जनता के जनवादी अधिकारों पर आक्रामक होता फ़ासीवादी मोदी सरकार का हमला और इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवाद के बारे में कुछ बातें

विशेष सम्पादकीय अग्रलेख

पाँच राज्यों में विधानसभा चुनावों की सरगर्मियाँ जैसे-जैसे तेज़ हो रही हैं, वैसे-वैसे भाजपा और मोदी सरकार की घबराहट बढ़ रही है। पत्रकारों से लेकर बुर्जुआ विपक्षी पार्टियों के नेताओं पर मोदी सरकार के बढ़ते आक्रामक हमले इसी बात का लक्षण हैं। राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ के सूत्रों से भाजपा के नेतृत्व को पता है कि उसकी स्थिति इन पाँचों राज्यों में बहुत अच्छी नहीं है।

मध्यप्रदेश में भाजपा की स्थिति बेहद ख़राब है। छत्तीसगढ़ में भी भाजपा जीत को लेकर आश्वस्त नहीं है। राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच जारी गृहयुद्ध पर कम-से-कम अस्थायी रूप में विराम लग गया है, जबकि वसुन्धरा राजे राजस्थान में भाजपा की दिक्कतें लगातार बढ़ा रही है। लेकिन राजस्थान हर बार सरकार बदलने के लिए जाना जाने वाला राज्य है। इसलिए भाजपा को यहाँ अपेक्षाकृत ज़्यादा उम्मीदें हैं। तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस, जो पहले तेलंगाना राष्ट्र समिति थी) कांग्रेस द्वारा बढ़ती चुनौती के बावजूद अभी भी अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति में है। लेकिन लोकसभा चुनावों में उसके भाजपा के साथ जाने की कम उम्मीद है। इसलिए राज्य में उसकी जीत भी भाजपा के लिए कोई सौग़ात होगी इसकी उम्मीद कम है। आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना, यानी दो तेलुगूभाषी राज्यों की राज्यस्तरीय पूँजीवादी चुनावी राजनीति की ख़ास बात है सबसे खुले और बेशर्म किस्म का अवसरवाद। आन्ध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस को फ़ायदा मिलने पर भाजपा के साथ जाने में कोई दिक्कत नहीं है। कुछ ऐसे मामले जगन और उसके सहयोगियों पर चल रहे हैं, जिनके कारण उसकी बाँह मरोड़ना अमित शाह के लिए आसान है। लेकिन अगर पसन्द की बात करें, तो आज कोई भी क्षेत्रीय दल अपनी इच्छा से भाजपा के साथ नहीं जाना चाहता है। सभी ने जद (यू), शिवसेना और आंशिक तौर पर लोजपा की हालत देखी है। अन्य कई छोटे राज्यों में भी जो भाजपा के साथ गठबन्धन में गया, उसकी पार्टी या तो टूट गयी और वह भाजपा का दल्ला या टट्टू बन गया, या फिर उसका राजनीतिक करियर ही ख़तरे में पड़ गया। इसलिए अगर देश पैमाने पर जगन और के. चन्द्रशेखर राव ज़रा भी हवा बदलती देखेंगे, तो वे भाजपा से सौदेबाज़ी या तालमेल के विकल्प को अपनाने के बजाय स्वतन्त्र रहना या बाहर से विपक्षी गठबन्धन को समर्थन देने का रास्ता अपनायेंगे। अब तक के घटनाक्रम से स्पष्ट है कि इन दोनों राज्यों की सत्ताधारी प्रमुख क्षेत्रीय पूँजीवादी पार्टियों ने अपने विकल्पों को खोलकर रखा है और अपने सारे पत्ते ये लोकसभा चुनावों के ठीक पहले ही खोलेंगे। मिज़ोरम में मुकाबला सीधे कांग्रेस और भाजपा-समर्थित मिज़ो नेशनल फ्रण्ट के बीच है, हालाँकि पिछले चुनावों में स्वतन्त्र उम्मीदवारों के साथ उतरी ज़ोरम पीपुल्स मूवमेण्ट कांग्रेस से एक सीट ज़्यादा जीतकर प्रमुख विपक्षी दल बन गया था। लेकिन इस बार स्थिति सम्भवत: वैसी न हो।

भाजपा को हार की आशंका क्यों सता रही है?

यह समझना बहुत ही आसान है। जिन राज्यों के बल पर भाजपा 2014 और 2019 में सत्ता में पहुँची उनमें ज़्यादा फ़र्क नहीं है। मूलत: दक्षिण के राज्यों में कर्नाटक को छोड़कर भाजपा को कहीं भी ज़्यादा सीटें नहीं मिलने वाली हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के रहते भाजपा ज़्यादा सीटें जीतने की कोई ख़ास उम्मीद भी नहीं कर रही है। जिन राज्यों से भाजपा की सीटों का ज़्यादा हिस्सा आया है वे हैं उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश और कर्नाटक और साथ ही कुछ छोटे राज्य जैसे हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, असम और उत्तराखण्ड। इन जगहों पर पिछले लोकसभा चुनावों में विपक्ष का लगभग सफ़ाया ही हो गया था। इन राज्यों में भाजपा एकदम शीर्ष पर थी, जिससे ऊपर अब जाया नहीं जा सकता है। बिहार में जद (यू) और अविभाजित लोजपा के साथ रहने के कारण भाजपा को 40 में से 39 सीटें मिली थीं; गुजरात में 26 की 26 सीटें भाजपा जीती थी; हरियाणा की 10 की 10 सीटें भाजपा के खाते में गयी थीं; हिमाचल की 4 की 4 सीटें भाजपा ने जीती थीं; कर्नाटक में 28 में से 26 सीटें भाजपा के हिस्से गयीं थीं; मध्यप्रदेश की 29 में से 28 सीटें भाजपा जीतने में सफल रही थी; महाराष्ट्र की 48 में 41 सीटें अविभाजित शिवसेना के साथ रहने के कारण भाजपा ने जीती थीं; राजस्थान की 25 की 25 सीटें भाजपा की झोली में गयी थीं; और उत्तर प्रदेश में भाजपा के गठबन्धन के खाते में 80 में से 64 सीटें गयीं थीं।

अब इन राज्यों में भाजपा की क्या स्थिति है, जिनके बूते भाजपा को भारी बहुमत मिला था? महाराष्ट्र में भाजपा की सीटों में स्पष्ट तौर पर कमी आयेगी। राजस्थान में भाजपा अपनी सीटों को बढ़ा नहीं सकती क्योंकि पिछली बार वह सारी सीटें जीती थी और इस बार चुनाव विश्लेषकों को अनुमान है कि उसकी सीटों में 10 से 12 की कमी आयेगी। मध्यप्रदेश में भी उसकी सीटों में कम-से-कम 10 से 15 सीटों की कमी आने का अनुमान है। इसी प्रकार कर्नाटक में भी कम-से-कम 8 से 10 सीटों की कमी आने का आकलन तमाम विश्लेषक लगा रहे हैं। हरियाणा में भी पहले की तरह सारी 10 सीटें जीतना भाजपा के लिए मुश्किल है और वहाँ भी 4 से 5 सीटों की कमी आने की सम्भावना ज़्यादा है। बिहार में लगभग तय ही है कि भाजपा के गठबन्धन को आधी सीटें भी मिलना मुश्किल है। यानी करीब 20 सीटों की कमी। पश्चिम बंगाल में भाजपा ने 42 में से 18 सीटें जीती थीं, लेकिन उसमें भी कमी आने की आशंका भाजपा नेतृत्व को सता रही है। बढ़ने की सम्भावना तो नगण्य है, यह भाजपा का नेतृत्व भी जानता है। दिल्ली में भी 7 की 7 सीटें फिर से जीत पाना भाजपा के लिए मुश्किल है, क्योंकि आप और कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ने पर स्थिति एकदम अलग होगी।

दक्षिण भारत में कहीं भाजपा की सीट बढ़ने वाली नहीं है और वह कुल मिलाकर बांह मरोड़कर जगन और चन्द्रशेखर राव को समर्थन देने पर मजबूर करने पर उम्मीदें लगाये है, लेकिन उसकी कोई गारण्टी नहीं है। इतना स्पष्ट है कि दक्षिण भारत में कर्नाटक को छोड़कर भाजपा कहीं ज़्यादा ज़ोर लगाने के बारे में सोच भी नहीं रही है।

अगर बेहद उदार आकलन भी करें तो भाजपा उपरोक्त राज्यों में सीटों में सम्भावित कटौती के कारण 303 सीटों के आँकड़े से सीधे 240 या 250 पर आ सकती है। ऐसे में, तीन सम्भावनाएँ होंगी। ख़रीद-फ़रोख़्त और राज्यसत्ता के निकायों पर भीतरी पकड़ के कारण वह साम-दाम-दण्ड-भेद के ज़रिये सांसदों और छोटी पार्टियों का समर्थन हासिल करके किसी तरह से बहुमत के आँकड़े तक पहुँच जाये और फिर से सरकार बनाये। दूसरी सम्भावना यह है कि ऐसा समीकरण बैठ न पाये और विपक्षी महागठबन्धन की सरकार बने। तीसरी सम्भावना यह है कि कुछ क्षेत्रीय पूँजीवादी दलों द्वारा निष्पक्ष स्थिति अपनाये जाने पर अल्पसंख्यक सरकार बने, जिस प्रकार नरसिंह राव की सरकार बनी थी, जिसमें कांग्रेस को 232 सीटें मिली थीं और अन्य पार्टियों के समर्थन के साथ भी उसके पास कुल 256 सीटें ही थीं।

