लगातार होती छँटनी और गहराता आर्थिक संकट

आकाश

एक तरफ़ देश के पूँजीपतियों की दौलत अनन्त गति से बढ़ रही है वहीं दूसरी तरफ़ जनता छँटनी और बेरोज़गारी के रसातल में धँसती चली जा रही है। 2008 की विश्वव्यापी मन्दी से उबरने के लिए पूँजीवादी नीम हकीमों और हुक्मरानों ने जो उपाय दिये थे उसी के गर्भ में आनेवाले समय के भीषण संकट का बुलबुला पल रहा था। आज यह बुलबुला बड़ा होकर अपनी सन्तृप्ति तक पहुँच चुका है और यह अब फूटने के कगार पर खड़ा है। दुनियाभर की तमाम बड़ी कम्पनियों ने बड़े पैमाने पर छँटनी का ऐलान किया है।
पिछले साल (2022) में दुनिया की 50 बड़ी कम्पनियों ने नब्बे हज़ार से ज़्यादा कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया। दुनियाभर से तमाम सी.ई.ओ. और बुर्जुआ अर्थशासत्री तक भी लगातार कह रहे हैं कि अभी हालात और भी बिगड़ने वाले हैं। हमारा देश भी इससे अछूता नहीं है। हाल ही में फ़ूड डिलीवर करने वाली देश की दो बड़ी कम्पनियों स्विगी और ज़ोमैटो ने छँटनी का ऐलान किया है। पिछले साल नवम्बर में ज़ोमैटो ने अपने तीन प्रतिशत कर्मचारियों की छँटनी का ऐलान किया था। इस समय तक ज़ोमैटो में 3800 से ज़्यादा कर्मचारी काम कर रहे थे। ज़ोमैटो के इस ऐलान के कुछ ही दिन बाद स्विगी ने भी 250 कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया। वैसे तो पूँजीवादी व्यवस्था में ऐसी घटनाएँ आम हैं। लेकिन आज यह एक या दो कम्पनियों की बात नहीं है। साल 2022 में ही कई टेक और एडटेक कम्पनियाँ बड़े पैमाने पर छँटनी कर चुकी हैं, जो अब भी बदस्तूर जारी है। अक्टूबर में एडटेक कम्पनी बाइजू ने ऐलान किया कि आनेवाले 6 महीने में 2500 कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाया जायेगा। इसके पहले अनएकेडमी पहले 1000 फिर 350 कर्मचारियों को और वेदान्तु 1100 कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा चुकी थी। इसके अलावा पिछले साल चार्जबी, कोर्स 24, लेड, ओला, मेजो समेत देश की 52 बड़ी स्टार्टअप कम्पनियाँ कुल 17,989 कर्मचारियों की छँटनी कर चुकी हैं।
एक तरफ़ जहाँ फ़ासिस्ट मोदी सरकार पकौड़ा तलने को रोज़गार बताकर स्टार्टअप की बात करती है, वहीं हालत यह हो गयी है कि 10 प्रतिशत स्टार्टअप भी सफल नहीं हो पा रहे। स्किल इण्डिया, स्टार्टअप इण्डिया जैसी योजनाओं की हालत दयनीय हो चुकी है। सी.एम.आई.ई. की रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल सितम्बर में बेरोज़गारी दर 6.43 प्रतिशत थी। अक्टूबर में यह बढ़कर 7.77 प्रतिशत पर पहुँच गयी। दिसम्बर में आयी रिपोर्ट के अनुसार यह आँकड़ा बढ़कर 8.1 को भी पार कर गया। इसमें अगर शहरी क्षेत्र की बात करें तो शहरी क्षेत्र में दिसम्बर में बेरोज़गारी दर 8.96 प्रतिशत है जबकि ग्रामीण क्षेत्र में यह 7.55 प्रतिशत है। इन आँकड़ों से साफ़ हो