फ़िलिस्तीन मुक्ति संघर्ष और मध्य-पूर्व पर गहराते साम्राज्यवादी युद्ध के बादल

लता

पिछली 1 अप्रैल को सीरिया की राजधानी  दमिश्क में ईरानी दूतावास पर इज़रायल के हमले के बाद मध्य-पूर्व में स्थिति बेहद तनावपूर्ण बनी हुई है। ईरान ने इस हमले के विरुद्ध जवाबी कार्रवाई करने की बात कही थी और 14 अप्रैल उसने इज़रायल पर 300 से अधिक ड्रोन, क्रूज़ मिसाइल व बैलिस्टिक मिसाइल से हमले किये, जिसमें इज़रायल के तीन हवाई सेना ठिकानों को नुकसान पहुँचा। इस प्रत्याशित हमले के बाद विशेषज्ञों का कहना है कि आने वाले समय में क्षेत्र में बढ़ता तनाव किसी क्षेत्रीय साम्राज्यवादी युद्ध का रूप ले सकता है। अन्य किसी भी युद्ध की तुलना में गाज़ा पर जारी इज़रायली हमले और क़ौमी दमन की पृष्ठभूमि में किया गया यह हमला बेहद अधिक महत्त्व रखता है। ईरान ने पहली बार इज़रायल की ज़मीन पर सीधा हमला किया है। वास्तव में, मध्यपूर्व में लम्बे समय बाद किसी देश द्वारा इज़रायल पर सीधे हमला किया गया है। इसके पहले ईरान द्वारा हिज़बुल्ला, हूती और हमास को हथियार और तकनीक देने की वजह से इज़रायल ईरान पर बीच-बीच में हमले करता रहा है। लेकिन यह पहली बार है जब ईरान ने इज़रायल पर सीधा हमला किया है।

1948 से फ़िलिस्तीनियों के साथ हो रहा अन्याय और ऐतिसासिक विश्वासघात पूरे मध्य-पूर्व का नासूर बना हुआ है और पूरी अरब जनता ज़ायनवादी, सेटलर, उपनिवेशवादी इज़रायल से बेइन्तहा नफ़रत करती है। फ़िलिस्तीन में जारी प्रतिरोध युद्ध और मुक्ति संघर्ष के दौरान यदि यह क्षेत्रीय युद्ध का रूप अख़्तियार करता है तो यह बहुत व्यापक हो सकता है। यह अमेरिकी साम्राज्यवाद व आम तौर पर पश्चिमी साम्राज्यवाद के लिए बेहद ख़तरनाक तथा क्षेत्र में इज़रायल के भविष्य के लिए निर्णायक साबित होगा। युद्ध की इस सम्भावना से अमेरिका और पश्चिमी साम्राज्यवाद भी परिचित है। ईरान के साथ रूस-चीन धुरी का समीकरण क्षेत्र में अमेरिकी और पश्चिमी साम्राज्यवाद के भविष्य के लिए घातक हो सकते हैं। इसलिए अमेरिका, जर्मनी, फ़्रांस और ब्रिटेन बेहद सोच-समझकर क़दम उठा रहे हैं। नेतन्याहू के तमाम उकसावे के बावजूद किसी प्रत्यक्ष सैन्य हमले की बात कोई नहीं कर रहा है। यह टिप्पणी लिखे जाने तक इज़रायल ने भी ईरान के कुछ ठिकानों पर जवाबी हमला किया लेकिन यह बहुत सोच-समझकर किया गया है, जिससे कि नेतन्याहू इज़रायल में अपनी इज़्ज़त बचा सके और युद्ध की सम्भावना भी ज़्यादा न बढ़े। लेकिन वस्तुगत तौर पर चीज़ें उसी दिशा में बढ़ें यह ज़रूरी नहीं है, जिस दिशा में नेतन्याहू के नेतृत्व में इज़रायल के ज़ायनवादी शासक चाहते हैं। यह किसी भी वक़्त किसी साम्राज्यवादी युद्ध का स्वरूप ले सकता है।

