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पूँजीवादी खेती, अकाल और किसानों की आत्महत्याएँ

देश में सूखे और किसान आत्महत्या की समस्या कोई नयी नहीं है। अगर केवल पिछले 20 सालों की ही बात की जाये तो हर वर्ष 12,000 से लेकर 20,000 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। महाराष्ट्र में यह समस्या सबसे अधिक है और कुल आत्महत्याओं में से लगभग 45 प्रतिशत आत्महत्याएँ अकेले महाराष्ट्र में ही होती हैं। महाराष्ट्र में भी सबसे अधिक ये विदर्भ और मराठवाड़ा में होती हैं।

रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या से उपजे कुछ अहम सवाल जिनका जवाब जाति-उन्मूलन के लिए ज़रूरी है!

रोहित के ही शब्दों में उसकी शख़्सियत, सोच और संघर्ष को उसकी तात्कालिक अस्मिता (पहचान) तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि रोहित इसके ख़िलाफ़ था, बल्कि इसलिए कि यह अन्ततः जाति उन्मूलन की लड़ाई को भयंकर नुकसान पहुँचाता है। हम आज रोहित के लिए इंसाफ़ की जो लड़ाई लड़ रहे हैं और रोहित और उसके साथी हैदराबाद विश्वविद्यालय में फासीवादी ब्राह्मणवादी ताक़तों के विरुद्ध जो लड़ाई लड़ते रहे हैं वह एक राजनीतिक और विचारधारात्मक संघर्ष है। यह अस्मिताओं का संघर्ष न तो है और न ही इसे बनाया जाना चाहिए। अस्मिता की ज़मीन पर खड़े होकर यह लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है। इसका फ़ायदा किस प्रकार मौजूदा मोदी सरकार उठा रही है इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि अब भाजपा व संघ गिरोह हैदराबाद विश्वविद्यालय के संघी छात्र संगठन के उस छात्र की जातिगत पहचान को लेकर गोलबन्दी कर रहे हैं, जिसकी झूठी शिकायत पर रोहित और उसके साथियों को निशाना बनाया गया। स्मृति ईरानी ने यह बयान दिया है कि उस बेचारे (!) छात्रा को इसलिए निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि वह ओबीसी है! वास्तव में, ओबीसी तो अम्बेडकरवादी राजनीति के अनुसार दलित जातियों की मित्र जातियाँ हैं और इन दोनों को मिलाकर ही ‘बहुजन समाज’ का निर्माण होता है। मगर देश में जातिगत उत्पीड़न की घटनाओं पर करीबी नज़र रखने वाला कोई व्यक्ति आपको बता सकता है कि पिछले कई दशकों से हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र और आन्ध्र से लेकर तमिलनाडु तक ग़रीब और मेहनतकश दलित जातियों की प्रमुख उत्पीड़क जातियाँ ओबीसी में गिनी जाने वाली तमाम धनिक किसान जातियाँ हैं। शूद्र जातियों और दलित जातियों की पहचान के आधार पर एकता करने की बात आज किस रूप में लागू होती है? क्या आज देश के किसी भी हिस्से में – उत्तर प्रदेश में, हरियाणा में, बिहार में, महाराष्ट्र में, आन्ध्र में, तेलंगाना में, कर्नाटक या तमिलनाडु में – जातिगत अस्मितावादी आधार पर तथाकथित ‘बहुजन समाज’ की एकता की बात करने का कोई अर्थ बनता है? यह सोचने का सवाल है।

