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जलवायु संकट पर आयोजित पेरिस सम्मेलन : फिर खोखली बातें और दावे

यह सच है कि कार्बन उत्सर्जन नहीं घटाया गया तो दुनिया ऐसे संकट में फँस जायेगी जहाँ से पीछे लौटना सम्भव न होगा। इसका नतीजा दिखायी भी पड़ने लगा है मौसम में तेज़ी के साथ उतार-चढ़ाव हो रहे हैं। जलवायु में असाधारण बदलाव दिखने लगा है। तमिलनाडू जैसे कम पानीवाले और सूखे की मार से त्रस्त इलाक़े में पिछले दिनों बाढ़ ने कितना क़हर ढाया था, इससे हम सभी वाकिफ़ हैं। उत्तराखण्ड, जम्मू-कश्मीर की बाढ़, आन्ध्र प्रदेश में चक्रवात जैसे उदाहरण भारत में ही नहीं बल्कि दुनियाभर में देखे जा सकते हैं। अमेरिका, जापान, चीन से लेकर अन्य देशों में भी प्राकृतिक आपदाओं का सिलसिला बढ़ गया है। ग्लेशियर पिघलकर संकट की स्थिति पैदा कर सकते हैं। इससे कई देशों के सामने वजूद का संकट पैदा हो सकता है। आज अण्टार्कटिका की मोटी बर्फीली परत के टूटने का ख़तरा पैदा हो गया है। यह संकट लोगों को अपनी जगह-ज़मीन से उजाड़ देगा और लोग दर-दर भटकने के लिए मजबूर हो जायेंगे। ऐसी भयावहता को जलवायु संकट पर सम्मेलनों के नाम से होनेवाली नौटंकियाँ नहीं रोक सकतीं। जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरणीय मसला नहीं, यह सामाजिक और पारिस्थितिकीय संकट है। यह पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली का संकट है जहाँ मुनाफ़े को किसी भी क़ीमत पर कम नहीं किया जा सकता। फ़्रीज जैसे उपभोक्ता सामानों के अलावा कार्बन उत्सर्जन के लिए सबसे अधिक परिवहन तन्त्र ज़िम्मेदार होता है उसका प्रयोग राष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हो अथवा जल, हवा या ज़मीन पर हो लेकिन बाज़ार और मुनाफ़े की मौजूदा व्यवस्था से संचालित कोई भी देश इसमें कमी लाने या वैकल्पिक परिवहन तन्त्र मुहैया कराने का इरादा तक ज़ाहिर नहीं कर सकता। बी.पी., शेवरॉन, एक्सान मोबिल, शेल, सउदी अरामको और ईरानी तेल कम्पनी जैसी खनन और सीमेण्ट उत्पादन में लगी कम्पनियाँ जो जलवायु संस्थान के अध्ययन के मुताबिक़ 2/3 हिस्सा ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन कर रही हैं, अभी भी चालू स्थिति में हैं, न इन्हें बन्द किया जा सकता है और न ही मुनाफ़े को ख़तरे में डालते हुए इनमें उत्पादन के सुरक्षित तरीक़े अपनाये जा सकते हैं। यह केवल मनुष्य की बुनियादी ज़रूरतों को केन्द्र में रखनेवाली समाजवादी उत्पादन प्रणाली के ज़रिये ही सम्भव है।