गाज़ा की वर्तमान परिस्थिति

14 अप्रैल से दक्षिण गाज़ा के शरणार्थी शिविरों में रह रही उत्तर गाज़ा की बड़ी आबादी अपने घरों की ओर लौटने की शुरुआत कर चुकी है। कुछ आबादी अपने घर पहुँच भी गयी है। लेकिन इज़रायली सेना उन्हें लौटने से रोक रही है। रोकने के लिए बन्दूकों, आँसू गोले और टैंकों से उनपर हमले कर रही है। सेना ने कई लोगों को गोली मार दी और इसमें कई घायल भी हुए हैं। लेकिन लोग फिर भी अपने घरों को लौट रहे हैं। पिछले छह महीने से चल रहे भयंकर नरसंहार में सेटलर, ज़ायनवादी, उपनिवेशवादी इज़रायल ने गाज़ा के 34,194 नागरिकों की हत्या की है जिसमें 18,300 बच्चे हैं और 8400 औरतें। घायलों की संख्या 76,371 है। गाज़ा के 8000 लोग लापता हैं। वेस्ट बैंक में अभी तक इज़रायल ने 465 लोगों की हत्या की है जिसमें 118 बच्चे हैं। इज़रायली हमलों में साठ प्रतिशत से अधिक रिहायशी मकान तबाह हो गये हैं, अस्सी प्रतिशत से अधिक व्यवसायिक इमारतें और स्कूल ज़मींदोज़ हो चुके हैं। पैंतीस में से मात्र ग्यारह अस्पताल आधे-अधूरे काम कर रहे हैं। 83 प्रतिशत भूजल स्रोत काम नहीं कर रहे जिसकी वजह से पीने के पानी की भयंकर दिक़्क़त है। 85 प्रतिशत आबादी आन्तरिक विस्थापन झेल रही है और दक्षिण गाज़ा में टेण्टों में रह रही है जहाँ भोजन, पानी और साफ़-सफ़ाई की भयंकर दिक़्क़त है। गाज़ा में भुखमरी से मौतें होनी शुरू हो गयी है। इज़रायल ने सभी सीमाओं पर वाहनों की आवाजाही पर सख़्त प्रतिबन्ध लगाया हुआ है जिसकी वजह से गाज़ा की आधी से अधिक आबादी भुखमरी का शिकार हो रही है। खाद्य सामग्री, दवा व चिकित्सा उपकरणों पर प्रतिबन्ध सेटलर ज़ायनवादी इज़रायल के एथनिक सफ़ाये की घृणित नीति को उजागर कर रही है। इसी मंसूबे को दर्शाते हुए बर्बर इज़रायल ने “वर्ल्ड सेण्ट्रल किचन” के कर्मचारियों को हमले में मार डाला था। अपने इन कुकृत्यों की वजह से दुनिया की आम जनता के बीच इज़रायल के प्रति नफ़रत और घृणा अभूतपूर्व रूप से बढ़ रही है। इतना ही नहीं इज़रायल किसी भी अन्तरराष्ट्रीय नियम का पालन नहीं करता। अस्पतालों, स्कूलों, संयुक्त राष्ट्र आश्रय केन्द्रों, एम्बुलेंसों, मस्जिदों आदि को बिना किसी शर्म के निशाना बनाता है। इन सबके बावजूद गाज़ा की जनता अपने मुक्ति संघर्ष और प्रतिरोध युद्ध को बहादुरी से जारी रखे है।

युद्ध विराम वार्ता और इज़रायल का कायराना हमला

हाल ही में एक कायराना हमले में इज़रायल ने हमास के नेता इस्माइल हनिये के तीन बेटों और पोते-पोतियों को निशाना बनाया। इस हमले  का भी मक़सद साफ़ है। ज़ायनवादी इज़राइल गाज़ा में अपनी हार को देखते हुए युद्ध विराम वार्ता में अपनी शर्तें मनवाने के लिए बौखलाया हुआ है। वहीं इज़रायली अख़बार येदियोत अहरोनोत के अनुसार फ़िलिस्तीन मुक्ति योद्धाओं ने गाज़ा के ख़ान यूनिस पर दोबारा नियन्त्रण हासिल कर लिया है। इज़रायली सेना को साफ़ समझ में आ रहा है कि वे किसी भी सूरत में गाज़ा में स्थाई तौर पर नहीं रह सकते हैं। अभी तक के इज़रायली हमले की कहानी के दो ही पहलू हैं : फ़िलस्तीनी मुक्ति योद्धाओं के हाथों इज़रायल की कायर सेना की लगातार हार और इस हार की बौखलाहट में गाज़ा के आम नागरिकों का इज़रायल द्वारा क़त्लेआम। इनकी हार का एक सबूत यह भी है कि इज़रायली सेना के बर्बर दमन के बावजूद गाज़ा के लोगों ने उत्तर गाज़ा में लौटना शुरू कर दिया है। इज़रायली सेना के अधिकारियों का लगातार बयान आ रहा है कि हमास को निकट भविष्य में हराना मुश्किल है। इज़रायल चाहे जितने बच्चों का ख़ून बहा ले, औरतों और बुज़ुर्गों को मौत के घाट उतार दे, हमास से युद्ध विराम वार्ता में अपनी शर्तें नहीं मनवा पायेगा। गाज़ा की जनता भी आर या पार की लड़ाई के लिए कमर कसे है। गाज़ा और वेस्ट बैंक में मुक्तियोद्धाओं का बहादुराना संघर्ष गाज़ा और समूचे फ़िलस्तीन की ताक़त है। ये मुक्तियोद्धा लगातार अत्याधुनिक हथियारों से लैस ज़ायनवादी सेटलर उपनिवेशवादी सेना को धूल चटा रहे हैं।  