दवा उद्योग का आदमख़ोर गोरखधन्धा

अगर नकली दवा से बच भी लिया जाये तो एक नया हथकण्डा तैयार खड़ा है। पिछले साल ख़बर आयी थी कि आन्ध्रप्रदेश और तेलंगाना में अहमदाबाद की एक दवा कम्पनी से उसकी दवाओं की बिक्री बढ़ाने की एवज में 44 डॉक्टरों को कैश और गिफ्ट लेते हुए पकड़ा गया था। इंडियन मेडिकल काउंसिल ने आन्ध्रप्रदेश मेडिकल काउंसिल से इन डॉक्टरों के खिलाफ़ “एक्शन” लेने के निर्देश भी दिये थे। बहरहाल डॉक्टरों के खिलाफ़ एक्शन लिया जाना हालाँकि ज़रूरी है लेकिन इसके लिए सिर्फ डॉक्टर ज़िम्मेदार नहीं हैं। डॉक्टरों और दवा कंपनियों का यह “अपवित्र गठजोड़” कोई नई खोज नहीं है। बहुत पहले से ही दवा कंपनियाँ अपने एजेंटों के ज़रिये यह काम अंजाम देती आ रही हैं। कंपनियों और थोक व्यापारियों के लिए काम करने वाले एजेंट या मेडिकल रिप्रेज़ेंटेटिव अपने “टारगेट” पूरे करने हेतु डॉक्टरों को पकड़ते हैं और कमीशन के एवज़ में डॉक्टरों के भी टारगेट तय होते हैं। यहाँ से शुरू होता है मुनाफे़ की हवस का नंगा नाच जिसमें दवा कम्पनियाँ, दवा विक्रेता और डॉक्टर सभी एक साथ ताल से ताल मिलाते हैं। टारगेट पूरा करने के लिए तमाम तरह की गैर ज़रूरी दवाएँ मरीज़ों पर थोप दी जाती हैं जो बहुत बार उनके स्वास्थ्य को नुकसान भी पहुँचाती हैं। इसके अलावा मरीज़ की जेब पर जो बोझ पड़ता है उसके बारे में लिखने की भी ज़रूरत नहीं है। साथ में बड़ी मात्रा में एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होने के पीछे एक कारण उनका गैर ज़रूरी इस्तेमाल भी है।

”देशभक्ति” के गुबार में आम मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी के ज़रूरी मुद्दों को ढँक देने की कोशिश

इन फ़ासिस्टों के खिलाफ़ लड़ाई कुछ विरोध प्रदर्शनों और जुलूसों से नहीं जीती जा सकती। इनके विरुद्ध लम्बी ज़मीनी लड़ाई की तैयारी करनी होगी। भारत में संसदीय वामपंथियों ने हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथ विरोधी संघर्ष को मात्र चुनावी हार-जीत का और कुछ रस्मी प्रतीकात्मक विरोध का मुद्दा बना दिया है।

‘ऑड-इवेन’ जैसे फ़ॉर्मूलों से महानगरों की हवा में घुलता ज़हर ख़त्म नहीं होगा

कुछ लोग अकसर इस भ्रम का शिकार रहते है कि कानूनों को सही तरीके से लागू करके पूँजीपतियों पर लगाम कसी जा सकती है और वे अपनी बात के समर्थन में प्राय: यूरोप और अमेरिका का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। हालाँकि हालिया घटनाक्रम उनके इस भ्रम को तोड़ने के लिए काफी है। ‘वॉक्सवैगन’ नाम की कम्पनी ने यूरोप में उत्सर्जन कानूनों से बच निकलने के लिए गाडियों में ऐसे साफ्टवेयर लगाये जो प्रदूषण जाँच के दौरान तो उत्सर्जन को सामान्य स्तर पर दिखलाता था पर वास्तव मे बाकी समय उन गाडि़यों का उत्सर्जन स्थापित मानकों से 40 गुणा अधिक होता था। पूँजीपति वर्ग जब अपने मुनाफ़े पर ख़तरा मंडराता देखता है तब अपनी ही राज्य व्यवस्था द्वारा बनाये गए कानूनों की धज्जियां उड़ाने में उसे ज़रा भी हिचक नहीं होती है।

