Category Archives: संघर्षरत जनता

दमन-उत्पीड़न से नहीं कुचला जा सकता मेट्रो कर्मचारियों का आन्दोलन

दिल्ली मेट्रो की ट्रेनें, मॉल और दफ्तर जितने आलीशान हैं उसके कर्मचारियों की स्थिति उतनी ही बुरी है और मेट्रो प्रशासन का रवैया उतना ही तानाशाहीभरा। लेकिन दिल्ली मेट्रो रेल प्रशासन द्वारा कर्मचारियों के दमन-उत्पीड़न की हर कार्रवाई के साथ ही मेट्रो कर्मचारियों का आन्दोलन और ज़ोर पकड़ रहा है। सफाईकर्मियों से शुरू हुए इस आन्दोलन में अब मेट्रो फीडर सेवा के ड्राइवर-कण्डक्टर भी शामिल हो गये हैं। मेट्रो प्रशासन के तानाशाही रवैये और डीएमआरसी-ठेका कम्पनी गँठजोड़ ने अपनी हरकतों से ठेके पर काम करने वाले कर्मचारियों की एकजुटता को और मज़बूत कर दिया है।

नरेगा की अनियमितताओं के खिलाफ लड़ाई फैलती जा रही है

देहाती मजदूर यूनियन और नौजवान भारत सभा के नेतृत्व में मर्यादपुर के नरेगा मजदूर और गरीबों द्वारा शुरु किया गया संघर्ष धीरे-धीरे क्षेत्र के दूसरे गाँव में फैलता जा रहा है। दरअसल दोनों संगठनों के कार्यकर्ताओं ने इस मुद्दे को व्यापक बनाने के लिए जगह-जगह नुक्कड़ सभाएं करनी शुरू कर दी है। इन सभाओं में आम मजदूरों की काफी भागीदारी दिखायी दे रही है। शेखपुर (अलीपुर), लखनौर, ताजपुर, जवाहरपुर गोठाबाड़ी, रामपुर, नेमडाड, कटघरा, लऊआ सात और अनेक दूसरे गाँवों में भी सभाओं में मजदूर भारी संख्या में पहुँचे। उन्होंने खुल कर अपनी समस्याएँ सामने रखी।

दिल्ली मेट्रो प्रबन्धन के ख़िलाफ़ एकजुट हो रहे हैं सफ़ाईकर्मी

पूरा दिल्ली मेट्रो मज़दूरों के ख़ून-पसीने और हडि्डयों की नींव पर खड़ा किया गया है लेकिन इसके बदले में मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी, साप्ताहिक छुट्टी, पी.एफ़, ई.एस.आई. और यूनियन बनाने के अधिकार जैसे बुनियादी अधिकारों से भी वंचित रखा गया है। श्रम क़ानूनों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ायी जाती हैं। हालाँकि मेट्रो स्टेशनों और डिपो के बाहर मेट्रो प्रशासन ने एक बोर्ड ज़रूर लटका दिया है कि ‘यहाँ सभी श्रम क़ानून लागू किये जाते हैं’। चाहे मेट्रो में काम करने वाले सफ़ाई मज़दूर हों या फिर निर्माण मज़दूर, सभी से जानवरों की तरह हाड़तोड़ काम लिया जाता है और उन्हें कई बार साप्ताहिक छुट्टी तक नहीं दी जाती है। पी.एफ़ या ई.एस.आई. की सुविधा तो बहुत दूर की बात है। ऊपर से यदि कोई मज़दूर इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है तो उसे तरह-तरह से प्रताड़ित किया जाता है या फिर उसे निकालकर बाहर ही फेंक दिया जाता है।

मर्यादपुर में देहाती मज़दूर यूनियन एक बार फिर संघर्ष की तैयारी में

राशन कार्ड, मिट्टी के तेल एवं खाद्यान्नों के वितरण में धाँधली की जाँच कर पात्र व्यक्तियों को उचित राशन कार्ड व निर्धारित मात्र में अनाज और मिट्टी के तेल का वितरण सुनिश्चित कराया जाये, विधवा पेंशन, वृद्धावस्था पेंशन व निर्बल आवास योजना की धाँधलियों की जाँच कर लोगों को योजना का लाभ दिलवाने के साथ ही इन तमाम धाँधालियों में लिप्त लेखपाल, सचिव को बर्खास्त किया जाये। इसके अलावा स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने के लिए डीप बोर हैण्ड पम्प लगाये जाये, बन्द पड़े जच्चा- बच्चा केंद्र को चालू कराया जाये, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र खोला जाये और सार्वजनिक उपयोग की भूमि को निजी कब्ज़े से आज़ाद कराया जाये। माँग-पत्रक में नाली-खड़ंजा-चकरोड की भू-अभिलेखों के अनुसार आम पैमाइश कराने की माँग भी शामिल थी जिससे ग्राम सभा में आये दिन होने वाले विवादों से छुटकारा मिल सके।

