गुड़गाँव में किशोर घरेलू कामगार के साथ क्रूरता का एक और मामला
ऐसी बढ़ती घटनाओं के बुनियादी कारण और इनके निवारण के प्रति नज़रिये और दिशा का सवाल

प्रशान्त कुमार

गुड़गाँव जैसी चमचमाती मेट्रोपॉलिटन सिटी के सेक्टर 67, कुबेर सिटी में 13 साल की लड़की के साथ हुई अमानवीय शोषण व अत्याचार की घटना एक बार फिर सामने आयी है। इस बार एक माँ और उसके 2 बेटों ने किशोर लड़की को घरेलू काम करने के लिये अपने अपार्टमेंट में ग़ुलाम ही नहीं बनाये रखा बल्कि उसके साथ वहशी तरीकों से अत्याचार किये गये। लड़की को नंगा करके वीडियो बनाया गया और उसका यौन शोषण किया गया। इतना ही नहीं, इन वहशी दरिन्दों ने उसके हाथों को एसिड से जला दिया, पीटने के लिए लोहे की रॉड और हथौड़े का इस्तेमाल किया, मुँह पर टेप लगाकर बन्धक बनाकर रखा और अपने कुत्ते को उसे काटने के लिए उकसाया। साथ में धमकी दी गयी कि इस क्रूरता के बारे में किसी को बताया तो उसे वेश्यालय भेज दिया जायेगा और माँ-बाप को जान से मार दिया जायेगा। लड़की की माँ जो ख़ुद एक घरेलू कामगार है, उसने किसी तरह अपनी बेटी को 5 महीने के बाद इन वहशियों के चंगुल से छुड़ाया और पुलिस में रिपोर्ट करायी। बिहार के सीतामढ़ी ज़िले में रहने वाले उसके पिता एक माली का काम करते हैं और 2 साल पहले ही अपने परिवार के साथ ग़रीबी व आर्थिक तंगी की वजह से गुड़गाँव शहर आये थे। यहाँ आकर उन्हें अन्याय और शोषण की इस कड़वी सच्चाई से रूबरू होना पड़ा। इसी शहर में सिक्योरिटी गेटों के पीछे अपनी सुरक्षा के लिए चिन्तित सम्भ्रान्त उच्च व मध्य-मध्य वर्ग समुदाय अपने व्हाट्सएप ग्रुपों में इन घरेलू कामगारों के अधिकारों व सुरक्षा पर कोई चर्चा करने के बजाय उनपर शक़ व संशय ही ज़ाहिर करता है। उनके द्वारा उठायी जा रही माँगों को अनुचित करार देते हुए टीका-टिप्पणी के साथ-साथ ब्लैकलिस्ट (अयोग्य घोषित) करने की फ़िराक में रहता है। हक़ माँगने और सवाल करने पर यातनाएँ देने और उत्पीड़न करने में जरा भी देर नहीं लगाता है।

बीते साल का यह इक़लौता मामला नहीं है। पिछले फ़रवरी में गुड़गाँव की न्यू कालोनी में रहने वाले एक नामचीन बीमा कम्पनी के जनसम्पर्क विभाग में कार्यरत कामकाजी दम्पत्ति द्वारा झारखण्ड से रखी गई 17 वर्षीय महिला घरेलू कामगार के साथ इसी तरह की क्रूरता व यौन उत्पीड़न का मामला सामने आया था। 2015 में भी गुड़गाँव में एक दम्पत्ति द्वारा 13 वर्षीय घरेलू कामगार लड़की को अलमारी में बन्द करने की घटना सामने आयी थी। इसी साल जुलाई में नोएडा (यूपी) के ‘महागुन अपार्टमेंट’ में बन्धक बनाकर मारपीट करने की घटना सामने आई थी। गुड़गाँव, नोएडा, दिल्ली जैसे इलाकों में मनमर्ज़ी से वेतन, काम के अनिश्चित घण्टे, दिन व छुट्टी का सवाल के साथ-साथ गाली-गलौज, छोटी-मोटी पिटाई, छेड़छाड़ तो आम बात है जो अपनी नौकरी खोने के डर से उन्हें चुपचाप सहना पड़ता है। घरेलू कामगारों में 99 प्रतिशत महिलाएँ ही होती हैं। अगर कोई अत्याचार के ख़िलाफ़ कुछ बोलने की कोशिश भी करता है तो उसे चोरी के इल्ज़ाम में फँसाने की धमकी दी जाती है। वास्तव में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में इन तथाकथित सम्भ्रान्त-सम्पन्न नियोक्ताओं (मालिकों) द्वारा महिला घरेलू कामगारों का किसी न किसी रूप में शोषण और उत्पीड़न आम है। ध्यान दें कि यही वह खायापिया, अघाया, मुटियाया उच्च मध्यवर्ग है जो नरेन्द्र मोदी और भाजपा के गुणगान करता है और राम मन्दिर कीप्राणप्रतिष्ठाके नाम पर धर्मध्वजाधारी बनकर देश में दंगे जैसा माहौल बनाने में पर्याप्त योगदान कर रहा है।