उत्तर प्रदेश, गुजरात और उत्तराखण्ड में भाजपा की सीटों में कोई ज़्यादा कमी नहीं आने वाली है, आपवादिक स्थिति में उत्तर प्रदेश में कुछेक सीटों की बढ़ोत्तरी भी हो सकती है। इसलिए हमने उनकी गणना ही नहीं की है।

उपरोक्त आकलनों के कारण भाजपा को हार की आशंका सता रही है। उपरोक्त स्थितियाँ तब हो सकती हैं, जब भाजपा कुछ ऐसे कदम न उठाये जो संकट में पड़ने पर वह उठाती है, जैसा कि सत्यपाल मलिक ने आशंका जतायी है। मसलन, जनवरी में उद्घाटन के लिए तैयार राम मन्दिर पर कोई हमला, कोई आतंकी घुसपैठ, पुलवामा जैसी कोई घटना, आदि। ज़ाहिर है, ये सारी चीज़ें हमेशा इत्तेफ़ाक होती हैं और संकटग्रस्त भाजपा सरकारों की झोली में गिर जाती हैं, जैसे कि कारगिल घुसपैठ और युद्ध, पुलवामा की घटना, इत्यादि! ऐसी कोई घटना होने की सूरत में हमने जिस स्थिति का आकलन ऊपर किया है, वह निश्चय ही बदल सकती है।

इसके अलावा, ईवीएम के खेल के ज़रिये भी नतीजों को बदलने का प्रयास भाजपा कर सकती है। बस दिक्कत यह है कि यह खेल बहुत बड़े पैमाने पर खेले जाने के अपने ख़तरे हैं। यह केवल पारम्परिक तौर पर हार-जीत के बेहद छोटे अन्तर रखने वाली कुछ सीटों (‘स्विंग सीटों’) पर सुरक्षित तौर पर खेला जा सकता है। उससे आगे इस खेल को खेलने पर जनप्रतिक्रिया आने की सम्भावना होगी, जिससे संघ परिवार बचना चाहेगा। और आखिरी दाँव नये सिरे से मथुरा-काशी में मन्दिर-मस्जिद का मुद्दा उठाना है, जिसपर संघ परिवार लगा हुआ है, लेकिन इस बार यह मुद्दा उस तरह हवा नहीं पकड़ पा रहा है, जिसकी उम्मीद भाजपा व संघ परिवार को है। ‘लव जिहाद’ और ‘गोरक्षा’ की पोल भी जनता के अच्छे-ख़ासे हिस्से में खुली है इसलिए उसे पहले की तरह असरदार बनाना संघ परिवार के लिए मुश्किल है। इसलिए चुनाव से पहले भाजपा सरकार तरह-तरह की आर्थिक राहत, रियायतें आदि देने का प्रयास कर सकती है और कर ही रही है। लेकिन अब इसके लिए भी थोड़ी देर हो गयी है।

सच्चाई यह है कि 25 से 27 प्रतिशत वोटर जिनका व्यवस्थित साम्प्रदायीकरण हुआ है, वे तो मोदी-नीत भाजपा को ही वोट करेंगे। यह वह हिस्सा है, जो किसी बड़ी तबाही के बाद ही होश में आता है। लेकिन इतने के बूते चुनाव जीत पाना सम्भव नहीं है। 33 से 39-40 प्रतिशत वोट के बूते भाजपा द्वारा दो चुनाव जीते जाने का एक गौण कारण यह भी था कि विपक्षी पूँजीवादी पार्टियाँ बिखरी हुई रही हैं और पूँजी की ताक़त के बूते और राजकीय एजेंसियों द्वारा आतंकित करके भाजपा उनको इसी बिखराव में रखती रही है, हालाँकि अधिकांश विपक्षी पार्टियों को पता है कि मोदी-शाह जोड़ी विपक्ष को पूरी तरह समाप्त करने के प्रयासों में लगी हुई है। जब वजूद का ख़तरा एक स्तर को पार कर गया तो विपक्षी पार्टियों में से अधिकांश ने ‘इण्डिया’ गठबन्धन बनाया। इसे भी भाजपा सरकार लगातार साम-दाम-दण्ड-भेद से तोड़ने की कोशिश कर रही है। इन कोशिशों से यह तो स्पष्ट है कि पूँजीवादी राजनीति के दायरे में भाजपा इससे परेशान और चिन्तित है। वजह यह कि 65 फीसदी वोटर जो भाजपा को वोट नहीं करते, अगर वे भाजपा के विरोध में खड़े किसी एक विपक्षी उम्मीदवार को केवल 300 सीटों में भी वोट करें तो भाजपा के लिए भारी दिक्कत पैदा हो जायेगी।

इस स्थिति से बचने के लिए भाजपा विशेष तौर पर उत्तर भारत में जिन उपकरणों का इस्तेमाल करती रही है उनमें दो प्रमुख हैं: आम आदमी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी। इसमें से पहला उपकरण बेकार हो चुका है और इसीलिए भाजपा सरकार आम आदमी पार्टी को विशेष तौर पर राजकीय एजेंसियों का निशाना बना रही है। मायावती की बहुजन समाज पार्टी सबसे निकृष्ट किस्म की मौकापरस्त पार्टी है। इसलिए भाजपा भी उस पर पूरी तरह विश्वास करके नहीं चल सकती, हालाँकि अभी वह उत्तर प्रदेश में भाजपा के ‘गेम प्लान’ के अनुसार ही चल रही है। लेकिन यह स्थिति चुनाव के ठीक पहले बदल सकती है और अगर ऐसा होता है, तो उत्तर प्रदेश में भी भाजपा की स्थिति पहले के मुकाबले गड़बड़ हो जायेगी।

ज़ाहिर है, भाजपा की हार की आशंका काफ़ी वास्तविक और ठोस है, हालाँकि अभी भी 2024 में मोदी के जीतने की सम्भावना ज़्यादा है। लेकिन यह सम्भावना पिछले एक वर्ष में घटती रही है और अभी भी घट रही है और अभी 5 से 6 माह बाकी हैं।

आगे हम जिन तमाम नुक्तों पर चर्चा करेंगे, वह समझने के लिए कई साथियों को मदद की आवश्यकता हो सकती है। हम उनसे आग्रह करेंगे कि इस सम्पादकीय पर ‘मज़दूर बिगुल’ के अध्ययन मण्डलों में अपने संगठनकर्ताओं से बातचीत करें और समूची चर्चा को समझने में आने वाली कठिनाइयों को दूर करें। 

 

अगर 2024 में भाजपा हारती है, तो उसका अर्थ क्या होगा?

अगर 2024 में भाजपा हारती है तो उसका अर्थ भारत में फ़ासीवाद की निर्णायक हार नहीं होगा। ऐसा जश्न 2004 और 2009 में भाजपा की हार पर तमाम संशोधनवादी, उदारवादी, सुधारवादी मना चुके हैं और 2014 में इसके नतीजे भी हम देख चुके हैं। फ़ासीवादी आन्दोलन आर्थिक संकट के बुनियादी अन्तरविरोध से पैदा होने वाली स्थितियों में पैदा हो सकता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि आर्थिक संकट आने पर हर देश में फ़ासीवाद पैदा होता ही है। वह पैदा होता है या नहीं यह इस पर निर्भर करता है कि आर्थिक संकट अपने आपको राजनीतिक संकट के रूप में, यानी राजनीतिक अन्तरविरोधों के एक सन्धिबिन्दु के रूप में, पेश करता है या नहीं। आर्थिक संकट अपने आपको राजनीतिक अन्तरविरोधों के एक सन्धि-बिन्दु के रूप में पेश करेगा या नहीं, यह इस बात से नहीं तय होता है कि आर्थिक संकट कितना गहरा है। एक लम्बी मन्द मन्दी भी पूँजीपति वर्ग और टुटपुँजिया वर्ग में वह प्रतिक्रिया पैदा कर सकती है, जोकि पूँजीपति वर्ग के विशिष्ट आर्थिक हितों के सामूहिकीकरण के कार्यभार को पूरा करने में पूँजीवादी राज्यसत्ता की अक्षमता की स्थिति में फ़ासीवादी शक्तियों को सत्ता में पहुँचाने की ज़मीन तैयार कर सकता है। यह काफ़ी हद तक किसी देश की बुर्जुआजी के ऐतिहासिक चरित्र और प्रकृति पर भी आंशिक तौर पर निर्भर करता है, उस देश में सर्वहारा वर्ग के आन्दोलनों के इतिहास पर निर्भर करता है, उस देश में बुर्जुआ पक्ष व विपक्ष के बीच की गतिकी (डाइनैमिक्स) के इतिहास पर भी निर्भर करता है। केवल इन आधारों पर हम समझ सकते हैं कि आर्थिक संकट किन स्थितियों में राजनीतिक संकट में तब्दील होता है और किनमें नहीं। लेनिन के शब्दों में, एक राजनीतिक वर्ग के तौर पर सर्वहारा वर्ग को केवल अपने और बुर्जुआ वर्ग के सम्बन्धों को ही नहीं, बल्कि आम तौर पर सभी वर्गों के बीच मौजूद आपसी सम्बन्धों को समझना होता है। केवल तभी वह सही राजनीतिक विश्लेषण कर सकता है, राजनीतिक रणनीति व आम रणकौशल तय कर सकता है। यानी, आर्थिक संकट वास्तव में मुनाफ़े की दरों को 1929 की महामन्दी के स्तर तक नीचे ले गया है या नहीं, फ़ासीवादी शक्तियों के सत्ता में पहुँचने का इससे कोई सीधा रिश्ता नहीं है। इस प्रकार का विश्लेषण इस समय पंजाब का एक बचकाना ग्रुप (‘ललकार-प्रतिबद्ध’ ग्रुप) पेश कर रहा है। उसका कहना है कि भारत में अभी मन्दी उतनी नहीं गहरायी है कि फ़ासीवाद आये! यानी, मन्दी के गहराने का कोई विशिष्ट स्तर है या मुनाफ़े की औसत दर के गिरने की कोई विशिष्ट सीमा है, जिसके बाद घण्टी बज जाती है और फ़ासीवादी शक्तियाँ सत्ता में पहुँच जाती हैं! यह भोण्डे और यान्त्रिक किस्म का अर्थवाद है।

