गहरी निराशा, पराजयबोध और विकल्पहीनता से गुज़रते मज़दूर की कहानी :
फ़िल्म ‘मट्टो की साइकिल’

आशीष

अभी हाल ही में ‘मट्टो की साइकिल’ नामक एक फ़िल्म रिलीज़ हुई। इस फ़िल्म की कहानी निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले मट्टो नाम के एक मज़दूर के जीवन पर केन्द्रित है। मट्टो गाँव में ही पत्नी और दो बेटियों के साथ रहता है। उसके परिवार की आर्थिक हालत बहुत ख़राब होती है, जैसा कि आम तौर पर सभी मज़दूरों के साथ होता है। वह अपने घर का अकेला कमाने वाला आदमी है। मट्टो अपनी बीस साल पुरानी जर्जर साइकिल से रोज़ बग़ल के शहर में बेलदारी का काम करने जाता है। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले एक मज़दूर के साथ जिस प्रकार से ठेकेदार, मालिक और मध्यम वर्ग से आने वाला व्यक्ति बर्ताव करता है उसकी कुछ झलकियाँ आप इस फ़िल्म में देख सकते हैं। मट्टो के जीवन में जब भी ऐसी स्थिति आती है जब उन्हें थोड़े पैसे की ज़रूरत पड़ती है तो उसे ठेकेदार, सूदख़ोर आदि के आगे हाथ जोड़कर निहोरा मानना पड़ता है, जैसे पत्नी के बीमार होने पर, बेटी की शादी के लिए या नयी साइकिल ख़रीदने के लिए। शुरू से अन्त तक फ़िल्म की कहानी मट्टो के चरित्र के आसपास चलती हुई अन्य किरदारों जैसे कि मट्टो की पत्नी और बेटियों, वकील, साइकिल मैकेनिक, ग्राम प्रधान, ठेकेदार, डॉक्टर आदि के संवादों के ज़रिए कथावस्तु का निर्माण करती है। अन्तिम दृश्यों में आप देखते हैं कि बहुत जद्दोजहद के बाद ख़रीदी गयी मट्टो की नयी साइकिल को लूट लिया जाता है और बेबस मट्टो दौड़ता फिरता है, न पुलिस उसकी मदद करती है और न ही चुनाव के समय मीठी बातें करने वाला ग्राम प्रधान। मट्टो की निराशा और थकान के साथ फ़िल्म का अन्त होता है।
फ़िल्म के निर्देशक एम. गनी द्वारा मज़दूर-मेहनतकश जीवन के समूचे परिदृश्य को एक मज़दूर मट्टो के माध्यम से पेश करने के प्रयास की सराहना करते हुए इसे सर्वहारा वर्ग के नज़रिए से आलोचनात्मक विवेक के साथ देखने की ज़रूरत है। थोड़ी सराहना इसलिए करनी चाहिए क्योंकि जब पूँजीवादी फ़िल्म उद्योग की सारी फ़िल्में सुपरहीरो जैसे नायकों, अमीरज़ादों, अपराध और अप्रवासी भारतीयों की प्रेम कथाओं पर बन रही हैं, तो उसमें एक फ़िल्म ऐसी आयी है, जो कम-से-कम मज़दूर जीवन का एक चित्रण पेश कर रही है। लेकिन इस फ़िल्म के प्रति सर्वहारा कोई अनालोचनात्मक रुख़ भी नहीं अपना सकता है।
इस फ़िल्म को लेकर बुर्जुआ उदारपन्थी लोगों के अलावा मज़दूर और प्रगतिशील आन्दोलन की तरफ़ अपनी पक्षधरता रखने वाली आबादी का एक हिस्सा भी अनालोचनात्मक रुख़ अपनाते हुए इस फ़िल्म की प्रशंसा करते हुए लहालोट हो रहा है। किसी भी कलात्मक रचना, कहानी, नाटक, सिनेमा, पेंटिंग्स आदि को आलोचनात्मक विवेक के साथ देखते हुए हमें इस बात पर ग़ौर करना चाहिए कि उक्त रचना लोगों के अवचेतन पर क्या प्रभाव छोड़ती है। एक सच्चे कलाकार का काम यथार्थ का वर्ग पक्षधर और ईमानदार चित्रण करना होता है और एक प्रगतिशील कलाकार जीवन के अनेक अन्तरविरोधों के ज़रिए यथार्थ का सृजन करते हुए और समाज की वर्तमान दिक़्क़तों के कारणों को समझते हुए आने वाले भविष्य में उसके सम्भव समाधान की ओर इशारा करता है या कम-से-कम अपने चित्रण से ही दर्शक को समाधान के विषय में सोचने के लिए बाध्य कर देता है। यथार्थ का केवल जस-का-तस चित्रण करने का विचार