राष्ट्रीय पेंशन योजना : कर्मचारियों के हक़ों पर मोदी सरकार का एक और हमला

अविनाश

नयी राष्ट्रीय पेंशन योजना को रद्द कर पुरानी पेंशन की बहाली और मोदी सरकार के कर्मचारी विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ एकबार फिर कर्मचारी सड़कों पर हैं। रेलवे यूनियनों के संयुक्त आह्वान पर देशभर में कमर्चारियों ने चार दिवसीय (9 जनवरी से 12 जनवरी तक)  क्रमिक अनशन पर हैं। कर्मचारियों के इस अनशन का भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) ने दिल्ली, उत्तर प्रदेश और देश के अन्य हिस्सों में अपना समर्थन दिया। मोदी सरकार ने मज़दूरों-कर्मचारियों के पेंशन के बुनियादी हक़ पर भी डाका डाला है। इसके ख़िलाफ़ देशभर के कई राज्यों में सरकारी कर्मचारियों का धरना-प्रदर्शन चल रहा है। RWPI के प्रवक्ता ने बताया कि वे हर जगह उनकी इस लडाई में शामिल है।

इलाहाबाद में कर्मचारियों को सम्बोधित करते हुए आरडब्ल्यूपीआई की नीशू ने कहा कि ‘नेशनल पेंशन स्कीम’ असल में ‘नो पेंशन स्कीम’ है, यह सीधे तौर पर सरकार द्वारा कर्मचारियों के भविष्य पर हमला है। एनपीएस स्कीम एक अंशदायी स्कीम है जिसमें कर्मचारियों के वेतन से 10% काटा जायेगा और 10% सरकार द्वारा अंशदान के रूप में दिया जायेगा। काटे गये पैसे को शेयर मार्केट में लगाया जायेगा। अगर शेयर मार्केट डूब गया तो कर्मचारियों का पैसा डूब जायेगा, लेकिन सरकार इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेगी। पुरानी पेंशन (गारण्टीड पेंशन स्कीम) में कोई कटौती नहीं होती थी, तथा कर्मचारियों के रिटायर होने पर उस समय के अन्तिम वेतन (मूल वेतन और महँगाई भत्ता) का पचास प्रतिशत पेंशन के रूप में देने का प्रावधान था, लेकिन ‘नेशनल पेंशन स्कीम (एनपीएस) में सेवानिवृत्ति पर कुल रक़म जो शेयर मार्केट निर्धारित करेगा, उसका 40% प्रतिशत की सरकार आयकर के रूप में कटौती कर लेगी। तथा बची हुई 60% की राशि का ब्याज़ पेंशन के रूप में दिया जायेगा, जो बहुत ही कम होगा। इतना ही नहीं, इसमें सेवाकाल के दौरान कर्मचारी की स्थायी अपंगता व मृत्यु के पश्चात परिवार की ज़िम्मेदारी का निर्वहन व भविष्य के लिए कोई उल्लेख नहीं है।

कुल मिलाकर यह कि सरकारी कर्मचारियों को सामाजिक सुरक्षा के नाम पर जो कुछ भी मिलता था, उसको भी ख़त्म कर देने की योजना है। 2014 में “अच्छे दिन” का सपना दिखाकर सत्ता में पहुँची फ़ासीवादी मोदी सरकार ने अपने 10 सालों के शासनकाल में आम मेहनतकश आबादी पर कहर ही बरपाया है। पिछले 5 सालों में मोदी सरकार पूँजीपतियों के 10.6 लाख करोड़ का कर्ज़ माफ़ कर चुकी है। जिसकी भरपाई आम जनता के जेब से कर रही है। लगतार अप्रत्यक्ष करों को बढ़ाकर महँगाई बढ़ाई जा रही है। विभागों के निजीकरण से रोज़गार का संकट और भी विकराल होता जा रहा है। मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था आर्थिक संकट के लाइलाज़ भँवरजाल में फँस चुकी है। 1990–91 में आर्थिक उदारीकरण–निजीकरण की नीतियाँ इसी भँवरजाल से निकल पाने की कवायद थीं। इन नीतियों के तहत सार्वजनिक उपक्रमों का तेजी से निजीकरण किया गया जिसका परिणाम है कि रोज़गार के अवसर तेजी से कम हुए और आज बेरोज़गारी विकराल रूप ले चुकी है। विभागों में नियमित भर्तियों की जगह ठेके-संविदा पर लोगों को रखा जा रहा है। सालों-साल नौकरियों के लिए तैयारी करने के बाद भी छात्रों का खाली हाथ घर लौटना आम नियम बन चुका है। कई बार हताश-निराश छात्र आत्महत्या जैसे क़दम उठा रहे है। दूसरी ओर मोदी सरकार ने पूँजीपतियों को मज़दूरों के श्रम को निचोड़ने लिए खुली छूट दे रखी है। इसी काम को क़ानूनी जामा पहनाने के लिए श्रम कानूनों को खत्म कर श्रम संहिताएं लायी गयी हैं। कर्मचारियों को मिलने वाले पेंशन–भत्तों में लगातार कटौती की जा रही है। इन कटौतियों के खिलाफ़ रेलवे, बैंक, बिजली, रोडवेज, शिक्षा विभाग आदि के कर्मचारी लगातार संघर्षरत हैं।

आज अपने आन्दोलन में हमें कुछ बातों को ध्यान रखने की ज़रूरत है। सबसे पहली बात यह कि हमें अपने आन्दोलन को चुनावबाज़ पार्टियों और संशोधनवादियों के नेतृत्व से मुक्त करना होगा क्योंकि तमाम गरमगरम बातों के बावज़ूद सच्चाई यही है कि सभी चुनावबाज़ पार्टियाँ निजीकरणउदारीकरण की नीतियों पर एकमत है और इसलिए ये कभी भी हमारे मुद्दों पर जुझारू आन्दोलन नहीं चलायेंगे। दूसरे हमें अपने आन्दोलन से छात्रों और असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले करोड़ो मज़दूरों को जोड़ने की ज़रूरत है क्योंकि यह आबादी भी निजीकरणउदारीकरण की नीतियों की मार झेल रही है। आज कर्मचारीछात्रमज़दूर एकता कायम करके ही उदारीकरणनिजीकरण की नीतियों के ख़िलाफ़ संघर्ष का रास्ता अपनाया जाये।

 

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2024


 

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