गुजरात, हिमाचल विधानसभा चुनाव और कुछ राज्यों के उपचुनावों के नतीजे
चुनावी शिकस्त देकर फ़ासीवाद को हराने के मुंगेरी लालों के हसीन सपनों पर एक बार फिर पड़ा पानी!

अपूर्व मालवीय

गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा की ऐतिहासिक जीत ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया है कि जैसे-जैसे पूँजीवादी व्यवस्था का ढाँचागत आर्थिक संकट बढ़ता जाता है वैसे-वैसे फ़ासीवाद की ज़मीन भी उर्वर और विस्तारित होती जाती है। ऐसे संकट के समय बुर्जुआ वर्ग की सार्वत्रिक आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली फ़ासीवादी ताक़तों को बुर्जुआ जनवादी चुनाव में शिकस्त देकर फ़ासिज़्म को रोकने व परास्त करने का सपना देखने वाले भारत के तमाम मुंगेरी लालों (उदारवादियों, सुधारवादियों, वामपन्थी बुद्धिजीवियों और सामाजिक जनवादियों) को अपने हसीन सपने के बारे में एकबार फिर से सोचने की ज़रूरत है।
नवम्बर-दिसम्बर महीने में गुजरात, हिमाचल विधानसभा चुनाव के साथ ही दिल्ली एम.सी.डी. चुनाव, उत्तर प्रदेश के मैनपुरी, खतौली, रामपुर और बिहार के कुढ़नी के उपचुनाव हुए। इन चुनावों में भाजपा की जीत और उसके सामाजिक आधार का विस्तार होना कोई अप्रत्याशित बात नहीं है। पूरे देश में महँगाई, बेरोज़गारी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी समस्याएँ आम मेहनतकश जनता का जीवन दूभर बनाये हुए हैं। वहीं नवउदारवादी नीतियों का चाबुक भी पूरी तीव्रता के साथ आम जनता के ऊपर पड़ रहा है। इसको देखते हुए इन चुनावों में आने वाले भावी परिणामों को भाजपा के लिए सबक़ जैसा बताया जा रहा था। वामपन्थी बुद्धिजीवियों से लेकर उदारवादियों, सामाजिक जनवादियों तक में राहुल गाँधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ को हसरत-भरी निगाहों से देखा जा रहा था कि यह यात्रा साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और हिन्दुत्व की फ़ासीवादी राजनीति के ख़िलाफ़ एक विकल्प खड़ा करने में अहम भूमिका निभायेगी। लेकिन चुनाव परिणामों ने एक बार फिर यह सिद्ध किया है कि फ़ासीवाद को चुनाव में शिकस्त देकर हराने वाले उदारवादियों और सामाजिक जनवादियों की हसरतें कभी पूरी नहीं होने वाली हैं। इन चुनाव परिणामों ने एक बार फिर यह सिद्ध किया है कि पूँजीवादी आर्थिक संकट में फ़ासीवाद की ज़मीन को उर्वर और विस्तारित होना ही है।
सबसे पहले हम चुनाव परिणामों पर एक नज़र डालते हैं : शुरुआत हिमाचल से करते हैं जहाँ पर भाजपा की हार से सन्तोष की साँस लेते हुए उदारवादियों ने कांग्रेस की जय-जयकार की है। हिमाचल की 68 विधानसभा सीटों पर इस बार कांग्रेस ने 40, भाजपा ने 25, और तीन निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की है। कांग्रेस और भाजपा के 40 और 25 के अन्तर से ख़ुश होने वाले अगर उनके वोटों के प्रतिशत का अन्तर देखें तो यह एक फ़ीसदी से भी कम है। जहाँ कांग्रेस को 18 लाख 51 हज़ार 714 वोट मिले, वहीं भाजपा को 18 लाख 13 हज़ार 177 वोट हासिल हुए। महज़ लगभग 38 हज़ार वोटों का अन्तर यह बताता है कि हिमाचल में भी