समाजवादी चीन और पूँजीवादी चीन की दो फैक्टरियों के बीच फर्क

पूँजीवादी देश में फैक्टरियों में निजी हस्तगतीकरण होता है और मज़दूरों के श्रम से पैदा हुआ बेशी मूल्य सीधे मालिक अपनी जेब में रखता है इसलिए इनकी उत्पादन व्यवस्था अधिकतम प्रोडक्शन पर जोर देती है और मज़दूर को मशीन के एक टूकड़े में बदल देती है। उसके बरक्स समाजवाद एक ऐसी व्यवस्था है जो मज़दूरों को उसके जीवन का असली आधार प्रदान करती है। हम आगे इस अंतर को और आगे विस्तारित करेंगे और सिर्फ फैक्टरी स्तर पर ही नहीं बल्कि मज़दूरों के रहने की जगह में, सुविधाओं के ढाँचे के बारे में विस्तार से बात करते हुए समाजवाद और पूँजीवाद के अंतर के बारे में गहनता से समझेंगे। लेकिन एक बात यहाँ जो समझ में आती है कि फैक्टरी फ्लोर के स्तर पर समाजवादी चीन और पूँजीवाद चीन में ज़मीन आसमान का अंतर है। यह हमें समझना होगा कि हमें क्या चाहिए? फोक्स्कोन की फैक्टरी के हालात आज भारत की भी लगभग हर फैक्टरी के हालात हैं। यहाँ भी मैनेजमेंट और मज़दूर के बीच मालिक और गुलाम का सम्बन्ध है न कि किसी समूह के दो सदस्यों सरीखा व्यवहार है। हमें अपनी फैक्टरी के हालातों को बदलना है तो इस मैनेजमेंट को बनाने वाली मुनाफ़ा आधारित व्यवस्था को ही ख़त्म करना होगा।

फ़ासीवादी वहशीपन की दिल दहलाने वाली दास्तान

फ़ासीवाद पूँजीवाद के भीषण संकट से उपजा आन्दोलन था जो अपने रूप और अन्तर्वस्तु में घोर मानवद्रोही था। मनुष्यजाति के एक हिस्से के प्रति इस कदर अन्धी नफरत उभारी गई कि उन्हें इन्सान ही नहीं समझा जाने लगा। लाखों लोगों को सिर्फ मारा ही नहीं गया बल्कि तरह-तरह से यातनाएँ देकर मारा गया। लेकिन नफरत की इस आँधी ने इन्सानों का शिकार करने वालों को भी बख्शा नहीं था। उनके भीतर का इन्सान भी मर गया था। लाखों लोगों को मौत के घाट उतारने वाले आशवित्स शिविर का संचालक फ्रांज़ लैंग वहां गैस चेम्बरों में मरने वाले यहूदियों को महज ‘‘इकाइयाँ” मानता था जिन्हें ‘‘निपटाया” जाना था। अनेक सनकी डाक्टर इस बात पर ‘‘अनुसन्धान” करते थे कि अलग-अलग ढंग से यातनाएँ दिये जाने पर मरने से पहले कितना दर्द होता है। यहाँ हम दूसरे विश्‍वयुद्ध के ख़त्म होने के बाद जर्मनी के न्‍यूरेम्बर्ग में हिटलर के नाज़ी सहयोगियों पर चलाये गये अन्तरराष्‍ट्रीय मुकदमे की शुरुआत का ब्‍योरा दे रहे हैं। इसे ‘असली इन्सान’ जैसे प्रसिद्ध उपन्‍यास के लेखक और सोवियत पत्रकार बोरीस पोलेवोइ की किताब ‘नाज़ि‍यों से आख़ि‍री हिसाब’ से लिया गया है। इसे पढ़कर अनुमान लगाया जा सकता है कि फ़ासीवाद जैसे मानवद्रोही विचारों को अगर बेरोकटोक छोड़ दिया जाये तो ये वहशीपन की किस हद तक जा सकते हैं। दंगों में स्त्रिायों के गर्भ से शिशुओं को निकालकर टुकड़े कर डालना और जीते-जागते इंसानों की खाल से जूते बनाने जैसी हरकतों के पीछे एक ही मानवद्रोही सोच काम करती है।

