Category Archives: मारूति आन्‍दोलन

मारुति मानेसर प्लाण्ट के मज़दूरों की सज़ा के एक वर्ष पूरा होने पर पूँजीवादी न्याय-व्यवस्था द्वारा पूँजी की चाकरी की पुरज़ोर नुमाइश

इस फ़ैसले ने पूँजीवादी न्याय-व्यवस्था के नंगे रूप को उघाड़कर रख दिया है! यह मुक़दमा बुर्जुआ राज्य के अंग के रूप में न्याय-व्यवस्था की हक़ीक़त दिखाता है। यह राज्य-व्यवस्था और इसी का एक अंग यह न्याय-व्यवस्था पूँजीपतियों और उनके मुनाफ़े की सेवा में लगी है, मज़दूरों को इस व्यवस्था में न्याय नहीं मिल सकता है। मारुति के 148 मज़दूरों पर चला मुक़दमा, उनकी गिरफ़्तारी और 4 साल से भी ज़्यादा समय के लिए जेल में बन्द रखा जाना, इस पूँजीवादी न्यायिक व्यवस्था के चेहरे पर लगा नक़ाब पूरी तरह से उतारकर रख देता है। यह साफ़ कर देता है कि मारुति के 31 मज़दूरों को कोर्ट ने इसलिए सज़ा दी है ताकि तमाम मज़दूरों के सामने यह मिसाल पेश की जा सके कि जो भी पूँजीवादी मुनाफ़े के तन्त्र को नुक़सान पहुँचाने का जुर्म करेगा पूँजीवादी न्याय की देवी उसे क़तई नहीं बख़्शेगी।

मारुति-सुजुकी के बेगुनाह मज़दूरों को उम्रक़ैद व अन्य सज़ाओं के खि़लाफ़ लुधियाना में ज़ोरदार प्रदर्शन

एक बहुत बड़ी साजि़श के तहत़ क़त्ल, इरादा क़त्ल जैसे पूरी तरह झूठे केसों में फँसाकर पहले तो 148 मज़दूरों को चार वर्ष से अधिक समय तक, बिना ज़मानत दिये, जेल में बन्द रखा गया और अब गुड़गाँव की अदालत ने नाजायज़ ढंग से 13 मज़दूरों को उम्रक़ैद और चार को 5-5 वर्ष की क़ैद की कठोर सज़ा सुनाई है। 14 अन्य मज़दूरों को चार-चार साल की सज़ा सुनाई गयी है लेकिन चूँकि वे पहले ही लगभग साढे़ चार वर्ष जेल में रह चुके हैं इसलिए उन्हें रिहा कर दिया गया है। 117 मज़दूरों को, जिन्हें बाक़ी मज़दूरों के साथ इतने सालों तक जेलों में ठूँसकर रखा गया, उन्हें बरी करना पड़ा है। सबूत तो बाक़ी मज़दूरों के खि़लाफ़ भी नहीं है लेकिन फिर भी उन्हें जेल में बन्द रखने का बर्बर हुक्म सुनाया गया है।

मारुति मज़दूरों के केस का फ़ैसला : पूँजीवादी व्यवस्था की न्याय व्यवस्था का बेपर्द नंगा चेहरा

इस फ़ैसले ने पूँजीवादी न्याय व्यवस्था के नंगे रूप को उघाड़कर रख दिया है! यह तब है जब हाल ही में अपने जुर्म कबूलने वाले असीमानन्द और अन्य संघी आतंकवादियों को ठोस सबूत होने और असीमानन्द द्वारा जुर्म कबूलने के बाद भी बरी कर दिया जाता है। ये दोनों मुक़दमे बुर्जुआ राज्य के अंग के रूप में न्याय व्यवस्था की हक़ीक़त दिखाते हैं। यह राज्य व्यवस्था और इसलिए यह न्याय व्यवस्था पूँजीपतियों और उनके मुनाफ़े की सेवा में लगी है, मज़दूरों को इस व्यवस्था में न्याय नहीं मिल सकता है। मारुति के 148 मज़दूरों पर चला मुक़दमा, उनकी गिरफ़्तारी और 4 साल से भी ज़्यादा जेल में बन्द रखा जाना इस पूँजीवादी न्यायिक व्यवस्था के चेहरे पर लगा नकाब पूरे तरह से उतारकर रख देता है। यह साफ़ कर देता है कि मारुति के 31 मज़दूरों को कोर्ट ने इसलिए सज़ा दी है ताकि तमाम मज़दूरों के सामने यह मिसाल पेश की जा सके कि जो भी पूँजीवादी मुनाफ़े के तंत्र को नुक्सान पहुँचाने का जुर्म करेगा उसे बख़्शा नहीं जायेगा।

