तुम्हारी जात-पाँत की क्षय

राहुल सांकृत्यायन

राहुल सांकृत्यायन सच्चे अर्थों में जनता के लेखक थे। वह आज जैसे कथित प्रगतिशील लेखकों सरीखे नहीं थे जो जनता के जीवन और संघर्षों से अलग-थलग अपने-अपने नेह-नीड़ों में बैठे कागज पर रोशनाई फि़राया करते हैं। जनता के संघर्षों का मोर्चा हो या सामंतों-जमींदारों के शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ़ किसानों की लड़ाई का मोर्चा, वह हमेशा अगली कतारों में रहे। अनेक बार जेल गये। यातनाएं झेलीं। जमींदारों के गुर्गों ने उनके ऊपर कातिलाना हमला भी किया, लेकिन आजादी, बराबरी और इंसानी स्वाभिमान के लिए न तो वह कभी संघर्ष से पीछे हटे और न ही उनकी कलम रुकी।

दुनिया की छब्बीस भाषाओं के जानकार राहुल सांकृत्यायन की अद्भुत मेधा का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखाओं, साहित्य की अनेक विधाओं में उनको महारत हासिल थी। इतिहास, दर्शन, पुरातत्व, नृतत्वशास्त्र, साहित्य, भाषा-विज्ञान आदि विषयों पर उन्होंने अधिकारपूर्वक लेखनी चलायी। दिमागी गुलामी, तुम्हारी क्षय, भागो नहीं दुनिया को बदलो, दर्शन-दिग्दर्शन, मानव समाज, वैज्ञानिक भौतिकवाद, जय यौधेय, सिंह सेनापति, दिमागी गुलामी, साम्यवाद ही क्यों, बाईसवीं सदी आदि रचनाएं उनकी महान प्रतिभा का परिचय अपने आप करा देती हैं।

राहुल जी देश की शोषित-उत्पीड़ित जनता को हर प्रकार की गुलामी से आजाद कराने के लिए कलम को हथियार के रूप में इस्तेमाल करते थे। उनका मानना था कि ”साहित्यकार जनता का जबर्दस्त साथी, साथ ही वह उसका अगुआ भी है। वह सिपाही भी है और सिपहसालार भी।“

राहुल सांकृत्यायन के लिए गति जीवन का दूसरा नाम था और गतिरोध मृत्यु एवं जड़ता का। इसीलिए बनी-बनायी लीकों पर चलना उन्हें कभी गंवारा नहीं हुआ। वह नयी राहों के खोजी थे। लेकिन घुमक्कड़ी उनके लिए सिर्फ़ भूगोल की पहचान करना नहीं थी। वह सुदूर देशों की जनता के जीवन व उसकी संस्कृति से, उसकी जिजीविषा से जान-पहचान करने के लिए यात्रएं करते थे।

समाज को पीछे की ओर धकेलने वाले हर प्रकार के विचार, रूढ़ियों, मूल्यों-मान्यताओं-परम्पराओं के खिलाफ़ उनका मन गहरी नफ़रत से भरा हुआ था। उनका समूचा जीवन व लेखन इनके खिलाफ़ विद्रोह का जीता-जागता प्रमाण है। इसीलिए उन्हें महाविद्रोही भी कहा जाता है। जनता के ऐसे ही सच्चे सपूत महाविद्रोही राहुल सांकृत्यायन की एक पुस्तिका ‘तुम्हारी क्षय’ बिगुल के पाठकों के लिए हम धारावाहिक रूप से प्रकाशित कर रहे हैं। राहुल की यह निराली रचना आज भी हमारे समाज में प्रचलित रूढ़ियों के खिलाफ़ समझौताहीन संघर्ष की ललकार है।       -सम्पादक

राहुल फाउण्‍डेशन, लखनऊ द्वारा राहुल का ये संकलन एक पुस्तिका की शक्‍ल में भी प्रकाशित हुआ है जिसे इस लिंक से खरीदा जा सकता है - http://janchetnabooks.org/product/tumhari-kshay/

राहुल फाउण्‍डेशन, लखनऊ द्वारा राहुल का ये संकलन एक पुस्तिका की शक्‍ल में भी प्रकाशित हुआ है जिसे इस लिंक से खरीदा जा सकता है – http://janchetnabooks.org/product/tumhari-kshay/

