कश्मीर में अल्पसंख्यकों और प्रवासी मज़दूरों की हत्या की बढ़ती घटनाएँ
कश्मीरी पण्डितों के नाम पर राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वाले फ़ासिस्टों के लिए शर्मनाक स्थिति

आनन्द

5 अगस्त 2019 को निहायत ही ग़ैर-जनवादी ढंग से संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाते हुए जम्मू व कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा छीनने के बाद मोदी-शाह की हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्ट सरकार कई बार यह बेशर्मी-भरा दावा कर चुकी है कि कश्मीर में हालात सामान्य हो चुके हैं। लेकिन हाल के दिनों में कश्मीर घाटी में कश्मीरी पण्डितों, प्रवासी मज़दूरों और स्थानीय पुलिसकर्मियों की लक्षित हत्याओं ने केन्द्र सरकार के इन खोखले दावों की पोल खोलकर रख दी है। घाटी में हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि वे कश्मीरी पण्डित सरकारी कर्मचारी जिन्हें एक दशक से भी ज़्यादा समय पहले प्रधानमंत्री की विशेष योजना के तहत घाटी में पुनर्वास के मक़सद से लाया गया था, उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन करने को मजबूर होना पड़ रहा है। यहाँ तक कि वे सामूहिक पलायन या सामूहिक इस्तीफ़ा देने की भी धमकी दे रहे हैं। ऐसे में कश्मीरी पण्डितों के नाम पर दशकों से राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वाले फ़ासिस्ट संघ परिवार तथा मोदी-शाह सरकार के लिए एक शर्मनाक स्थिति पैदा हो चुकी है।

अभी ज़्यादा समय नहीं बीता है जब समूचा संघ परिवार विवेक अग्निहोत्री की प्रोपगैण्डा फ़िल्म ‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ का जमकर प्रचार करते हुए ख़ुद को कश्मीरी पण्डितों का रहनुमा घोषित करने में जुटा था। लेकिन कश्मीर घाटी में लगातार जारी लक्षित हत्याओं ने 1989-90 के दौरान हुई कश्मीरी पण्डितों की लक्षित हत्याओं का आँकड़ा पार कर लिया है और वह भी तब जबकि घाटी में कश्मीरी पण्डितों की संख्या 1989-90 की तुलना में बेहद कम हो चुकी है। ग़ौरतलब है कि 2019 में जम्मू व कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा छीनने के बाद से अब तक कश्मीर घाटी में आतंकियों द्वारा कश्मीरी पण्डितों और ग़ैर-कश्मीरी प्रवासी मज़दूरों की कुल 16 लक्षित हत्याएँ की जा चुकी हैं। इसके अतिरिक्त कई कश्मीरी मुस्लिम पुलिसकर्मियों और भाजपा व संघ परिवार से क़रीबी रखने वाले कश्मीरी मुस्लिमों की भी हत्याएँ हुई हैं। ये हत्याएँ यह दिखाती हैं कि मोदी-शाह सरकार की तमाम नीतियों की ही तरह कश्मीर के राष्ट्रीय दमन पर आधारित उनकी कश्मीर नीति भी फिसड्डी साबित हुई है।

2019 में जम्मू व कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा छीनने के बाद कश्मीरियों के सम्भावित प्रतिरोध को खड़ा होने से रोकने के लिए केन्द्र सरकार ने घाटी में सेना की तादाद बढ़ायी और वहाँ लम्बे समय तक तालाबन्दी जारी रखते हुए इण्टरनेट पर अभूतपूर्व पाबन्दी लगायी। सभी प्रमुख कश्मीरी राजनेताओं और अलगाववादी नेताओं को महीनों तक नज़रबन्द रखा गया। इन तानाशाहाना क़दमों के ख़िलाफ़ कोई आलोचनात्मक आवाज़ न उठे, इसके लिए घाटी के तमाम स्वतंत्र मीडिया संस्थानों और पत्रकारों की ज़ुबान पर ताला लगाने के लिए यूएपीए जैसे कुख्यात क़ानूनों का अन्धाधुन्ध इस्तेमाल किया गया। यही नहीं 2019 से ही जम्मू व कश्मीर को दो हिस्सों में विभाजित करके उसे केन्द्र शासित प्रदेश में तब्दील करके वहाँ जो नाममात्र की लोकतांत्रिक प्रक्रिया चल रही थी उसे भी पूरी तरह से रद्द कर दिया गया। इसके अतिरिक्त देशभर में हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्टों द्वारा मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने के मक़सद से की जा रही तमाम घृणित कार्रवाइयों की वजह से भी कश्मीरियों का भारतीय राज्य से अलगाव पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ा है।

इसी बीच केन्द्र सरकार ने निहायत ही शातिराना ढंग से जम्मू व कश्मीर के निर्वाचक मण्डलों का परिसीमन कराकर नयी बढ़ी हुई सीटों में कश्मीर घाटी को जम्मू की तुलना में कम सीटें आवण्टित की हैं। इसके पीछे केन्द्र सरकार की मंशा चुनावी राजनीति में जम्मू की तुलना में कश्मीर घाटी का महत्व कम करने की है क्योंकि जम्मू में भाजपा का बड़ा जनाधार है, हालाँकि जनसंख्या के हिसाब से कश्मीर घाटी की जनसंख्या जम्मू की तुलना में कहीं ज़्यादा है। इसी प्रकार अनुच्छेद 370 और 35 ए को निष्प्रभावी बनाने के साथ ही जम्मू-कश्मीर में बाहर के निवासियों को ज़मीन ख़रीदने की इजाज़त देकर और सेना की मदद से घाटी में नयी बस्तियाँ बनाने की परियोजनाओं को मंज़ूरी देकर केन्द्र सरकार ने कश्मीरी क़ौम के दमन और उत्पीड़न को पहले से कई गुना ज़्यादा बढ़ाया है।