जाता है कि शहरी क्षेत्रों में जहाँ स्टार्टअप की संख्या ज़्यादा है बेरोज़गारी दर बेहद ही ख़राब हालत में है। अगर हम अलग-अलग राज्यों की बात करें तो कुछ राज्यों में बेरोज़गारी दर देश की औसत बेरोज़गारी दर से भी बेहद ख़राब है। इसमें 30.6 प्रतिशत के साथ सबसे ख़राब हालत हरियाणा की है। राजस्थान में यह 24.5 प्रतिशत, जम्मू-कश्मीर में 23.9 प्रतिशत, बिहार में 17.3 प्रतिशत और त्रिपुरा में 14.5 प्रतिशत है। इन आँकड़ो से साफ़ पता चलता है कि आज देश किस भीषण मन्दी की ओर बढ़ रहा है। सरकार द्वारा बेरोज़गारी के तमाम आँकड़ो को छुपाने की तमाम कोशिशों के बावजूद अर्थव्यवस्था की हालत ही इतनी ख़राब है कि यह छुपाये नहीं छुपती। आर.बी.आई. की मानें तो अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर आते आते कम से कम 12 साल लगेंगे (RCF 2021-22)।
आर्थिक संकट बुर्जुआ समाज की अपरिहार्य परिघटना है। पूँजीपति मुनाफ़े की हवस में मज़दूरों की हड्डियाँ तक निचोड़ कर उनसे काम करवाते हैं। वे ज़्यादा से ज़्यादा अधिशेष हड़पने की कोशिश करते हैं। साथ ही पूँजीपतियों के बीच आपसी गलाकाटू प्रतिस्पर्धा भी होती है। लेकिन पूँजीपति को तो मुनाफ़े की हवस होती है और इसी हवस को मिटाने की आपसी होड़ के कारण उसे अपना माल बाज़ार में सस्ते से सस्ते में बेचना होता है। हम जानते हैं कि मुनाफ़े का स्रोत बेशी मूल्य है जो केवल जीवित श्रम से ही पैदा होता है। पूँजीपति मज़दूर की श्रमशक्ति ख़रीदता है जिसे वह कम से कम करने की कोशिश करता है ताकि श्रम की उत्पादकता को मशीनों के ज़रिए बढ़ा सके, अपने माल की लागत को कम कर सके और अपने प्रतिस्पर्द्धी पूँजीपतियों को क़ीमतें गिराने की प्रतिस्पर्द्धा में पीटकर उनके मुक़ाबले बेशी मुनाफ़ा ज़्यादा से ज़्यादा निचोड़ सके। लेकिन चूँकि नया मूल्य जीवित श्रम द्वारा ही पैदा होता है और चूँकि जीवित श्रम के मुक़ाबले मृत श्रम (मशीनों, कच्चे मालों के मूल्य) की मात्रा प्रति इकाई माल बढ़ती जाती है, इसलिए समूची अर्थव्यवस्था के स्तर पर अन्ततः मुनाफ़े की औसत दर ठीक उन्हीं तरकीबों के कारण गिरती जाती है जिन्हें अलग-अलग पूँजीपति अधिक से अधिक बेशी मुनाफ़ा कमाने के वास्ते अपनाते हैं। तात्कालिक तौर पर यह प्रक्रिया ज़रूर उसे कुछ मुनाफ़ा बढ़ाने का मौक़ा देती है मगर एक लम्बे दौर में यही पूँजीवादी व्यवस्था में मुनाफ़े की औसत दर के गिरने का कारण बनती है। जब मुनाफ़े की दर गिरती है तो उस क्षेत्र में पूँजीपति निवेश कम कर देता है और फलस्वरूप छँटनी और तालाबन्दी की प्रक्रिया शुरू होती है। मज़दूरों को चाय में पड़ी मक्खी की तरह निकालकर फेंक दिया जाता है। यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक कि उत्पादक शक्तियों के पर्याप्त विनाश के कारण लाभप्रद निवेश के नये अवसरों के पैदा होने और बढ़ती