महिला आरक्षण बिल पर सर्वहारावर्गीय नज़रिया क्या हो?

प्रियम्वदा

मोदी सरकार के बाकी जुमलों की तरह महिला आरक्षण बिल के जुमले की भी सच्चाई इसके आते के साथ ही खुल गयी। इस बिल का समर्थन करने वाले तमाम बुर्जुआ चुनावबाज़ राजनीतिक दलों की बुर्जुआ औरतों और खाते-पीते मध्यवर्ग से आने वाली महिलाओं के लिए भी यह फुसफुसा पटाका साबित हुआ। ज़ोरदार शोर-शराबे के साथ संसद के विशेष सत्र में इस बिल को लाया गया था और जमकर धुन्ध फैलायी गयी। परन्तु तब यह धुन्ध छटी तो यह बात सामने आयी कि इसे अगली जनगणना और फिर नये परिसीमन के बाद लागू किया जाएगा! सवाल यह उठता है कि अगर यह आरक्षण तत्काल लागू नहीं होने वाला था तो सरकार ने विशेष संसद सत्र बुलाकर इतने आननफ़ानन में इसका प्रस्ताव क्यों रखा? इस सवाल के जवाब पर हम आगे बात करेंगे पर उससे पहले अगर यह देखें कि नयी जनगणना और परिसीमन का काम कब तक किया जाना है तो यह जानकर आपको काफ़ी हैरानी होगी। हमें और आपको तो केवल हैरानी ही होगी परन्तु बुर्जआ महिलाओं, तमाम नारीवादियों और अस्मितावादियों के लिए यह ऐसा लड्डू साबित हुआ जो हाथ तो आया पर मुँह न लगा!

भारत में आख़िरी बार वर्ष 2011 में जनगणना हुई थी। हर दस साल में ये प्रक्रिया होती है लेकिन 2021 में जनगणना नहीं हुई। अगली जनगणना कब होगी, इसको लेकर भी अनिश्चतता है। लेकिन अगर 2031 में जनगणना होती है तो इसके आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन और विस्तार किया जायेगा। बुर्जुआ राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इस आरक्षण को वास्तविकता बनने में एक दशक से अधिक समय लगेगा। उनके अनुसार संविधान के अनुच्छेद 82 (2001 में संशोधित) के अनुसार, 2026 तक जनगणना के पहले आँकड़े आने से पूर्व परिसीमन नहीं कराया जा सकता है। यह जनगणना 2031 तक ही हो सकेगी। परिसीमन आयोग को अपनी फ़ाइनल रिपोर्ट देने में कम से कम 3 से 4 साल का समय लगता है और पिछले आयोग ने तो 5 साल में रिपोर्ट दी थी। दूसरा यह कि आबादी की दर में बदलाव को देखते हुए अगला परिसीमन विवादित हो सकता है। इस बात की सम्भावना पूरी है कि वर्ष 2037 के आसपास परिसीमन की रिपोर्ट मिलेगी और इसे  2039 तक लागू किया जा सकेगा।

यानी यह तो स्पष्ट है कि इस बिल को मोदी सरकार इतनी हड़बड़ी में इसलिए नहीं लेकर आयी है क्योंकि उसे महिलाओं के हितों की चिन्ता है! उसे बस इसके बूते औरतों के वोट चाहिए। इसके साथ ही जो लोग भी मोदी सरकार के इस कदम को लेकर वाहवाही के गुब्बारे फुला रहे थे उसकी हवा निकलते देर नहीं लगी और अब इस मसले पर इस बिल के समर्थक (सरकारी गैरसरकारी) भोंपूओं की घिग्घी बँधी हुई है! क्योंकि सबको पता चल चुका है कि यह बिल एक ऐसा बिल है, जो लागू होना ही नहीं है!

2014 में ‘महिला सशक्तीकरण’ और ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ के नारे के साथ आयी इस सरकार के 9 साल के कार्यकाल में स्त्रियों के हालात बद से बदतर हुए हैं। यह किसी से छिपा नहीं है। महिलाओं के लिए दुनिया के असुरक्षित देशों की सूची में भारत ने अव्वल स्थान प्राप्त कर लिया है! वहीं दूसरी तरफ बृजभूषण शरण सिंह सरीखे गुण्डे और पतित तत्वों ने इस देश की स्त्रियों के बीच भाजपाइयों के चाल-चरित्र-चेहरे को भी शीशे की तरह साफ़ कर दिया है। इस दौरान स्त्रियों के शोषण-दमन-उत्पीड़न में देश ने जो तरक़्क़ी हासिल की है वह अभूतपूर्व है। उन्नाव, कठुआ, हाथरस, बिल्किस बानो से लेकर मणिपुर तक की घटनाएँ इस दौर की वीभत्सता को बयान करती हैं।