हर देश में, जहाँ आर्थिक संकट हो, फ़ासीवादी शक्तियाँ सत्ता में नहीं पहुँच जाती हैं। मसलन, 1930 के दशक में पूँजीवादी विश्व के अधिकांश देश संकट के शिकार थे, लेकिन हर जगह फ़ासीवादी शक्तियाँ सत्ता में नहीं पहुँची। उसी प्रकार, इटली में मुसोलिनी तब सत्ता में पहुँचा था जबकि अभी कोई गम्भीर आम आर्थिक संकट मौजूद ही नहीं था, युद्ध के बाद मुद्रास्फीति और बेरोज़गारी की समस्या थी लेकिन वह अधिकांश युद्धरत देशों में पहले विश्वयुद्ध के बाद मौजूद थी। इतालवी अर्थव्यवस्था में मुनाफ़े की औसत दर को इस पूरे दौर में देखें तो वह अधिक नीचे नहीं गयी थी। वहाँ फ़ासीवाद के उदय के तीन प्रमुख कारण थे: युद्ध के बाद मुद्रास्फीति व बेरोज़गारी की समस्या (जो सभी युद्ध में शामिल हुए देशों में मौजूद थी), मज़दूर वर्ग का मज़बूत ट्रेड यूनियन आन्दोलन व क्रान्तिकारी प्रवृत्ति और उससे भी महत्वपूर्ण इतालवी बुर्जुआजी के विशिष्ट आर्थिक हितों का सामूहिकीकरण करने में इतालवी बुर्जुआ राज्य की असफलता, जिसके कारण सामूहिक वर्ग हितों के बजाय फैक्शनल (धड़ों के) वर्ग हित प्रधान बन गये थे, आपस में टकरा रहे थे और मज़दूरों व किसानों के आन्दोलन में दबाव में यह राजनीतिक संकट असमाधेय हो गया था इसे ही हम राजनीतिक अन्तरविरोधों का सन्धिबिन्दु कहते हैं, जिसमें आर्थिक कारक केवल एक बुनियादी अन्तरविरोध की भूमिका ही निभा सकते हैं और अपने आप में आर्थिक संकट की गहराई या गम्भीरता की मात्रा फ़ासीवादी उभार को निर्धारित नहीं करती। लेकिन ‘ललकार-प्रतिबद्ध’ ग्रुप को विशेष तौर पर उसकी मूर्खता और अपढ़ता के लिए जाना जाता है, इसलिए इस प्रकार की अहमकाना थीसिस उनकी तरफ से पेश की गयी है, इसमें हमें कोई आश्चर्य भी नहीं है। इस सम्पादकीय लेख में उनकी थीसिस के कुछ अन्य मूर्खतापूर्ण पहलुओं पर भी हम आगे बात करेंगे और जल्द ही उनकी सम्पूर्ण थीसिस की विस्तृत लिखित आलोचना पेश करेंगे।

मुद्दे की बात यह है कि आर्थिक संकट और फ़ासीवादी शक्तियों के सत्ता में पहुँचने के बीच कोई दो-दुनाई-चार का यान्त्रिक सम्बन्ध नहीं होता है। यह बुनियादी अन्तरविरोध होता है, प्रधान अन्तरविरोध नहीं। यह इस मूर्खतापूर्ण ग्रुप (‘ललकार-प्रतिबद्ध’) का बेहद भोण्डे किस्म का आर्थिक नियतत्ववाद है। कहने के लिए वह राजनीतिक संकट का नाम लेते हैं, मगर इस शब्द का ऐसे इस्तेमाल करते हैं, मानो यह आर्थिक संकट से स्वयंस्फूर्त ढंग से पैदा हो जाने वाली कोई चीज़ हो और न ही इस बात को समझा पाते हैं कि राजनीतिक संकट होता क्या है। इनके लिए वास्तव में इन दोनों में सारत: कोई बड़ा फर्क नहीं है, बल्कि एक (राजनीतिक संकट) दूसरे (आर्थिक संकट) की सीधी अभिव्यक्ति मात्र होती है। कोई भी मार्क्सवादी विज्ञान का विद्यार्थी जानता है कि इससे भोण्डी अर्थवादी सोच और कोई नहीं हो सकती है।

यानी फ़ासीवाद के उभार और उसके सत्ता में पहुँचने की प्रक्रिया को समझने के लिए बुर्जुआ वर्ग राज्यसत्ता के राजनीतिक संकट को समझना अनिवार्य है और इसके बिना आप न तो इस बात की व्याख्या कर सकते हैं कि 1930 के दशक में सभी आर्थिक संकट से ग्रस्त देशों में फ़ासीवाद सत्ता में क्यों नहीं पहुँचा और न ही इस बात की व्याख्या कर सकते हैं कि इटली में आम आर्थिक संकट (यानी मुनाफे की औसत दर के गिरने के संकट) के बिना ही फ़ासीवादी शक्तियाँ सत्ता में कैसे पहुँचीं?

बहरहाल, अगर 2024 में भाजपा चुनाव हारती है, तो मेहनतकश जनता और सर्वहारा वर्ग को यह नतीजा कतई नहीं निकालना चाहिये कि फ़ासीवादी शक्तियों की निर्णायक पराजय हो गयी। फ़ासीवादी शक्तियाँ पूँजीवादी व्यवस्था और उसके संकट के रहते और उसके संकट के राजनीतिक संकट में तब्दील होने की स्थिति के रहते, दोबारा सत्ता में पहुँचेंगी। यही 1980 के दशक के मध्य से भारत में होता रहा है। हर बार आर्थिक संकट के गहराने व उसके राजनीतिक संकट में तब्दील होने की स्थिति में फ़ासीवादी शक्तियाँ पहले से ज़्यादा आक्रामकता के साथ, पहले से ज़्यादा नग्न व बर्बर फ़ासिस्ट फ्यूहरर (सर्वोच्च नेता) के साथ सत्ता में पहुँचती रही हैं। अटल से आडवाणी और आडवाणी से मोदी तक की यात्रा में आप इसे देख सकते हैं और यह समझ सकते हैं कि मोदी से आगे किसी और फ़ासिस्ट फ्यूहरर को शीर्ष में रखते हुए फ़ासीवादी शक्तियाँ 2024 में हार के बाद भी सत्ता में पहुँच सकती हैं।

पिछले 10 वर्षों को फ़ासीवादी शासन कहा जाय या कहा जाय? स्पष्ट तौर पर पिछले 10 वर्षों का मोदी राज फ़ासीवादी शासन ही था। अगर 2024 में मोदी व भाजपा चुनाव हार भी जाते हैं, तो फ़ासीवादी शक्तियाँ केवल अस्थायी तौर पर सत्ता से च्युत होंगी और पूँजीवाद के आर्थिक व राजनीतिक संकट के रहते, केवल और अधिक आक्रामकता के साथ सत्ता में पहुँचने के लिए। इस बात को थोड़ा विस्तार से समझना आवश्यक है।

इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवाद : राज्य-परियोजना या बार-बार पड़ने वाला दौरा?

