मिथकों को यथार्थ बनाने के संघ के प्रयोग

भारत

‘आदिपुरुष’ के रिलीज़ होने के बाद से लगातार इस फिल्म की आलोचना हो रही है कि राम कथा को “गेम ऑफ़ थ्रोंस” टाइप बनाकर रख दिया। डायलॉग जो मनोज मुंतशिर द्वारा लिखे गये हैं, उसपर भी फिल्म की थू-थू हो रही है। सब कह रहे हैं कि इससे अच्छी तो रामानन्द सागर कृत ‘रामायण’ थी, जिसने बिल्कुल ऐतिहासिकता (!!??) के साथ रामायण को दिखाया! इस मसले पर सारे संघी और लिबरल एकजुट हैं और एकसाथ ‘आदिपुरुष’ का विरोध कर रहे हैं और पुराने ‘रामायण’ सीरियल के गुणगान गा  रहे हैं। थोड़ा बहुत रेडिकल तेवर दिखाते हुए कुछ लिबरल यह कह रहे हैं कि अब क्यों नहीं इस फिल्म का बॉयकॉट किया जा रहा! इस फिल्म के बायकॉट न होने के पीछे असल कारण है मनोज मुंतशिर का भाजपा और संघ से अच्छे सम्बन्ध होना और फिल्म के तमाम डायलागों द्वारा मौजूदा ‘लव जिहाद’ आदि की नौटंकी को हिन्दू आबादी में हवा देने का प्रयास करना। फिल्म रिलीज़ होने से पहले भाजपा के कई मुख्यमंत्रियों ने फिल्म को शुभकामनाएँ दी थी। इसलिए अभी सारे अण्डभक्त कन्फ्यूज हैं कि इस फिल्म से अपनी भावनाओं को आहत करें या न करें!

पर वहीं दूसरी तरफ़ कई लोग इस बात पर एकमत हैं कि ‘रामायण’ भारत का इतिहास है, जिसे रामानन्द ने अच्छे से फिल्माया। रामानन्द सागर फिल्मित ‘रामायण’ भी ‘वाल्मीकि रामायण’ का एक भौंडा संस्करण है। और वाल्मीकि रामायण भी कोई इतिहास का दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि एक लोककथा पर आधारित है, जो प्राचीनकाल में ‘राम दसरथी’ के नाम से प्रचलित थी। लेकिन यहीं संघ का प्रोपेगेंडा काम कर रहा है। यानी मिथक को इतिहास बनाकर पेश करना। वाल्मीकि रामायण मिथकों पर आधारित महाकाव्य है, वाल्मीकि द्वारा जो रामकथा प्रस्तुत की गयी है, उसके लिए कोई ऐतिहासिक आधार उपलब्ध नहीं है। पर जैसा कि हर दौर का साहित्य, उस दौर के समाज के बारे में बताता है, उसी प्रकार रामायण से उस दौर के समाज के बारे में एक हद तक जान सकते हैं, साहित्यिक व ऐतिहासिक आलोचना के वैज्ञानिक उपकरण के द्वारा। मगर स्वयं ये साहित्यिक रचनाएँ हैं, ऐतिहासिक लेखन या दस्तावेज़ नहीं।

आइए, अब संक्षेप में जानते हैं कि कैसे रामायण इतिहास नहीं है! वाल्मीकि का समय हमें ज्ञात नहीं है, पर यह कहा जा सकता है कि आज से क़रीब डेढ़ हज़ार वर्ष पूर्व (लगभग 300-500 ई.) के अन्त का समय उनकी रामायण का आधार रहा होगा। गुप्त काल से पहले वाल्मीकि रामायण का स्वरूप कैसा रहा होगा, यह जानने के लिए फ़िलहाल कोई ठोस साधन नहीं हैं। रामायण की जितनी भी हस्तलिपियाँ मिली हैं, एक हज़ार साल से अधिक पुरानी नहीं हैं। रामायण की सबसे पुरानी हस्तलिपि 1020 ई. की है, जो नेपाल से प्राप्त हुई। रामायण में समय समय पर नयी-नयी बातें जोड़ी जाती रही हैं, इसलिए उपलब्ध हस्तलिपियों में ढेर सारे पाठान्तर देखने को मिलते हैं। वाल्मीकि ने मूल कथा में बहुत सारी काल्पनिक घटनाओं, मिथकों और कल्पित पात्रों का समावेश कर अपने महाकाव्य की रचना की। बाद में कथाकारों, कीर्तनकारों, चारणों, भाटों और पौराणिकों ने वाल्मीकि की उस रामकथा में अनेकों बातें जोड़ीं।