जलवायु संकट पर आयोजित पेरिस सम्मेलन : फिर खोखली बातें और दावे

यह सच है कि कार्बन उत्सर्जन नहीं घटाया गया तो दुनिया ऐसे संकट में फँस जायेगी जहाँ से पीछे लौटना सम्भव न होगा। इसका नतीजा दिखायी भी पड़ने लगा है मौसम में तेज़ी के साथ उतार-चढ़ाव हो रहे हैं। जलवायु में असाधारण बदलाव दिखने लगा है। तमिलनाडू जैसे कम पानीवाले और सूखे की मार से त्रस्त इलाक़े में पिछले दिनों बाढ़ ने कितना क़हर ढाया था, इससे हम सभी वाकिफ़ हैं। उत्तराखण्ड, जम्मू-कश्मीर की बाढ़, आन्ध्र प्रदेश में चक्रवात जैसे उदाहरण भारत में ही नहीं बल्कि दुनियाभर में देखे जा सकते हैं। अमेरिका, जापान, चीन से लेकर अन्य देशों में भी प्राकृतिक आपदाओं का सिलसिला बढ़ गया है। ग्लेशियर पिघलकर संकट की स्थिति पैदा कर सकते हैं। इससे कई देशों के सामने वजूद का संकट पैदा हो सकता है। आज अण्टार्कटिका की मोटी बर्फीली परत के टूटने का ख़तरा पैदा हो गया है। यह संकट लोगों को अपनी जगह-ज़मीन से उजाड़ देगा और लोग दर-दर भटकने के लिए मजबूर हो जायेंगे। ऐसी भयावहता को जलवायु संकट पर सम्मेलनों के नाम से होनेवाली नौटंकियाँ नहीं रोक सकतीं। जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरणीय मसला नहीं, यह सामाजिक और पारिस्थितिकीय संकट है। यह पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली का संकट है जहाँ मुनाफ़े को किसी भी क़ीमत पर कम नहीं किया जा सकता। फ़्रीज जैसे उपभोक्ता सामानों के अलावा कार्बन उत्सर्जन के लिए सबसे अधिक परिवहन तन्त्र ज़िम्मेदार होता है उसका प्रयोग राष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हो अथवा जल, हवा या ज़मीन पर हो लेकिन बाज़ार और मुनाफ़े की मौजूदा व्यवस्था से संचालित कोई भी देश इसमें कमी लाने या वैकल्पिक परिवहन तन्त्र मुहैया कराने का इरादा तक ज़ाहिर नहीं कर सकता। बी.पी., शेवरॉन, एक्सान मोबिल, शेल, सउदी अरामको और ईरानी तेल कम्पनी जैसी खनन और सीमेण्ट उत्पादन में लगी कम्पनियाँ जो जलवायु संस्थान के अध्ययन के मुताबिक़ 2/3 हिस्सा ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन कर रही हैं, अभी भी चालू स्थिति में हैं, न इन्हें बन्द किया जा सकता है और न ही मुनाफ़े को ख़तरे में डालते हुए इनमें उत्पादन के सुरक्षित तरीक़े अपनाये जा सकते हैं। यह केवल मनुष्य की बुनियादी ज़रूरतों को केन्द्र में रखनेवाली समाजवादी उत्पादन प्रणाली के ज़रिये ही सम्भव है।

समाजवादी चीन और पूँजीवादी चीन की दो फैक्टरियों के बीच फर्क

पूँजीवादी देश में फैक्टरियों में निजी हस्तगतीकरण होता है और मज़दूरों के श्रम से पैदा हुआ बेशी मूल्य सीधे मालिक अपनी जेब में रखता है इसलिए इनकी उत्पादन व्यवस्था अधिकतम प्रोडक्शन पर जोर देती है और मज़दूर को मशीन के एक टूकड़े में बदल देती है। उसके बरक्स समाजवाद एक ऐसी व्यवस्था है जो मज़दूरों को उसके जीवन का असली आधार प्रदान करती है। हम आगे इस अंतर को और आगे विस्तारित करेंगे और सिर्फ फैक्टरी स्तर पर ही नहीं बल्कि मज़दूरों के रहने की जगह में, सुविधाओं के ढाँचे के बारे में विस्तार से बात करते हुए समाजवाद और पूँजीवाद के अंतर के बारे में गहनता से समझेंगे। लेकिन एक बात यहाँ जो समझ में आती है कि फैक्टरी फ्लोर के स्तर पर समाजवादी चीन और पूँजीवाद चीन में ज़मीन आसमान का अंतर है। यह हमें समझना होगा कि हमें क्या चाहिए? फोक्स्कोन की फैक्टरी के हालात आज भारत की भी लगभग हर फैक्टरी के हालात हैं। यहाँ भी मैनेजमेंट और मज़दूर के बीच मालिक और गुलाम का सम्बन्ध है न कि किसी समूह के दो सदस्यों सरीखा व्यवहार है। हमें अपनी फैक्टरी के हालातों को बदलना है तो इस मैनेजमेंट को बनाने वाली मुनाफ़ा आधारित व्यवस्था को ही ख़त्म करना होगा।