ईरान को उकसावा और मध्य-पूर्व में तनाव

लम्बे समय से नेतनयाहू सरकार इस युद्ध को व्यापक बनाने के लिए हिज़बुल्ला और ईरान को उकसा रही है, ताकि अमेरिका को इसमें सीधे शामिल किया जा सके। लेकिन अमेरिकी साम्राज्यवादी ऐसा कतई नहीं चाहते क्योंकि इराक़ और अफ़गानिस्तान में पिटकर वे अपना हश्र देख चुके हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन आगामी चुनावों में हार के डर से भी ऐसा करने से कतरा रहा है। अक्टूबर में गाज़ा के ख़िलाफ़ अपने हमले की शुरुतात करते हुए इज़रायली सरकार ने हमास को जड़-मूल से समाप्त करने की घोषणा की थी। लेकिन गाज़ा और वेस्ट बैंक में  फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध युद्ध और मुक्ति संघर्ष को देखते नेतन्याहू को अब हार साफ़ नज़र आ रही है। इसलिए अपनी बौखलाहट में गाज़ा और वेस्ट बैंक के मासूम बच्चों, महिलाओं और बुजुर्गों को हमले का शिकार बना रहा है। अपने दावों के बीच नेतन्याहू सरकार इस क़दर फँस गयी है कि युद्ध जारी रखना उसकी मजबूरी और ज़रूरत दोनों है।

2006 में हिज़बुल्ला के हाथों मिली शर्मनाक शिकस्त इज़रायल दुहराना नहीं चाहता। विश्व हथियार बाज़ार में अपने हथियारों व ख़ुफ़िया तन्त्रों की शक्ति, प्रभाविता और आधुनिकता की साख बनाये रखने के लिए और सेटलर इज़रायली आबादी को अचूक सुरक्षा की गारण्टी के तले सुरक्षा का अहसास कराने के लिए कम से कम शर्मनाक हार से बचना ज़रूरी है। यह इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि नेतन्याहू सरकार नाक तक भ्रष्टाचार में डूबी है। इससे नेतन्याहू का पूरा राजनीतिक भविष्य दाँव पर लगा हुआ था। युद्ध ने फिलहाल इस स्थिति को टाल दिया है। यदि युद्ध में हार हुई जो कि साफ़ दिख रहा है तो ऐसी स्थिति में नेतन्याहू को भ्रष्टाचार के मुक़दमे का सामना तो करना ही पड़ेगा साथ ही युद्धकाल के कुप्रबन्धन के आरोपों का भी सामना करना होगा। अभी भी इज़रायल में बन्धकों को वापस लाने और युद्ध को समाप्त करने के लिए बड़े प्रदर्शन हो रहे हैं। प्रदर्शन में इज़रायली लोग अमेरिका से गुहार कर रहे हैं कि वह नेतन्याहू से इज़रायलियों को बचाये! हमने पहले भी लिखा है कि इज़रायल की बहुत बड़ी आबादी फ़िलिस्तीन के सवाल पर नर्म या गर्म नस्लवादी कट्टरपन्थ की समर्थक है और अरब जनता और विशेषकर फ़िलिस्तीनी जनता के प्रति घोर नस्लवादी नफ़रत से भरी हुई है।