जनता ने भाजपा को नकारा नहीं है। यह सच है कि हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की जीत होना भाजपा की मोदी सरकार के लिए एक झटका था। यह भी सच है कि जीत आख़िरकार जीत होती है और हार हार होती है। इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि गुजरात में यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बी टीम, आम आदमी पार्टी न होती तो कांग्रेस की स्थिति कहीं बेहतर होती। लेकिन क्या होता तो क्या हो सकता था यह भी पूँजीवादी चुनावों में पूँजी की ताक़त से तय होता है। आज भाजपा भारत के पूँजीपति वर्ग को ज़्यादा भा रही है क्योंकि अपने आर्थिक संकट से जूझ रहे पूँजीपति वर्ग को एक तानाशाहाना फ़ासीवादी पार्टी की आवश्यकता है जो कि हर प्रकार के प्रतिरोध को कुचले, मज़दूरों के अधिकारों को छीने, मुनाफ़े की दर के संकट को दूर करने के लिए मज़दूरों की मज़दूरी को कम करे, और जनता को साम्प्रदायिकता के झगड़े में धकेल दे।
उत्तर प्रदेश के मैनपुरी, खतौली, रामपुर व बिहार के कुढ़नी में भी उपचुनाव हुए। मुलायम सिंह यादव के देहान्त के बाद मैनपुरी लोकसभा का निर्वाचन क्षेत्र ख़ाली हो गया था जहाँ उनकी बहु डिंपल यादव ने यह उपचुनाव जीता। वहीं दूसरी तरफ़ मुज़फ़्फ़रनगर के खतौली विधानसभा उपचुनाव पर भाजपा प्रत्याशी की हार तात्कालिक है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का यह क्षेत्र पहले भी भाजपा का गढ़ रहा है। यह सीट भाजपा विधायक विक्रम सिंह सैनी को 2013 में हुए मुज़फ़्फ़रनगर दंगों से जुड़े एक मामले में सज़ा सुनाये जाने के कारण उसकी सदस्यता रद्द होने से ख़ाली हो गयी थी। इस उपचुनाव में सपा गठबन्धन के सहयोगी राष्ट्रीय लोकदल के प्रत्याशी मदन भैया को जीत मिली, जिन्होंने 22 हज़ार 143 मतों से भाजपा प्रत्याशी व विक्रम सिंह सैनी की पत्नी राजकुमारी सैनी को हराया। इस सीट पर भाजपा की पकड़ इतनी मज़बूत थी कि राष्ट्रीय लोकदल के प्रमुख जयन्त चौधरी ने लोगों के घर-घर जाकर पर्चियाँ तक बाँटी। फ़िलहाल, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में धनी किसान व कुलकों के बीच हुआ साम्प्रदायिकीकरण का पहलू आर्थिक संकट और बेरोज़गारी के पहलू के मुक़ाबले तात्कालिक तौर पर हलका पड़ गया। लेकिन इसका अर्थ कोई यह अपने नुक़सान पर ही निकाल सकता है कि यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा की निर्णायक हार है। यह बाज़ी 2024 आने तक नये सिरे से किये जाने वाले साम्प्रदायिकीकरण से फिर से पलट सकती है।
रामपुर विधानसभा का उपचुनाव फ़ासीवादी गुण्डागर्दी का जीता जागता एक उदाहरण बना। मुस्लिम-बहुल इलाक़े वाली इस सीट पर भाजपा के प्रत्याशी को जीत मिली। इस चुनाव में लोगों ने यहाँ तक शिकायत की कि योगी की पुलिस और भाजपाई गुण्डों ने लोगों को अपने गली-मुहल्लों से निकलकर वोट डालने के लिए जाने ही नहीं दिया। इस विधानसभा उपचुनाव में सबसे कम 33.8 फ़ीसदी वोट ही पड़े। यह क्षेत्र सपा विधायक आज़म ख़ान का गढ़ माना जाता है। उत्तर-प्रदेश की योगी सरकार लम्बे समय से आज़म ख़ान के पीछे पड़ी हुई है। 2019 के एक नफ़रती भाषण के सिलसिले में आज़म ख़ान को दोषी ठहराया गया और बाद में उनकी सदस्यता चली गयी। इसी साल रामपुर लोकसभा उपचुनाव को भी भाजपा ने जीता और उसके बाद विधानसभा उपचुनाव।