रामानन्द कृत रामायण भी वाल्मीकि रामायण का अनूदित परिवर्द्धित और संशोधित संस्करण है। गुप्तकाल में वाल्मीकि रामायण का जो स्वरूप बना, उसके आधार पर बाद में कई कृतियों की रचना हुई। कालिदास ने रघुवंशम् काव्य की रचना की। उसके क़रीब तीन-चार सदियों बाद भवभूति ने उत्तररामचरित की रचना की। उत्तर भारत में तुलसीदास के रामचरित को और दक्षिण भारत के कम्बन की रामकथा को सबसे ज़्यादा प्रसिद्धि मिली। 2008 में दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल किये गये रामानुजन के निबन्ध ‘300 रामायणाज़’ को लेकर संघियों ने बवाल किया था। रामानुजन ने इस निबन्ध में साक्ष्यों के ज़रिए दिखाया था कि भारत में रामायण के लगभग 300 संस्करण प्रचलित हैं।

राम के बारे में कहा जाता है कि वे कृष्ण से पहले त्रेता युग में हुए। सम्भव है कि अयोध्या या कोसल के इक्ष्वाकु कुल में दशरथ पुत्र राम कोई ऐतिहासिक पुरुष सचमुच हुए हों, परन्तु वाल्मीकि ने अपने काव्य में जो रामकथा प्रस्तुत की है, उसके लिए फिलहाल गुप्तकाल से पहले का कोई ऐतिहासिक या पुरातात्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। साथ ही समूचे वैदिक वाङमय में एक देवता के रूप में राम का कोई स्पष्ट नामोल्लेख नहीं है। उपनिषदों में विदेहराज जनक की पर्याप्त चर्चा है, पर दशरथ के नाम का उल्लेख नहीं मिलता। पाणिनी और महाभाष्यकार पतंजलि ने महाभारत के अनेकों पात्रों के उदाहरण दिये हैं, पर इन वैयाकरणों ने राम का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया। गुप्तकाल से पहले का राम का कोई मन्दिर या मूर्तिशिल्प नहीं मिलता। तमाम तथ्यों और तर्कों से यह बात सिद्ध की जा सकती है कि राम कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं हैं, रावण की लंका और सागर पर सेतु बाँधना भी कवि की कपोल कल्पना है।

हर सभ्यता के अपने महाकाव्य रहे हैं और उनके महानायक रहे हैं, चाहे वो यूनानी सभ्यता प्रमुख देवता ज़ियस थे जिसे आकाश देवता कहा जाता था, या हरक्यूलिस हो जिसे ग्रीक मिथक में महानायक माना गया है। हर सभ्यता के इतिहास को देखें तो उसके प्राचीन साहित्य में, महाकाव्यों में इस प्रकार के चरित्र मिलेंगे, जिनका आधार उस दौर का समाज और सभ्यता ही होते हैं, मगर उसके तमाम चरित्र वास्तव में कोई ऐतिहासिक चरित्र नहीं होते। इसी तरह महाभारत, रामायण भी हमारे देश के महान महाकाव्य हैं और उन पर साहित्यिक रचनाओं के रूप में ही विचार किया जा सकता है। निश्चित ही, उनमें इन महाकाव्यों को रचने वालों के विचारधारात्मक पूर्वाग्रह भी प्रकट होते ही हैं, जिस प्रकार ग्रीक त्रासदी के रचनाकारों के विचारधारात्मक व राजनीतिक पूर्वाग्रह ग्रीक त्रासदियों में प्रकट होते थे। लेकिन केवल उनमें मौजूद शासक वर्ग के दृष्टिकोण के आधार पर ही उन्हें साहित्यिक तौर पर ख़ारिज नहीं किया जा सकता है। यह सर्वहारा वर्ग के ऐतिहासिक नज़रिये और ज्ञान के विभिन्न रूपों के प्रति उसके वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विपरीत है। बहरहाल, रामायण व महाभारत जैसे इन महाकाव्यों को आज क्यों इतिहास की तरह पेश किया जा रहा है, इसके पीछे का मक़सद क्या है? आइए जानते हैं!

