मोदी सरकार के दस साल और राज्यसत्ता का फ़ासीवादीकरण

प्रियम्वदा

मोदी सरकार के दस साल के कार्यकाल में राज्य के तमाम अंग-उपांगों का जिस तौर पर चरित्र बदला है वह बिल्कुल साफ़-साफ़ देखा जा सकता है। नौकरशाही, पुलिस, सेना, मीडिया से लेकर न्याय व्यवस्था का फ़ासीवादीकरण बीते दस सालों में बख़ूबी किया गया है।

इक्कीसवीं सदी के फ़ासीवाद ने जहाँ एक तरफ़ अपने जर्मनी और इतालवी पितामहों से काफ़ी कुछ सीखा है वहीं दूसरी तरफ़ उन्होंने इतिहास से सबक लेते हुए समाज में जड़ें जमाने के लिए अपनी कार्यपद्धति में कई बदलाव किये हैं।

इसी बदलाव को न समझ पाने के कारण हमारे देश में कई ऐसे संगठन, ग्रुप्स और बुद्धिजीवी हैं जो यह भ्रम पाल के बैठे है कि अभी फ़ासीवाद नहीं आया है। उन्हें लगता है फ़ासीवाद तभी आ सकता है जब संसदीय व्यवस्था ख़त्म होगी, विरोधी दलों का पूर्ण सफ़ाया होगा और चुनाव प्रणाली से लेकर न्याय व्यवस्था पूरी तरह ख़त्म हो जायेगी इत्यादि! मगर ये लोग 21वीं सदी के फ़ासीवाद की विशिष्टता को समझ पाने में असफल हैं। आज भारत में मौजूदा फ़ासीवादी ताकतों को बुर्जुआ जनवाद के रूप को बनाये रखने में अधिक फ़ायदा है। ऐसा क्यों हैं इसके कारणों पर हम आगे बात करेंगे। अभी हम कई उदाहरणों से इस बात को पुष्ट करेंगे कि फ़ासीवादियों ने एक लम्बे समय में और ख़ासकर बीते 10 सालों में कैसे राज्यसत्ता के सभी उपकरणों का अन्दर से ‘टेकओवर’ करने का काम किया है।

मोदी सरकार के राज में संसदीय जनवादी प्रक्रिया जिस तरह से बाधित हुई है वह किसी से छुपी हुई नहीं है। विपक्ष के सांसदों को बहस के लिए न बोलने देना हो या पूरे सत्र के लिए दर्जनों सांसदों का निलम्बन करना हो, यह सब ‘संसदीय’ तौर-तरीक़ों के ज़रिये किया जा रहा है। इस सरकार ने पिछले दस सालों में कई क़ानून संसद में पारित किये बिना ही अध्यादेश के ज़रिए लागू कराये हैं। 

आज राज्य मशीनरी के हर महत्वपूर्ण पद पर संघ या भाजपा से जुड़े लोग या उनके प्रतिबद्ध लोग विराजमान हैं। चुनाव आयोग हो, सुप्रीम कोर्ट हो, दूरदर्शन, यूजीसी, एनसीईआरटी, मानवाधिकार आयोग, नीति आयोग, आरबीआई, महिला आयोग, फिल्म सर्टिफिकेशन बोर्ड हो या विश्वविद्यालयों में वीसी से लेकर कॉलेज प्रधानाचार्य का पद हो, संघ ने हर स्तर पर फ़ासीवादी विचारधारा को फैलाने वाले लोगों को नियुक्त किया है। जिन राज्यों में ये सत्ता में मौजूद नहीं है वहाँ भी राज्य सरकारों के कामों में अपने द्वारा नियुक्त किये गये राज्यपालों के ज़रिये पूरी तरह हस्तक्षेप कर रहे हैं। 

जिन जगहों पर “डबल इंजन” के रूप में ये हैं, जैसे यूपी मॉडल, असम मॉडल, गुजरात मॉडल, वहाँ पूरी राज्य मशीनरी को मुस्लिम आबादी के ख़िलाफ़ प्रचार के लिए प्रयोग में ला रहे है। मुस्लिम बहुल बस्तियों पर अवैध निर्माण के नाम पर बुलडोज़र चढ़ाना, अवैध शादियों की जाँच के नाम पर मुस्लिमों को जेल में डालना, मदरसों को निशाना बनाना, यह सब काम भाजपा सरकार राजकीय तंत्र और क़ानूनी व्यवस्था के ज़रिये ही कर रही है।

