ग्लोबल डे ऑफ़ एक्शन फ़ॉर गाज़ा के मौक़े पर भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी व अन्य जन संगठनों ने कई शहरों में प्रदर्शन किया

बिगुल संवाददाता

13 जनवरी को ‘ग्लोबल डे ऑफ एक्शन फॉर गाज़ा’ (गाज़ा के लिए दुनियाभर में कार्रवाई का दिन) के दिन भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी द्वारा दिल्ली में प्रदर्शन आयोजित किया गया। इसमें इज़रायल का झण्डा जलाया गया और इज़रायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू व अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन का पुतला फूँका गया। साथ ही नौजवान भारत सभा, दिशा छात्र संगठन, न्यू सोशलिस्ट प्रैक्सिस के साथियों द्वारा हैदराबाद और विजयवाड़ा में हुए साझा प्रदर्शनों में भागीदारी की गयी।

ज्ञात हो कि 7 अक्टूबर से इज़रायल द्वारा फ़िलिस्तीन की जनता के जारी क़त्लेआम में अब तक 23,084 लोग मारे जा चुके हैं। इसमें 9600 बच्चे अभी तक अपनी जान गवाँ चुके हैं और घायलों की संख्या 59,000 तक पहुँच चुकी है। इसके बावजूद फ़िलिस्तीन की जनता इज़रायल के आगे झुकी नहीं और अभी भी उनके प्रतिरोध ने इज़रायल को पीछे हटने पर भी मज़बूर किया है।

1948 में फ़िलिस्तीनियों का बड़े पैमाने पर क़त्ले-आम किया गया था। इस समय को फ़िलिस्तीनी जनता ‘नकबा या ‘विपदा’ के रूप में जानती है, जब यूरोपीय ज़ायनवादी हत्यारों ने ब्रिटेन द्वारा दिये गये हथियारों के बूते करीब 15,000 निहत्थे और बेगुनाह फ़िलिस्तीनी बच्चों, औरतों और आदमियों का बर्बर नरसंहार किया था, करीब 600 फ़िलिस्तीनी शहरों को उजाड़ दिया था, अनगिनत गाँवों को जला डाला था और तत्कालीन फ़िलिस्तीन के 80 प्रतिशत बाशिन्दों, यानी करीब 7 लाख लोगों को विस्थापित कर आस-पड़ोस के देशों में शरणार्थी में तब्दील कर दिया था। लेकिन नकबा कोई घटना नहीं थी। नकबा कभी ख़त्म नहीं हुआ और आज भी जारी है। आज भी इज़रायली सेटलर, यानी फ़िलिस्तीनियों को आज भी उनके घरों से खदेड़कर उनके घरों, ज़मीन और खेतों पर कब्ज़ा करने वाले लोग, आज भी फ़िलिस्तीनी जनता के कत्ले-आम और विस्थापन को जारी रखे हुए हैं। पिछले 75 साल बीतने के बाद आज दुनिया में 70 लाख फ़िलिस्तीनी शरणार्थी हैं। इसके अलावा, करीब 60 लाख फ़िलिस्तीनी वेस्ट बैंक और गाज़ा में रहते हैं, जो इज़रायली कब्ज़े में हैं। इन फ़िलिस्तीनियों को इनके ही देश में शरणार्थी बनाकर रखा गया है। उनके खिलाफ़ नस्लवादी अपॉर्थाइड यानी विलगाव की नीति इज़रायली ज़ायनवादियों ने थोप रखी है। उनके लिए पूरे इज़रायल में चेकपोस्ट, अलग सड़कें, अलग मुहल्ले बनाकर रखे गये हैं और वहाँ से भी इज़रायली सेटलर उपनिवेशवादी लगातार उन्हें बेदख़ल कर रहे हैं। गाज़ा की स्थिति इसमें सबसे भयावह है। 2006 में गाज़ा की बहादुर जनता के संघर्ष के कारण इज़रायली ज़ायनवादी हत्यारों को वहाँ से भागना पड़ा। अन्य सेक्युलर कौमी आज़ादी के लिए लड़ने वाली शक्तियों को इज़रायल ने साम्राज्यवादियों की मदद से और अरब विश्व के समझौतापरस्त बुर्जुआ शासकों की मदद से कमज़ोर कर दिया था। फ़िलिस्तीनी जनता की आज़ादी का समर्थन करने या उसके वीरतापूर्ण मुक्ति संघर्ष का समर्थन करने के लिए आपको हमास का विचारधारात्मक समर्थक होने की कोई आवश्यकता नहीं है।

