Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन द्वारा मालिकों से लड़ी जा रही क़ानूनी लड़ाई की पहली जीत!

अकसर क़ानूनी मामलों में मज़दूरों के बीच यह भ्रम पैदा किया जाता है कि वो मालिकों के पैसे की ताक़त के आगे नहीं जीत पाएंगे। मज़दूर द्वारा लेबर कोर्ट में केस दायर करने पर मालिक बिना किसी अपवाद के कोर्ट में उसे अपना मज़दूर मानने से साफ़ इनकार कर देता है और ऐसे हालात में अगर मज़दूर एकजुट न हो तो मालिकों के लिए उन्हें हराना और भी आसान हो जाता है। लेकिन राजनीतिक आंदोलनों के ज़रिये जो दबाव वज़ीरपुर के मजदूरों ने बनाया उसके चलते लेबर कोर्ट को भी मज़दूरों के पक्ष में फैसला देना पड़ा।

दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन के ठेका मज़दूरों के लम्बे संघर्ष की एक बड़ी जीत!

डीएमआरसी के ठेका मज़दूर लम्बे समय से स्थायी नौकरी, न्यूनतम मज़दूरी, ई.एस.आई., पी.एफ. आदि जैसे अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इस संघर्ष में ठेका कर्मियों ने कई जीतें भी हासिल की जैसे कि टॉम ऑपरेटरों के लिए न्यूनतम मज़दूरी को लागू करवाना, तमाम रिकॉल मज़दूरों के मुकदमों को सफलतापूर्वक लेबर कोर्ट में लड़ना। इस संघर्ष के साथ ही यूनियन पंजीकरण के लिए भी मज़दूर लगातार प्रयास कर रहे थे।

सिलिकॉसिस से मरते मज़दूर

अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.ओ.) की रिपोर्ट के अनुसार भारत में खनन, निर्माण और अन्य अलग-अलग उद्योगों में लगे करीब 1 करोड़ मज़दूर सिलिकॉसिस की चपेट में आ सकते हैं। इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आई.सी.एम.आर.) की एक रिपोर्ट के अनुसार खनन एवं ख़दानों के 17 लाख, काँच एवं अभ्रक़ उद्योग के 6.3 लाख, धातु उद्योग के 6.7 लाख और निर्माण में लगे 53 लाख मज़दूरों पर सिलिकॉसिस का ख़तरा मँडरा रहा है।

मौत की खदानों में मुनाफे का खेल

जसवंत मांझी एक दिहाड़ी मज़दूर है जो गुजरात के गोधरा में पत्थर की ख़दानों में काम करता है। कुछ साल पहले उसको काम करने में दिक्कत होने लगी थी। फिर कुछ समय बाद बिना काम किये भी साँस फूलने लगी, लगातार खाँसी और थकान रहने लगी, छाती में दर्द रहने लगा, भूख ख़त्म होने लगी, और चमड़ी का रंग नीला पड़ने लगा। इसी तरह के लक्षणों के चलते जसवंत के बड़े भाई, बहन और बहनोई की भी मौत हो चुकी है। सिर्फ़ ये लोग ही नहीं, इनके जैसे 238 मज़दूर गोधरा की इन पत्थर ख़दानों में इसी बीमारी “सिलिकोसिस” के कारण अपनी जान गँवा चुके हैं।

दिल्ली के सीलमपुर के ई-कचरा मज़दूरों की ज़िन्दगी की ख़ौफ़नाक तस्वीर

पिछले दो दशकों में भारत में तथाकथित सूचना क्रान्ति की चमक-दमक के पीछे सीलमपुर जैसे ई-कचरा केन्द्रों में काम कर रहे मज़दूरों की अँधेरी ज़ि‍न्दगी मानो छिप सी जाती है। जहाँ भारत इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स की खपत के मामले में दुनिया के अग्रणी देशों में शामिल है, वहीं दूसरी ओर इन गैजेट्स से पैदा होने वाले ई-कचरे के मामले में यह विकसित देशों को भी मात दे रहा है।