नौकरशाही की बात करें तो इससे कोई आँखें नहीं चुरा सकता कि मौजूदा नौकरशाही भी फ़ासीवादी एजेण्डे को खुलेआम लागू कर रही है! अभी हाल ही में योगी सरकार ने उत्तर प्रदेश के सभी सरकारी विभागों को यह आदेश दिया कि अयोद्धा में होने वाले राम मन्दिर के उद्घाटन से पहले अपने-अपने कार्यालयों में रामभजन और रामायण पाठ जैसे कार्यक्रम आयोजित करें। वहीं हलाल सर्टिफिकेशन जाँच के नाम पर पुलिस और एसटीएफ़ का इस्तेमाल कर मुस्लिम आबादी को निशाना बनाया जा रहा है।

पुलिस, सेना से लेकर सीबीआई, ईडी, रॉ जैसी संस्थाएँ आज नंगे तौर पर फ़ासीवादियों के हाथों की कठपुतली बनी हुई हैं। बीते साल प्रमुख अमेरिकी अख़बार ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ की एक रिपोर्ट ने यह खुलासा किया कि रॉ के एक उच्च अधिकारी कर्नल दिव्य सतपथी डिसिनफो लैब नामक एक फ़र्ज़ी रिसर्च कम्पनी बनाकर विदेश में रह रहे मोदी सरकार के विरोधियों को अपना निशाना बना रहे थे। रॉ द्वारा संचालित इस कंपनी का कार्यभार था मोदी-शाह हुकूमत के आलोचकों को और ऐसे समूहों को भारत के ख़िलाफ़ एक वैश्विक साज़िश के रूप मे पेश करना और उन्हें फ़र्ज़ी मुक़दमों में जेल भेजने का अधार बनाना।

जहाँ एक तरफ़ रॉ, ईडी, सीबीआई जैसी संस्थाएँ 2014 के बाद से विपक्षी चुनावी दलों के नेताओं के पीछे लगे रहने में काफी सक्रिय रही हैं वहीं दूसरी तरफ़ भाजपा के नेता-मंत्रियों के सारे दाग धोने का भी काम इनके ज़रिये किया गया है। मज़ेदार बात यह है कि यही विपक्षी नेता अगर भाजपा में शामिल हो जायें तो इनकी जाँच करना ये एजेंसियाँ बन्द कर देती हैं । उदाहरण के तौर पर असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्व शर्मा के मामले को ले लीजिए। जब तक वह कांग्रेस में थे, शारदा चिट फण्ड घोटाले को लेकर जाँच एजेंसियाँ अपना काम बख़ूबी कर रहीं थी मगर उनके भाजपा की गोद में आकर बैठने के साथ ही पूरी जाँच को साँप सूँघ गया। वहीं टीएमसी के नेता सुवेन्दु अधिकारी नारद स्टिंग ऑपरेशन मामले में ईडी और सीबीआई के जाँच के केन्द्र में थे मगर जबसे वह भाजपा में शामिल हुए हैं उनके ऊपर चल रही सभी जाँच-पड़ताल थम गयी। ऐसा ही महाराष्ट्र के वर्तमान उपमुख्यमंत्री अजित पवार का मामला है जिन्हें ख़ुद नरेन्द्र मोदी ने महाभ्रष्ट बताया था लेकिन पार्टी तोड़कर शिवसेना-भाजपा सरकार में शामिल होते ही उनके सारे आरोप धुल गये!

मोदी-शाह राज में न्याय व्यवस्था के चेहरे से न्याय की पट्टी का आख़िरी धागा भी निकल गया है। यह अनायास ही नहीं था जब पूरे इतिहास को झुठलाते हुए मस्जिद की जगह पर राम मन्दिर बनाने का फैसला सुप्रीम कोर्ट की रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली बेंच ने दिया जिसके बाद गोगोई जी राज्य सभा के सदस्य बना दिये गये! यह कैसे भूला जा सकता है कि 2019 के चुनाव से ठीक पहले कोर्ट ने राफ़ेल विमान ख़रीद घोटाले में मोदी सरकार को क्लीन चिट दे दी और इस घोटाले की जाँच की माँग तक को ख़ारिज कर दिया। गुजरात के बलात्कारी दंगाइयों को बरी करने से लेकर धारा 370 हटाने की बात हो, जज लोया की संदिग्ध मौत का मुकदमा हो या फिर अडानी को क्लीन चिट देने का फैसला, सुप्रीम कोर्ट मोदी सरकार और संघ परिवार की ज़ुबान ही बोलती हुई दिखी है। गुजरात उच्च न्यायालय के फ़ैसलों में जिस भाषा का प्रयोग किया गया है वह कई बार यह अन्तर ही मिटा देता है कि फ़ैसला कोर्ट दे रहा है या भाजपा सरकार का कोई मंत्रालय! बनारस और मथुरा में मस्जिद के अन्दर मन्दिर के अवशेष ढूँढने की इजाज़त कचहरी ही देती रही है। अब तो प्रशान्त भूषण से लेकर दुष्यंत दवे जैसे वरिष्ठ वकीलों ने ये  सवाल उठाने शुरू कर दिये हैं कि  सुप्रीम कोर्ट में राजनीतिक महत्व के मुकदमे मोदी के मुख्यमंत्री काल में क़ानून सचिव रही बेला त्रिवेदी को ही क्यूँ मिल रहे हैं? 