हमारे देश को जिन बातों पर अभिमान है, उनमें जात-पाँत भी एक है। दूसरे मुल्कों में जात-पाँत का भेद समझा जाता है भाषा के भेद से, रंग के भेद से। हमारे यहाँ एक ही भाषा बोलने वाले, एक ही रंग के आदमियों की भिन्न-भिन्न जातें होती हैं। यह अनोखा जाति-भेद हिन्दुस्तान की सरहद के बाहर होते ही नहीं दिखलायी पड़ता। और इस हिन्दुस्तानी जाति-भेद का मतलब? – धर्म और आचार पर पूरा जोर देने वाले भिन्न जाति वालों के साथ खाना नहीं खा सकते, उनके हाथ का पानी तक नहीं पी सकते, शादी का सवाल तो बहुत दूर का है। मुसलमान और ईसाई तक भी इस छूत की बीमारी से नहीं बच सके हैं – कम-से-कम ब्याह-शादी में। अछूतों का सवाल, जो इसी जाति-भेद का सबसे उग्र रूप है हमारे यहाँ सबसे भयंकर सवाल है। कितने लोग शरीर छू जाने से स्नान करना जरूरी समझते हैं। कितनी ही जगहों पर अछूतों को सड़कों से होकर जाने का अधिकार नहीं है। हिन्दुओं की धर्म-पुस्तकें इस अन्याय के आध्यात्मिक और दार्शनिक कारण पेश करती हैं। गाँधीजी अछूतपन को हटाना चाहते हैं, लेकिन शास्त्र और वेद की दुहाई भी साथ ले चलना चाहते हैं। यह तो कीचड़-से-कीचड़ धोना है।

अछूतपन को समझना दूसरे मुल्क के लोगों के लिए कितना कठिन है। इसका मैं उदाहरण देता हूँ। 1922 में ब्रिटिश गवर्नमेण्ट ने जब अपना साम्प्रदायिक निर्णय दिया और गाँधीजी ने उस पर आमरण अनशन शुरू किया, उस समय मैं लन्दन में था। बहुत दिनों के बाद यह सनसनीखेज खबर भारत के सम्बन्ध में इंग्लैण्ड के पत्रों में छपी। उन्होंने मोटी-मोटी सुर्खियाँ देकर इसे छापा। जिन देशों में अस्पृश्यता नहीं है, वहाँ के लोग इस बारे में क्या जानें? लन्दन यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले एक चीनी छात्र हमारे पास आये और उन्होंने पूछा – “अस्पृश्यता क्या है?” मैंने कुछ समझाना चाहा। उन्होंने पूछा – “क्‍या कोई छूत की बीमारी होती है या कोढ़ की तरह का कोई कारण होता है जिससे कि लोग आदमी को छूना नहीं चाहते?” मैंने कहा कि आदमी स्वस्थ और तन्दुरुस्त हमारी ही तरह होते हैं, हाँ अधिकांश की आर्थिक दशा हीन जरूर होती है। मैं आध घण्टे से अधिक अस्पृश्यता के बारे में समझाने की कोशिश करता रहा, लेकिन देखा कि मेरे दोस्त के पल्ले कुछ पड़ नहीं रहा है। तब मैंने अमेरिका के नीग्रो लोगों का उदाहरण देकर समझाना शुरू किया। अब यद्यपि मैं थोड़ा-बहुत समझाने में सफल हुआ, लेकिन तब भी वह उनकी समझ में नहीं आया कि एक ही रंग और रूप के आदमियों में अस्पृश्यता कैसी?

पिछले हजार बरस के अपने राजनीतिक इतिहास को यदि हम लें तो मालूम होगा कि हिन्दुस्तानी लोग विदेशियों से जो पददलित हुए, उसका प्रधान कारण जाति-भेद था। जाति-भेद न केवल लोगों को टुकड़े-टुकड़े में बाँट देता है, बल्कि साथ ही यह सबके मन में ऊँच-नीच का भाव पैदा करता है। ब्राह्मण समझता है, हम बड़े हैं, राजपूत छोटे हैं। राजपूत समझता है, हम बड़े हैं,  कहार छोटे हैं। कहार समझता है, हम बड़े हैं, चमार छोटे हैं। चमार समझता है, हम बड़े हैं, मेहतर छोटे हैं और मेहतर भी अपने मन को समझाने के लिए किसी को छोटा कह ही लेता है। हिन्दुस्तान में हजारों जातियाँ हैं। और सबमें यह भाव है। राजपूत होने से ही यह न समझिए कि सब बराबर है। उनके भीतर भी हजारों जातियाँ हैं। उन्होंने कुलीन कन्या से ब्याह कर अपनी जात ऊँची साबित करने के लिए आपस में बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी हैं और देश की सैनिक शक्ति का बहुत भारी अपव्यय किया है। आल्हा-ऊदल की लड़ाइयाँ इस विषय में मशहूर हैं।