संघ और भाजपा के लोग औरतों को बच्चे पैदा करने की मशीन और पुरुषों के पैरों की जूती समझते हैं और समाज में इस मानसिकता को खाद-पानी देने का काम करते हैं।  नवउदारीकरण के बाद, नव-धनाढ्यों की “खाओ-पियो-ऐश करो” की संस्कृति, जो औरतों को केवल उपभोग और विनमय की वस्तु के रूप में एक माल की तरह देखती है, के चलते स्त्री-विरोधी अपराधों में भयानक तेज़ी आयी है जो आज फ़ासीवाद के दौर में आँधी में तब्दील हो गयी है। स्त्रियों की ग़ुलामी को जायज़ ठहराने वाली यह फ़ासीवादी सरकार महिला आरक्षण बिल के ज़रिये एक बार फिर  महिलाओं की हितैषी बनने का दावा कर रही है ताकि 2024 के लोकसभा चुनावों में वोट बटोरे जा सकें। महिला आरक्षण बिल के पीछे इनकी असल मंशा आने वाले चुनाव के तैयारी है।

विधेयक में कहा गया है कि लोकसभा, राज्यों की विधानसभाओं और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की विधानसभा में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। इसमें पहला सवाल यह उठता है  कि संसद और विधानसभा में महिलाओं के आरक्षण मिलने से क्या बदलेगा? क्या इससे महिलाओं की तरक़्क़ी और आज़ादी सुनिश्चित होगी? उदाहरण के लिए अगर हम उन स्वशासित निकायों को देखें जहाँ महिला आरक्षण लागू हो चुका है तो हम पाते हैं कि उन पदों पर भी महिलाओं का होना प्रतीकात्मक ही साबित हुआ है। भले ही महिलाएँ प्रधान या पार्षद के तौर पर चुन ली जायें पर सभी फ़ैसले लेने का काम प्रधान पति/पिता और पार्षद पति/पिता ही करते हैं! अगर एक मिनट के लिए यह भी मान लें कि चुन के आने के बाद स्त्री ख़ुद भी निर्णय लेती है तब भी जो औरतें ख़ुद राजनीतिक तौर पर पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करती हैं, वे जनता के हक़ में कोई फ़ैसला कैसे ले सकती हैं? क्या आपको स्मृति ईरानी, मीनाक्षी लेखी, ममता बनर्जी जैसी पूँजीवादी नेताओं से जनता के हक़ में कुछ किये जाने की उम्मीद है? इनकी सच्चाई क्या पिछले कई वर्षों में आपने देखी नहीं है?

इसलिए इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि शासन करने वाला स्त्री है या पुरुष! एक पितृसत्तात्मक समाज में औरतों की ग़ुलामी का ख़ात्मा अस्मितावाद का खेल खेलने वाले ऐसे कुछ क़ानूनों के ज़रिये नहीं किया जा सकता है। जो लोग यह सोचते हैं कि समाज के पोर-पोर में बैठी पुरुष वर्चस्ववाद की मानसिकता को कुछ नियम-क़ायदे बनाकर ख़त्म किया जा सकता है वे लोग ना तो इतिहास की गति को समझते हैं और ना ही इस व्यवस्था के काम करने के तौर-तरीक़े को। कोई भी परिवर्तन “महान या ईमानदार सरकारों” द्वारा ऊपर से लाये गये क़ानून पास करके नहीं किये जा सकते हैं जैसा के अम्बेडकरवादियों और कई अस्मितावादियों को लगता है। इतिहास में होने वाला कोई भी आमूलगामी परिवर्तन जनता के एकजुट संघर्ष के दम पर ही सम्भव होता है। पितृसत्ता वर्ग और निजी सम्पत्ति के साथ अस्तित्व में आयी थी और उस पर असल चोट करने का काम वर्ग शोषण व उत्पीड़न तथा निजी सम्पत्ति और निजी मुनाफ़े पर टिकी व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष के ज़रिये ही हो सकता है, स्त्रियों के लिए शासनकारी निकायों में 33 प्रतिशत आरक्षण या 50 प्रतिशत आरक्षण के ज़रिये नहीं।

दूसरा सवाल यह कि भविष्य में अगर यह बिल लागू भी हो जाता है तो इससे किन महिलाओं के हितों की पूर्ति होगी?