मारुति मजदूरों के संघर्ष की बरसी पर रस्म अदायगी

अगर आज मज़दूर वर्ग के हिरावल को गुडगाँव-मानेसर-धारुहेरा-बावल तक फैली इस आद्योगिक पट्टी में मज़दूर आन्दोलन की नयी राह टटोलनी है तो पिछले आंदोलनों का समाहार किये बगैर, उनसे सबक सीखे बगैर आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। अगर बरसी या सम्मलेन से यह पहलू नदारद हो तो उसकी महत्ता का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। अगर ईमानदारी से कुछ सवालों को खड़ा नहीं किया जाय या उनकी तरफ अनदेखी की जाय तो यह किसी भी प्रकार से मज़दूर आन्दोलन की बेहतरी की दिशा में कोई मदद नहीं कर सकता। जहाँ इस घटना के बरसी के अवसर पर आर.एस.एस मार्का नारे लगते हैं, महिला विरोधी प्रसंगों का ज़िक्र किया जाता है वहीँ अभी बीते सम्मलेन से पिछले साढ़े तीन साल के संघर्ष का समाहार गायब रहता है। अपनी गलतियों से सबक सीखने की ज़रुरत पर बात नहीं की जाती है। ‘क्या करें’, ‘आगे का रास्ता क्या हो‘, ये सवाल भी परदे के पीछे रह जाते हैं। हमें लगता है कि आज क्रन्तिकारी मज़दूर आन्दोलन की ज़रूरत है कि दलाल गद्दार ट्रेड यूनियनों को उनकी सही जगह पहुँचाया जाय यानी इतिहास की कूड़ा गाडी में। आम मज़दूर आबादी के बीच उनका जो भी थोड़ा बहुत भ्रम बचा है उसका पर्दाफाश किया जाय। आज भी ये मज़दूरों के स्वतंत्र क्रन्तिकारी पहलकदमी की लुटिया डुबाने का काम बखूबी कर रहे हैं। श्रीराम पिस्टन से लेकर ब्रिजस्टोन के मज़दूरों का संघर्ष इसका उदाहरण हैं।

मारुति के ठेका मजदूरों द्वारा वेतन बढ़ोत्तरी की माँग पर प्रबन्धन से मिली लाठियाँ!

स्थायी मज़दूरों को कभी नहीं भूलना चाहिए कि कंपनियाँ हमेशा स्थायी मज़दूरों की संख्या कम करने की, अस्थायीकरण की ताक़ में रहती हैं, और अपने फायदे के हिसाब से उनका इस्तेमाल करती है। उन्हें जुलाई 2012 में मारुति की घटना को नहीं भूलना चाहिए जिसके बाद कंपनी ने थोक भाव से स्थायी मज़दूरों को काम से निकाला था। उनका वर्ग हित अपने वर्ग भाइयों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ने में है। पूरे सेक्टर में लगातार बढ़ते ठेकाकरण, छँटनी, नये स्थायी मज़दूरों की बहाली न होना, ठेका मज़दूरों से ज़्यादा उनके लिए खतरे की घंटी है। यह दिखाता है कि स्थायी मज़दूरों का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। पूँजीपतियों के इन “अच्छे दिनों” में जहाँ एक-एक कर मज़दूरों के अधिकारों पर हमले हो रहे हैं वहाँ यह कोई बड़ी बात नही होगी कि एक ही झटके में स्थायी मज़दूरों का पत्ता काटकर कारखानों-उद्योगों में शत प्रतिशत ठेकाकरण कर दिया जाये। इसीलिए मारुति ही नहीं बल्कि पूरे सेक्टर के स्थायी मज़दूरों के लिए ज़रूरी है कि वे अपने संकीर्ण हितों से ऊपर उठकर ठेकेदारी प्रथा के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलन्द करें और एक वर्ग के तौर पर एकजुट होकर संघर्ष करें।

भोंडसी जेल का एक दौरा जहाँ मारूति के 147 मज़दूर बिना अपराध सिद्धि के दो साल से कै़द हैं।

मई 2013 में जब मज़दूरों की पहली जमानती अर्जी ख़ारिज हुई थी तब हरियाणा और पंजाब उच्‍च न्‍यायालय ने टिप्‍पणी की थी कि ”श्रमिक अशान्ति के भय से विदेशी निवेशक भारत में पूँजी निवेश करने से मना कर सकते हैं”। यह मामला एक मिसाल की तरह इस्‍तेमाल किया जा रहा है। यदि आरोप साबित होते हैं तो सभी 147 मज़दूरों को सख्‍़त से सख्‍़त सजा होगी, यानी कि उनको दो दशकों से भी अधिक समय के लिए कै़द हो सकती है।

मारुति सुजुकी मज़दूरों की “जनजागरण पदयात्रा” जन्तर-मन्तर पर रस्मी कार्यक्रम के साथ समाप्त हुई