बेशक गुड़गाँव की इस ताज़ा घटना के आरोपी क़ानून की गिरफ़्त में हैं और आरोपियों की पहचान करके उनपर पॉक्सो (यौन अपराधों से बच्चों का बचाव) अधिनियम व अन्य ज़रूरी किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015; भारतीय दण्ड संहिता की धारा 289 (जानवरों की उपेक्षा), 323 (चोट पहुँचाना), 34 (सामान्य इरादा), 344 (ग़लत कारावास), 506 (आपराधिक धमकी), और 509 (किसी महिला की गरिमा का अपमान करना) आदि धाराएँ भी लगा दी गयी हैं। इतना भी नहीं होगा तो ग़रीब मेहनतक़शों का गुस्सा लावे की तरह फटने का डर भी हुक्मरानों और उनके समर्थक वर्गों को सताता रहता है।

यह डर ही है जिसके कारण गुड़गाँव का प्रशासन, क़ानून, श्रम और स्वास्थ्य सहित विभिन्न विभागों के अधिकारी तथा एन.जी.ओ. मिलकर घरेलू कामगारों के हितों की रक्षा के उद्देश्य से अधिकारों का एक चार्टर एक सप्ताह में बनाने का दावा भी कर रहे हैं। इसमें न्यूनतम वेतन, काम करने की स्थिति, आयु प्रतिबन्ध और अन्य आवश्यकताओं आदि का उल्लंघन होने पर क़ानून की रूपरेखा तैयार करेगी जिनका नियोक्ताओं को पालन करना होगा। जिसमें आवासीय कल्याण संघों (आर.डब्ल्यू.ए.) को उनकी सोसायटी में काम करने वाले घरेलू कर्मचारियों पर जानकारी (डेटा) एकत्र और सत्यापित करने व नाबालिग के काम पर रोक आदि उपायों पर भी जोर देगा। वास्तव में ऐसी बयानबाज़ी और घोषणाएँ भी तभी सामने आती हैं जब कोई ऐसी घटनाएँ मीडिया की नज़र में और चर्चा में सामने आ जाती हैं।

ऐसा ही एक क़ानून असंगठित मज़दूर सामाजिक सुरक्षा क़ानून, 2008’ लाया गया जिसमें न तो न्यूनतम वेतन, समय और सुरक्षा आदि पर कोई स्पष्ट बात है और न उनका उल्लंघन होने पर किसी दण्डानात्मक कार्यवाही का कोई स्पष्ट प्रावधान। लेकिन इसी प्रशासन के पास इसका कोई जवाब नहीं है कि 2016 में प्रस्तावित घरेलू कामगार कल्याण और सामाजिक सुरक्षा विधेयक ठण्डे बस्ते में क्यों डाल दिया है? उल्टा नये लेबर क़ानूनों के जरिये मज़दूरों के पहले से अर्जित क़ानूनी अधिकारों को ख़त्म कर घरेलू कामगारों के लिए कल्याण बोर्ड स्थापित करने के दावे किये जा रहे हैं। लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त तो हम जानते ही हैं। साल दर साल अनेक मामले सामने आ रहे हैं जिसमें घरेलू कामगारों का उत्पीड़न किया जा रहा है। आइ.एल.ओ. (अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन) ख़ुद इसकी पुष्टि कर चुका है।