हमारे देश में कई ऐसे मार्क्सवादी संगठन व व्यक्ति हैं, जो यह मानते हैं कि भारत में अभी फ़ासीवादी शासन या सत्ता नहीं आयी है। उनका ऐसा मानने का यह आधार है कि अभी हिटलर या मुसोलिनी के शासन के समान कोई आपवादिक कानून नहीं लाये गये हैं, पूँजीवादी बहुदलीय संसदीय जनवाद की व्यवस्था अभी बनी हुई है, अभी यातना-शिविर नहीं बने हैं, समस्त राजनीतिक विपक्ष को अभी ग़ैर-कानूनी नहीं घोषित किया गया है, जनवादी चुनाव रद्द नहीं हुए हैं, इत्यादि। यानी, उनके अनुसार, फ़ासीवादी सत्ता हर-हमेशा एक नये प्रकार की राजनीतिक सत्ता होगी, रूप व अन्तर्वस्तु, दोनों ही अर्थों में। यानी, वे तभी मोदी के शासन को फ़ासीवादी सत्ता का उदाहरण मानेंगे, जबकि इतिहास अपने आपको हूबहू दुहराये। आइये समझते हैं कि क्यों इतिहास की पुनरावृत्ति नहीं हो सकती है और क्यों आज फ़ासीवाद को एक राज्य-परियोजना होने की आवश्यकता नहीं है। ‘राज्य परियोजना’ का कई लोगों ने कुछ-कुछ भिन्न अर्थों में प्रयोग किया है इसलिए यह स्पष्ट कर देना उपयोगी होगा कि राज्य-परियोजना से यहाँ हमारा अर्थ है बुर्जुआ वर्ग के अधिनायकत्व के रूप को बदलना, यानी उसके सामान्य रूप बुर्जुआ जनवाद को भंग कर उसका एक आपवादिक रूप स्थापित करना।

पहली बात: फ़ासीवाद हमेशा राज्यपरियोजना के रूप में ही अवतरित होगा, यह कोई इतिहास का आम नियम नहीं है। पहले यह समझना अनिवार्य है कि बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में फ़ासीवाद के लिए राज्य-परियोजना के रूप में प्रकट होना क्यों अनिवार्य था। यानी, समूचे राज्य के रूप को ही बदल डालना फ़ासीवाद के लिए बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में अनिवार्य क्यों था? या कहें कि बुर्जुआ बहुदलीय संसदीय जनवाद के विशिष्ट रूप को भंग करना उस समय के फ़ासीवादी उभार के लिए आवश्यक क्यों था? यह समझे बिना हनुमान-चालीसा की तरह यह दुहराते रहना कि ‘फ़ासीवाद राज्य-परियोजना है, अभी भारत में फ़ासीवादी सत्ता नहीं आयी है’, एक अहमकाना कठमुल्लावाद है। ‘ललकार-प्रतिबद्ध’ ग्रुप के नेतृत्व ने कहीं यह पढ़ लिया है कि फ़ासीवाद राज्य-परियोजना के रूप में अस्तित्व में आया था और यह मान बैठे हैं कि फ़ासीवाद हर-हमेशा इसी रूप में सत्ता में पहुँचेगा! इसे ही कठमुल्लावाद कहा जाता है। यानी, सिद्धान्त का वास्तविक स्थितियों से पीछे रह जाना और किसी का ऐसे सिद्धान्त से चिपके रह जाना। आइये समझते हैं कि बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में फ़ासीवाद एक राज्यपरियोजना क्यों था।

बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में उन यूरोपीय देशों में, जहाँ फ़ासीवाद सत्ता में पहुँचा, बुर्जुआ जनवाद की ऐसी स्थिति थी कि उसे औपचारिक तौर पर भंग किये बिना फ़ासीवाद वह सबकुछ नहीं कर सकता था जो उसे करना था। यानी, साम्राज्यवाद के इस दौर में भी अपनी कई जनवादी सम्भावनासम्पन्नताओं के कमज़ोर होने के बावजूद भी, बुर्जुआ वर्ग व बुर्जुआ जनवाद में एक जनवादी सम्भावनासम्पन्नता थी। इस वजह से बुर्जुआ जनवाद, संसदीय तन्त्र बुर्जुआ जनवादी चुनावों को औपचारिक तौर पर भंग किये बिना बुर्जुआजी की सारी राजनीतिक आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना फ़ासीवादी शक्तियों के लिए मुमकिन नहीं था। इसलिए बुर्जुआ जनवादी तन्त्र का स्थगन अनिवार्य था।

इसे एक उदाहरण से समझें। जब फ्रांस पर नात्सी कब्ज़ा हो गया था और वहाँ हिटलर की कठपुतली विची सत्ता बिठा दी गयी थी, तो फ्रांस में प्रतिरोध-युद्ध लड़ने वालों में फ्रांसीसी बुर्जुआजी का एक विचारणीय हिस्सा भी था। डी गॉल के नेतृत्व में फ्रांस में 1943 में राष्ट्रीय प्रतिरोध परिषद् का गठन हुआ, जिसमें आठ प्रतिरोध योद्धा-समूहों को शामिल किया गया और इन लोगों ने हथियार उठाकर नात्सी कब्ज़े के विरुद्ध लड़ाई लड़ी। निश्चित तौर पर, नात्सी कब्ज़े के विरुद्ध सबसे रैडिकल तरीके से कम्युनिस्ट लड़े और वे ही लड़ सकते थे। लेकिन उस समय जनवादी बुर्जुआजी का एक हिस्सा भी  नात्सियों के विरुद्ध बाकायदा हथियारबन्द लड़ाई लड़ रहा था। इसी डी गॉल ने 1960 के दशक में अस्तित्ववादी-मार्क्सवादी जनपक्षधर बुद्धिजीवी सार्त्र को उनके एक्टिविज्म के लिए गिरफ्तार करने के एक अधिकारी व कुछ नेताओं के प्रस्ताव पर कहा था कि “सार्त्र को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता क्योंकि फ्रांस को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।” आज समूचे पूँजीवादी विश्व में बुर्जुआजी यह बचा-खुचा जनवादी पोटेंशियल भी खो चुकी है। क्यों? आइये इसे भी समझ लेते हैं।

इसकी वजह यह है कि नवउदारवादी भूमण्डलीकरण पूँजीवाद के आखिरी चरण यानी साम्राज्यवाद का आखिरी दौर है। यह दौर जो कि 1970 के दशक के पूर्वार्द्ध, यानी द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आये तेज़ी के दौर के समापन के बाद, शुरू हुआ, अपने श्रमविरोधी नीति, जनवादी अधिकारों के अभूतपूर्व निषेध, अभूतपूर्व प्रतिक्रिया और जंगखोरी के लिए जाना जाता है। अमेरिका में रीगन व ब्रिटेन में थैचर ने इसे आर्थिक व राजनीतिक सैद्धान्तिकीकरण (रीगनॉमिक्स व थैचरिज्म) प्रदान किया। इसका सारतत्व था मज़दूर अधिकारों, नागरिक अधिकारों, जनवादी अधिकारों पर खुला हमला, विदेशी घरेलू नीति में नग्न प्रतिक्रियावाद और घरेलू तौर पर शोषित उत्पीड़ित जनसमुदायों के प्रति अभूतपूर्व कट्टरपंथ की नीति। नवउदारवादी दौर के बुर्जुआ राज्य में ऐसा कोई पूँजीवादी जनवादी पोटेंशियल बचा ही नहीं है, जो फ़ासीवादी शक्तियों को ऐसा कुछ भी करने से रोके जो कि बुर्जुआ वर्ग के राजनीतिक संकट के प्रतिक्रियावादी समाधान के तौर पर फ़ासीवादी करते हैं। कोई ज़रूरी नहीं है कि फ़ासीवादी आज सत्ता में आने पर हूबहू पहले की ही तरह यातना शिविर बनाएँ, जातीय-नस्लीय पूर्ण सफ़ाया करें, इत्यादि। चूँकि नात्सी जर्मनी में हिटलर ने ऐसा किया, इसलिए इसका यह अर्थ नहीं है कि यातना शिविर बनाना या जातीय-नस्लीय (या साम्प्रदायिक) पूर्ण सफ़ाया करना ही फ़ासीवाद का राजनीतिक सारतत्व है। सारतत्व जिन रूपों में प्रकट होता है, उनके व उस सारतत्व के बीच हमेशा ही एक सापेक्षिक स्वायत्तता का सम्बन्ध होता है, अन्यथा सारतत्व और रूप में कोई अन्तरविरोध ही नहीं होता और उनके बीच पूर्ण अतिच्छादन होता। तो सवाल होता है इनके बीच के द्वन्द्व को समझने का। फिर फ़ासीवाद की राजनीतिक अन्तर्वस्तु क्या है? यह निम्न है:

एक फ़ासीवादी विचारधारा (एक कट्टरपंथी, अन्धराष्ट्रवादी, नस्लवादी/जातीयतावादी/साम्प्रदायिक/ प्रवासी-विरोधी विचारधारा जो पूँजीवाद के कुकर्मों के लिए पूँजीवाद को कठघरे में रखने के बजाय एक नकली दुश्मन पैदा करती है, जो कि यहूदी, मुसलमान या प्रवासी कोई भी हो सकता है और इस प्रकार पूँजीवाद की सेवा करती है)

पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में और विशेषकर संकट के दौरों में सामाजिक व राजनीतिक असुरक्षा व अनिश्चितता झेल रहे टुटपुँजिया वर्गों के सामने इस नकली दुश्मन की छवि को पेश करना, उनका एक रूमानी रहस्यवादी प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन खड़ा करना, जिसका इस्तेमाल मेहनतकश जनता के वास्तविक या सम्भावित आन्दोलनों के प्रतिभार के तौर पर किया जाये और पूँजी के हितों की सेवा की जाय; दूसरे शब्दों में, इस प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन का इस्तेमाल बड़ी पूँजी की बर्बर, नग्न तानाशाही को स्थापित करने के लिए किया जाय