इस जाति-भेद के कारण देश-रक्षा का भार सिर्फ एक जाति के ऊपर रख दिया गया था। जहाँ देश की स्वतन्त्रता के लिए सारे देश को कुर्बानी के लिए तैयार रहना चाहिए, वहाँ एक जाति के कन्धे पर सारी जिम्मेदारी दे देना बड़ी खतरनाक बात थी। राजपूत जाति ने जहाँ तक सैनिक उत्साह का सम्बन्ध है, अपने को अयोग्य नहीं साबित किया, तो भी सिर्फ देश-रक्षा की बात नहीं रह गयी, वहाँ  तो उसके साथ-साथ राजशक्ति का प्रलोभन भी उनमें बहुत बड़ा था और इसी के लिए आपस में वे बराबर लड़ने लगे। उनके सामने मुख्य बात थी खास-खास राजवंशों की रक्षा करना। राजवंशों के पारस्परिक वैमनस्य – जो कि राजशक्ति को हथियाने के कारण ही था – उन्होंने राष्ट्रीय सैनिक-शक्ति को अनेकों टुकड़ों में बाँट दिया और वे एकसाथ होकर विदेशियों से न लड़ सकी। यदि जात-पाँत न होती तो और मुल्कों की तरह सारे हिन्दुस्तानी देश की स्वतन्त्रता के लिए लड़ते। जातीय एकता के कारण छोटे-छोटे मुल्क बहुत पीछे तक अपनी स्वतन्त्रता कायम रखने में समर्थ हुए। इतना भारी देश हिन्दुस्तान जबकि बारहवीं शताब्दी में ही परतन्त्र हो गया, लंका (सीलोन) का छोटा टापू जिसकी आबादी अब भी पचास लाख के करीब है – 1814 तक परतन्त्र न हुआ था। बर्मा तो उससे साठ-बरस और पीछे तक आजाद रहा है। हिन्दुस्तान के पड़ोस के इतने छोटे-छोटे मुल्क इतने दिनों तक अपनी स्वतन्त्रता को क्यों कायम रख सके, और आज भी अफगानिस्तान जैसे देश क्यों आजाद हैं। इसलिए कि वहाँ जाति इतने टुकड़ों में विभक्त नहीं है। वहाँ ऊँच-नीच का भाव इतना नहीं फैला है और देश के सभी निवासी अपनी स्वतन्त्रता के लिए क्षत्रिय बनकर कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ सकते हैं।

हिन्दुस्तान के इतिहास में कई बार ऐसा समय आया जबकि देश की स्वतन्त्रता फिर लौटी आ रही थी। लेकिन हमारी पुरानी आदतों ने वैसा होने नहीं दिया। शेरशाह के वंश के राजमन्त्री बहादुर हेमचन्द्र ने एक बार चाहा क्या, दिल्ली के तख्त पर बैठ भी गया, लेकिन राजपूतों ने बनिया कहकर उसका विरोध किया। दूरदर्शी सम्राट अकबर ने सारे भारत को एक जाति में लाने का स्वप्न देखा, लेकिन उसका वह स्वप्न, स्वप्न ही रह गया। और उसके बाद के हिन्दू-मुसलमानों ने कभी उस जातीय एकता के खयाल को फूटी आँखों देखना पसन्द नहीं किया। अंग्रेजों के हाथ में जाने से पहले भारत में सबसे बड़ा साम्राज्य मराठों का था, लेकिन वह भी ब्राह्मण-अब्राह्मण के झगड़ों के कारण चूर-चूर हो गया। हमारे पराभव का सारा इतिहास बतलाता है कि हम इसी जाति-भेद के कारण इस अवस्था तक पहुँचे।