इतिहास का निर्माण जनता करती है। फ़ासिस्ट ताक़तें जनता की इतिहास-निर्मात्री शक्ति से डरती हैं। इसलिए वे न केवल इतिहास के निर्माण में जनता की भूमिका को छिपा देना चाहती हैं, बल्कि इतिहास का ऐसा विकृतिकरण करने की कोशिश करती हैं जिससे वह अपनी विचारधारा और राजनीति को सही ठहरा सकें। संघ परिवार हमेशा से ही इतिहास का ऐसा ही एक फ़ासीवादी कुपाठ प्रस्तुत करता रहा है। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस की घटना इस फ़ासीवादी मुहिम की एक प्रतीक घटना है। लम्बे समय तक जनता के बीच में यह मिथ्या प्रचार करके कि बाबरी मस्जिद को एक प्राचीन मन्दिर को तोड़कर बनाया गया है और यह उसी जगह पर बनी है जहाँ पर राम का जन्म हुआ था, फ़ासिस्टों ने देशव्यापी आन्दोलन खड़ा किया। पूरे देश में बड़े पैमाने पर दंगे हुए और लोगों की लाशों को रौंदता हुआ फ़ासिस्टों का रथ अपनी मंज़िल तक तब पहुँचा, जब कोर्ट ने तमाम पुरातात्विक साक्ष्यों और तथ्यों को दरकिनार करते हुए इस आधार पर फ़ासिस्टों के पक्ष में फ़ैसला दिया कि बहुसंख्यक हिन्दू यह मानते हैं कि उक्त स्थान पर राम का जन्म हुआ था, इसलिए यही सच होगा!

संचार-क्रान्ति के इस दौर में पूँजी का वरदहस्त पाकर संघी फ़ासीवादियों ने इतिहास के विकृतिकरण की अपनी मुहिम को नया आयाम दिया है। फ़िल्मों, टीवी चैनलों से लेकर फ़ेसबुक, व्हाट्सएप और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया के हर पहलू पर आज फ़ासिस्टों का बोलबाला है। आरएसएस से जुड़े फ़िल्मकार अपनी फ़िल्मों में इतिहास के सही तथ्यों को उलटकर पेश कर रहे हैं। जानबूझकर इतिहास में छेड़खानी करते हुए फ़िल्मों में मुसलमानों को दुश्मन के रूप में पेश करने, टीवी चैनलों पर इतिहास के फ़ासीवादी संस्करण पर आधारित सीरियल दिखाये जाने जैसी बातें आम हो चुकी हैं। दिन-रात विषवमन करते हज़ारों यूट्यूब चैनल दिन-रात युवाओं की बहुत बड़ी आबादी के दिमाग़ में ज़हर घोल रहे हैं। भारत के फ़ासीवादी विगत एक शताब्दी में एक लम्बी प्रक्रिया में देश की हिन्दू आबादी के बड़े हिस्से में मिथकों को कॉमन सेंस (‘सामान्य बोध’) के रूप में स्थापित करने के लिए लगातार प्रयासरत रहे हैं और काफ़ी हद तक इसमें सफलता भी प्राप्त की है। कल्पित अतीत के गौरव की वापसी का एक धार्मिक-भावनात्मक प्रतिक्रियावादी स्वप्न “रामराज्य” की स्थापना और भारत को विश्वगुरु बनाने जैसे नारों के रूप में संघी फ़ासिस्टों ने देश की हिन्दू आबादी के बड़े हिस्से में भरा है। भारतीय समाज के ताने-बाने में तर्कणा, वैज्ञानिक चिन्तन और जनवाद का अभाव आरएसएस के फ़ासीवादी एजेण्डे के लिए उर्वर ज़मीन का काम करता है।