साफ है कि चुनावी मदारियों के वादों से मारुति मज़दूरों को कुछ हासिल नहीं होने वाला है लेकिन इस घटना ने एम.एस.डब्ल्यू.यू. के नेतृत्व के अवसरवादी चरित्र को फिर सामने ला दिया, जिनके मंच पर मज़दूरों को बिना जाँच-सबूत हत्या का दोषी ठहराने वाले योगेन्द्र यादव को कोई नहीं रोकता लेकिन मज़दूरों का पक्ष रखने वाले पत्रकार-समर्थक को रोक दिया जाता है। शायद मारुति मज़दूरों का नेतृत्व आज भी मज़दूरों की ताक़त से ज्यादा चुनावी दलालों से उम्मीद टिकाये बैठे है। तभी मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन के मंच पर सीपीआई, सीपीएम से लेकर आप के नेता भी मज़दूरों को बहकाने में सफल हो जाते हैं।

मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन के पुनर्गठन के नवीनतम प्रयासों की विफलता – इस अफ़सोसनाक हालत का ज़िम्मेदार कौन है?

“इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” ने अपने संकीर्ण सांगठनिक हितों के लिए “मज़दूरों की स्वतःस्फूर्तता” और “स्‍वतन्त्र नेतृत्व और निर्णय” की खूब दुहाई थी और खूब जश्न मनाया लेकिन सच्चाई यह थी कि आन्दोलन के नेतृत्व में कभी भी स्वतन्त्र रूप से निर्णय लेने का साहस और क्षमता नहीं रही और न ही इन अवसरवादियों और संघाधिपत्यवादियों ने कभी ऐसा साहस या क्षमता पैदा करने की प्रक्रिया को प्रेरित किया। पहले यह गुड़गाँव-मानेसर में केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के दल्लालों की पूँछ पकड़कर चलता रहा; उसके बाद “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” के रायबहादुरों के मन्त्र और रामबाण नुस्खे सुनता रहा; उसके बाद कैथल जाने पर वह धनी किसानों और कुलकों के नुमाइन्दे खाप पंचायतों की गोद में जा बैठा; और जब 19 मई के दमन के बाद खाप पंचायतों ने अपना रास्ता पकड़ा तो घूम-फिर कर यूनियन नेतृत्व फिर से केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के ग़द्दारों के सहारे आ गया कि शायद वे ही सरकार से कुछ सुनवाई-समझौता करा दें। इसमें “स्‍वतःस्फूर्तता और स्वतन्त्र निर्णय” कहाँ है!? मज़ेदार बात यह है कि इन अवसरवादी, अराजकतावादी और संघाधिपत्यवादी “इंक़लाबी-क्रान्तिकारी कॉमरेडों” को भी इस सारे कार्य-कलाप से कोई लाभ नहीं हुआ और न ही उनके संकीर्ण सांगठनिक हित इससे सध सके! हाँ, इससे पूरे आन्दोलन का नुकसान उन्होंने ज़रूर किया।

मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन-एक सम्भावनासम्पन्न आन्दोलन का बिखराव की ओर जाना…

हमारा मानना है कि मारुति सुजुकी के मज़दूरों ने लम्बे समय तक एक साहसपूर्ण संघर्ष चलाया और वह साहस एक मिसाल है। लेकिन यूनियन नेतृत्व की ग़लत प्रवृत्तियों, अवसरवाद और व्यवहारवाद के कारण आन्दोलन को सही दिशा नहीं मिल सकी और यही कारण है कि आज आन्दोलन इस स्थिति में है। दूसरा कारण, आन्दोलन में ‘इंक़लाबी-क्रान्तिकारी’ कामरेडों की अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी, पुछल्लावादी सोच, और कानाफूसी और कुत्साप्रचार की राजनीति का असर है। और तीसरा असर है, एम.एस.डब्ल्यू.यू. के नेतृत्व का स्वयं का पुछल्लावाद

हरियाणा सरकार खुलकर सुज़ुकी के एजेण्ट की भूमिका में

मारुति मज़दूरों के दमन ने हरियाणा सरकार की मंशा साफ़ कर दी है कि वे खुली तानाशाही के साथ मारुति सुज़ुकी के एजेण्ट का काम करेगी। फिलहाल अभी भी मारुति सुज़ुकी वर्कर्स यूनियन कैथल में विरोध-प्रदर्शन जारी रखकर हरियाणा सरकार पर दबाव बनाने के लिए जन-समर्थन जुटा रही है। लेकिन 1 जून और 11 जून के विरोध प्रदर्शन के बाद हरियाणा सरकार मज़दूरों की किसी भी माँग पर झुकने के लिए तैयार नहीं है।