बिहार का कुढ़नी विधानसभा उपचुनाव भी भाजपा ने ही जीता। यहाँ भाजपा के केदार प्रसाद गुप्ता ने जदयू के प्रत्याशी को हराया। दिल्ली एम.सी.डी. के चुनाव में आम आदमी पार्टी ने बहुमत हासिल किया। दिल्ली के 250 वार्डों में आप के 134, भाजपा 104, कांग्रेस के 9 और तीन निर्दलीय पार्षद चुने गये। इसमें आप और भाजपा के वोट प्रतिशत का अन्तर तीन फ़ीसदी से भी कम रहा। जहाँ आप को 42.5 फ़ीसदी वोट मिले, वहीं भाजपा को 39.3 तथा कांग्रेस को महज़ 11.6 फ़ीसदी वोट ही मिले। जहाँ तक आम आदमी पार्टी की राजनीति और विचारधारा का सवाल है तो यह वही पार्टी है जिसका नेता यह कहता है कि ‘हम हिन्दू हैं तो हिन्दुत्व की ही तो बात करेंगे’! यह उत्तराखण्ड को सभी हिन्दुओं की आध्यात्मिक राजधानी बनाना चाहता है और नोटों पर गणेश-लक्ष्मी की तस्वीर छपवाना चाहता है! इस बार के गुजरात चुनाव में अपने प्रत्याशी उतारने के बावजूद भी इसने कभी ‘गुजरात 2002’ की चर्चा नहीं की। गुजरात चुनाव के ठीक पहले बिलकिस बानो के बलात्कारियों और दंगाइयों की रिहाई पर इसने एक शब्द भी नहीं बोला। उदारवादियों, सामाजिक जनवादियो, वामपन्थी बुद्धिजीवियों को ‘साफ़-सुथरा’ दिखाई देने वाला यह फ़र्ज़ीवाल फ़ासीवादियों की बी टीम के अलावा और कुछ नहीं है। जिन नवउदारवादी नीतियों से आज पूरे देश की अर्थव्यवस्था और आम मेहनतकश जनता का जीवन तबाह-बर्बाद हो गया है, उन नीतियों पर भी केजरीवाल को कोई आपत्ति नहीं है। बिजली, पानी, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे उछालकर और एक साफ़-सुथरे यूटोपियाई पूँजीवाद का सपना दिखाकर वह एक खाते-पीते अराजनीतिक विचारहीन मध्यवर्ग और टुटपुँजिया वर्ग में यह भ्रम फैलाने में कामयाब हुआ है कि पूँजीवादी व्यवस्था तो ठीक है, बस कुछ “साफ़-सुथरे” लोग राजनीति में आने चाहिए! आज यह बात भी साफ़ होती जा रही है कि फ़्री बिजली भी एक धोखा ही है। जनता को वास्तव में फ़्री बिजली देने का अर्थ है बिजली के उत्पादन से लेकर उसके वितरण की पूरी व्यवस्था सरकार के हाथ में हो, निजीकरण पूरी तरह से समाप्त हो। लेकिन दिल्ली में 2014 में सरकार बनाने के बाद केजरीवाल ने बिजली के निजीकरण को समाप्त करने के बजाय, बिजली के बिल का एक हिस्सा टाटा व अम्बानी जैसी निजी बिजली वितरण कम्पनियों को सरकारी ख़ज़ाने से देना शुरू कर दिया। लेकिन सरकारी ख़ज़ाने में धन स्वयं जनता पर लगाये गये करों से ही आता है। नतीजतन, जो सब्सिडी बिजली के बिलों पर दी गयी है उसकी क़ीमत भी जनता से ही वसूली जा रही है। वहीं दिल्ली में धनी दुकानदारों, कारख़ाना मालिकों व तमाम व्यवसायियों को सेल्स टैक्स से लेकर श्रम विभाग के छापों से पूर्ण रूप से छूट देकर केजरीवाल ने मज़दूरों को लूटने और टैक्स चोरी करने की पूरी छूट दिल्ली के पूँजीपतियों को दे दी है। यही तो वजह है कि दिल्ली के पूँजीपतियों का नारा है : ‘दिल्ली में केजरीवाल, भारत में मोदी’!