यह सेटलर उपनिवेशवादी आबादी युद्ध विराम की माँग बन्धकों को वापस लाने के लिए कर रही है। उनका गाज़ा में चल रहे नरसंहार से कोई लेना-देना नहीं है। उन्हें भी दिख रहा है कि हमास पर शर्तें लादना मुश्किल है और युद्ध के ज़रिये बन्धकों को वापस लाना उससे ज़्यादा मुश्किल क्योंकि अगर ऐसा सम्भव होता तो छह महीने के युद्ध काल में कबका हो गया होता। इज़रायलियों को भी दिख रहा है कि हमास को हरा पाना मुश्किल है और बौखलाहट में नेतन्याहू सरकार जो औरतों और बच्चों को निशाना बना रही है इससे बन्धकों को छुड़ाना और कठिन होता जा रहा है। इज़रायल की एक बेहद छोटी आबादी शान्ति चाहती है लेकिन यह आबादी इज़राइल में फैले भयंकर नस्लवादी-ज़ायनवादी घटाटोप में किसी तरह की आम राजनीतिक राय बना पाने में नाकाफ़ी है।

वहीं गाज़ा में ज़मीनी युद्ध में इज़रायल की भयंकर हार हो रही है। इज़रायल में मृत, घायल और हताहत सैनिकों की संख्या रोज़ाना बढ़ती जा रही है। स्वतन्त्र रिपोर्टों के अनुसार, हताहत इज़रायली सैनिकों की वास्तविक संख्या 12,000 से ऊपर है। इज़रायली सेना ने ही माना है कि उसके करीब कुल 604 सैनिक मारे जा चुके हैं जिसमें से गाज़ा पर ज़मीनी हमले में ही करीब 300 इज़रायली सैनिक मारे जा चुके हैं, लेकिन निष्पक्ष प्रेक्षकों के अनुसार यह संख्या 2000 के ऊपर हो सकती है। अकेले हिज़बुल्ला का दावा है कि अब तक उन्होंने 2000 इज़रायली सैनिकों को मार गिराया है।

16 जनवरी को इज़रायल को अपने सेना की एक पूरी डिविजन गाज़ा से बुलाकर वेस्ट बैंक में लगानी पड़ी। इसके पहले, उसकी कुलीन व बेहद प्रशिक्षित गोलानी ब्रिगेड भी गाज़ा में पिटकर भाग चुकी थी। आधुनिक हथियारों का ख़ौफ़ ज़ायनवादी इज़रायल मध्य-पूर्व में पैदा करना चाहता है। लेकिन इसके उलट हर जगह उसकी पिटाई हो रही है। लठैत की उसकी छवि पर यह बड़ा धब्बा है। लेबनान सीमा से लेकर गाज़ा व वेस्ट बैंक के सेटलर इलाक़ों में इज़रायलियों की मौत हो रही है, लाल सागर में इज़रायल और इज़रायल समर्थक जहाज़ों पर हूती विद्रोही लगातार हमला कर रहे हैं। वहीं इज़रायल के भीतर युद्ध विराम और बन्धकों की वापसी की माँग तेज़ हो रही है। इस स्थिति में नेतन्याहू और आक्रामक होता जा रहा है, जो कि उसकी हताशा का ही नतीजा है।

इसीलिए नेतन्याहू गाज़ा में अपनी हार को इज़्ज़त बचाने लायक़ समझौते तक पहुँचने के लिए युद्ध में अमेरिका और अन्य पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों को शामिल करना चाहता है। लगातार ईरान को उकसाने के पीछे यही वजह है। मध्य-पूर्व में युद्ध के तनाव को व्यापक करते हुए ईरान के ज़रिये रूस-चीन धुरी और अमेरिका समेत इज़रायल समर्थक पश्चिमी देशों को युद्ध में घसीटने की योजना इज़रायल की है। इस उद्देश्य से ही वह लगातार लेबनान, यमन और ईरान पर हमला कर रहा है। 1 अप्रैल को एक बड़े हमले में इज़रायल ने दमिश्क में ईरान के दूतावास पर हमला किया। इस हमले के बाद मध्य-पूर्व में किसी बड़े युद्ध की सम्भावन कुछ गहरी हुई है। ईरान ने भी इज़रायल को माकूल जवाब देने की घोषण की और 14  अप्रैल को इज़रायल पर 300 से अधिक मिसाइल ड्रोन हमले किये। इसके बाद इज़रायल ने भी कुछ दिखावटी हमले किये।