एक काडरआधारित संगठन जो निरन्तर तृणमूल स्तरों पर सक्रिय रहता है

सत्ता में रहने पर टुटपुँजिया वर्गों के रूमानी उभार और नकली दुश्मन की छवि का इस्तेमाल करके, अन्धराष्ट्रवाद और साम्प्रदायिक/नस्लवादी/जातीयतावादी/प्रवासीविरोधी कट्टरपन्थ का इस्तेमाल करके श्रम अधिकारों, नागरिक अधिकारों, जनवादी अधिकारों आदि को अभूतपूर्व तरीके से निरस्त करना, ताकि औसत मज़दूरी को गिराया जा सके, श्रम की सघनता को बढ़ाया जा सके, कार्यदिवस की लम्बाई को बढ़ाया जा सके, इसके प्रति हर प्रकार के श्रमिक या जनवादी विरोध को कुचला जा सके और इस प्रकार पूँजीपति वर्ग को मुनाफ़े की औसत दर के संकट से निजात दिलायी जा सके, उसके वर्ग हितों का सामूहिकीकरण कर उसके राजनीतिक संकट का तात्कालिक तौर पर हल किया जा सके, और मज़दूर वर्ग को विसंगठित कर उसके प्रतिरोध की सम्भावनाओं को समाप्त किया जा सके।

इन सब में जब बुर्जुआ जनवादी बहुदलीय संसदीय व्यवस्था बाधा बनती थी, तो फ़ासीवादी शक्तियों ने उसे औपचारिक तौर पर भंग किया। आज के नवउदारवादी दौर में बुर्जुआ जनवादी बहुदलीय संसदीय व्यवस्था अपने जनवादी पोटेंशियल से जिस हद तक रिक्त हो चुकी है, उसमें आम तौर पर यानी आपवादिक स्थितियों को छोड़ दें, तो इसकी कोई आवश्यकता फ़ासीवादी शक्तियों को नहीं है।

लुब्बेलुआब यह कि बिना यह समझे कि बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में फ़ासीवाद एक राज्यपरियोजना क्यों था, इस जुमले को अन्तहीन तरीके से दुहराते रहना केवल यही दिखाता है कि ऐसे लोगों के पास कोई ऐतिहासिक दृष्टिकोण नहीं है और वे कठमुल्लावादी हैं।ललकारप्रतिबद्धग्रुप इस प्रकार के कठमुल्लावाद के सबसे मूर्ख और दरिद्र संस्करण की नुमाइन्दगी करता है।

अब दूसरे कारण पर आते हैं कि आज फ़ासीवादी शक्तियाँ क्यों संसदीय जनवाद के आवरण को नहीं फेंकना चाहतीं। यह आवरण कोई ‘मुखौटा’ नहीं है! ‘ललकार-प्रतिबद्ध’ ग्रुप के नेतृत्व ने लिखा है कि कुछ लोग (यानी हम!) मानते हैं कि यह एक ‘मुखौटा’ है! मूर्ख हर बात का उस रूप में सरलीकरण कर देते हैं, जिस रूप में वे उसे समझ सकते हैं! संसदीय जनवाद एक विशिष्ट रूप है, कोई मुखौटा नहीं। किस चीज़ का विशिष्ट रूप? बुर्जुआ वर्ग के अधिनायकत्व का। यह बुर्जुआ वर्ग के अधिनायकत्व का आम रूप है, जिसे बुर्जुआजी पसन्द करती है और अन्य रूपों के ऊपर तवज्जो और तरजीह देती है। अन्य रूप उसके आपवादिक रूप होते हैं, जो कि राजनीतिक अन्तरविरोधों के सन्धि-बिन्दु यानी बुर्जुआ वर्ग व राज्यसत्ता के राजनीतिक संकट के पैदा होने की सूरत में अपनाये जाते हैं: मसलन, बोनापार्तवादी सत्ता, बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में आयी फ़ासीवादी सत्ताएँ जिनमें इस संसदीय रूप को भंग कर दिया गया, सैन्य तानाशाही और ऐसी धार्मिक कट्टरपन्थी सत्ताएँ जो कि औपचारिक तौर पर संसदीय जनवाद को समाप्त कर दें। ये आपवादिक रूप में तीव्र राजनीतिक संकट की अभिव्यक्ति के तौर पर अस्तित्व में आते हैं। लेकिन जब ये आपवादिक रूप में अस्तित्व में आते हैं, तो वे किस चीज़ की नुमाइन्दगी करते हैं? वे तब भी बुर्जुआ वर्ग के अधिनायकत्व की ही नुमाइन्दगी करते हैं, जिसे क़ायम रखने में बुर्जुआ राज्यसत्ता अपने नियमित सामान्य रूप के ज़रिये, यानी संसदीय जनवाद के ज़रिये, नाकामयाब हो जाती है।

एक दौर में, बुर्जुआ जनवाद में वह जनवादी पोटेंशियल था, जिसके कारण बुर्जुआ जनवादी बहुदलीय संसदीय व्यवस्था और बुर्जुआ जनवादी चुनाव इसमें बाधा बनते थे। आज वह स्थिति ही नहीं रही है। इस बात को हंगरी के एक मार्क्सवादी विचारक ग्यॉर्गी एम. तमास ने भी अच्छे से समझा है, हालाँकि वह इसे एक अनावश्यक नाम देते हैं: उत्तर-फ़ासीवाद। हमारा यह मानना है कि इस नाम की कोई आवश्यकता नहीं है। जहाँ तक सारतत्व का प्रश्न है, फ़ासीवाद आज भी, मूलत: और मुख्यत:, उन्हीं चारित्रिक अभिलाक्षणिकताओं से पहचाना जायेगा, जिनसे पहले पहचाना जाता था और जिनका हमने ऊपर ज़िक्र किया है।

दूसरा कारण यह है कि बुर्जुआ वर्ग और उसके सबसे प्रतिक्रियावादी हिरावल यानी फ़ासीवादी शक्तियाँ भी इतिहास से सबक लेती हैं। केवल मज़दूर वर्ग और उसके हिरावल यानी कम्युनिस्ट ही ऐतिहासिक अनुभवों का समाहार नहीं करते। ऐसा सोचना ही मूर्खतापूर्ण होगा कि केवल क्रान्तिकारी वर्ग ही अपने ऐतिहासिक व्यवहार के अनुभवों से सीखता है।

बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में फ़ासीवाद के लिए बुर्जुआ जनवादी रूप को औपचारिक तौर पर भंग करना अनिवार्य था, लेकिन इसका एक और नतीजा भी सामने आया, जिसका बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के फ़ासीवादियों ने और साथ ही बुर्जुआ वर्ग ने भी समाहार किया है। वह नतीजा यह था कि फ़ासीवाद तीव्र आर्थिक संकट और उसके कुछ देशों में विशिष्ट ऐतिहासिक स्थितियों के कारण राजनीतिक संकट में तब्दील होने के कारण, तेज़ी और तीव्रता के साथ सत्ता में आया, उसने बुर्जुआ जनवादी रूप को भंग किया और उसके बाद उतनी ही तेज़ी से उसका पतन हुआ और पतन का नतीजा केवल सत्ता से बाहर जाना नहीं था, बल्कि पूर्ण व्यवस्थित विध्वंस था। मसलन, जर्मनी और इटली में युद्ध में पराजय और आन्तरिक प्रतिरोध-युद्ध के कारण नात्सी और फ़ासीवादी शक्तियों का व्यवस्थित और पूर्ण ध्वंस हुआ। नात्सी व फ़ासीवादी विचारधारा व संगठन को ही ग़ैर-कानूनी घोषित कर दिया गया।

इन विविध देशों में नवनात्सी ग्रुपों के पनपने की परिघटना, मूलत: और मुख्यत:, 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध से ही शुरू हो पायी और तब भी वे खुले तौर पर अपने आपको फासिस्ट या नात्सी नहीं घोषित करते थे, न ही यहूदी विरोधवाद (एण्टी सेमिटिज्म) का खुला प्रदर्शन करते थे और केवल प्रवासी-विरोधी कट्टरतापंथ और अन्धराष्ट्रवादी समूहों के रूप में अपने आपको प्रकट करते थे। 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध में ही ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि यह दीर्घकालिक मन्दी की शुरुआत का दौर था जो तब से नियमित अन्तराल पर गम्भीर संकटों को भी जन्म देती रही है (लगभग हर दस वर्ष पर, जैसे कि 1987, 1997-98, 2001-2002, 2007 में)। इस पूरे दौर में, बेहद छोटे तेज़ी के दौरों के छोड़ दें तो एक मन्द मन्दी की स्थिति लगातार बनी रही है क्योंकि किसी बड़े वैश्विक युद्ध के अभाव में पूँजी का पर्याप्त अवमूल्यन व उत्पादक शक्तियों का पर्याप्त ध्वंस नहीं हो पाया है। इस दौर में, दुनिया के लगभग सभी पूँजीवादी देशों के शासक बुर्जुआ वर्ग को धुर दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी शक्तियों की आवश्यकता थी, जिन्हें वे वक्तन-ज़रूरतन सत्ता में भी पहुँचा सकते थे। कई देशों में ऐसी बुर्जुआ पार्टियाँ मौजूद थीं जिनमें समय पड़ने पर धुर दक्षिणपंथी गुण प्रदर्शित करने की क्षमता मौजूद थी। इन देशों में ऐसी कंज़रवेटिव पार्टिंयों ने यह काम किया। इसके अलावा, नयी नवनात्सी व नवफ़ासीवादी पार्टियों, जैसे कि नेशनल फ्रण्ट, गोल्डेन डॉन, इत्यादि का भी उसके बाद के दौर में उभार हुआ है।