अगर हमास के बारे में बात करे तो फ़िलिस्तीनी जनता का मुक्ति संघर्ष तब भी जारी था, जब हमास नाम कोई संगठन पैदा भी नहीं हुआ था और आज भी वह जारी है। निश्चित ही, हमास एक इस्लामिक संगठन ही है। मज़दूर वर्ग के नज़रिये से राजनीतिक और विचारधारात्मक तौर पर उससे कोई एकता नहीं बन सकती है। जब हम फ़िलिस्तीन के जारी मुक्ति संघर्ष का समर्थन करते हैं तो हम कतई हमास का विचारधारात्मक तौर पर समर्थन नहीं करते, बल्कि फ़िलिस्तीनी जनता द्वारा इज़रायली ज़ायनवादी हत्यारों और उनके औपनिवेशिक कब्ज़े के विरुद्ध जारी संघर्ष का समर्थन करते हैं। किसी अन्य सेक्युलर, प्रगतिशील व क्रान्तिकारी नेतृत्व की अनुपस्थिति में जनता अपने संघर्ष को स्थगित नहीं कर देती है, वह उसे जारी रखती है, जो भी संसाधन उसके पास होते हैं और जो भी नेतृत्व निर्णायक रूप से लड़ने को तैयार होता है उसके साथ होती है।

भारत में भी मीडिया इज़रायल को पीड़ित पक्ष के रूप में दिखला रहा है और एक ऐसी छवि पेश कर रहा है मानो इतिहास 7 अक्टूबर को हमास के नेतृत्व में हुए हमले के साथ ही शुरू हुआ। वह यह नहीं बता रहा है कि गाज़ा पर पिछले 16 वर्षों से भी अधिक समय से इज़रायल ने ज़मीन, हवा और समुद्र तीनों ओर से एक नाकेबन्दी थोप रखी है। साथ ही भारत के हिन्दुत्व फ़ासीवादियों और ज़ायनवादियों की प्रगाढ़ एकता है। भारत इज़रायल के हथियारों का सबसे बड़ा ख़रीदार है। वहीं दोनो के खुफिया तन्त्र में भी काफ़ी समानता है। ज्ञात हो कि जासूसी उपकरण पेगासस भारत को देने वाला देश इज़रायल ही है। यह भी एक कारण है कि मोदी सरकार देश भर में जारी इज़रायल के प्रतिरोध से घबरायी हुई है, कि कहीं इससे उनके ज़ायनवादी दोस्त नाराज़ न हो जायें। यही कारण है कि फ़ासीवादी मोदी सरकार द्वारा सारी संवैधानिकता और वैधानिकता को ताक़ पर रखकर फ़िलिस्तीन के समर्थन में हो रहे प्रदर्शनों को कुचला गया।

गाज़ा की जनता तक न तो पर्याप्त मात्रा में भोजन पहुँचने दिया जाता है, न ईंधन और न ही अन्य आवश्यक वस्तुएँ और सेवाएँ। नतीजतन, दुनिया में सबसे ज़्यादा जनसंख्या घनत्व रखने वाली यह ‘खुली जेल’ फ़िलिस्तीनियों के लिए एक क़ब्रगाह बनी हुई है, जहाँ फ़िलिस्तीनी बच्चे-बूढ़े और जवान एक धीमी मौत मर रहे हैं। 7 अक्टूबर को फ़िलिस्तीनी जनता ने जेल तोड़ी और अपने औपनिवेशिक उत्पीड़कों, यानी ज़ायनवादी इज़रायल पर हमला बोला। इस हमले के विरुद्ध इज़रायली उपनिवेशवादियों को “आत्मरक्षा” का उतना ही अधिकार है, जितना कि भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को भगतसिंह व उनके साथियों व अन्य क्रान्तिकारियों द्वारा की गयी कार्रवाइयों के ख़िलाफ़ था, या अल्जीरिया में अल्जीरियाई मुक्ति योद्धाओं के हमले के विरुद्ध फ्रांसीसी उपनिवेशवादियों को था जिन्होंने हथियारों के दम पर अल्जीरिया पर कब्ज़ा कर रखा था।

दुनिया भर का साम्राज्यवादी मीडिया और हमारे देश का गोदी मीडिया चीज़ों को सिर के बल खड़ा कर देता है। हर जगह फ़ासीवादी और प्रतिक्रियावादी शासक साम्राज्यवादी लूट और कब्ज़े के पक्ष में होते हैं, तब तक जब तक कि इस कब्ज़े का निशाना वे ख़ुद न हों। लेकिन जनता को सच्चाई जाननी चाहिए। मेहनतकश वर्ग को हर जगह दमित-शोषित जनता के साथ खड़ा होना चाहिए। गाज़ा में जो हो रहा है, उसके बारे में अगर हम तटस्थ रहेंगे, यह सोचेंगे कि हज़ारों किलोमीटर दूर हो रहे नरसंहार से हमारा क्या मतलब, तो कल हमारे देश के फ़ासीवादी और प्रतिक्रियावादी हुक्मरान जब हमारे साथ ऐसा ही सुलूक करेंगे, तो हम भी अकेले होंगे। सर्वहारा वर्ग के अन्तरराष्ट्रीयतावाद का यह बुनियादी उसूल होता है कि हम दुनिया में कहीं भी होने वाले अन्याय के विरुद्ध अपनी आवाज़ को बुलन्द करते हैं। जो सर्वहारा वर्ग ऐसा नहीं करता वह स्वयं भी शोषित और दमित रहने के लिए अभिशप्त होता है।