इस हमले के बाद मध्य-पूर्व में स्थिति बेहद गम्भीर हो गयी है। जर्मनी, ब्रिटेन, फ़्रांस से लेकर अमेरिका ने ईरान की निन्दा की और मध्य-पूर्व में युद्ध तनाव को तीव्र करने के लिए ज़िम्मेदार ठहराया है। हालाँकि इनमें से किसी भी देश ने इज़रायल के लगातार उकसावे वाली गतिविधियों की कभी निन्दा नहीं की है ना ही दमिश्क में ईरानी दूतावास पर हमले को ग़लत ठहराया। हमले के नर्म चरित्र को देख कर कहा जा सकता है कि यह ईरान की ओर से चेतावनी हमला है। ईरान ने स्पष्ट भी कर दिया कि उसका मिसाइल हमला मात्र चेतावनी तक ही है। इज़रायल द्वारा इस हमले की जवाबी कार्रवाई से युद्ध की अग़ली मंज़िल तय होगी।

फ़िलिस्तीन और फ़िलिस्तीन समर्थक देशों के ख़िलाफ़ लगातार ज़हर उगलने वाले नेतन्याहू ने अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। इज़रायल में युद्ध मन्त्रिमण्डल की बैठक के दौरान बस एक बयान आया कि समय आने पर ईरान से हिसाब चुकता किया जायेगा। इज़रायल करे तो क्या करे? इसकी सारी शक्ति अमेरिका और पश्चिमी साम्रज्यवादी देशों के बूते है। यह पश्चिमी साम्राज्यवाद की एक सेटलर उपनिवेशवादी चौकी ही है, जिसे पश्चिमी साम्राज्यवाद ने मध्यपूर्व में अपने हितों की देखरेख के लिए बनाया है। अपने पर बन आये तो इससे बच्चों वाला पटाखा भी न जले। इज़रायल जानता है कि बिना अमेरिका, फ़्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन के समर्थन के वह ईरान से टक्कर नहीं ले सकता। ईरान यानी ईरान के साथ खड़े रूस-चीन धुरी से लड़ना तो दूर की बात है, अगर अभी पश्चिमी साम्राज्यवाद अपना समर्थन वापस ले ले तो यह एक घण्टे भी फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध और मुक्ति युद्ध के आगे टिक नहीं सकेगा।

ऊपर बताये गये कारणों के चलते अमेरिका की बाइडेन सरकार ईरान हमले के बाद किसी क्षेत्रीय युद्ध में नहीं शामिल होना चाहती है। बाइडेन ने नेतन्याहू को जवाबी कार्रवाई करने से साफ़ मना भी कर दिया था जिसके बावजूद अमेरिका की इस बिगड़ी औलाद ने ईरान पर कुछ दिखावटी हमले किये हैं। अमेरिका किसी भी कीमत पर ऐसे किसी युद्ध में उलझना नहीं चाहता है।

साम्राज्यवादी युद्ध और जनता

लेनिन ने लिखा है साम्राज्यवाद का अर्थ है युद्ध। साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच लाभप्रद निवेश के अवसरों, सस्ते संसाधनों व श्रमशक्ति और बाज़ार को लेकर अन्तर्विरोध गहराते रहते हैं जो समय-समय पर युद्ध के रूप में फूट पड़ते हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध, सीरिया, यमन, अफ़ग़ानिस्तान, इराक़ आदि में युद्ध इसके कुछ उदाहरण हैं। मध्य-पूर्व अपने पैट्रोलियम भण्डारों की वजह से लम्बे समय से साम्राज्यवादी युद्धों की मार झेल रहा है। अमेरिका समेत ब्रिटेन, फ़्रांस, जर्मनी जैसे पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों के हितों की सुरक्षा के लिए इज़रायल को मध्य पूर्व में लठैत की तरह स्थापित किया गया था। यह कोई देश नहीं बल्कि इन साम्राज्यवादी देशों का मध्य-पूर्व में मिलिटरी चेक-पोस्ट है, एक सेटलर औपनिवेशिक परियोजना है जिसका मक़सद है मध्य पूर्व में गुण्डागर्दी के दम पर अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस, जर्मनी जैसे अन्य पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों के हितों की रक्षा और उनका इस क्षेत्र में दबदबा बनाये रखना। इस विषय पर हम नियमित लिखते रहे हैं। पाठक ‘मज़दूर बिगुल’ के पिछले अंकों में उन्हें पढ़ सकते हैं।