‘तीसरी दुनिया’ के देशों में भारत की स्थिति अलग है क्योंकि यहाँ पर एक फ़ासीवादी संगठन की मौजूदगी का लम्बा और निरन्तरतापूर्ण इतिहास रहा है। आज़ादी के बाद के दौर में इस फ़ासीवादी संगठन ने भी फ़ासीवादी सत्ताओं के उभार और पतन के वैश्विक अनुभवों का समाहार किया है। 1945 में ही जर्मनी और इटली की पराजय के बाद नात्सी व फ़ासीवादी पार्टियों का यूरोप में पूर्ण ध्वंस हो गया। इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नेतृत्व भी देख और समझ रहा था। जिस मुसोलिनी और हिटलर को एक दौर में गोलवलकर ने गर्व के साथ अपने आदर्श के रूप में उद्धृत किया था, उनका खुले तौर पर नाम लेने में अब संघियों को शर्म आती थी।

यही वजह है कि बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में दीर्घकालिक आर्थिक संकट के दौर में दुनिया में कई देशों में जो फ़ासिस्ट पार्टियाँ अस्तित्व में आयीं और उनमें से कुछेक जो सत्ता में पहुँची, उन्होंने बुर्जुआ जनवाद के रूप को भंग नहीं किया और नवउदारवादी दौर में ऐसा किये बिना पूँजीपति वर्ग के हितों की सेवा के लिए फ़ासीवाद को जो भी करना होता है, वह करना सम्भव भी था। आम तौर पर, फ़ासीवादी शक्तियों ने यह सबक लिया है कि आज के दौर में अवस्थितिबद्ध युद्ध लड़ना उनके लिए अनिवार्य है। बुर्जुआ वर्ग ने भी यह नतीजा निकाला है कि बुर्जुआ जनवाद के रूप को बनाये रखना श्रेयस्कर और लाभप्रद है क्योंकि यह अधिक वर्चस्वकारी है और पूर्ण रूप से प्रभुत्व पर आधारित नहीं है, और इसमें कोई दिक्कत भी नहीं है क्योंकि उसकी अन्तर्वस्तु इतनी क्षरित और स्खलित हो चुकी है कि उसके रूप के कायम रहते, फ़ासीवादी शक्तियाँ वे सारे कुकर्म कर सकती हैं जो कि राजनीतिक संकट के दौर में बुर्जुआ वर्ग के हितों के सामूहिकीकरण के लिए अनिवार्य हैं।

इस प्रकार तो आज फ़ासीवादी शक्तियों को बुर्जुआ जनवाद के रूप को औपचारिक तौर पर भंग करने की आवश्यकता है और ही वे ऐसा करने को प्राथमिकता देंगे, क्योंकि इतिहास से उन्होंने भी सीखा है।

एक दूसरे अर्थ में यही बात आम तौर पर एक राजनीतिक वर्ग के रूप में बुर्जुआजी पर भी लागू होती है। केवल आपवादिक सूरत में ही कोई फ़ासीवादी पार्टी आज बुर्जुआ जनवाद के रूप को भंग करेगी। ऐसा क्यों और कब हो सकता है और इसे कैसे समझें? इसे समझने के लिए बुर्जुआ वर्ग और उसके फ़ासीवादी हिरावल के बीच के सम्बन्धों को समझना आवश्यक है। यह सम्बन्ध ऐसा नहीं होता जिसमें कि बुर्जुआ वर्ग मनमुआफिक तरीके से फ़ासीवादी हिरावल से वह सब करा सकता है और ठीक उसी रूप में करा सकता है, जिसमें कि वह कराना चाहता है। फ़ासीवादी हिरावल और बुर्जुआ वर्ग के बीच हमेशा एक सापेक्षिक स्वायत्तता का सम्बन्ध होता है। सत्ता पर कब्ज़े की अन्धी हवस (जिसे कुछ फ़ासीवादी चिन्तकों ने ‘विल टू पावर’ या ‘सत्ता हथियाने की इच्छाशक्ति’ का नाम दिया है) फ़ासीवाद जैसी धुर प्रतिक्रियावादी राजनीतिक धारा की एक विाशिष्टता होती है, इसके बिना फ़ासीवाद फ़ासीवाद हो ही नहीं सकता क्योंकि जिस प्रकार के ‘मज़बूत नेतृत्व’ की छवि उसे एक रूप में बुर्जुआजी के सामने और एक दूसरे रूप में जनसमुदायों के सामने पेश करनी होती है, वह इस ‘सत्ता हथियाने की इच्छाशक्ति’ के बिना सम्भव ही नहीं है। इसलिए आपवादिक स्थिति में यह कतई मुमकिन है कि सत्ता से च्युत होने के ख़तरे में मोदी भी आपवादिक कानूनों को लाने व संसदीय तंत्र को भंग करने का कोई प्रयास करे। इस दिशा में कुछ कदम उठाकर फ़ासीवादी ताकतें माहौल को जाँचती भी रहती हैं, जैसे कि प्रेसिडेंशियल सिस्टम लागू करना या ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ की बात करना। लेकिन निश्चित ही इसकी सम्भावना कम है।

अब तीसरे पहलू पर आते हैं, जिसका रिश्ता विशेष तौर पर भारत के मामले से है।

फ़ासीवाद को बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से, विशेष तौर पर भारत जैसे देश में, एक राज्य-परियोजना रहने की आवश्यकता नहीं रह गयी क्योंकि एक लम्बे अवस्थितिबद्ध युद्ध के ज़रिये फ़ासीवादी शक्तियों ने राज्यसत्ता के उपकरणों का अन्दर सेटेकओवर करने के काम को भी काफ़ी हद तक अंजाम दिया है। इस अवस्थितिबद्ध युद्ध के वास्तव में निम्न प्रमुख तत्व रहे हैं :

पहला, नागरिक समाज में विशेष तौर पर टुटपुँजिया वर्गों, अर्द्धसर्वहारा वर्गों और आंशिक तौर पर अनौपचारिक क्षेत्र के सर्वहारा वर्ग के भीतर लम्बे प्रतिक्रियावादी संस्थानिक सुधार व सांस्कृतिक कार्य के ज़रिये एक जैविक समर्थन आधार का विकास करना;

दूसरा, इसी प्रतिक्रियावादी संस्थानिक कार्य और साथ ही लम्बे प्रचार कार्य के ज़रिये समाज में एक ‘साम्प्रदायिक सहमति’ का निर्माण करना, जिसके बूते एक ऐसी स्थिति पैदा की जाय कि फ़ासीवादी अपराधों व नरसंहारों में बहुसंख्यक समुदाय की जो बड़ी आबादी सक्रिय तौर पर शामिल नहीं होती, उसका भी बड़ा हिस्सा या तो थोड़ा नाक-भौं सिकोड़ते हुए मौन सहमति दे या फिर तटस्थ रहे;

तीसरा, राज्यसत्ता के निकायों, मसलन, नौकरशाही, सेना, पुलिस, अन्य सशस्त्र बलों, न्यायपालिका और यहाँ तक कि मीडिया तक में दशकों में फैली आणविक व्याप्ति (molecular permeation) की एक लम्बी प्रक्रिया के ज़रिये अपनी अवस्थिति को सुदृढ़ करना।

इन तीनों तत्वों के बूते फ़ासीवादी शक्तियों ने एक लम्बी प्रक्रिया में समाज और राजनीतिक अधिरचना में अपनी अवस्थितियों को सुदृढ़ किया है। चूँकि राज्यसत्ता के उपकरण व निकायों का आन्तरिक तौर पर फ़ासीवादी ‘टेकओवर’ विचारणीय हदों तक विकसित हुआ है, इसलिए भी आज फ़ासीवाद को राज्य-परियोजना रहने की कोई आवश्यकता नहीं है।

इस समूचे सन्दर्भ में, फ़ासीवादी शक्तियाँ दीर्घकालिक मन्दी के समूचे दौर में (जिसका एक प्रतिक्रियावादी आर्थिक व राजनीतिक प्रतिसाद ही नवउदारवादी भूमण्डलीकरण था) फ़ासीवादी शक्तियां सरकार में आ और जा सकती हैं; उनका सत्ता पर बार-बार होने वाला आरोहण आम तौर पर पहले से ज़्यादा आक्रामक होता है, जो कि राजनीतिक संकट की स्थिति पर निर्भर करता है। जितना तीव्र राजनीतिक संकट होता है, उतनी ही तीव्रता और आक्रामकता के साथ फ़ासीवादी शक्तियाँ सत्ता में पहुँचती हैं; अब फ़ासीवादी शक्तियों को सत्ता में पहुँचने के बाद बुर्जुआ जनवाद के रूप को भंग करने की कोई आवश्यकता नहीं होती, जिसके कारणों की हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं; और फ़ासीवादी शक्तियाँ जब सत्ता से च्युत होती हैं, तो भी उनका इतालवी फ़ासीवाद या जर्मन नात्सीवाद के समान पूर्ण ध्वंस नहीं होता, बल्कि वे ताक़तवर रूप में समाज में मौजूद होती हैं, बुर्जुआ वर्ग के आतंक गिरोहों और उनकी अनौपचारिक असंस्थाबद्ध राजनीतिक सत्ता की नुमाइन्दगी करती हैं। यही वजह है कि पिछले 50 वर्षों में कहीं भी ग़ैर-फ़ासीवादी बुर्जुआ पार्टियों ने सत्ता में रहने पर अपवादों को छोड़कर (जैसे गाँधी की हत्या के बाद और आपातकाल के दौरान) फ़ासीवादी शक्तियों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया और न ही उनके रोकथाम की कोशिश की, न ही फ़ासीवादी राजनीति, विचारधारा व संगठन को खुले तौर पर प्रतिबन्धित किया, जबकि इनकी आतंकी कार्रवाई और अपराधों के पर्याप्त प्रमाण मौजूद थे।