हर मेहनतकश और मज़दूर को यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि गाज़ा और समूचे फ़िलिस्तीन की संघर्षरत जनता के साथ एकजुटता रखने का मुसलमान होने से भी कोई रिश्ता नहीं है। साम्राज्यवादी प्रचार के असर के कारण कम ही लोग जानते हैं कि फ़िलिस्तीन में अरबी यहूदी और अरबी ईसाई भी रहते हैं, वे भी उतनी ही शिद्दत से फ़िलिस्तीन की आज़ादी के पक्षधर हैं जितनी शिद्दत से फ़िलिस्तीनी मुसलमान। फ़िलिस्तीनी मुसलमान आज से नहीं बल्कि सदियों से अरबी यहूदियों और अरबी ईसाइयों के साथ सामंजस्य में रहते आये हैं। यह बेवजह नहीं है कि इज़रायली राज्य की सीमाओं के भीतर और साथ ही गाज़ा और वेस्ट बैंक में अरबी यहूदियों और अरबी ईसाइयों के साथ भी इज़रायली ज़ायनवादी हत्यारे उसी किस्म का नस्लवादी और दमनकारी बर्ताव करते हैं, जैसा वे फ़िलिस्तीनी मुसलमानों के साथ करते हैं। आपको शायद पता भी होगा कि गाज़ा पट्टी पर अपने नये नरसंहारक हमले के दौरान की जा रही भयंकर बमबारी में इज़रायल ने गाज़ा के ईसाई लोगों और उनके चर्चों को ख़ास तौर पर निशाना बनाया है। हम इस पूरी बात को समझने में तब ग़लतियाँ कर बैठते हैं, जब हम इसे मुसलमानों और यहूदियों के बीच के टकराव के रूप में देखते हैं, जबकि वास्तव में यह एक ग़ुलाम और उपनिवेश बनायी गयी कौम और इज़रायली ज़ायनवादी यूरोपीय उपनिवेशवादियों के बीच का संघर्ष है। यह एक गुलाम देश का गुलाम बनाने वाले उपनिवेशवादियों के विरुद्ध संघर्ष है।

हमारे देश में इस मामले की पूरी जानकारी न होने के कारण उतने बड़े पैमाने पर अभी तक इज़रायल द्वारा जारी गाज़ा की जनता के नरसंहार के विरुद्ध बड़े प्रदर्शन नहीं हो सके हैं। हमारे देश में भी जगह-जगह सैंकड़ों प्रदर्शन हुए हैं, जिन्हें दबाने की मोदी सरकार ने पूरी कोशिश की है। लेकिन ये प्रदर्शन और भी बड़े होंगे, यदि फ़िलिस्तीनी जनता के वीरतापूर्ण संघर्ष और घृणित इज़रायली नस्लवादी ज़ायनवादी उपनिवेशवाद के बारे में बड़े पैमाने पर लोगों को जानकारी दी जाये। हमारे देश में भी इंसाफ़पसन्द लोगों की कोई कमी नहीं है। लेकिन हमें फ़िलिस्तीन के मुक्ति संघर्ष के इतिहास और उसके वर्तमान के बारे में और ज़ायनवादी इज़रायली उपनिवेशवाद की गन्दी सच्चाई के बारे में पूरे देश की जनता को बताना होगा। यह क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग का कर्तव्य है कि समूची मेहनतकश जनता को वह सच से अवगत कराये और उसके आधार पर उसे जागृत, गोलबन्द और संगठित करे। यह काम आज हमें करना ही होगा।

इज़रायली उपनिवेशवादी राज्य पहले नहीं था। वह आगे भी नहीं रहेगा। एक सेक्युलर, जनवादी और समाजवादी फ़िलिस्तीन होगा जहाँ मुसलमान, यहूदी और ईसाई व अन्य समुदायों की जनता साथ में रहेगी। आज इस दिशा में प्रगति के लिए कोई नेतृत्वकारी राजनीतिक ताक़त नहीं है। लेकिन आज का तात्कालिक कार्यभार फ़िलिस्तीनी जनता के लिए उनकी कौमी आज़ादी है। इस कौमी आज़ादी के बाद अपना भविष्य किस प्रकार और कैसे निर्मित करना है, यह फ़िलिस्तीनी जनता तय करेगी। निश्चित ही, फ़िलिस्तीनी सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश जनता इस कौमी आज़ादी की लड़ाई में भी आगे की कतारों में खड़ी है और उसके आगे समाजवाद के लिए संघर्ष में भी वह नेतृत्वकारी भूमिका में होगी। आज का कार्यभार जो इतिहास के एजेण्डे पर पहला बिन्दु है, वह है इज़रायली उपनिवेशवादी राज्य का समूल नाश, साम्राज्यवादी दमन और लूट का फ़िलिस्तीन से सफ़ाया और एक सेक्युलर और जनवादी फ़िलिस्तीन की स्थापना।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2024


 

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