टेक्सटाइल-होज़री मज़दूरों की हड़तालों ने अड़ियल मालिकों को झुकने के लिए मजबूर किया

मौजूदा समय में जब कारख़ाना इलाक़ों में मालिकों का एक किस्म का जंगल राज क़ायम है, मज़दूरों के अधिकारों को बर्बरता पूर्वक कुचला जा रहा है, जब सरकार, पुलिस-प्रशासन, श्रम विभाग आदि सब सरेआम मालिकों का पक्ष लेते हैं, जब मज़दूरों में एकता का बड़े पैमाने पर अभाव है और दलाल ट्रेड यूनियन व नेताओं का बोलबाला है, ऐसे समय में छोटे पैमाने पर ही सही मज़दूरों द्वारा एकजुटता बनाकर लड़ना और एक हद तक जीत हासिल करना महत्वपूर्ण बात है।

कारख़ानों में सुरक्षा के पुख्ता प्रबंधों के लिए मज़दूरों का डी.सी. कार्यालय पर ज़ोरदार प्रदर्शन

लुधियाना ही नहीं बल्कि देश के सभी कारख़ानों में रोजाना भयानक हादसे होते हैं जिनमें मज़दूरों की मौते होती हैं और वे अपाहिज होते हैं। मालिकों को सिर्फ अपने मुनाफे़ की चिन्ता है। मज़दूर तो उनके के लिए सिर्फ मशीनों के पुर्जे बनकर रह गये हैं। सारे देश में पूँजीपति सुरक्षा सम्बन्धी नियम-क़ानूनों सहित तमाम श्रम क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं।

एक और मज़दूर दुर्घटना का शिकार, मुनाफ़े की हवस ने ली एक और मज़दूर की जान!

ऑटोमोबाइल सेक्टर में ऐसी दुर्घटनाएँ कोई नयी बात नहीं है। आये दिन किसी न किसी फैक्ट्री में कम्पनी मैनेजमेंट की आपराधिक लापरवाही की वजह से दुर्घटनाओं में मज़दूर अपनी जान गँवा बैठते हैं या बुरी तरह घायल हो जाते हैं। लाखों मज़दूर अपनी जान जोख़िम में डालकर काम करने के लिए मजबूर हैं।

ग्रेटर नोएडा की यामाहा फैक्ट्री में वेतन बढ़ोत्तरी की माँग पर हड़ताल कर रहे मज़दूरों पर पुलिस और अर्द्धसैनिक बल ने बरसाई लाठियाँ!

कम्पनी के नियमित मज़दूरों और कान्‍ट्रैक्ट मज़दूरों के न तो काम में कोई अन्तर है और न ही काम के घंटों में कोई फर्क है, फिर भी एक ही फैक्ट्री में काम करने वाले मज़दूरों के वेतन में ज़मीन-आसमान का फर्क कोई इत्तेफ़ाक नहीं है। पूँजीवाद में मज़दूरों की वर्ग एकता को तोड़ने के लिए पूँजीपति बहुत चालाकी से मज़दूरों के बीच भी एक सफ़ेद कालर मज़दूर वर्ग तैयार कर देता है जो अपने ही वर्ग हित के ख़िलाफ़ काम करते हैं।

मालिकों की नज़र में मज़दूर मशीनों के पुर्जे हैं

मालिक और मैनेजमैंट के ही कहने पर प्रेस मशीनों से सैंसर आदि हटा दिये जाते हैं या खराब होने पर ठीक नहीं करवाये जाते। कारख़ाने में माहौल ऐसा बना दिया जाता है कि मशीनों में बहुत सी गड़बड़ियों को ठीक करने का मतलब समय और पैसा खराब करना होगा। मज़दूरों की शिकायतों को कामचोरी मान लिया जाता है।