यानी जो चीज़ द्वितीय विश्वयुद्ध के ठीक बाद के दौर में देखने को मिली थी आज वह पूरी तरह से अनुपस्थित है। अभी हाल ही में कर्नाटक में चुनाव जीतने के पहले कांग्रेस ने बयान दिया था कि सरकार बनाने पर वह कर्नाटक में बजरंग दल को प्रतिबन्धित कर देगी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया, हालाँकि राज्य सरकार के पास किसी संगठन को प्रतिबन्धित करने का अधिकार होता है। वजह यह कि भारत का पूँजीपति वर्ग यह नहीं चाहता है और इसलिए सामान्य तौर पर कांग्रेस ऐसा नहीं कर सकती है। पूँजीपति वर्ग को फ़ासीवादी शक्तियों की सतत् मौजूदगी की आवश्यकता है। चाहे वे सत्ता में रहें या न रहें। कभी वे अपना वज़न उनके पीछे रख सकती हैं, जिस सूरत में फ़ासीवादी शक्तियों के सत्ता में पहुँचने की गुंजाइश ज़्यादा होती है और किन्हीं अन्य मौकों पर वे अपना वज़न एक प्रतिसन्तुलनकारी कार्रवाई के तौर पर, किसी अन्य ग़ैर-फ़ासीवादी पार्टी के पीछे रख सकते हैं।

‘ललकार-प्रतिबद्ध’ ग्रुप के एक वक्ता के अनुसार, जो कि बरनाला (पंजाब) में फ़ासीवाद पर एक गोष्ठी में बोल रहा था, पूँजीपति वर्ग मनमाने तरीके से फ़ासीवादी पार्टी और उसके फैसलों को तय कर सकता है! वह जब चाहे फ़ासीवादियों को आदेश या आज्ञा दे सकता है कि वे संसदीय जनवाद व जनवादी चुनावों को भंग कर दें और जब चाहे उन्हें निर्देश दे सकता है कि वे ऐसा न करें। वक्ता का कहना था कि “अभी इजारेदार पूँजी का आर्थिक संकट इतना गहरा नहीं है कि बुर्जुआजी ‘फ़ासीवादी प्रबन्ध’ लागू करे।” यानी, बुर्जुआजी का जब मन करता है तो वह ‘फ़ासीवादी प्रबन्ध’ लागू कर देता है। जैसा कि हमने ऊपर कहा, मूर्ख हमेशा हर बात का उस रूप में सरलीकरण कर देते हैं, जिसमें वे उसे समझ पाते हैं!

यह दिखलाता है कि इस ग्रुप के नेतृत्व का फ़ासीवाद के इतिहास का और भारत में फ़ासीवादी उभार के इतिहास का अध्ययन कितना कमज़ोर है। यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर काल में मार्क्सवादी विद्वानों में एक पूरी बहस चली थी जिसमें विवाद का मुद्दा ठीक यही था: बुर्जुआ वर्ग फ़ासीवाद को चुनता है या फिर फ़ासीवाद अपने आपको बुर्जुआ वर्ग पर आरोपित कर देता है। वास्तव में, सच्चाई इन दोनों ग़ैर-द्वन्द्वात्मक दावों के बीच में है। बुर्जुआ वर्ग हमेशा अपने विकल्प खुले रखने का प्रयास करता है और जब भी उसकी आर्थिक और राजनीतिक शक्तिमत्ता उसे इजाज़त देती है तो वह चुनने के विकल्प को अपने पास रखता है; उसका राजनीतिक संकट यह निर्धारित करता है कि उसके पास यह विकल्प होगा, नहीं होगा या आंशिक तौर पर होगा। उसी प्रकार, एक टुटपुँजिया प्रतिक्रियावादी आन्दोलन के बटखरे के बूते फ़ासीवाद अपने आपको एक विकल्प के रूप में पेश भी करता है और अगर बुर्जुआ वर्ग का राजनीतिक संकट अधिक गहरा हुआ और उसके मोलभाव की क्षमता कम हुई, तो वह अपने आपको आरोपित भी कर सकता है। इतिहास में आम तौर पर इन दोनों ही स्थितियों का मिश्रण दिखता है। यह राज्य और वर्ग के रिश्तों का प्रश्न है। बुर्जुआ वर्ग का राज्य आम तौर पर बुर्जुआ वर्ग के विशिष्ट वैयक्तिक तात्कालिक आर्थिक हितों के सामूहिकीकरण के लिए बुर्जुआ वर्ग को अनुशासित करता है। इस द्वन्द्व का दूसरा पहलू यह है कि बुर्जुआ वर्ग ही बुर्जुआ वर्ग के उन्नततम हिरावल यानी उसकी राज्यसत्ता को यह करने की ‘आज्ञा देता है’, या कहें, कि उसे देनी ही पड़ती है। बिना वैयक्तिक विशिष्ट आर्थिक हितों को नज़रन्दाज़ किये सामान्य राजनीतिक हितों को प्रधानता दी ही नहीं जा सकती। इसलिए राज्य व वर्ग के रिश्तों में यह द्वन्द्व मौजूद होता ही है। फ़ासीवादी सत्ता बुर्जुआ वर्ग के अधिनायकत्व का एक विशिष्ट रूप है। फ़ासीवादी सत्ता के मामले में तो यह सापेक्षिक स्वायत्तता और ज़्यादा होती है। 

लेकिनललकारप्रतिबद्धग्रुप के अपढ़कुपढ़ नेतृत्व को तो इस इतिहास के बारे में कुछ पता है और ही इस सन्दर्भ में हुई समृद्ध सैद्धान्तिक मार्क्सवादी बहस के बारे में। नतीजतन, उनका एक नेता बरनाला में हुए उक्त सेमीनार में फ़ासीवादी शक्तियों को बुर्जुआ वर्ग के प्रत्यक्ष निर्देशों पर काम करने वाला एक उपकरण बना देता है, जबकि इनके सम्बन्ध द्वन्द्वात्मक होते हैं, जैसा कि हमेशा ही वर्ग और उसके हिरावल के रिश्तों के मामले में होता है।

लुब्बेलुआब यह कि बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से ही फ़ासीवाद को एक ऐसी राज्य-परियोजना होने की कोई आवश्यकता नहीं है जिसमें बुर्जुआ बहुदलीय संसदीय जनवाद व जनवादी चुनावों को भंग करना अनिवार्य होता है। नवउदारवादी दौर में बुर्जुआ वर्ग के अधिनायकत्व का यह विशिष्ट रूप, यानी बुर्जुआ संसदीय जनवाद, अपनी उन बची-खुची जनवादी सम्भावनासम्पन्नताओं से भी रिक्त है, जो कुछ हद तक 1920 के दशक में या 1930 के दशक में उसके भीतर बची थीं। आज उस रूप को त्यागे बिना फ़ासीवादी शक्तियाँ सत्ता में आ और जा सकती हैं, हर वह कुकर्म कर सकती हैं जो उन्हें पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक संकट के धुर प्रतिक्रियावादी समाधान के रूप में करना होता है, सत्ता से बाहर रहने पर समाज में मौजूद रह सकती हैं, अवस्थितिबद्ध युद्ध चला सकती हैं, अपनी खन्दकें खोद सकती हैं और इस सतत् मौजूदगी के लिए उन्हें पूँजीपति वर्ग का अविरत समर्थन भी प्राप्त होता है क्योंकि उनकी सतत् मौजूदगी पूँजीपति वर्ग के लिए भी दीर्घकालिक मन्दी के दौर में आवश्यक है, वे निरन्तर राज्यसत्ता के उपकरणों में घुसपैठ कर उनका आन्तरिक ‘टेकओवर’ जारी रख सकती है (जो एक सदा जारी रहने वाली अन्तरविरोधपूर्ण परियोजना होती है) और सत्ता से बाहर होने पर उनका पूर्ण विध्वंस अब न तो सम्भव है और न ही अनिवार्य।

ये बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से जारी कालखण्ड में फ़ासीवाद की चारित्रिक अभिलाक्षणिकताएँ हैं। इन्हें न समझने के कारण और बीसवीं सदी के फ़ासीवाद से सादृश्य निरूपण करने के मूर्खतापूर्ण प्रयासों के कारण तमाम लोग (मसलन, ‘ललकार-प्रतिबद्ध’ ग्रुप का नेतृत्व) फ़ासीवाद-विरोधी आम मोर्चा बनाने और फ़ासीवाद विरोधी आम रणनीति बनाने के लिए गोडो* का इन्तज़ार कर रहे हैं, जो कभी आयेगा नहीं! हूबहू उसी रूप में फ़ासीवादी उभार और फ़ासीवाद के सत्ता में पहुँचने की पुनरावृत्ति ऊपर बताये गये कारणों के चलते असम्भव है। लेकिन ऐसे कठमुल्लावादियों को कौन समझा सकता है?