ही अवैज्ञानिक है क्योंकि यह सम्भव ही नहीं है। लेकिन यथार्थ के प्रति ईमानदारी और वफ़ादारी रखने वाला कलाकार सीमित तौर पर अपने बुर्जुआ या मध्यमवर्गीय पूर्वाग्रहों का सीमित तौर पर अतिक्रमण कर सकता है। लेकिन केवल सीमित तौर पर। दूसरी बात, केवल मज़दूर वर्ग की जीवन-स्थिति को कहानी का प्लॉट बनाने मात्र से कोई कहानी या फ़िल्म अपने आप में सर्वहारा यथार्थवादी रचना की श्रेणी में नहीं आ जाती, हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए।
मट्टो की साइकिल की कथावस्तु रूप को भेदकर अन्तर्वस्तु को नहीं पकड़ पाती और साथ ही जीवन के कई अन्तरविरोधों को पकड़ पाने में असफल सिद्ध होती है। इस फ़िल्म की कहानी में एकरेखीयता एवं ठहराव दिखलाई पड़ता है। गाँव की जिस ज़मीन पर मट्टो खड़ा है, वहाँ की आबादी का गुज़ारा बेलदारी मज़दूरी करके होता है। वह किसी गाँव के पास के छोटे शहर की चौहद्दी तक ही सीमित नहीं रहता है, वह वहाँ से निकलकर बड़े शहरों में जाकर अपने अस्तित्व को बचाने के लिए मज़दूरी करता है, शहर आकर उसकी पत्नी भी काम करने लगती है। लोग दरबदर हो जाते हैं, परिवार टूट जाता है। गाँव में रहने वाला कोई भूमिहीन मज़दूर या छोटे-मोटे ज़मीन के टुकड़े का मालिक अपने इलाक़े की चौहद्दियों से बाहर निकलता है। ज़िन्दगी ठहरती नहीं है आगे चलती है। इस कहानी के रचनाकार शहरी मध्यम वर्ग के नज़रिए से मज़दूरों के जीवन को देखते हैं इसलिए वह इस गति को समझ पाने में असफल होते हैं। फ़िल्म में जब तथाकथित लेबर चौक का दृश्य आता है तो सारे मज़दूर थकी-हारी हालत में दिखलाई पड़ते हैं। वास्तव में लेबर चौक पर भी सिर्फ़ परेशानी की हालत में लोग खड़े नहीं रहते हैं, वहाँ भी लोगों के बीच आपस में बातें होती हैं, अपनी हालत पर निराश होने के साथ-साथ उन्हें ग़ुस्सा आता है, वह हँसते भी हैं, परेशान भी होते हैं। इसलिए यहाँ पर फ़िल्मकार यथार्थ को केवल आंशिक तौर पर पकड़ पाया है और केवल एक मध्यमवर्गीय नज़रिए से। ये वर्गीय पूर्वाग्रह एक ईमानदार कलाकार के भी यथार्थ के दृश्यों के चुनाव को प्रभावित करते हैं। प्रातिनिधिक यथार्थ मात्रा में ज़्यादा हो यह ज़रूरी नहीं है, लेकिन वह परिवर्तन की सम्भावनाओं की ओर इशारा करता है। ऐसे में लेबर चौक के इस दृश्य के बारे में यह कहा जा सकता है कि कुछ प्रातिनिधिक सच्चाइयों को पकड़ने के बावजूद यह सच्चाई को सम्पूर्णता में और प्रातिनिधिक तौर पर नहीं पकड़ पाया है।
फ़िल्म के निर्देशक एम. गनी कहते हैं कि वह इस कहानी के माध्यम से हिन्दुस्तान को दिखाना चाहते हैं। फ़िल्म का नायक मट्टो बेबस और बेचारा है। फ़िल्म में आप देख सकते हैं बहुत कम मौक़े पर वह हँस पाता है। ऐसे में मट्टो परिस्थितियों का निष्क्रिय तत्व बन जाता है जो बस झेल रहा है और दुखी है। ऐसे भी मज़दूर हैं, यह सच है। यह भी सच है कि कला ऐसे मज़दूर का भी चित्रण कर सकती है। लेकिन एक क्रान्तिकारी कला को एक निष्क्रिय मज़दूर का चित्रण करते हुए दूसरे पहलू को भी दिखाना चाहिए, उसे विरोधाभास भी पैदा करना चाहिए जो कि परिस्थिति में मौजूद अन्तरविरोध को चिह्नित करे। निश्चित तौर पर, ऐसे मज़दूर भी होते हैं जो चुपचाप बर्दाश्त नहीं करते, बल्कि विद्रोह करते हैं। शुरू में वह विद्रोह व्यक्तिगत भी हो सकता है। लेकिन तब भी यह विद्रोह एक प्रतीक होता है, उम्मीद का और हार न मानने का।