नेपाली क्रान्ति: नये दौर की समस्याएँ और चुनौतियाँ, सम्भावनाएँ और दिशाएँ

‘रेड स्टार’ के अंकों में एकाधिक बार यह अहम्मन्यतापूर्ण दावा किया गया है कि लेनिन ने संविधान सभा का जो नारा दिया था, वह अक्टूबर क्रान्ति के बाद पूरा नहीं हुआ था, लेकिन नेपाली क्रान्ति ने उसे पूरा कर दिखाया। लेनिन के समय में संविधान सभा के चुनाव में बहुमत हासिल नहीं कर पाने के बाद उसे भंग कर दिया गया था, लेकिन नेपाल में हमने संविधान सभा में भी जीत हासिल करके सर्वहारा जनवाद की अवधारणा को व्यवहार में आगे विकसित किया है। इस बड़बोलेपन के दिवालियेपन और संशोधनवादी चरित्र पर ग़ौर करना ज़रूरी है। लेनिन के समय में संविधान सभा बनाम सोवियत का प्रश्न बुर्जुआ राज्यसत्ता के बलपूर्वक ध्वंस के बाद पैदा हुआ था। बोल्शेविकों के सामने प्रश्न था कि नयी सर्वहारा सत्ता का, सर्वहारा जनवाद का, या यूँ कहें कि सर्वहारा अधिनायकत्व का मुख्य ‘ऑर्गन’ क्या होगा? सैद्धान्तिक तौर पर बहुदलीय संसदीय जनतन्त्र को बोल्शेविक पहले ही ख़ारिज़ कर चुके थे। संविधान सभा को नयी सर्वहारा सत्ता का एक ‘ऑर्गन’ बनाने के बारे में कुछ समय तक उन्होंने सोचा था, लेकिन फिर जल्दी ही वे इस नतीजे पर पहुँचे कि सोवियतें ही सर्वहारा सत्ता का मुख्य ‘ऑर्गन’ होंगी, वे विधायिका और कार्यपालिका दोनों की भूमिका निभायेंगी तथा उनके चुनाव में शोषक वर्गों की कोई भागीदारी नहीं होगी। दो वर्षों के अनुभव के बाद बोल्शेविक पार्टी इस नतीजे पर पहुँची कि सोवियतों के माध्यम से शासन चलाने या सर्वहारा अधिनायकत्व लागू करने में पार्टी की संस्थाबद्ध नेतृत्वकारी भूमिका होगी तथा ट्रेडयूनियनों की भूमिका राज्यसत्ता की “आरक्षित शक्ति” की या शासन चलाने के प्रशिक्षण केन्द्र की होगी। ने.क.पा. (माओवादी) इस बात को भूल जाती है कि नेपाल में संविधान सभा का प्रश्न राज्यसत्ता के बलात ध्वंस के बाद नहीं उठा है। यह वर्ग-संघर्ष में रणनीतिक शक्ति-सन्तुलन की संक्रमण-अवधि के दौरान एक अन्तरिम समझौते की व्यवस्था के रूप में सामने आया है और ऐसी संविधान सभा के चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरना इतनी बड़ी क्रान्तिकारी उपलब्धि नहीं है, जिसके आधार पर बोल्शेविक पार्टी के अनुभवों के समाहार को संशोधित करने और मार्क्सवादी विज्ञान में इज़ाफ़ा करने का दावा ठोंक दिया जाये। ऐसा वही कर सकता है जो शान्ति समझौते और संविधान सभा के चुनाव को अक्टूबर क्रान्ति की तरह राज्यसत्ता परिवर्तन की घटना माने। कहना नहीं होगा कि यह बेहद सतही किस्म की संशोधनवादी समझ ही हो सकती है।

मैगपाई की गुण्डागर्दी के खि़लाफ़ मज़दूरों का जुझारू संघर्ष

निकाले गये रामराज, सलाउद्दीन, जोगिन्दर, गजेन्द्र, मिण्टू, प्रेमपाल, पप्पू महतो और रिषपाल आदि मज़दूरों के समर्थन में इसी फ़ैक्ट्री के तथा कुछ अन्य फ़ैक्ट्रियों के 50-60 मज़दूरों ने एकजुट होकर फ़ैक्ट्री गेट के सामने प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। मामले को बढ़ता देखकर 6-7 दिन बाद मालिक ने 26 दिसम्बर 2008 को संजय तथा सन्तोष को बात करने के लिए बुलाया। अन्दर आने पर कारख़ाने का गेट बन्द करके मालिक के गुण्डे सन्तोष और संजय को मारने-पीटने और धमकाने लगे कि ज़्यादा नेता बनोगे तो भट्ठी में ज़िन्दा जला देंगे। संजय तो किसी तरह फ़ैक्ट्री की दीवार लाँघकर बाहर भाग आया जबकि सन्तोष को मालिक के गुण्डे पकड़ कर अन्दर मारपीट करने लगे। संजय द्वारा घटना की जानकारी मिलते ही मज़दूर नारे लगाते हुए पहले गेट पर इकट्ठे हुए फिर पास के थाने में एफआईआर दर्ज कराने भागे। वहाँ पुलिस वालों ने इसे दिखावटी रजिस्टर पर दर्ज कर लिया और मज़दूरों को धमकी के अन्दाज़ में हिदायत दी कि “शोर न करें” और फ़ैक्ट्री के पास जाकर चुपचाप खड़े हो जायें। मज़दूरों के पुनः फ़ैक्ट्री पहुँचने के बाद पुलिस वाले आये और मालिक के खि़लाफ़ कोई कार्रवाई करने के बजाय मसीहाई अन्दाज में यह कहते हुए फ़ैक्ट्री के अन्दर घुस गये कि शोर-शराबा मत करो और कि वे (पुलिसवाले) मालिक की कोई मदद नहीं करेंगे। मामले को उग्र होता देख मालिक के गुण्डों ने खुद ही सन्तोष को छोड़ दिया।

