सरकार के ग़रीबी हटाने के दावे की असलियत

ध्रुव

भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद से देश की तमाम सरकारी एजेंसियों से लेकर मीडिया चैनल तक झूठ बोलने वाली मशीन में तब्दील हो चुके हैं। इस मशीन द्वारा ऐसा ही एक झूठ तब उगला गया जब पिछले दिनों नीति आयोग के सीईओ बीवीआर सुब्रमण्यम ने  25 फरवरी को 2022-23 के लिए घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण (एचसीईएस) रिपोर्ट के हवाले से यह दावा किया कि देश में ग़रीबी 5 प्रतिशत से कम हो गयी है। उन्होंने बताया कि पिछले दस सालों में शहरी इलाक़ों में औसत मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग में 33 प्रतिशत की वृद्धि हो गयी है, जबकि गाँवों में यह बढ़ोत्तरी 40 प्रतिशत हो चुकी है। सरकार की तरफ से जैसे ही यह दावा किया गया, गोदी मीडिया इसका प्रचार करने में लग गयी कि भारत में अब एक्सट्रीम पॉवर्टी यानी भयंकर ग़रीबी खत्म हो चुकी है। पूरा गोदी मीडिया मोदी सरकार की पीठ थपथापाने में लग गया। इस उत्साह में गोदी मीडिया ख़ुद एक महीने पहले के ही अपने दावे को भूल गया कि जब नीति आयोग की रिपोर्ट का हवाला देकर यह बताया जा रहा था कि भारत में बहु-आयामी ग़रीबी 11.3 प्रतिशत हो गई है!

इस बात को पूरे ज़ोर-शोर के साथ प्रचारित किया जा रहा था कि पिछले 10 सालों में 25 करोड़ लोगों को ग़रीबी रेखा से बाहर निकाला गया है। लेकिन यह एक ही महीने में घटकर 5 प्रतिशत से भी कम हो गयी। ज़ाहिर है कि ये हवा-हवाई आँकड़े हैं और मोदी सरकार के कार्यकाल को अमृतकाल साबित करने में जुटा मीडिया अगले ही घण्टे देश से ग़रीबी को पूरी तरह ख़त्म करने का भी दावा करने लगे तो हमें इस पर आश्चर्य नहीं होगा।

यह केवल मोदी सरकार द्वारा अपनी पीठ थपथपाने के लिए मोदी सरकार द्वारा ही फैलाये गये तमाम झूठों में से बस एक झूठ ही है जिसका असलियत से दूरदूर तक कोई लेनादेना नहीं है। अगर हमघरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण” (एचसीईएस) के इस रिपोर्ट की ही थोड़ी पड़ताल करें तो सच्चाई खुलकर सामने जाती है।

‘एचसीईएस’ के अनुसार भारत में पाँच प्रतिशत सबसे गरीब आबादी की आय 46 रुपये प्रतिदिन, सबसे गरीब 10 प्रतिशत लोगों की आय 59 रुपये प्रतिदिन और सबसे गरीब 20 प्रतिशत लोगों की आय 70 रुपए प्रतिदिन है। दूसरी तरफ अगर चीज़ों के दाम पर ग़ौर करें तो प्रतिदिन उपभोग की जाने वाली वस्तुओं में आलू, प्याज और दूध के एक किलोग्राम की क़ीमत ही क्रमशः 20 रुपये, 40  और 68 के लगभग हो गये हैं। अगर इसमें आटा, दाल, तेल जैसी और ज़रूरी चीजों को जोड़ लें तो जो सबसे गरीब 20 प्रतिशत आबादी है जिसकी आय 70 रुपए प्रतिदिन है, उसके लिए इस आमदनी में पेट भर पाना भी मुश्किल होगा। तो ऐसे में क्या इस आबादी की गिनती एक्सट्रीम पॉवर्टी यानी भयंकर ग़रीब में नहीं होनी चाहिए?

दरअसल मोदी सरकार को आँकड़ों में हेर-फेर करने और उसे दबाने में महारत हासिल है।  भारत में ग़रीबी सम्बन्धित आधिकारिक आँकड़ा पहले नेशनल सैम्पल सर्वे जारी करता था। पर इसके द्वारा जारी किया गया अन्तिम आँकड़ा 2011-12 का ही है। नेशनल सैम्पल सर्वे द्वारा 2017-18 में जो आँकड़ा जारी किया गया था उसे सरकार ने खुद ही ग़लत कह कर रद्द कर दिया क्योंकि उन आँकड़ों से से मोदी सरकार के दावों की पोल खुल रही थी। सरकार के द्वारा जारी आँकड़ों से अगर अन्य सर्वेक्षणों के आँकड़ों की तुलना करें तो सरकार के इस दावे पर और भी गम्भीर सवाल खड़े होते हैं। प्यू, प्राइस, ऑक्सफैम, आदि एजेंसियों व खुद विश्व बैंक के 2021 के सर्वे बताते हैं कि कोविड महामारी के दौरान आय में असमानता बढ़ी है और 84 प्रतिशत परिवारों की आय घटी है। 2016 में नोटबन्दी के पहले काम की उम्र वालों में रोजगार दर 46 प्रतिशत थी, अब वह घटकर 40 प्रतिशत से नीचे है। सभी सर्वेक्षण कहते हैं कि 2012 के बाद ग्रामीण व शहरी दोनों इलाकों में नियमित व दिहाड़ी दोनों प्रकार के श्रमिकों की मज़दूरी घटी है या स्थिर रही है। 2017-18 से 2019-20 की अवधि में स्वरोजगार के 52 प्रतिशत, दिहाड़ी मज़दूरों के 30 प्रतिशत तथा नियमित मज़दूरों के 21 प्रतिशत की दैनिक आय 200 रुपये से कम थी। इनमें से क्रमशः 16, 36 व 19 प्रतिशत की आय 200 से 300 रुपये रोजाना थी। इस दौरान महँगाई तेजी से बढ़ी है जिसका सर्वाधिक दुष्प्रभाव सबसे अधिक ग़रीबों पर ही पड़ता है। तो ऐसे में बीवीआर सुब्रमण्यम का यह दावा की शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की उपभोग करने की क्षमता क्रमशः 33 प्रतिशत और 40 प्रतिशत बढ़ी है ,एक सफ़ेद झूठ के सिवाय और कुछ भी नहीं है।

वास्तव में मोदी सरकार के पिछले एक दशक में आम मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी नर्क बन गयी है। मज़दूर आबादी के लिए अपने बच्चों का पेट भर पाना, तन ढँक पाना, दवा-इलाज़ करा पाना हर दिन मुश्किल होता जा रहा है। स्पष्ट है कि टीवी-चैनलों, अख़बारों से लेकर तमाम सरकारी सर्वेक्षण एजेंसियाँ मौजूदा दौर की स्याह तस्वीर को झुठलाने के लिए देश की आम मेहनतकश जनता को गुलाबी सपने दिखाने में लगी हुई हैं। ज़रूरत है कि इस सच्चाई को समझते हुए इस हालात को बदलने की दिशा में आगे बढ़ा जाये। उसके लिए पहला कदम है मौजूदा जनविरोधी फ़ासीवादी मोदी सरकार के ख़िलाफ़ मेहनतकश जनता का रोज़गार, मज़दूरी और महँगाई के सवाल पर गोलबन्द और संगठित होना।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2024


 

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