यहाँ हम बस यही दुहराना चाहेंगे कि गाज़ा का इज़रायली ज़ायनवादी उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष केवल मध्य-पूर्व का क्षेत्रीय मसला नहीं है। फ़िलिस्तीनी जनता का प्रतिरोध-युद्ध और मुक्ति संघर्ष आज विश्व राजनीति में साम्राज्यवादी अन्तर्विरोधों की सबसे अहम गाँठों में से एक बन गया है और विश्व में साम्राज्यवाद की क़ब्र खोदने में अपनी अहम भूमिका निभा सकता है। साम्राज्यवादी और साम्राज्यवाद समर्थक देशों की जनता अपने-अपने हुक्मरानों के ख़िलाफ़ और गाज़ा के प्रतिरोध संघर्ष के समर्थन में भारी संख्या में सड़कों पर उतर रही है। गाज़ा और वेस्ट बैंक में मासूम बच्चों, महिलाओं और बुजुर्गों का क़त्लेआम करने वाले इज़रायल को पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों का खुला समर्थन विश्व में साम्राज्यवाद को भी बेनक़ाब कर रहा है। पिछले 6 महीने से जारी नरसंहार को अब इज़रायल के “आत्मरक्षा” के तर्क से छुपाया नहीं जा सकता। वैसे कभी भी कोई उपनिवेशवादी शक्ति अपनी आत्मरक्षा का तर्क नहीं दे सकती। वह यदि किसी क़ौम की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करेगी तो उसे हमलों के लिए तैयार रहना चाहिए। उसे आत्मरक्षा का कोई अधिकार नहीं होता।

एक बात और। यह टकराव मध्य-पूर्व में इज़रायल के अस्तित्व के लिए निर्णायक साबित होगा। इज़रायल को मध्य-पूर्व में अमेरिकी और पश्चिमी साम्राज्यवाद ने अपने हितों के लिए स्थापित किया है। अगर फ़ायदे की जगह अमेरिका, जर्मनी, फ़्रांस और ब्रिटेन के लिए यह सौदा महँगा साबित होगा तो वे इज़रायल के सिर से हाथ खींच भी सकते हैं, हालाँकि अभी तत्काल ऐसा होने की सम्भावना कम ही है। लेकिन वे उसे नियन्त्रित करने या वहाँ सत्ता परिवर्तन करवाने के क़दम ज़रूर उठा सकते हैं। यह तो स्पष्ट ही हो गया है कि ये साम्राज्यवादी देश किसी बड़े युद्ध में उलझाना नहीं चाहते हैं।

मध्य-पूर्व में यदि साम्राज्यवादी युद्ध की स्थिति गहराती है तो यह साम्राज्यवाद के लिए एक नाजुक स्थिति पैदा कर सकता है। फ़िलिस्तीन लम्बे समय से पूरे मध्य-पूर्व में साम्राज्यवादी अन्तरविरोधों की सबसे बड़ी गाँठ बना हुआ है। लेबनान, जॉर्डन, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन आदि देशों की जनता अपने समझौतापरस्त हुक्मरानों के ख़िलाफ़ है। साम्राज्यवादी युद्ध के व्यापक और तीव्र होने की स्थिति में इन देशों की जनता अपने हुक्मरानों के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरेगी। ऐसे में साम्राज्यवाद के लिए इज़रायली जनसंहार के हर बीतते दिन के साथ विकल्प कम होते जायेंगे। 

भारत की जनता को, जो खुद उपनिवेशवाद का दंश 200 वर्षों तक झेल चुकी है, फ़िलिस्तीन की जनता के राष्ट्रीय संघर्ष का पुरज़ोर तरीक़े से पक्ष लेना चाहिए। इसका रिश्ता आपके मज़हब से कतई नहीं है। फ़िलिस्तीन में भी जनता किसी इस्लामी गणराज्य को बनाने के लिए नहीं लड़ रही है। उसकी आकांक्षाएँ तो एक सेक्युलर राज्य बनाने की हैं, जहाँ मुसलमान, ईसाई और यहूदी चैन से जनवाद और राजनीतिक स्वतन्त्रता के साथ रह सकें। आज इस संघर्ष के नेतृत्व में हमास के होने से भी इस क़ौमी आज़ादी की लड़ाई का चरित्र नहीं तय होता है। हमें हर मौके पर सेटलर उपनिवेशवादी प्रोजेक्ट यानी इज़रायल के नरसंहारक प्रोजेक्ट का विरोध करना चाहिए। इसका रिश्ता केवल इस बात से है कि हम इन्साफ़ में यक़ीन करते हैं।

 

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2024


 

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