अभी हमने उपरोक्त कठमुल्लावादी और मूर्खतापूर्ण अवस्थिति की सम्पूर्ण आलोचना नहीं पेश की है, बस उस दिशा में कुछ आम प्रेक्षण रखे हैं। ‘ललकार-प्रतिबद्ध’ ग्रुप का यह भी मानना है कि जब उनका गोडो आ जायेगा, यानी जब राज्यसत्ता हूबहू उस रूप में फ़ासीवादी हो जायेगी, जिस रूप में वह बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में जर्मनी व इटली में हुई थी, तब 1930 के दशक में कोमिण्टर्न द्वारा दी गयी फ़ासीवाद-विरोधी आम दिशा, यानी ‘पॉप्युलर फ्रण्ट’ की दिशा पर अमल करना होगा। अगर यह सच है तो उन्हें आज ही यह कहना चाहिए कि जब ऐसा होगा तो उनका ग्रुप कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, सपा, बसपा, राजद, जद (यू), तृणमूल कांग्रेस आदि के साथ भी मोर्चा बनायेगा! उन्हें यह भी कहना चाहिए कि जब उनके इस अपेक्षित रूप में फ़ासीवादी सत्ता आ जायेगी, तो तात्कालिक लक्ष्य समाजवादी क्रान्ति नहीं बल्कि बुर्जुआ जनवाद की बहाली होगी! ये बातें इतने स्पष्ट रूप में बोलने में इनके घुटने कांप जाते हैं। सच्चाई यह है कि यह लाइन देते समय भी बुल्गारिया के कम्युनिस्ट नेता दिमित्रोव ने इसके यान्त्रिक अमल के खिलाफ़ चेताया था और बताया था कि एक मजबूत मज़दूर आन्दोलन के पूर्ण ध्वंस और पूर्ण पराजय के बाद की स्थितियों में कोमिण्टर्न ने यह लाइन पेश की है। आज वैसी कोई स्थिति नहीं है। आज सर्वहारा आन्दोलन को ही नये सिरे से खड़ा करना है और उसकी भरपूर सम्भावनासम्पन्नता और चुनौतियाँ, दोनों ही मौजूद हैं। और इन सारी बातों के बावजूद उस वक्त भी अधिकांश देशों में ‘पॉप्युलर फ्रण्ट’ की इस नीति के कार्यान्वयन के बहुत अच्छे नतीजे सामने नहीं आये थे। आज तो इसके परिणाम विनाशकारी होंगे।

आज कोमिण्टर्न की 1920 के दशक में पेश की गयी मज़दूर वर्ग का यूनाईटेड फ्रण्ट बनाने की आम रणनीति का एक संस्करण कहीं ज्यादा प्रासंगिक है और ठोस घटनाएँ इसकी ज़रूरत को पुष्ट करती हैं। बहरहाल, जल्द ही, ‘ललकार-प्रतिबद्ध’ ग्रुप की अवस्थिति की विस्तृत आलोचना रखने वाली पुस्तिका आपके हाथों में होगी।

निष्कर्ष

हमारे लिए उपरोक्त विश्लेषण के ठोस निष्कर्ष क्या हैं?

पहला निष्कर्ष यह है कि हम बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से समूची पूँजीवादी व्यवस्था में आने वाले ढाँचागत परिवर्तनों को समझें, वर्तमान में जारी दीर्घकालिक मन्दी को समझें और उसके अनुरूप फ़ासीवादी उभार व उसके सत्ता में पहुँचने की प्रक्रिया में आने वाले परिवर्तनों को समझें। इन परिवर्तनों को समझे बग़ैर आज के दौर में फ़ासीवाद का सफलतापूर्वक प्रतिरोध करना सम्भव नहीं होगा। ऊपर जिस लाइन की आलोचना हमने पेश की है वह मज़दूर वर्ग को फ़ासीवाद के समक्ष नि:शस्त्र करने वाली एक ख़तरनाक लाइन है।

दूसरा निष्कर्ष, जो कि पहले निष्कर्ष का ही तार्किक पूरक है, वह यह है कि भाजपा की 2024 में यदि हार हो भी जाये तो वह फ़ासीवाद की निर्णायक हार नहीं होगी। फ़ासीवाद की आज के दौर में विशष्टिता ही यही है कि वह सत्ता में आ और जा सकता है, और पूँजीवादी संकट और उसके राजनीतिक अन्तरविरोधों के सन्धि-बिन्दु यानी राजनीतिक संकट में तब्दील होने पर यह होता ही है, क्योंकि बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के फ़ासीवादी उभार के समान इसकी पहचान तीव्र आकस्मिक अप्रतिरोध्य उभार और उतने ही तीव्र पूर्ण ध्वंस से नहीं होती, बल्कि लम्बे अवस्थितिबद्ध युद्ध, आणविक व्याप्ति और राज्यसत्ता में आन्तरिक घुसपैठ के ज़रिये निरन्तर जारी आन्तरिक टेकओवर की परियोजना से होती है।

तीसरा निष्कर्ष, जब फ़ासीवादी शक्तियाँ सत्ता से बाहर भी होती हैं, तो उनका पूर्ण ध्वंस नहीं होता बल्कि बुर्जुआजी तब भी उनके अस्तित्व बनाये रखना चाहती है और उन्हें अपना समर्थन देती रहती है। वह उन पर किसी प्रकार के पूर्ण प्रतिबन्ध का आम तौर पर विरोध करती है। वह उन्हें अपनी असंस्थानिक व अनौपचारिक राजनीतिक शक्ति के रूप में समाज और राजनीति में बनाये रखती है ताकि उसका सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश जनता के विरुद्ध प्रतिभार के रूप में इस्तेमाल कर सके।

चौथा निष्कर्ष, आज सभी क्रान्तिकारी सर्वहारा शक्तियों को आम फ़ासीवाद-विरोधी मोर्चा बनाना चाहिए और संशोधनवादी दलों समेत समस्त बुर्जुआ दलों को इस सामान्य मोर्चे से अलग रखना चाहिए, हालाँकि मुद्दा आधारित रणकौशलात्मक मोर्चे उनमें से कइयों के साथ बन सकते हैं। किसी आम मोर्चे में ऐसी ताक़तों का शामिल करना, यानी ऐसे मोर्चे की असफल नियति पर शुरुआत में ही मुहर लगा देना।

पाँचवा निष्कर्ष, आज का तात्कालिक कार्यभार है मज़दूर वर्ग के सबसे बड़े दुश्मन यानी मोदी-शाह नीत साम्प्रदायिक फ़ासीवाद का सड़कों पर मुकाबला करना और 2024 में चुनावों में उनकी पराजय को सुनिश्चित करना। लेकिन इस प्रक्रिया में सर्वहारा वर्ग को इस या उस पूँजीवादी पार्टी की पूँछ पकड़ने की आत्मघाती ग़लती नहीं करनी चाहिए, बल्कि अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता को बरक़रार रखना चाहिए। तो फिर सर्वहारा वर्ग मोदी-विरोधी लहर को बल कैसे प्रदान कर सकता है? सर्वहारा वर्ग को जनता के असल ठोस मुद्दों पर यानी रोज़गार का कानूनी अधिकार, महँगाई से मुक्ति के लिए अप्रत्यक्ष करों के बोझ को कम करने, आवास, चिकित्सा व शिक्षा के अधिकार के लिए, और साथ ही सच्चे सेक्युलर राज्य की माँग के लिए जुझारू जनान्दोलन खड़े करने चाहिए। ये इसलिए भी ज़रूरी हैं क्योंकि तभी 2024 में आने वाली कोई भी सरकार इन माँगों पर विचार करने के लिए मजबूर होगी और यह क्रान्तिकारी शक्तियों को बुर्जुआ जनवाद के औपचारिक वायदों के साथ ‘ओवर-आइडेण्टिफाई’ करने और पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तरविरोधों को तीव्र करने का मौका देंगे। केवल ऐसे क्रान्तिकारी जनान्दोलनों को खड़ा करने के ज़रिये ही सर्वहारा वर्ग अपने वर्ग संघर्ष को मौजूदा राजनीतिक स्थिति में आगे बढ़ा सकता है।

उपरोक्त निष्कर्षों के आधार पर हमें अपने वर्तमान राजनीतिक कार्यभारों का व्यवस्थित और योजनाबद्ध तरीके से निर्धारण करना होगा। वक्त कम है, और काम बहुत ज़्यादा।

 

*(सैमुअल बेकेट के आधुनिकतावादी नाटकवेटिंग फॉर गोडोका मूल प्रसंग जिसमें कई चरित्र गोडो नामक एक अन्य चरित्र के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, लेकिन वह कभी नहीं आता)

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2023


 

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