आधी शताब्दी से अधिक बीत गयी जबसे कांग्रेस ने जातीय एकता कायम करने का बीड़ा उठाया। जो कुछ थोड़ी-बहुत एकता कायम करने में वह सफल हुई है, उसका फल भी हम देख रहे हैं और दो प्रान्तों को छोड़कर बाकी सभी प्रान्तों के शासन की बागडोर कांग्रेस के हाथ में है। (सिन्ध की सरकार भी कांग्रेस के प्रभाव को मानती है)। लेकिन कांग्रेस के नेताओं के मनोभाव को हम क्या देख रहे हैं? कांग्रेस के बड़े-बड़े हिन्दू जहाँ एक तरफ जातीय एकता के शोर से जमीन-आसमान एक करते रहते हैं, वहाँ दूसरी तरफ “भारतीय संस्कृति” और हिन्दू-धर्म के प्रेम में किसी से एक इंच भी कम नहीं रहना चाहते। और इसी कारण वे अपने-अपने छोटे-से जातीय दायरे से जरा भी बाहर निकलने की हिम्मत नहीं रखते। कायस्थ कांग्रेस नेता कायस्थ जाति की एकता और उसके अगुवापन की परवाह बहुत ज्यादा रखते हैं। जब उनका ब्याह-शादी या जन्म-मरण अपनी ही जाति के भीतर होने वाला है तो उनकी तो दुनिया ही कायस्थों के भीतर है। कायस्थ रिश्तेदार को – चाहे वह योग्य हो या अयोग्य, उसके और उसके परिवार के लिए कोई जीविका का प्रबन्ध करना तो जरूरी है – कोई नौकरी दिलानी ही होगी और ऐसे जाति भक्त के काम के लिए कोई भी अन्याय, अन्याय नहीं; पाप, पाप नहीं। भूमिहार कांग्रेस-नेता है। जब तक भूमिहार जाति से अलग उसका नाता-रिश्ता नहीं, तब तक वह कैसे भूमिहार से बाहर की दुनिया को अपनी दुनिया समझेगा? हमारे नेताओं में जातीयता के ये भाव कितने जबर्दस्त हैं, यह सभी जानते हैं। इस भाव के कारण हमारा सार्वजनिक जीवन बहुत गन्दा हो गया है और राष्ट्रीय शक्ति सबल नहीं होने पाती। राजनीतिक दल तो पहले से ही हैं, इसमें जातीय दलबन्दी अवस्था को और भी भयंकर बना देती है। यह जाति-भेद सिर्फ हिन्दुओं के ही राजनीतिक नेताओं में नहीं, बल्कि मुसलमान और दूसरे भी इससे बचे नहीं हैं। मुसलमानों के ऊँची-जाति के नेताओं के स्वार्थ और अदूरदर्शिता के कारण वहाँ भी मोमिन और गैर-मोमिन का सवाल छिड़ गया है, यद्यपि मुस्लिम नवाबों और सेठ-साहूकारों की बराबर कोशिश हो रही है कि बाजा और गोकशी का सवाल रखकर निम्न श्रेणी के लोगों को उस प्रश्न से अलग रक्खा जाय। लेकिन निश्चय ही इसमें असफलता होगी। राष्ट्रीय नेता की दृष्टि बहुत व्यापक होनी चाहिए। उनका अध्ययन और अनुभव विस्तृत होता है; और इस प्रकार वह भविष्य पर दूर तक सोच सकता है। लेकिन, उसकी यह शोचनीय मनोवृत्ति है। बिहार प्रान्त के कांग्रेसी नेताओं और मिनिस्टरों के इस जात-पाँत के भाव ने बड़ा ही घृणित रूप धारण कर लिया है। मिनिस्टर अपनी जाति के मेम्बरों की ठोस जमात अपने पीछे रखकर उसी दृष्टि से काम करते हैं; और, अवस्था यहाँ तक पहुँच गयी है कि यदि दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं हुआ तो सार्वजनिक जीवन की गन्दगी पराकाष्ठा को पहुँच जायेगी।