फ़ासीवादी वहशीपन की दिल दहलाने वाली दास्तान

फ़ासीवाद पूँजीवाद के भीषण संकट से उपजा आन्दोलन था जो अपने रूप और अन्तर्वस्तु में घोर मानवद्रोही था। मनुष्यजाति के एक हिस्से के प्रति इस कदर अन्धी नफरत उभारी गई कि उन्हें इन्सान ही नहीं समझा जाने लगा। लाखों लोगों को सिर्फ मारा ही नहीं गया बल्कि तरह-तरह से यातनाएँ देकर मारा गया। लेकिन नफरत की इस आँधी ने इन्सानों का शिकार करने वालों को भी बख्शा नहीं था। उनके भीतर का इन्सान भी मर गया था। लाखों लोगों को मौत के घाट उतारने वाले आशवित्स शिविर का संचालक फ्रांज़ लैंग वहां गैस चेम्बरों में मरने वाले यहूदियों को महज ‘‘इकाइयाँ” मानता था जिन्हें ‘‘निपटाया” जाना था। अनेक सनकी डाक्टर इस बात पर ‘‘अनुसन्धान” करते थे कि अलग-अलग ढंग से यातनाएँ दिये जाने पर मरने से पहले कितना दर्द होता है। यहाँ हम दूसरे विश्‍वयुद्ध के ख़त्म होने के बाद जर्मनी के न्‍यूरेम्बर्ग में हिटलर के नाज़ी सहयोगियों पर चलाये गये अन्तरराष्‍ट्रीय मुकदमे की शुरुआत का ब्‍योरा दे रहे हैं। इसे ‘असली इन्सान’ जैसे प्रसिद्ध उपन्‍यास के लेखक और सोवियत पत्रकार बोरीस पोलेवोइ की किताब ‘नाज़ि‍यों से आख़ि‍री हिसाब’ से लिया गया है। इसे पढ़कर अनुमान लगाया जा सकता है कि फ़ासीवाद जैसे मानवद्रोही विचारों को अगर बेरोकटोक छोड़ दिया जाये तो ये वहशीपन की किस हद तक जा सकते हैं। दंगों में स्त्रिायों के गर्भ से शिशुओं को निकालकर टुकड़े कर डालना और जीते-जागते इंसानों की खाल से जूते बनाने जैसी हरकतों के पीछे एक ही मानवद्रोही सोच काम करती है।

मुनाफ़े के गोरखधन्धे में बलि चढ़ता विज्ञान और छटपटाता इन्सान

कहने को तो विज्ञान मानव का सेवक है लेकिन पूँजीवाद में यह मात्र मुनाफ़ा कूटने का एक साधन बनकर रह गया है। मुनाफ़े की कभी न मिटने वाली भूख से ग्रस्त यह मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था मानव के साथ-साथ मानवीय मूल्य और मानवीय संवेदनाओं को भी निरन्तर निगलती जा रही है। विज्ञान की ही एक विधा चिकित्सा विज्ञान का उदाहरण हम देख सकते हैं। विज्ञान की किसी भी अन्य विधा की तरह चिकित्सा विज्ञान ने भी पिछले कुछ दशकों में अभूतपूर्व तरक़्क़ी की है और इसकी बदौलत हमने अभूतपूर्व उपलब्धियाँ हासिल की हैं और अनेक बीमारियों पर विजय पायी है तथा अनेक बीमारियों से लड़ने में हम सक्षम हुए हैं। लेकिन विज्ञान की अन्य धाराओं की तरह ही चिकित्सा विज्ञान भी पूँजीवाद के चंगुल में इस तरह से जकड़ा हुआ है कि उच्चतम मानवीय मूल्यों पर आधारित यह विज्ञान भी मात्र मुनाफ़ा कमाने का एक ज़रिया बनकर रह गया है। इस व्यवस्था में मरीज़ को मरीज़ नहीं बल्कि ग्राहक माना जाता है जिसको दवाएँ और इलाज बेचा जाता है। डॉक्टरों से लेकर दवा कम्पनियाँ और यहाँ तक कि इस व्यवसाय से जुड़े अधिकतर लोग मुनाफ़े की इस दलदल में बुरी तरह से धँसे हुए हैं।

अर्थव्यवस्था का संकट और मज़दूर वर्ग

असल में हर आर्थिक संकट मज़दूरों के जीवन में तबाही लाता है। आर्थिक संकट और उसके बाद मन्दी और अर्थव्यवस्था में ठहराव से बेरोज़गारी और ज़बरदस्त तबाही फैलती है। यह मज़दूरों के बड़े हिस्से को पूँजीवाद के ख़िलाफ़ संगठित होने का मौक़ा देता है। यही वह समय होता है कि जब हम संगठित होकर अपने लुटेरों पर हल्‍ला बोल सकते हैं।