दिल्ली एन.सी.आर. में पिछले एक साल में 8 से ऊपर ऐसी भयानक घटनाएँ अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बन चुकी हैं। 2018 के गुड़गाँव, फ़रीदाबाद में सर्वेक्षण के मुताबिक, 29% से अधिक महिला घरेलू कामगारों ने काम पर यौन उत्पीड़न तथा 65.6% ने पीछा करना सबसे आम बताया। लगभग 61.8% ने भद्दे इशारे और सीटी बजाने  52% ने यौन संकेत/सामग्री वाले एस.एम.एस. या व्हाट्सएप सन्देश भेजने का हवाला दिया। यह है मोदीसमर्थक भक्तों के वर्ग का चालचेहराचरित्र! एक अन्य शोध में पाया गया कि 29% से अधिक महिला घरेलू कामगारों का कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न किया गया है। जिन लोगों ने यौन उत्पीड़न का अनुभव किया, उनमें से 20% ने पुलिस में शिकायत की लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। वास्तव में ऐसे प्रकरणों की संख्या कई गुना ज़्यादा है जो खाते-पीते उच्च मध्यवर्ग के पैसे व रसूख़ के चलते सामने नहीं आ पाते हैं। यानी पॉक्सो अधिनियम से लेकर स्त्री विरोधी अपराध को रोकने के लिए कई क़ानून मौजूद तो हैं, लेकिन फिर भी महिला उत्पीड़न से लेकर बलात्कार, यौन उत्पीड़न जैसी घटनाएँ बढ़ती ही जा रही हैं।

ज़्यादातर मामलों में पीड़ित घरेलू कामगार देश के पिछड़े व ग़रीब इलाकों से आते हैं। पश्चिम बंगाल, बिहार और ओडिशा से तस्करी कर लायी गयी नाबालिग लड़कियाँ घरेलू कामगारों में बड़ी तादाद में पायी गयी हैं। बहुतेरे मामलों में अवैध प्लेसमेंट एजेंसियों द्वारा उन्हें रखा जाता है। उनके साथ अत्याचार व शोषण के मामले आये-दिन सामने आते रहते हैं। अन्याय और ऐसी हैवानियत होने पर किसी पुख़्ता सुरक्षा व सूचना तंत्र के अभाव के चलते नाबालिगों को उनके परिवारों से काट दिया जाता है। बोलने पर झूठे चोरी के इल्ज़ाम में फँसाने, बदनाम करने का डर दिखाने से लेकर जान से मारने का डर दिखाकर इन्हें चुप करा दिया जाता है। इसकी वजहों को समझने की ज़रूरत है। आम तौर पर, पुलिस भी इसमें इन उच्च मध्यवर्ग के इन तथाकथित शरीफ़ज़ादों का साथ देती है।

पहली बात तो यह है कि घरेलू कामगार अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्र का हिस्सा है, जो किसी क़ानून के दायरे में नहीं आता। इन अर्थों में यहाँ अनौपचारिकता सबसे ज़्यादा है और इसीलिए संगठित होने की चुनौतियाँ भी ज़्यादा हैं। मज़दूरी, काम के घण्टों और वेतन के लिए कोई क़ानूनी प्रावधान यानी किसी तरह की पुख़्ता भरती व नियुक्ति का देश में क़ानूनी ढाँचा ही नहीं है। तमिलनाडु, महाराष्ट्र, केरल, आन्ध्र प्रदेश जैसे राज्यों में सरकारें घरेलू मज़दूरों को कुछ क़ानूनी अधिकार देने के लिए मज़बूर हुई हैं। लेकिन वास्तव में यह सबको पता ही है कि पैसा-रुतबा व असर-रसूख रखने वालों के पक्ष में ही क़ानून और न्याय झुकता है। 1990 में भारत के शासक वर्ग द्वारा श्रम क़ानूनों को ढीला करने की नयी उदारवादी नीतियों को लागू करने के बाद के पूरे दौर में घरेलू कामगारों की संख्या में भी एक सौ बीस फ़ीसदी की भारी बढ़ोतरी हुई है। 2014 के बाद से केन्द्र और बहुत सारे राज्यों में आज भाजपा की फ़ासीवादी सरकारें सत्ता में बैठीं हैं। तब से आज तक देश में औपचारिक व संगठित क्षेत्र के मज़दूरों के संघर्षों व कुर्बानियों की बदौलत हासिल अधिकारों को भी नये लेबर कोड के ज़रिये छीनने की तैयारी की जा चुकी है। ऐसे में घरेलू कामगारों के लिए अब कोई भी क़ानून और सुरक्षा बिना किसी जुझारू संघर्ष के सम्भव ही नहीं है।

दूसरे पहलू को भी समझने की ज़रूरत है। वह यह कि पूँजीवादी आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था और संस्कृति समाज में इतनी बड़ी खाई बना देती है कि उच्च मध्य वर्ग के लोग कामगारों को इन्सान मानते ही नहीं। वे भयंकर ब्राह्मणवादी, जातिवादी, नस्लवादी चेतना रखते हैं और इस प्रकार की चेतना के कारण ही नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक दृश्यपटल पर उभरते ही, यह वर्ग सबसे तेज़ी से उसका भक्त बना। घरेलू कामगारों पर अत्याचार करना वे अपना हक़ समझते हैं, और उन्हें एकदम ग़ुलामों की तरह खटाते हैं। वैसे तो पूँजीवादी व्यवस्था स्त्री के श्रम का अवमूल्यन करती है और उसके सस्ते श्रम के शोषण को आसान बना देती है।