ये सारी गन्दगियाँ उन्हीं लोगों की तरफ से फैलायी गयी हैं जो धनी हैं या धनी होना चाहते हैं। सबके पीछे खयाल है धन को बटोरकर रख देने या उसकी रक्षा का। गरीबों और अपनी मेहनत की कमाई खाने वालों को ही सबसे ज्यादा नुकसान है, लेकिन सहस्राब्दियों से जात-पाँत के प्रति जनता के अन्दर खयाल पैदा किये गये हैं, वे उन्हें अपनी वास्तविक स्थिति की ओर नजर दौड़ाने नहीं देते। स्वार्थी नेता खुद इसमें सबसे बड़े बाधक हैं।

संसार की रविश हमें बतला रही है कि हम अधिक दिनों तक इस जातीय भेदभाव को कायम नहीं रख  सकते। दुनिया की चाल को देखकर अब हिन्दुस्तान के अछूत अछूत रहने को तैयार नहीं हैं – अर्जल (निम्न जाति) अर्जल  रहने को तैयार नहीं है। अछूत और अर्जल बनाये रखकर सिर्फ उनके साथ अपमानपूर्ण बर्ताव ही नहीं किया जाता, बल्कि आर्थिक स्वतन्त्रता से भी उन्हें वंचित किया जाता है। फिर वे कब समाज में सहस्राब्दियों से पहले निर्धारित किये स्थान पर रहना पसन्द करेंगे और आजादी के दीवाने तो इस प्रथा के विरुद्ध जेहाद बोल चुके  हैं। वे इसके लिए सब तरह की कुर्बानियाँ करने को तैयार हैं। उनके लिए राजनीतिक युद्ध से यह सामाजिक युद्ध कम महत्त्व नहीं रखता। वे जानते हैं कि जब  तक जातियों की खाइयाँ बन्द न की जायेंगी, तब तक जातीय एकता की ठोस नींव रक्खी नहीं जा सकती। वे जानते हैं कि इस बात में मजहब उनका सबसे बड़ा बाधक है, लेकिन वे मजहब की परवाह कब करने वाले हैं। वे जात-पाँत के साथ हिन्दू धर्म को एक ही डण्डे से मारकर समुद्र में डुबायेंगे।

देखने में जात-पाँत की इमारत मजबूत मालूम होती है, लेकिन इससे यह न समझना चाहिए कि उसकी नींव पर करारी चोट नहीं लग रही है। जातीय भेद के दो रूप हैं – एक, रोटी में छूत-छात, दूसरे, बेटी में असहयोग। रोटी में छूत-छात की बात उन्हीं धनिकों ने सबसे पहले तोड़नी शुरू की जो अपने स्वार्थ को अक्षुण्ण रखने के लिए जातीय संगठनों और जातीय एकताओं के सबसे बड़े पोषक थे। धन उनके पास था और विलायत जाने के लिए सबसे पहले वे ही तैयार हुए। जहाँ पहले विलायत जाने वाले जात से बहिष्कृत किये जाते थे, वहाँ आज वे ही जात के चौधरी हैं। दरभंगा बीकानेर को ही नहीं, दूसरी जातियों के अगुवों को भी देख लीजिये। सभी जगह विलायत में सब तरह के लोगों के साथ, सब तरह का खाना खाकर लौटे हुए लोग ही आज नेता के पद पर शोभित हैं। आई.सी.एस. दामाद पाने वाला ससुर अपने को निहाल समझता है।

पिछले बीस बरसों से रोटी की एकता बड़ी तेजी के साथ कायम हो रही है। 1921 से पहले हिन्दू होटल शायद ही कहीं दिखलायी पड़ते थे। लेकिन आज छोटे-छोटे शहरों में ही चार-चार, छै-छै दर्जन होटल नहीं हैं, बल्कि छोटे-छोटे स्टेशनों पर खुल गये हैं। कुछ साल पहले तक किसको पता था कि छपरा स्टेशन के प्लेटफार्म पर हिन्दू खोमचा वाला गोश्त-पराठे बेचता फिरेगा। मेरे एक दोस्त एक दिन पटने में किसी होटल में भोजन करने गये। उनकी क्यारी की बगल में एक लड़का बैठा था और उसकी बगल में एक तिरहुतिये ब्राह्मण चन्दन-टीका लगाकर बैठे थे। क्यारी छोटी थी और लड़के का हाथ ब्राह्मण देवता के शरीर से छू गया। वह उस पर आग बबूला हो गये, डाँटकर जात पूछने लगे। हमारे साथी ने लड़के को चुपके से समझा दिया – कह दो रैदास भगत (चमार)। लड़के ने जब ऐसा कहा तो ब्राह्मण का कौर मुँह का मुँह में ही रह गया। वह अभी बोलने को कुछ सोच ही रहे थे कि आसपास के लोग उन पर बिगड़ उठे – यह होटल है, यहाँ दाल-भात की बिक्री होती है। तुमने जात-पाँत क्यों पूछी? ब्राह्मण देवता को लेने के देने पड़ गये। यदि खाना छोड़कर जाते हैं, तो यही नहीं कि पैसे दण्ड पड़ेंगे, बल्कि सब लोगों का खुलकर हँसी उड़ाने का मौका मिलेगा। इसलिए बेचारे ने सिर नीचा करके चुपचाप भोजन कर लिया।