क्या यह अनायास ही है कि सत्ता पक्ष यानी भाजपा व संघ परिवार से जुड़े हत्यारों, दंगाइयों, बलात्कारियों, भ्रष्टाचारियों को कोई सज़ा नहीं मिलती है? अमित शाह, आदित्यनाथ से लेकर बृजभूषण शरण सिंह, प्रज्ञा सिंह ठाकुर, अनुराग ठाकुर, कपिल मिश्रा, संगीत सोम, असीमानन्द “बाइज़्ज़त बरी” कर दिये जाते हैं और इनके ख़िलाफ़ दर्ज हत्याओं, दंगों, धार्मिक उन्माद फ़ैलाने, नफ़रती भड़काऊ भाषणों के तमाम मामले रातोंरात ग़ायब हो जाते हैं। वहीं दूसरी तरफ़ जनपक्षधर पत्रकार, कलाकार, एक्टिविस्ट, इंसाफपसन्द शिक्षक, बुद्धिजीवी, साहित्यकार, सीएए-एनआरसी का विरोध करने वाले छात्र-युवा बिना किसी सबूत के सालों-साल जेलों में क़ैद रखे जाते हैं। फ़ासीवादियों के प्रति न्यायपालिका की इस “निष्पक्षता” के हज़ारों उदाहरण हमें मिल जायेंगे। मोदी राज में न्याय व्यवस्था सिर्फ़ पूँजीपतियों और फ़ासिस्टों के दाग धोने और उन्हें अपराधमुक्त करने में लगी है। न्यायपालिका से लेकर नौकरशाही, पुलिस, सेना तक हर जगह ही शीर्ष पदों पर पहुँचने वाले अफ़सरान सरकार की जी-हज़ूरी करने वाले लोग हैं, भाजपा, आरएसएस, विश्व हिन्दू परिषद के काडर हैं या उनसे सम्बन्ध रखते हैं।

शिक्षण संस्थानों को देखें तो आज वहाँ नियुक्तियों से लेकर पढ़ाये जाने वाले पाठ्यक्रम भी सीधे तौर पर संघ के एजेण्डे के तहत तय हो रहे हैं। देशस्तर पर शिक्षा के साम्प्रदायिकीकरण का अभियान और छात्रों के बीच अतार्किकता, अवैज्ञानिकता और अनैतिहासिकता फैलाने की इनकी योजना लम्बे समय से चल रही थी। सरस्वती शिशु मन्दिर से शुरू होते हुए आज तमाम प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में भी इन्होंने अपनी घुसपैठ कर ली है। ऐसे कोर्स और विभाग को बीते कुछ सालों में लाया गया है जो संघ की विचारधारा को छात्रों के बीच बिठाने के प्रयास में लगे हुये हैं। कई केन्द्रीय विश्वविद्यालयों तक में ज्योतिष, वास्तु, कर्मकाण्ड आदि विभाग खोले गये हैं जिसके ज़रिये अन्धविश्वास को नये सिरे से ज़ेहन में बिठाने की मुहिम चल रही है। हास्यास्पद बात यह है कि छात्रों-युवाओं को यह भी बताया जा रहा है कि इससे रोज़गार के नये अवसर मिलेंगे! पाठ्यक्रम में बदलाव के नाम पर जहाँ एक तरफ़ इतिहास के पाठ्यपुस्तकों से मुगलों के इतिहास को हटाया जा रहा है, लोकतंत्र पर अध्याय और डार्विन के सिद्धान्त को ग़ैर-ज़रूरी बताया जा रहा है वहीं दूसरी ओर छात्रों को भारतीय ज्ञान, परम्पराएँ और रीति-रिवाज के ज़रिए ‘भारतीय ज्ञान प्रणाली’ हासिल करवायी जा रही है। शिक्षा व्यवस्था के साथ-साथ पूरी मीडिया के जरिये फ़ासिस्ट आज मिथकों को समाज में कॉमन सेंस के तौर पर बिठाने का काम कर रहे हैं और वैज्ञानिक और ऐतिहासिक नज़रिए (जिससे इन्हें सबसे अधिक डर लगता है) को कुन्द करने के लिए नये-नये प्रपंच रच रहे हैं!