महिला आरक्षण बिल से भले ही कुछ महिलाएँ संसद-विधानसभा के निकायों में पहुँच जायें पर असल में आम औरतों की ज़िन्दगी में इससे कोई परिवर्तन आने वाला नहीं है।

एक वर्ग-विभाजित समाज में अलग-अलग वर्गों से आने वाली स्त्रियों के हित कभी एक नहीं हो सकते। हम देख चुके हैं कि स्त्रियों के साथ होने वाले भयंकर अपराधों तक के मामले में शासक वर्ग से आने वाली स्त्रियों और उनकी चाटुकारी करने वाले स्त्रियों के तबके ने अपना मुँह कभी खोला हो! सिर्फ़ औरत होना ही अपने आप में प्रगतिशील होना नहीं है जो कई अस्मितावादियों को लगता है। पूँजीवादी पितृसत्तात्मक समाज में शासक वर्ग से आने वाली औरतें अपने ही वर्ग हितों की रक्षा करती हैं और उन्हीं पितृसत्तात्मक मूल्य-मान्यताओं को स्थापित करने का काम करती हैं जो स्त्रियों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाती हैं। स्मृति ईरानी, मीनाक्षी लेखी, सुषमा स्वराज या मायावती जैसी महिलाओं और देश के फैक्ट्रियों-कारख़ानों में काम करने वाली मज़दूर औरतों की कौन सी माँगें साझा हैं? गोल्डा मेयर, मारग्रेट थैचर या कोंडोलीज़ा राइस जैसी हत्यारी साम्राज्यवादियों और इन्दिरा गाँधी सरीखी स्त्रियों ने ही इतिहास में बुर्जुआ वर्ग के राज्य के शीर्ष पर बैठकर सबसे घनघोर प्रतिक्रियावादी कदमों को लागू किया है। बिलकुल साफ़ है कि राजनीतिक तौर पर खाते-पीते मध्यवर्ग या हुक्मरानों के साथ खड़ी महिलाओं और सामाजिक वर्ग के तौर पर मज़दूर पृष्ठभूमि से आने वाली महिलाओं के न तो हित एक हैं और ना ही कोई माँगें साझा हैं बल्कि एक-दूसरे के विरोध में खड़ी हैं। एक के लिए जो अमृत है दूसरे के लिए वह विष है! इसलिए, इस बिल को भी हमें वर्गीय नज़रिये से देखना होगा। वर्ग निरपेक्ष नज़रिया अपनाकर हम स्त्रियों की आज़ादी के प्रश्न को उठा ही नहीं सकते क्योंकि स्त्रियों का तबका एक वर्ग समाज में एकाश्मी तबका हो ही नहीं सकता!

मज़दूर-मेहनतकश पृष्ठभूमि से आने वाली महिलाओं के लिए महिला आरक्षण बिल का मुद्दा एक ग़ैर-ज़रूरी और महत्वहीन मुद्दा है। उन्हें इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि संसद-विधानसभा में बैठकर उनके लूट और शोषण  की नीतियाँ बनाने वालों में कितनी स्त्रियाँ हैं और कितने पुरुष, कितने दलित हैं और कितने सवर्ण, आदि! पूँजीवादी लूट-खसोट, बर्बरता और पितृसत्तात्मक वर्चस्व को लागू करने में वे स्त्रियाँ भी उतनी ही साझीदार हैं जिनका हित शासक वर्ग के साथ जुड़ा है। इस मुल्क को असल में चलाने वाली मेहनतकश महिलाओं को इससे क्या फ़र्क़ पड़ेगा कि उनका शोषण करने वाली जमात 100 फ़ीसदी पुरुषों की है या फिर 67 फ़ीसदी पुरुषों और 33 फ़ीसदी स्त्रियों की? उनको फ़र्क़ केवल और केवल तब पड़ सकता है जब पूँजीवादी शोषणकारी व्यवस्था नष्ट हो। स्त्रियों को ग़ुलाम समझने की मानसिकता पूँजीवादी व्यवस्था से नाभिनालबद्ध है। पूँजीवाद ने समाज के पोर-पोर में पैठी पितृसत्तात्मक मूल्य-मान्यताओं को सहयोजित कर लिया है जिससे स्त्रियों के उत्पीड़न को वैध और उचित ठहराने के लिए आधार हासिल हो जाता है। पूँजीवादी व्यवस्था में पितृसत्ता सामाजिक उत्पीड़न का एक अहम रूप है जिसका दंश ख़ास तौर पर स्त्रियों और बच्चों को झेलना पड़ता है। पितृसत्तात्मक मानसिकता के ख़ात्मे और स्त्रियों की मुक्ति के बिना जन-मुक्ति का कोई भी संघर्ष सम्भव नहीं है।

सवाल इस पितृसत्तात्मक पूँजीवादी शोषण के व्यवस्था के ख़ात्मे का है। तभी जाकर सही मायने में आधी आबादी की मुक्ति सम्भव हो सकती है और इसके लिए लड़े जाने वाले संघर्ष में वर्ग आधारित एकता क़ायम किये जाने की ज़रूरत है, महिला आरक्षण जैसे जुमलों के पीछे भागने की नहीं।

 

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2023


 

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