घरेलू कामगार भी समूची शोषित मज़दूर आबादी का ही अंग हैं। वे भी अपनी श्रमशक्ति धनिक व उच्च मध्यवर्ग के परिवारों को बेचते हैं। वे कोई किसी पूँजीपति के लिए माल-उत्पादन नहीं कर रहे हैं और पूँजीवादी अर्थों में उनका श्रम मूल्य नहीं पैदा कर रहा। वह ग़ैर-उत्पादन श्रम है। लेकिन उनका भी शोषण ही हो रहा है क्योंकि वे अपनी श्रमशक्ति बेच रहे हैं और बदले में एक औसत कार्यदिवस कार्य करते हैं और जीने की खुराक बराबर मज़दूरी पाते हैं। भयंकर बेरोज़गारी की स्थिति में बेहद कम मज़दूरी और साथ ही औरतों की दोयम/ग़ुलामी की स्थिति के कारण एक विशाल आबादी आज घरेलू कामगारों के तौर पर काम करने के लिए मजबूर है।

दूसरा, घरेलू कामगारों में पुरुष भी आज बड़ी संख्या में हैं लेकिन बहुसंख्या स्त्रियों की ही है। पूँजीवादी समाज में स्त्री शरीर को एक उपभोग की वस्तु के रूप पेश किया जाता है। इस सोच व संस्कृति को पूँजीवादी मीडिया व फिल्मों के जरिये खाद-पानी दिया जा रहा है। इसी कुसंस्कृति की वजह से इस पूँजीवाद समाज में स्त्री विरोधी मानसिकता को और बढ़ावा मिल रहा है। गुड़गाँव की इस घटना में भी किशोर महिला कामगार को नग्न कर वीडियो बनाने का घिनौना कृत्य इस मानसिकता को ही दर्शाता है। इसलिए ऐसे अपराधों की जड़ में पूँजीवादी व्यवस्था और और उसके द्वारा सहयोजित कर ली गयी पितृसत्ता के अपवित्र गठजोड़ को भी समझना होगा।

तीसरे, कुछ लोगों को यह चौंकाने वाला तथ्य लगता है कि यहाँ पर घरेलू कामगार का यौन शोषण करने वाले दो नौजवान थे और उनकी माँ इस काम में उनका साथ दे रही थी! असल में भारतीय समाज तो शुरू से पितृसत्ता की समस्या से ग्रसित है। पितृसत्ता का एक पहलू जो पुरुष श्रेष्ठताबोध को दर्शाता है। लेकिन समाज में मध्य वर्ग या उच्च मध्य वर्ग की स्त्रियाँ भी स्वयं पितृसत्ता का शिकार होती हैं और साथ ही वे पितृसत्ता की पुरुषों से भी अच्छी वाहक होती हैं। विशेष तौर पर, मध्यवर्ग व उच्च मध्यवर्ग की कई स्त्रियाँ उच्च वर्ग के सुख और सुरक्षा के बदले अपनी स्वतन्त्रता को गिरवी रख देती हैं और पुरुषों से भी ज़्यादा पुरुषवादी और पितृसत्तावादी बन जाती हैं। मज़दूर वर्ग की स्त्रियों के प्रति भी इनका नज़रिया अमानवीय होता है। वे सामाजिक रूप से दमित होने के बावजूद अपनी उच्चवर्गीय अवस्थिति की वजह से मालिक जैसा ही व्यवहार करती है, समय पड़ने पर स्त्री विरोधी अपराधों में ये अपने वर्ग के पुरुषों का ही साथ देती हैं। यह वर्गीय पहलू इस घटना में भी नज़र आता है।