इस फ़र्ज़ीवाल की राजनीतिक कलई और वैचारिक पक्षधरता की लंगोट कई बार खुल चुकी है। लेकिन उदारवादियों, वामपन्थी बुद्धिजीवियों और सामाजिक जनवादियों को कुछ दिखता ही नहीं है और न ही ये देखना चाहते हैं। बुर्जुआ चुनावी संसदीय जनतंत्र का इतना मोटा चश्मा इन्होंने पहन रखा है कि भारत के हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद को चुनाव से ही ध्वस्त करेंगे चाहे चुनाव में हिन्दुत्व की बी टीम को ही क्यों न खड़ा करना पड़े। ऐसे में यह समझने की ज़रूरत नहीं है कि दिल्ली एम.सी.डी. चुनाव में ‘आप’ की जीत हिन्दुत्व की राजनीति की हार है। बल्कि यह उसके सामाजिक जनाधार को विस्तारित ही करती है। अब आते हैं गुजरात में भाजपा की ऐतिहासिक जीत पर :
भारत में हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद की ज़मीन और उसके सामाजिक आधार के विस्तार को समझने के लिए गुजरात एक मॉडल है। गुजरात चुनाव प्रचार में भाजपा और उसके नेताओं ने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, अन्धराष्ट्रवाद और मोदी के विकास मॉडल जैसे भाषणों को ख़ूब हवा दी। यहाँ तक कि चुनाव से ठीक पहले बिलकिस बानो के बलात्कारियों को रिहा कर दिया गया। नरोदा पाटिया में दंगे के दोषी मनोज कुकरानी की बेटी पायल कुकरानी को टिकट दिया गया और उसने सबसे ज़्यादा वोटों से जीत भी हासिल की। गुजरात विधानसभा की 182 सीटों पर इस बार भाजपा ने 156 सीटों पर जीत दर्ज की। गुजरात विधानसभा के इतिहास में यह किसी पार्टी की अबतक की सबसे बड़ी जीत है। पिछली बार की 77 सीटों के मुक़ाबले इस बार कांग्रेस 17 सीटों पर सिमट कर रह गयी। वहीं आम आदमी पार्टी ने भी 5 सीटें जीतकर गुजरात में अपना खाता खोल दिया है। बहुत-सी सीटों पर भाजपा की जीत का कारण आम आदमी पार्टी द्वारा संघियों की बी टीम के समान भाजपा विरोधी वोटों को बाँटना रहा, इसमें कोई शक की गुंजाइश नहीं है।
गुजरात में जहाँ एक तरफ़ साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण सबसे ज़्यादा है, वहीं दूसरी तरफ़ भूख, कुपोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी समस्याएँ देश के कई राज्यों से ज़्यादा ख़राब हैं। मोरबी में इतना बड़ा पुल हादसा होने के बाद जहाँ सैकड़ों लोगों ने अपनी जान गँवायी, वहाँ भी भाजपा की ही जीत हुई। यहाँ साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का मामला इस क़दर गम्भीर है कि विपक्षी पार्टियाँ भी इस मुद्दे पर बोलने से बचती हैं। बिलकिस बानो प्रकरण पर राहुल गाँधी का बयान आया लेकिन वहीं गुजरात की पूरी कांग्रेस कमेटी इसपर चुप्पी साधे हुए थी। वैसे भी देखा जाये तो कांग्रेस की राजनीति भी शुरू से ही नरम हिन्दुत्व कार्ड खेलने की रही है। 2002 के दंगों के बाद 2004 से 2014 तक केन्द्र में कांग्रेस की सरकार रही लेकिन कांग्रेस ने कभी गुजरात दंगों के असली गुनहगारों को सज़ा दिलाने की कोशिश नहीं की।