रोटी की छूत का सवाल हल-सा हो चुका है। शिक्षित तरुण इसमें हिन्दू-मुसलमान का भेद-भाव नहीं रखना चाहते। लेकिन बेटी का सवाल अब भी मुश्किल मालूम पड़ता है। एक दिन रेल में सफर करते मुझे एक मुसलमान नेता मिले। वह समाजवादियों के नाम से हद से ज्यादा घबराये हुए थे। बोले “समाजवादी, खैर, लोगों की गरीबी दूर करना चाहते हैं, इस्लाम भी मसावात (समानता) का प्रचारक है, लेकिन वे मजहब के खिलाफ क्यों हैं?”

मैं – “साम्यवादी मजहब के खिलाफ अपनी शक्ति का तिल भर भी खर्च करना नहीं चाहते। वे तो चाहते हैं कि दुनिया में सामाजिक अन्याय और गरीबी न रहने पाये।”

मौलाना – “इसमें हम भी आपके साथ हैं।”

मैं – “आप भी साथ हैं? क्या आप सारे हिन्दुस्तानियों की रोटी-बेटी एक कराने के लिए तैयार हैं?”

मौलाना – “इसकी क्या जरूरत है?”

मैं – “क्‍योंकिकि गरीब तब तक आजादी हासिल नहीं कर सकते, तब तक अपनी कमाई स्वयं खाने का हक पा नहीं सकते, जब तक कि वे एक होकर अपने चूसने वालों – चाहे वे देशी हों या विदेशी – का मुकाबला करके उन्हें परास्त नहीं करते।”

मौलाना – “रोटी तक तो हम आपके साथ हैं, लेकिन बेटी में नहीं।”

पास ही एक पण्डित जी बैठे हुए थे जो बातचीत से वकील मालूम होते थे। वह झट बोल उठे – “आप लोग तो दूसरे मुल्कों के साँचे में हिन्दुस्तान को भी ढालना चाहते हैं। आप लोग यह सोचने की तकलीफ गवारा नहीं करते कि हिन्दुस्तान धर्म-प्राण मुल्क है, इसकी सभ्यता और संस्कृति निराली है। भारत यूरोप नहीं हो सकता। रोटी की तो बात, खैर, एक होती देखी जा रही है; लेकिन बेटी एक होने की बात कहकर तो आप शेखचिल्ली को भी मात करते हैं।”

मैं – “कुछ बरसों पहले रोटी की एकता भी शेखचिल्ली की ही बात थी। खैर, आज आप उसे तो कबूल करते है न? बेटी की भी बात शेखचिल्ली की नहीं। बीस बरस पहले के चौके-चूल्हे को देखकर किसको आशा थी कि हमें आज का दिन देखना पड़ेगा? हिन्दू खुल्लम-खुल्ला मुसलमान और ईसाई के साथ खाना खाते हैं, लेकिन बिरादरी की मजाल है कि उनसे नाता-रिश्ता तोड़ें? हिन्दू-मुसलमान की शादियाँ होनी शुरू हो गयी हैं। पण्डित जवाहरलाल की भतीजी ने मुसलमान से शादी की है और बिना कलमा पढ़े। आसफ अली की बीवी अरुणा ने इस्लाम धर्म को स्वीकार नहीं किया। प्रोफेसर हुमायूँ कबीर ने भी इसी तरह की शादी बंगाल में की है। ऐसी मिसालें दर्जनों मिलेंगी जिनमें हिन्दू युवतियों ने बिना मजहब बदले शादियाँ की हैं। हिन्दू नवयुवक भी धर्म की जंजीर तोड़कर शादी करने लग गये हैं। गोरखपुर के श्री श्यामाचरण शास्त्री ने बिना शुद्धि के मुसलमान लड़की से शादी की है। गुजरात के एक सम्भ्रान्त कुल के हिन्दू युवक ने एक प्रतिष्ठित मुसलमान-कुल की सुशिक्षिता लड़की से शादी की है। यह निश्चित है कि दिन-प्रतिदिन ऐसे ब्याहों की संख्या बढ़ती ही जायेगी। समाज के जबर्दस्त बाँध में जहाँ सुई भर का भी छेद हो गया, वहाँ फिर उसका कायम रहना मुश्किल है।”