चौथा पहलू जो समझने की ज़रूरत है वह यह कि 2014 के बाद केन्द्र और बहुत से राज्यों में फ़ासीवादी भाजपा सरकारें सत्ता में बैठीं। इन सरकारों के दौर में समाज में महिलाओं के प्रति हिंसक प्रवृत्ति को बढ़ावा और भी ज़्यादा मिल रहा है। यूपी में हाथरस जैसी घटनाओं ने साबित कर दिया है कि पूँजीवाद और इसके संकट से पैदा हुए इस फ़ासीवादी निज़ाम में स्त्रियाँ कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। न तो अपने घरों में और न ही अपने कार्यस्थलों पर। आये दिन घरेलू कामगार महिलाओं के साथ छेड़खानी, बलात्कार व हत्या के मामले सामने आ रहे हैं। फ़ासीवादी सत्ता की प्रवृत्ति स्वयं ही स्त्री-विरोधी होती है। भाजपा के आपराधिक पृष्ठभूमि के नेता-मंत्री ख़ुद नियमित तौर पर स्त्री-विरोधी बयानों व घटनाओं के आरोपी पाये जाते हैं। जिस पार्टी के 43 प्रतिशत सांसदों, विधायकों के ऊपर बलात्कार, हत्या के गम्भीर मामले दर्ज हों उनसे और उनके राज में न्याय की उम्मीद करना हमारी बेवकूफ़ी ही होगी। महिलाओं के बलात्कारियों व यौन उत्पीड़कों के समर्थकों के पक्ष में इनके द्वारा की जाने काली  रैलियाँ, साम्प्रदायिक बलात्कारियों की जेल से ज़मानत, स्त्री-विरोधी बयानों से समाज के सड़े हुई पितृसत्तात्मक तत्वों को ही बल मिलता है। यानी जिन लोगों की फ़ासीवादी विचारधारा में बलात्कार को विरोधियों पर विजय पाने के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता हो, जिस पार्टी का इतिहास ही बलात्कारियों को संरक्षण देने का रहा हो क्या उनके कार्यकाल में हम स्त्रियों के लिए न्याय, सम्मान, सुरक्षा और आज़ादी की उम्मीद कर सकते हैं?

वैसे तो जब तक मुनाफ़ा-आधारित पूँजीवादी व्यवस्था क़ायम है, तब तक मेहनतकशों के बर्बरतम शोषण के विभिन्न रूपों को रोकना सम्भव नहीं है। घरेलू कामगार भी समूची मज़दूर आबादी का ही अंग हैं। इन सब पहलुओं से यह बात तो साफ़ हो जाती है कि स्त्री मुक्ति की लड़ाई किसी सुधारवादी दायरे या नारीवादियों द्वारा पुरुष-विरोधी नारों से या महज़ क़ानून बना देने और उसे लागू करवाने तक सीमित कर देने से कतई आगे नहीं बढ़ सकती। निश्चित ही, आज घरेलू कामगारों के अधिकारों के लिए एक क़ानून की लड़ाई बेहद ज़रूरी है। लेकिन यह महज़ अपने जनवादी अधिकारों की लड़ाई है, अपनी मुक्ति का क्षितिज नहीं। घरेलू कामगारों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक, संगठित होकर अपने अधिकारों को हासिल करने का रास्ता तो अपनाना ही होगा। इसी दौरान अर्जित अधिकारों को क़ायम रखने, मज़बूत करने और उसे जड़मूल से ख़त्म करने के लिए स्त्री मुक्ति की लड़ाई एक समुचित वर्ग चेतना की माँग करती है। समूचे पूँजीवादी निज़ाम के विरुद्ध संघर्ष के बिना स्त्री-मुक्ति की लड़ाई मुकाम पर नहीं पहुँच सकती।

घरेलू कामगारों को शुरुआत करने के लिए अपनी ज़रूरी माँगों को उठाना और संघर्ष के लिए संगठित होना बेहद ज़रूरी है। मौजूदा घटना के मद्देनज़र निम्न माँगों पर संघर्ष को संगठित किया जाना चाहिए :

दोषी परिवार को जल्द से जल्द और सख़्त से सख़्त सज़ा मिले।

अनौपचारिक कामगारों के लिए अलग लेबर एक्सचेंज का गठन किया जाए, जिसमें कि उनका पंजीकरण हो सके और किसी भी व्यक्ति को घरेलू कामगार की ज़रूरत पड़ने पर इस एक्सचेंज द्वारा घरेलू कामगार मुहैया कराये जाये।

न सिर्फ़ घरेलू कामगारों की पहचान और पंजीकरण को सुनिश्चित किया जाये, बल्कि उनके नियोक्ताओं की भी जाँच के साथ ही उनका भी पंजीकरण किया जाये।

उनके लिए एक अलग विशेष घरेलू कामगार क़ानून बनाया जाये जिसमें कि उनकी न्यूनतम मज़दूरी, कार्यदिवस व साप्ताहिक छुट्टी के प्रावधानों समेत उनके सम्मान, घरों में उनके साथ बराबरी के बर्ताव और उनके रोज़गार व उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित किया जाये।

तमाम सरकारें और प्रशासन बिना किसी देरी के हर जिले के हर शहर में स्थानीय शिकायत समिति (एल.सी.सी.) स्थापित करें।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2024


 

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