एक नौजवान की पुलिस द्वारा हत्या से फट पड़ा ग्रीस के छात्रों-नौजवानों-मज़दूरों में वर्षों से सुलगता आक्रोश

एलेक्सी की हत्या सिर्फ एक चिंगारी थी जिसने पूरे ग्रीस में मेहनतकश और छात्र-युवा आबादी के बीच सुलग रहे गुस्से को बाहर निकलने का रास्ता दे दिया। ग्रीस में सामाजिक असन्तोष पैदा होने के संकेत पहले ही मिलने लगे थे। नवउदारवादी नीतियाँ लागू करने के परिणामस्वरूप आबादी का बड़ा हिस्सा खराब जीवन स्तर झेलने पर मजबूर है। बेरोज़गारी, कम तनख़्वाहें, काम करने की ख़राब स्थितियाँ, बढ़ती महगाँई, पुलिस का दमनकारी रवैया और भ्रष्ट सरकारों के बीच आम जनता का जीवन बद से बदहाल होता जा रहा है। देश की इन स्थितियों से सबसे ज़्यादा निराशा युवावर्ग के अन्दर पैठ गयी है। वास्तव में युवाओं को अपने भविष्य की अन्धकारमय तस्वीर ही नज़र आ रही है। मन्दी के दौर ने स्थिति को और बदतर बना दिया है। हालात ये हैं कि ग्रीस, फ्रांस, इटली, स्पेन, पोलैण्ड, तुर्की आदि कई यूरोपीय देशों में बेरोज़गारी लगातार बढ़ रही है और मेहनतकश आबादी का जीवन ख़राब होता जा रहा है। फ्रांस में 2005 में हुए दंगे ऐसे ही हालात की उपज थे। यही वजह रही कि ग्रीस की घटना ने सभी यूरोपीय राष्ट्राध्यक्षों के चेहरों पर चिन्ता की लकीरें पैदा कर दी हैं।

एवन साइकिल के मजदूरों की हड़ताल – चुप्पी अब टूट रही है!

एवन साइकिल में बहुत देर से अन्दर ही अन्दर आग धधक रही थी, जिसने अब लपटों का रूप धारण कर लिया है। कुछ समय पहले जी.टी. रोड पर स्थित यूनिट दो के मजदूरों ने कुछ घंटों के लिए हड़ताल की थी, जिस पर मजदूरों को धमकाने के लिए मालिकों ने गुंडों की मदद ली थी। इस पर मजदूरों का गुस्सा और भी भड़क उठा था। हजारों मजबूत हाथ जब एकजुट हुए तो मालिकों के टुकड़ों पर पलने वाले गुंडों को भागने का रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। एक बार तो मजदूरों और मालिकों में समझौता हो गया और मजदूरों ने हड़ताल वापस ले ली, पर मजदूरों की मांगें वैसे ही लटकती रहीं।

निजीकरण के खिलाफ उत्तरांचल के विद्युत कर्मियों–अधिकारियों के संयुक्त संघर्ष का ऐलान

उत्तरांचल सरकार द्वारा राज्य के विद्युत विभाग का निजीकरण करने की कोशिशों के खिलाफ प्रदेश भर के विद्युत अभियन्ता एवं कर्मचारी एक बार फिर लामबंद हो गये हैं। विभाग की ज्यादातर यूनियनों ने संघर्ष का एक साझा मंच–“उत्तरांचल विद्युत कर्मचारी– अधिकारी संयुक्त संघर्ष समिति” बनाकर 9 फरवरी 2004 से चरणबद्ध संघर्ष की घोषणा कर दी है।

पंतनगर के मजदूर संघर्ष की राह पर – प्रशासन दमन पर आमादा

प्रशासन मजदूरों को गुमराह करने का असफल प्रयास भी कर रहा है। यहां की स्थिति एक बार फिर 1978 के ऐतिहासिक संघर्ष की याद दिला रही है और दमन के वैसे ही मंजर का अहसास करा रही है। निश्चित रूप से परिस्थितियां पहले से काफी भिन्न हैं। लेकिन इतिहास की यह एक कड़वी सच्चाई है कि दमन का पाटा जितना तेज चलता है मजदूरों का संघर्ष उतना ही निखरता जाता है।