हमारे देश में पूँजीवादी लोकतंत्र पुनर्जागरण-प्रबोधन-क्रान्ति की एक लम्बी ऐतिहासिक प्रक्रिया के नतीजे के तौर पर नहीं स्थापित हुआ। आज़ादी के बाद भारत में नेहरू के नेतृत्व में क्रमिक पूँजीवादी विकास का रास्ता चुना गया। पूँजीवादी विकास अपनी स्वाभाविक गति से ग्रामीण और शहरी निम्न पूँजीपति वर्ग और मध्यवर्ग की एक आबादी को उजाड़कर असुरक्षा और अनिश्चितता की तरफ़ धकेलता रहता है। असुरक्षा और अनिश्चितता की यह स्थिति इस टुटपुँजिया वर्ग में प्रतिक्रियावाद की ज़मीन तैयार करती है। यह प्रतिक्रियावादी ज़मीन और जनमानस में जनवाद, तर्कणा और वैज्ञानिक चिन्तन की कमी टुटपुँजिया वर्ग को फ़ासीवादी प्रचार का आसान शिकार बना देती है।

फ़ासीवाद उजड़ते और उभरते हुए टुटपुँजिया वर्ग का प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन है। यह इस टुटपुँजिया वर्ग को एक तरफ़ तो नस्लीय, जातीय, धार्मिक आधार पर एक नक़ली दुश्मन प्रदान करता है। दूसरी तरफ़ वह इसके सामने एक गौरवशाली अतीत का मिथक रचता है। भारतीय फ़ासीवादी इसी तरह लम्बे समय से देश की हिन्दू आबादी को अतीत का वह स्वप्न दिखाते रहे हैं जब इस महान जम्बूद्वीप भारतखण्ड पर स्वर्ण युग था, जिसे मुगलों तथा यवनों ने छीन लिया! आरएसएस के इस कल्पित स्वर्ण युग में वे सभी वैज्ञानिक-तकनीकी उपलब्धियाँ जो मानवता ने आज हासिल की है, वास्तव में पहले ही हासिल की जा चुकी थीं! औपनिवेशिक सामाजिक संरचना की कोख से जन्मे और समझौता-दबाव-समझौता की रणनीति के तहत सत्ता हासिल करने वाले भारतीय पूँजीपति वर्ग के पास यूरोपीय मध्यवर्ग की तरह पुनर्जागरण-प्रबोधन-क्रान्ति की तार्किकता और वैज्ञानिकता तथा मानवतावाद और जनवाद की कोई विरासत नहीं है और भारतीय मध्यवर्ग में भी इन्हीं वजहों से इसका अभाव है। यह न तो आजीवक और लोकायत से परिचित है, न ही सांख्य, न्याय, वैशेषिक दर्शनों अथवा चरक और सुश्रुत की विरासत से, जो कि प्राचीन भारत की भौतिकवादी, वैज्ञानिक व विद्रोही चिन्तन परम्पराएँ थीं। यहाँ तक कि निकट अतीत के कबीर, नानक, रैदास तथा राहुल सांकृत्यायन, राधामोहन गोकुल, गणेश शंकर विद्यार्थी की रचनाओं से भी इसका परिचय नहीं है और न ही इसने क्रान्तिकारी आन्दोलन की वैचारिक विरासत का ठीक से अध्ययन किया है। पिछले सौ सालों में समाज के ताने-बाने में अपनी पैठ के ज़रिए और अनगिनत प्रयोगों, मिथ्याप्रचारों और आन्दोलनों के ज़रिए फ़ासिस्टों ने अपने फ़ासीवादी प्रचार की ज़द में एक बहुत बड़ी आबादी को ले लिया है।

फ़ासिस्ट सर्वहारा वर्ग के सबसे बड़े दुश्मन हैं और यही वजह है कि वे सर्वहारा क्रान्तियों के ख़िलाफ़ कुत्सा-प्रचार करने और उसकी उपलब्धियों पर कीचड़ उछालने का काम करते हैं। एक सर्वहारा वर्गीय दृष्टिकोण से नये सिरे से पुनर्जागरण और प्रबोधन की मुहिम को समाज में व्यापक तौर पर चलाना आज के समय में फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष का एक अहम मोर्चा है।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2023


 

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