जात-पाँत तोड़कर एक धर्म के भीतर शादियाँ तो और ज्यादा हैं। लेकिन हमारे देश का दुर्भाग्य है कि जिस काम को अवश्य करना है, उसे भी लोग बहुत धीमी चाल से करना चाहते हैं। ठोस जातीय एकता हमारे लिए सबसे आवश्यक चीज है और वह मजहबों और जातों की चहारदीवारियों को ढहाकर ही कायम की जा सकती है। हमारी रविश जिस बात को अवश्यम्भावी बतला रही है जिसे किये बिना हमारे लिए दूसरा कोई रास्ता नहीं; उसके करने में इतनी ढिलाई दिखलाना क्या सरासर बेवकूफी नहीं है?

हिन्दुस्तानी जाति एक है। सारे हिन्दुस्तानी, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, बौद्ध हों या ईसाई, मजहब के मानने वाले हों या लामजहब; उनकी एक जाति है – हिन्दुस्तानी, भारतीय। हिन्दुस्तान से बाहर यूरोप और अमेरिका में ही नहीं, पड़ोस के ईरान और अफगानिस्तान में भी हम इसी – हिन्दी – नाम में पुकारे जाते हैं। हिन्दू सभा वाले अपने भीतर की जातियों को तोड़ने के लिए चाहे उतना उत्साह न भी दिखलाते हों, लेकिन वे मौके-बे-मौके यह घोषणा जरूर कर दिया करते हैं कि हिन्दू जाति अलग है। मुस्लिम लीग ने तो बीड़ा उठाया है कि मुसलमानों की हमेशा के लिए अलग जाति बनायी जाये। वह तो बल्कि इसी विचार के अनुसार हिन्दुस्तान को अलग हिस्सों में बाँटना चाहती है। नौ करोड़ मुसलमानों में सात करोड़ तो सीधे ही वह खून अपने शरीर में रखते हैं जो कि हिन्दूओं के बदन में है। और, बाकी दो करोड़ में कितने हैं जो कलेजे पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि उनमें चौथाई भी गैर-हिन्दुस्तानी खून है? जाति का निर्णय खून से होता है। और, इस कसौटी से परखने पर दुनिया का कोई भी आदमी – हिन्दुस्तान से बाहर – हिन्दुस्तान के मुसलमानों को अलग कौम मानने को तैयार नहीं हो सकता। तीन-चौथाई अरबी शब्द बोलकर हिन्दुस्तानी मुसलमान न अरब में जाकर हिन्दी छोड़कर दूसरा कहला सकता है और न अरबी जबान को वह अपनी मातृभाषा ही बना सकता है हमारे नौजवान इस बँटवारे को अधिक दिनों तक बर्दाश्त नहीं कर सकते। नयी सन्तानों के लिए तो अच्छा होगा कि हिन्दूओं की औैलाद अपने नाम मुसलमानी रक्खे, और मुसलमानों की औलाद अपने नाम हिन्दू रक्खे; साथ ही मजहबों की जबर्दस्त मुखालफत की जाये। सूरत-शकल के बनावटी भेद को भी मिटा दिया जाये। इस प्रकार मजहब के दीवानों को हम अच्छी तालीम दे सकते हैं।

निश्चय है कि जात-पाँत की क्षय करने से हमारे देश का भविष्य उज्ज्वल हो सकता है।


 

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