मुनाफ़े के गोरखधन्धे में बलि चढ़ता विज्ञान और छटपटाता इन्सान

कहने को तो विज्ञान मानव का सेवक है लेकिन पूँजीवाद में यह मात्र मुनाफ़ा कूटने का एक साधन बनकर रह गया है। मुनाफ़े की कभी न मिटने वाली भूख से ग्रस्त यह मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था मानव के साथ-साथ मानवीय मूल्य और मानवीय संवेदनाओं को भी निरन्तर निगलती जा रही है। विज्ञान की ही एक विधा चिकित्सा विज्ञान का उदाहरण हम देख सकते हैं। विज्ञान की किसी भी अन्य विधा की तरह चिकित्सा विज्ञान ने भी पिछले कुछ दशकों में अभूतपूर्व तरक़्क़ी की है और इसकी बदौलत हमने अभूतपूर्व उपलब्धियाँ हासिल की हैं और अनेक बीमारियों पर विजय पायी है तथा अनेक बीमारियों से लड़ने में हम सक्षम हुए हैं। लेकिन विज्ञान की अन्य धाराओं की तरह ही चिकित्सा विज्ञान भी पूँजीवाद के चंगुल में इस तरह से जकड़ा हुआ है कि उच्चतम मानवीय मूल्यों पर आधारित यह विज्ञान भी मात्र मुनाफ़ा कमाने का एक ज़रिया बनकर रह गया है। इस व्यवस्था में मरीज़ को मरीज़ नहीं बल्कि ग्राहक माना जाता है जिसको दवाएँ और इलाज बेचा जाता है। डॉक्टरों से लेकर दवा कम्पनियाँ और यहाँ तक कि इस व्यवसाय से जुड़े अधिकतर लोग मुनाफ़े की इस दलदल में बुरी तरह से धँसे हुए हैं।

अर्थव्यवस्था का संकट और मज़दूर वर्ग

असल में हर आर्थिक संकट मज़दूरों के जीवन में तबाही लाता है। आर्थिक संकट और उसके बाद मन्दी और अर्थव्यवस्था में ठहराव से बेरोज़गारी और ज़बरदस्त तबाही फैलती है। यह मज़दूरों के बड़े हिस्से को पूँजीवाद के ख़िलाफ़ संगठित होने का मौक़ा देता है। यही वह समय होता है कि जब हम संगठित होकर अपने लुटेरों पर हल्‍ला बोल सकते हैं।

राम मन्दिर के बहाने साम्प्रदायिक तनाव पैदा करने की साज़िशें फिर तेज़

राम मन्दिर निर्माण के बहाने तनाव पैदा करने की साज़िशें देश की मेहनतकश जनता के लिए अतीत की तरह अब भी बेहद घातक सिद्ध होंगी। साम्प्रदायिक दूरियाँ पैदा करके जनता के आर्थिक-राजनीतिक जनवादी अधिकार बड़े स्तर पर छीने गये हैं। जितना बड़ा हमला जनता पर हुआ है उसके मुकाबले जनता के तरफ़ से प्रतिरोध कार्रवाई संगठित नहीं हो पायी है। अगर जनता ने साम्प्रदायिक ताक़तों की इन साज़िशों का जवाब पुख्ता ढंग से न दिया तो आने वाला समय जनता के हितों पर और बड़े हमले लेकर आयेगा। इसलिए क्रान्तिकारी, जनवादी, धर्मनिरपेक्ष ताक़तों को जनता को हिन्दुत्वी फ़ासीवादी ताक़तों के ख़िलाफ़ संगठित करने का काम बेहद गम्भीरता से करना चाहिए। हिन्दुत्ववादी फ़ासीवादियों की काली करतूतों का फ़ायदा उठाकर मुस्लिम कट्टरपन्थी साधारण मुस्लिम आबादी को अपने साम्प्रदायिक जाल में फँसाने की साज़िशें तेज़ कर रहे हैं। इनका भी डटकर विरोध करना होगा। साधारण मुस्लिम आबादी को समझाना होगा कि उनके धार्मिक जनवादी अधिकारों की रक्षा भी तब ही हो सकती है जब वे समूची मेहनतकश जनता का अंग बनकर धर्मनिरपेक्ष व जनवादी रुख से हिन्दुत्ववादी कट्टरपन्थियों समेत मुस्लिम कट्टरपन्थियों के विरोध में भी, यानी समूची साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ेंगे। उन्हें समूची जनता के हिस्से के तौर पर भारत के पूँजीवादी हाकिमों द्वारा लोगों पर हो रहे आर्थिक-राजनीतिक हमलों का डटकर विरोध करना होगा। उन्हें मेहनतकश जनता की पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ वर्गीय लड़ाई को मज़बूत बनाना होगा।

मार्क्स की ‘पूँजी’ को जानिये : चित्रांकनों के साथ – पहली किस्‍त

मार्क्स की ‘पूँजी’ को जानिये : चित्रांकनों के साथ – पहली किस्‍त – ‘आदिम संचय का रहस्‍य’ अमेरिका की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य एवं प्रसिद्ध राजनीतिक चित्रकार ह्यूगो गेलर्ट ने…