उपरोक्त असामान्य क़दमों को उठाकर केन्द्र सरकार ने कश्मीर घाटी के हालात को सामान्य दिखाने की हास्यास्पद कोशिश की। 2019 के बाद से घाटी में अभी तक किसी बड़े जनउभार की ग़ैर-मौजूदगी और इस साल घाटी में पर्यटकों की रिकॉर्ड संख्या को कश्मीर में हालात सामान्य होने के संकेत के रूप में प्रचारित किया गया। लेकिन 2019 से अब तक घाटी में कोई बड़ा जनउभार न होने और घाटी में पर्यटकों की संख्या में बढ़ोत्तरी से कोई मूर्ख या नादान व्यक्ति ही यह नतीजा निकालेगा कि भारतीय राज्य के ख़िलाफ़ कश्मीरियों का ग़ुस्सा ठण्डा हो गया है। कश्मीरियों के संघर्ष के इतिहास से वाक़िफ़ कोई भी व्यक्ति यह जानता है कि वहाँ बड़े जनउभारों की परिघटना लगातार नहीं देखने में आती है बल्किअक्सर ऐसे जनउभारों के बीच समय का अन्तराल होता रहा है और इस अन्तराल के दौरान जब भारतीय राज्य के ख़िलाफ़ लोगों का ग़ुस्सा जनउभारों के रूप में सतह पर नहीं दिखता है तब भी वह सतह के नीचे मौजूद रहता है।

सच तो यह है कि मोदी-शाह सरकार की नीतियों ने कश्मीरियों के अलगाव और ग़ुस्से को अभूतपूर्व रूप से बढ़ाने का ही काम किया है। लोगों के ग़ुस्से को सामूहिक प्रतिरोध की रणनीति में तब्दील करने में सक्षम नेतृत्व की ग़ैर-मौजूदगी का लाभ उठाकर घाटी में ‘द रेजिस्टेंस फ़्रण्ट’ और ‘कश्मीर टाइगर्स’ जैसे नये आतंकी समूह पनप रहे हैं जिन्हें पाकिस्तान का समर्थन प्राप्त है। इन आतंकी समूहों ने ही हाल में हुई लक्षित हत्याओं की ज़िम्मेदारी ली है। सरकार की ख़ुफ़िया एजेंसियाँ स्वयं यह बता रही हैं कि जहाँ कुछ साल पहले तक कश्मीर से युवाओं द्वरा बन्दूक़ उठाने और आतंकी संगठनों में शामिल होने की प्रक्रिया थम रही थी, वहीं अब यह फिर से गति पकड़ रही है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ इस साल जनवरी से अप्रैल तक 49 कश्मीरी युवा आतंकी संगठनों में शामिल हुए हैं जबकि पिछले साल इसी अन्तराल में यह संख्या 42 थी। ऐसे आतंकियों को मारने के नाम पर की जाने वाली फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में अनेक निर्दोष कश्मीरी भी मारे जा रहे हैं जिसकी वजह से कश्मीरियों का ग़ुस्सा और अलगाव और बढ़ता है जिसका लाभ अन्तत: इन आतंकी संगठनों को ही मिलता है क्योंकि किसी अन्य विकल्प की ग़ैर-मौजूदगी में कुछ कश्मीरी नौजवान अपने ग़ुस्से को अभिव्यक्ति देने के लिए इन आतंकी समूहों की ओर भी रुख करते हैं। चूँकि इन समूहों के पास विशालकाय भारतीय सैन्यबल से सीधे मुक़ाबला करने की ताक़त व संसाधन नहीं मौजूद हैं इसलिए वे अल्पसंख्यकों व प्रवासी मज़दूरों जैसे आसान लक्ष्यों को निशाना बनाकर दहशत पैदा करने की रणनीति अपना रहे हैं।

कहने की ज़रूरत नहीं कि इस प्रकार निर्दोषों की लक्षित हत्या की बदहवास कार्रवाइयों को किसी भी रूप में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है और अन्ततोगत्वा ये कार्रवाइयाँ कश्मीरियों के आत्मनिर्णय की न्यायसंगत लड़ाई को कमज़ोर करने का ही काम करती हैं। परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन हत्याओं के लिए सीधे तौर पर हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्टों के नेतृत्व में लागू की जा रही भारतीय राज्य की तानाशाहाना नीतियाँ ही ज़िम्मेदार हैं क्योंकि ये नीतियाँ ही वे हालात पैदा कर रही हैं जिसकी वजह से कुछ कश्मीरी युवा बन्दूक़ उठाकर निर्दोषों का क़त्ल करने से भी नहीं हिचक रहे हैं। इसलिए कश्मीर में शान्ति क़ायम करने की मुख्य ज़िम्मेदारी भारतीय राज्य के कन्धों पर है जिसे पूरा करने में वह नाकाम साबित हुआ है।

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2022


 

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