आज पूँजीवादी शोषण और उत्पीड़न की चक्की में पिसने के बावजूद मज़दूर वर्ग बोझिल, बेचारगी से भरा हुआ या दया का पात्र नहीं है, जैसा मट्टो के किरदार को दिखाया गया है बल्कि तमाम पूँजीवादी क्षुद्रताओं के बावजूद मज़दूर हँसता भी है और दुखी भी होता है, उसे निराशा भी होती है और ग़ुस्सा भी आता है, वह कई बार हार भी मानता है और कई बार बग़ावत भी करता है। यह सच है कि आज निराशा का दौर है लेकिन कठिन निराशा-भरे दौर में भी निराशा के कारणों और निराशा को ख़त्म करने के रास्तों पर वैज्ञानिक ढंग से बात नहीं कर पाना आज के अँधेरे-काले दौर में मध्यमवर्गीय हताशा और प्रकृतिवाद को प्रदर्शित करता है। और साथ ही यह पूर्ण सच भी नहीं दिखलाता क्योंकि मौजूदा यथार्थ में ही लड़ने, हार न मानने और बग़ावत के उदाहरण भी हैं। कोई फ़िल्म मट्टो जैसे चरित्र पर ध्यान केन्द्रित करते हुए भी, समूचे चित्र को इस प्रकार पेश कर सकती है कि उसमें इन सम्भावनाओं की ओर भी इशारा हो।
कोई व्यक्ति यह कह सकता है कि प्रेमचन्द की कहानी ‘कफ़न’ में भी कोई विकल्प नहीं है। तो उसे यही कहा जा सकता है विकल्प कोई कलाकार भाषणबाज़ी करके पेश नहीं करता। उस रचना को पढ़ने के बाद पाठक के अवचेतन पर क्या प्रभाव पड़ता है, यह महत्वपूर्ण बात है। प्रेमचन्द की रचना ‘कफ़न’ को पढ़ने वाला व्यक्ति घीसू और माधव जैसे किरदारों के निर्माण के लिए व्यवस्था को दोषी मानता है या ‘सद्गति’ कहानी पढ़ने के बाद पाठक के मन पर एक आक्रोश उत्पन्न होता है।
जर्मनी के सर्वहारा नाटककार व कलाकार बेर्टोल्ट ब्रेष्ट का दौर भी निराशा से भरा हुआ दौर था लेकिन उनकी रचनाओं में तत्कालीन निराशा के साथ पाठकों को आने वाले दिनों में आशा की बातें भी मिलती हैं। ब्रेष्ट एक सच्चे सर्वहारा यथार्थवादी कलाकार थे। मट्टो का चरित्र निराशा और पराजय के बोध से ग्रस्त होकर रुदन करने वाले व्यक्ति के रूप में पेश होता है क्योंकि उसे एक हमदर्दी-भरे लेकिन एक मध्यमवर्गीय कलाकार की नज़र से देखा गया है। मज़दूर साथी भी इस फ़िल्म को देखकर निराशाबोध से ग्रस्त हो सकते हैं। कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि फ़िल्म यथास्थितिवाद पर चली जाती है। सर्वहारा यथार्थवाद के नज़रिए से यही कहा जा सकता है कि यह फ़िल्म वह दृष्टि नहीं देती जो किसी को मौजूदा हालात को बदलने या उसका विकल्प ढूँढ़ने के लिए उकसाये। निश्चित तौर पर, हम एक कलाकार की रचना से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह विकल्प ही दे डाले। फिर तो वह राजनीतिक प्रचार की सामग्री बन जायेगी, कोई कलात्मक रचना रह ही नहीं जायेगी। लेकिन यदि कोई व्यक्ति इस फ़िल्म को देखकर बहुत अधिक सोचने पर विवश नहीं हो पाता और उसकी आत्मा विकल्प के लिए छटपटाती नहीं है और वह महज़ एक हमदर्दी-भरी आह ही निकाल पाता है, तो यह उस कलात्मक रचना की कमी और उसकी समस्या है। मसलन उसे यह लग सकता है कि काश मट्टो की पुलिस अधिकारी या प्रधान जी मदद करते तो अच्छा होता।