नये साल में मज़दूर वर्ग को फासीवाद की काली घटाओं को चीरकर आगे बढ़ने का संकल्प लेना ही होगा

इतिहास गवाह रहा है कि पूँजीवादी संकट के दौर में फलने-फूलने वाले फ़ासीवादी दानवों का मुक़ाबला मज़दूर वर्ग की फौलादी एकजुटता से ही किया जा सकता है। हमें यह समझना ही होगा कि भगवा फ़ासीवादी शक्तियाँ मेहनतकशों को धर्म और जाति के नाम पर बाँटकर मौत का जो ताण्डव रच रही हैं उससे वे अपने मरणासन्न स्वामी यानी पूँजीपति वर्ग की उम्र बढ़ाने का काम कर रही हैं। मज़दूर वर्ग को पूँजीवाद के इस मरणासन्न रोगी को उसकी क़ब्र तक पहुँचाने के अपने ऐतिहासिक मिशन को याद करते हुए फा़सिस्ट ताक़तों से लोहा लेने के लिए कमर कसनी ही होगी। नये साल में इससे बेहतर संकल्प भला क्या हो सकता है!

नये साल में चुप्पी तोड़ो! परिवर्तन के संघर्ष से नाता जोड़ो!! धार्मिक-जातीय बँटवारे की साज़िशों को नाकाम करो!

इक्कीसवीं सदी का एक और साल अतीत का हिस्सा बन चुका है। देश की ऊपरी 10-12 प्रतिशत सम्पन्न आबादी नये साल के जश्न पर अरबों रुपये उड़ा रही है। मगर देश के आम मेहनतकश लोगों के लिए तो आने वाला नया साल हर बार की तरह समस्याओं और चुनौतियों के पहाड़ की तरह खड़ा है। आम मेहनतकशों और ग़रीबों के दुखों और आँसुओं के सागर में बने अमीरी के  टापुओं पर रहने वालों का स्वर्ग तो इस व्यवस्था में पहले से सुरक्षित है, वे तो जश्न मनायेंगे ही। मगर “अच्छे दिनों” के इन्तज़ार में साल-दर-साल शोषण-दमन-उत्पीड़न झेलती जा रही देश की आम जनता आख़िर किस बात का जश्न मनाये?

चीन में आर्थिक संकट और मज़दूर वर्ग

चीन के सामाजिक फासीवादी देश के पूँजीपतियों के लिए जहाँ संकट से बचने के लिए बेल आउट पैकेज दे रहा है वहीँ मज़दूरों को तबाह कर उनसे उनके तमाम अधिकार भी छीन रहा है। चीन में अमीर-गरीब पिछले 10 सालों में बेहद अधिक बढ़ी है। पार्टी के खरबपति “कॉमरेड” और उनकी ऐयाश संतानों का गिरोह व निजी पूँजीपती चीन की सारी संपत्ति का दोहन कर रहे हैं। चीन के सिर्फ 0.4 फीसदी घरानों का 70 फीसदी संपत्ति पर कब्ज़ा है। यह सब राज्य ने मज़दूरों के सस्ते श्रम को लूट कर हासिल किया है। लेकिन मज़दूर वर्ग भी पीछे नहीं हैं और अपने हक़ और मांगों के लिए सड़कों पर उतर रहे हैं। राज्य के दमन के बावजूद भी मज़दूर अपनी आवाज़ उठा रहे हैं। एक तरफ चीन का शासक वर्ग आर्थिक संकट के दौर में मज़दूरों को अधिक रियायतें नहीं दे सकता है और दूसरी तरफ मज़दूरों की ज़िन्दगी पहले से ही नरक में है और अब जब वे सड़कों पर उतरे हैं तो इसी कारण कि उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। यह इस व्यवस्था का असमाधेय अन्तरविरोध है। इस अन्तरविरोध का समाधान मज़दूर वर्ग अपने पक्ष में सिर्फ तब कर सकता है जब वह मज़दूर वर्ग की पार्टी के अंतर्गत संगठित होकर चीनी शासकों का तख्ता पलट दे वरना संकट के ये कुचक्र चलते रहेंगे और पूँजीवादी व्यवस्था मर-मर कर भी घिसटती रहेगी।