बेरोज़गारी के कारण गिरती औसत मज़दूरी के ज़रिए मुनाफ़े की औसत दर वापस स्वस्थ दरों पर नहीं पहुँच जाती है। लेकिन इसी प्रक्रिया में सामाजिक असन्तोष भी अपने चरम पर पहुँचता है, जो कि किसी क्रान्तिकारी पार्टी की मौजूदगी में सामाजिक क्रान्ति का कारण भी बन सकता है। लेकिन यदि ऐसा नहीं होता तो पूँजीवादी व्यवस्था उत्पादक शक्तियों के व्यापक विनाश और औसत मज़दूरी को गिराकर अपने मुनाफ़े की औसत दर को वापस ऊपर ले जाती है और फिर से वही चक्र शुरू होता है : तेज़ी, औसत गतिविधि, संकट और ठहराव।
आज हम आर्थिक मन्दी के उसी दौर के साक्षी बन रहे हैं। लगातार तालाबन्दी और बड़े पैमाने पर छँटनी बदस्तूर जारी है। मौजूदा रूस-यूक्रेन युद्ध वास्तव में साम्राज्यवादी युद्ध है जो कि इसी संकट का परिणाम भी है और तात्कालिक तौर पर इस संकट को तीव्र भी कर रहा है। दुनिया के अधिकांश देशों की अर्थव्यव्स्था पहले ही मन्दी की चपेट में थी, कोविड और लॉकडाउन ने इसमें और भी बढ़ोत्तरी की थी और रूस-यूक्रेन युद्ध ने सोने पर सुहागा कर दिया है। भारत में तो यह प्रक्रिया नोटबन्दी से ही शुरू हो गयी थी। मौजूदा साम्राज्यवादी युद्ध के कारण, दुनियाभर में कई मालों की सप्लाई चेन बाधित हुई हैं और माँग एवम् आपूर्ति असन्तुलन पैदा हुआ है। इसके कारण महँगाई और भी ज़्यादा बढ़ी है और संकट को बढ़ावा दे रही हैl आज दुनियाभर की पूँजीवादी सरकारें संकट से कराह रहे पूँजीपति वर्ग को राहत देने के लिए ही मज़दूरों के हक़ों को कुचलकर अपने आक़ा पूँजीपतियों के मुनाफ़े को बढ़ाने की कोशिशों में लगी हैं। मोदी सरकार द्वारा लाये जाने वाले ‘4 लेबर कोड’ भी उसी का एक उदहारण है।
लेकिन साथ ही मज़दूर वर्ग भी चुप नहीं है। मज़दूर भी लगातार अपने हक़ के लिए अपनी आवाज़ उठा रहे हैं। दुनिया के कोने-कोने में अपने माँगों को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन आज उनके संघर्ष बिखरे हुए हैं और उनमें एक राजनीतिक नेतृत्व और संगठन का अभाव है। इस कमी को पूरा करके ही मज़दूर वर्ग का वर्ग संघर्ष पूँजीवादी व्यवस्था को नेस्तनाबूद करने की शक्ति अर्जित कर सकता है और समूची मेहनतकश जनता को इस कार्यभार को पूरा करने में नेतृत्व दे सकता है। आज हम मज़दूरों को एक बात समझने की ज़रूरत है कि बेरोज़गारी पूँजीवादी समाज की एक लाइलाज बीमारी है क्योंकि पूँजीपतियों को लगातार बेरोज़गारों की एक रिज़र्व फ़ौज की ज़रूरत होती है। आज हमें इस व्यवस्था में रहकर सिर्फ़ अर्थवादी लड़ाई तक सीमित नहीं रहना है बल्कि व्यवस्थित तरीक़े से और संगठित तौर पर मुनाफ़े पर केन्द्रित इस पूँजीवादी व्यवस्था का विनाश करके, एक समाजवादी समाज का निर्माण करना ही हमारा कार्यभार है।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2023


 

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