गुजरात में हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद की प्रयोगशाला बनने की भौतिक ज़मीन भी मौजूद है। गुजराती समाज के ताने-बाने में औद्योगिक पूँजीपति, व्यापारिक पूँजीपति, धनी किसानों-फ़ार्मरों का सपोर्ट बेस बहुत बड़ा है। इसके साथ ही आर.एस.एस. ने तृणमूल स्तर पर दलितों-आदिवासियों को भी अपने संगठन में संगठित करने का काम किया है। गुजरात की सवा छः करोड़ की आबादी में से पौने दो करोड़ प्रदेश के पाँच शहरों अहमदाबाद, बड़ौदा, राजकोट, सूरत और भावनगर में रहती है। 90 के दशक में जब आरक्षण विरोधी आन्दोलन ने ज़ोर पकड़ा तो भाजपा ने इन्हीं शहरों मे अपना आधार बनाया, जहाँ पटेल, बनिया, जैन और ब्राह्मणों का प्रभाव ज़्यादा था। बाद में आर.एस.एस. के अनुषंगी संगठन ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ ने आदिवासियों के बीच काम करना शुरू किया और उनके बीच हिन्दुत्व की राजनीति को लेकर गये। पिछले लगभग तीन दशकों से भाजपा और आर.एस.एस. ने तृणमूल स्तर से जो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की नींव खोद रखी है उसने गुजराती समाज के बहुसंख्यक हिन्दुओं को यह मिथ्या चेतना देने का काम किया है कि “हिन्दुत्व की राजनीति में ही हिन्दू सुरक्षित हैं”। चुनाव प्रचार में अमित शाह ने यूँ ही नहीं कहा कि “2002 में जब एक बार सबक़ सिखाया तबसे शान्ति है”। इस “शान्ति” के दो मायने हैं। एक यह कि यह उसी ‘मिथ्या चेतना’ की अभिव्यक्ति है, जिसके अनुसार 2002 के पहले “शान्ति” नहीं थी यानी हिन्दू सुरक्षित नहीं थे, और दूसरी यह कि ऐसी “शान्ति” पूरे देश में लाने की ज़रूरत है।
इन चुनावों ने फिर यह दिखला दिया है कि फ़ासीवाद को चुनाव में शिकस्त देकर नहीं रोका जा सकता। फ़ासीवाद तृणमूल स्तर से खड़ा किया हुआ निम्न बुर्जुआ वर्ग का धुर प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन है जो वित्तीय और एकाधिकारी पूँजी की सेवा करता है। संघ परिवार का काडर आधारित सांगठनिक ढाँचा इस प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन का हरावल दस्ता है। इसका कारगर प्रतिरोध एक क्रान्तिकारी सामाजिक आन्दोलन ही कर सकता है, जिसपर मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी राजनीति का वर्चस्व एक काडर आधारित सांगठनिक ढाँचे के माध्यम से स्थापित हो। इसके अलावा चुनावों में हराकर इसे रोकने का सपना देखना ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपने’ से ज़्यादा और कुछ नहीं है। चुनावों में यदि भाजपा हारे भी तो यह भारत में साम्प्रदायिक फ़ासीवाद की अन्तिम पराजय नहीं होगी। फ़ासीवाद को आख़िरी तौर पर कुचलने का काम देश का सर्वहारा वर्ग समूची मेहनतकश जनता को अपनी अगुवाई में लेकर ही कर सकता है।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2023


 

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