फ़िल्म कहीं से भी पूँजीवादी व्यवस्था की लूट के ऊपर सवाल नहीं उठाती है, हालाँकि उस लूट पर अप्रत्यक्ष इशारे ज़रूर मौजूद हैं। पूँजीवाद की पूँजीवादी नज़रिए या किसी क़िस्म के मध्यवर्गीय टुटपुँजिया नज़रिए से आलोचना करने से इस व्यवस्था को कोई ख़ास दिक़्क़त नहीं है। उल्टे इससे वर्तमान व्यवस्था को टिकाए रखने में मदद ही मिलती है। मट्टो की हालत को देखकर दया भावना या ‘कुछ भी नहीं बदल सकता’ जैसी भावना उत्पन्न हो सकती है। दुखी, निराश और परेशान होना एक बात है और पराजित होना दूसरी बात। पराजयबोध बेहद ख़तरनाक होता है क्योंकि यह सपनों की ज़मीन को बंजर कर देता है। निराशा, पराजयबोध और विकल्पहीनता से युक्त आलोचना या आह-कराह करना एक क्रान्तिकारी कला के लिए पर्याप्त नहीं है और ऐसी कला पर मौजूदा शासक वर्ग और उसकी सत्ता को कोई विशेष असुविधा भी नहीं होगी। इस मामले में यह फ़िल्म एक मायने में ख़तरनाक भी है। मज़दूर वर्ग को ऐसी फ़िल्मों के बारे में आलोचनात्मक नज़रिए से सोचने की ज़रूरत है। एक तरफ़ पराजित मानस पैदा करने वाली ऐसी फ़िल्में बनती है, तो दूसरी तरफ़ पूँजीवादी व्यक्तिवाद और नायकवाद पर आधारित झूठी आशा पैदा करने वाली ‘पुष्पा’, ‘केजीएफ़’, आदि जैसी फ़िल्में। ‘मज़दूर बिगुल’ के जुलाई अंक में ‘पुष्पा’-‘केजीएफ़’ सरीखी फ़िल्मों की समीक्षा करते हुए सुहास लिखते हैं कि –
“मज़दूर वर्ग को ऐसी फ़िल्मों की ज़रूरत है जो कि मौजूदा पूँजीवादी समाज में निहित शोषण, उत्पीड़न और दमन के पहलुओं को सच्चाई के साथ उजागर करें। समस्या को सही तरीक़े से पेश करने में उसके समाधान की सम्भावनाएँ भी छिपी होती हैं। यदि किसी अन्तरविरोध को सही तरीक़े से चित्रित किया जाये, सही तरीक़े से समझा जाये तो उसके समाधान की बात को उपदेश के समान पेश करने की कोई ज़रूरत नहीं होती है और न ही कला का यह काम होता है कि हर फ़िल्म के अन्त में क्रान्ति के रास्ते की रूपरेखा पेश कर दी जाये। वास्तव में, कला का पहला कार्य है यथार्थ का ईमानदार चित्रण करना, सही प्रातिनिधिक तथ्यों की पहचान करना जो कि यथार्थ के सारतत्व को पेश करते हों। मसलन, किसी एक मज़दूर का पूँजीपति बन जाना सम्भव है और यह समूचे सामाजिक यथार्थ का हिस्सा हो सकता है। लेकिन यह सामाजिक यथार्थ का कोई प्रातिनिधिक हिस्सा नहीं है। मसलन, कोई बच्चा एक हाथ में छह उँगलियों के साथ पैदा हो, तो यह सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता है कि मनुष्यों के एक हाथ में छह उँगलियाँ होती हैं!
“पूँजीवादी कला अप्रातिनिधिक यथार्थ के किसी एक पहलू को उठाकर उसका सामान्यीकरण करती है और फिर हमें विशेष प्रकार की चाहतें, आकांक्षाएँ और सपने पालने के लिए प्रशिक्षित करती है, जो कि पूँजीपति वर्ग के लिए फ़ायदेमन्द हो। सर्वहारा वर्ग की कला समूचे सामाजिक यथार्थ के सारतत्व को पकड़ती है क्योंकि वह उसके प्रातिनिधिक पहलुओं को पकड़ती है, उनका कलात्मक अमूर्तन और सामान्यीकरण करती है। इसलिए वह सच के साथ खड़ी होती है। इसीलिए वह अन्तरविरोधों को सही रूप में पेश कर सकती है। और इसीलिए उसे अन्त में क्रान्ति के बारे में उपदेश देने की कोई आवश्यकता नहीं होती है, बल्कि अन्तरविरोधों का उसका सही और सटीक चित्रण स्वतः ही हमें अन्ततः सही दिशा में सोचने के लिए प्रेरित करता है। वास्तव में कौन सही दिशा में सोचता है या सोच सकता है, यह उस व्यक्ति की वस्तुगत सामाजिक व राजनीतिक वर्गीय अवस्थिति पर भी निर्भर करता है। लेकिन निश्चित ही सर्वहारा कला यथार्थ के एक सटीक, ईमानदार और वैज्ञानिक चित्रण के ज़रिए समाज की प्रातिनिधिक सच्चाइयों और उसके अन्तरविरोधों को समझने में हमारी मदद करती है।”

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2022


 

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