पुछल्लावाद और संशोधनवाद दोनों का ही विरोध करना होगा।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2022


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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