उपरोक्त उदाहरण यह सिद्ध करने के लिए काफ़ी हैं कि भारत में राज्य उपकरणों का किस क़दर फ़ासीवादीकरण हुआ है। नौकरशाही, सेना, पुलिस, सशस्त्र बलों, न्यायपालिका और यहाँ तक कि मीडिया में दशकों में फैली आणविक व्याप्ति (molecular permeation) की एक लम्बी प्रक्रिया के ज़रिये इन्होंने अपनी अवस्थिति को सुदृढ़ किया है और इन तमाम उपकरणों का अन्दर से इस हद तक ‘टेकओवर’ किया है जिस हद तक इन्हें अपने एजेण्डे को लागू करने में रत्तीभर भी समस्या न पैदा हो!

इक्कीसवीं सदी के फ़ासीवाद की एक ख़ासियत यह है कि वह हिटलर मुसोलिनी के समान आपवादिक क़ानून लाकर संसद चुनावों को भंग नहीं करता, वह संविधान और न्याय का खोल बनाये रखना चाहता है लेकिन औपचारिक तौर पर संसद, चुनावों, न्यायालय आदि को बनाये रखते हुए भी सत्ता में होने पर इनकी अन्तर्वस्तु को धीरेधीरे समाप्त कर देता है। जिसका नतीजा यह होता है कि सिर्फ़ पूँजीवादी जनवाद का खोल बचता है और अन्तर्वस्तु विसर्जित हो जाती है। (हमने मज़दूर बिगुल के अक्टूबर-2023 अंक के सम्पादकीय में इस बात पर विस्तारपूर्वक लिखा है।)

फ़ासीवादी शक्तियाँ बुर्जुआ जनवाद के इस खोल को बरकरार रखकर आज वे सारे काम कर सकती हैं जो बुर्जुआ वर्ग के हितों के सामूहिकीकरण के लिए अनिवार्य हैं। भारत के फ़ासीवादी संघ और भाजपा भी जर्मनी और इटली के इतिहास से सीखते हुए आज इसी को अंजाम दे रहे हैं। फ़ासीवादी संघ ने आज़ादी के बाद से ही राज्य तथा समाज के पोर-पोर में पैठ बनायी है। वहीं बुर्जुआ वर्ग ने भी यह समझदारी दिखायी है कि बुर्जुआ जनवाद के रूप को बनाये रखना उनके लिये अधिक फ़ायदेमन्द है क्योंकि यह अधिक वर्चस्वकारी है और पूर्ण रूप से प्रभुत्व पर आधारित नहीं है। इसमें कोई दिक़्क़त उन्हें इसलिए भी नहीं है क्योंकि नवउदारवाद के दौर में बुर्जुआ जनवाद और न्याय जैसी चीज़ों की अन्तर्वस्तु इतनी क्षरित और खोखली हो चुकी है कि उसके रूप के क़ायम रहते वो सबकुछ कर सकते हैं जो उन्हें करना है! साथ ही, फ़ासीवादी शक्तियों का सत्ता से कई बार हट हो जाना सम्भव होता है, लेकिन दीर्घकालिक पूँजीवादी संकट के दौर में फ़ासीवादी ताक़तें हमेशा अधिक आक्रामकता के साथ सत्ता में लौटती हैं, क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे में पूँजीपति वर्ग के पास यही विकल्प बचा होता है। ऐसे में, जब फ़ासीवाद सत्ता से बाहर भी होता है, तो वह जर्मनी में हिटलर के नात्सी या इटली में मुसलिनी के फ़ासिस्ट उभार की तरह नष्ट नहीं हो जाता। वह समाज और राजनीति में अपनी पकड़ बनाये रखता है, मज़दूरों और मेहनतकशों तथा अल्पसंख्यकों के लिए शासक वर्ग की समानान्तर सत्ता का काम करता है। वजह साफ़ है : दीर्घकालिक संकट के दौर में, फ़ासीवाद पूँजीपति वर्ग के लिए एक सतत् अनिवार्यता है।

उपरोक्त पूरी बात को समझना इसलिए ज़रूरी है क्यूँकि यह फ़ासीवाद को हराने की रणनीति से जुड़ा है। केवल चुनाव के ज़रिये फ़ासीवाद को हराने का सपने देखने वाले लोगों के लिए इस सच्चाई को समझना बेहद ज़रूरी है। दूसरी बात, यह उन लोगों के लिए भी महत्वपूर्ण है जिन्हें लगता है कि फ़ासीवाद भारत में अभी नहीं आया है और यह केवल तभी आ सकता है जब यहाँ भी जर्मनी और इटली की तरह आपवादिक क़ानून के ज़रिये बुर्जुआ जनवाद को भंग किया जायेगा ।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2024


 

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