चॉकलेट उद्योग का ग़ुलाम बचपन

नमिता

कार्ल मार्क्स ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘पूँजी’ में कहा है, “पूँजीवादी वैभव का पूरा अम्बार स्त्रियों और मासूम बच्चों के ख़ून में लिथड़ा होता है, उसका एक बड़ा हिस्सा उनके सस्ते श्रम को निचोड़कर तैयार किया जाता है।” यह पूँजीवाद का एक “खुला रहस्य” है, एक “जगजाहि‍र सी गुप्त बात” है, जिस पर तमाम स्वंयसेवी संस्थाएँ और अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन भी पर्दा डालने की लगातार, हरचन्द कोशिशें करते रहते हैं और ऐसा दिखाते हैं मानो बच्चों के श्रम का शोषण सिर्फ़ कुछ लालची लोगों द्वारा किया जाता है।

चॉकलेट का नाम सुनते ही तमाम लोगों के मन में मिठास घुल जाती है। मगर क्या आपने चॉकलेट को कभी गौर से देखा है? अगर नहीं तो एक बार उठाइये। उसके चिकने, मुलायम, चमकदार टुकड़ों को टटोलिये। शायद उनके बीच आपको उन बच्चों की कराहें सुनाई देंगी, जिन्होंने उसे तैयार करने में अपने हाथ, पैर, कन्धे ज़ख़्मी किये हैं, आपकी जीभ स्वादिष्ट चॉकलेट का लुत्फ़ ले सके इसके लिए अपना बचपन लुटाया है। जिस चॉकलेट को खाकर कई लोग ”मानसिक सुकून” हासिल करते हैं, उसको बनाने वाले बाल मज़दूरों का जीवन किस भयंकर दमन-उत्पीड़न को झेलता है, उसको जानने के लिए आइये पश्चिमी अफ़्रीका और आइवरी कोस्ट के जंगलों वाले इलाक़ों में चलते हैं।

cocoa child laborचॉकलेट कोकोआ बीन से बना हुआ एक उत्पाद है, जो पश्चिमी अफ्रीका, एशिया और लातिनी अमेरिका जैसे उष्‍ण क‍टिबन्धीय परिवेश में पैदा होता है। कोकोआ बीन से ही कोकोआ बनता है जो चॉकलेट की मुख्य सामग्री होती है। पश्चिमी अफ़्रीका के देशों, ख़ासकर घाना और आइवरी कोस्ट पूरी दुनिया को 70 प्रतिशत से भी ज़्यादा कोकोआ बीज उपलब्ध कराते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार 2010 में चॉकलेट का बाज़ार 4244 करोड़ डॉलर था जो 2016 में 5014 करोड़ डॉलर हो गया। पश्चिमी अफ़्रीका में कोकोआ एक ऐसी फ़सल है जो बाज़ार के लिए ही पैदा की जाती है। और  आइवरी कोस्ट का 60 प्रतिशत राजस्व कोकोआ के निर्यात से ही आता है। चॉकलेट उद्योग बहुत ही गुपचुप तरीके से काम करता है। वहाँ के बाल मज़दूरों के भंयकर शोषण और ग़ुलामी की तस्वीरें जल्दी सामने नहीं आ पाती हैं क्योंकि जो पत्रकार सरकार के भ्रष्टाचार को सामने लाने की कोशिश करता है उसका अपहरण कर लिया जाता है या मार दिया जाता है। 2010 में आइवरी कोस्ट की सरकार ने तीन पत्रकारों को वह रिपोर्ट ना छापने की धमकी दी थी जो कोकोआ सेक्टर के अमानवीय हालात को उजागर करने वाली थी।

पश्चिमी अफ़्रीका अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर कोकोआ सप्लाई करता है। बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ जैसे हर्शले, नेस्‍ले, मार्क भी इन्हीं से कोकोआ खरीदती हैं। अमेरिका की सबसे बड़ी चॉकलेट कम्पनी हर्शले सालाना 40 करोड़ किलो चॉकलेट का उत्पादन करती है। चूँकि चॉकलेट उद्योग में लगभग हर साल बढ़ोत्तरी होती है, इसीलिए सस्ते कोकोआ की माँग भी बढ़ती जाती है। जो किसान सिर्फ कोकोआ ही पैदा करते हैं, वे प्रति दिन 2 डॉलर से भी कम कमा पाते हैं जो कि ग़रीबी रेखा से काफ़ी नीचे है। इसीलिए ख़ुद को जीवित रखने के लिए वे ज़्यादातर काम कम खर्च पर बच्चों से करवाते हैं।

पश्चिमी अफ़्रीका के ज़्यादातर बच्चे भयंकर ग़रीबी की हालत में हैं इसीलिए अपने परिवार को सहायता पहुँचाने के लिए बहुत कम उम्र में ही काम करने लग जाते हैं। बहुत से बच्चों को तस्कर उनके रिश्तेदारों और परिवार वालों को अच्छा काम और अच्छी तनख़्वाह का वायदा करके ले आते हैं और उन्हें कोकोआ फ़ार्म मालिकों को बेच देते हैं। ये तस्कर ज़्यादातर बच्चों को आस-पास के छोटे-छोटे देशों में भेज देते हैं, जैसे बुर्कीना फासो और माली (जो कि दुनिया के सबसे ग़रीब देशों में से हैं)। एक बार कोकोआ फ़ार्म में लग जाने के बाद इन बच्चों को कई-कई सालों तक परिवार वालों से मिलने नहीं दिया जाता। इन बच्चों की औसत उम्र 12 से 16 वर्ष की होती है जिसमें 40 प्रतिशत लड़कियाँ होती हैं। कई बच्चे 5-6 वर्ष के भी होते हैं।

जिस चॉकलेट से मुनाफ़ाखोरों की तिजोरियाँ भरती हैं, करोड़ों का वारा-न्यारा होता है, उन्हें बनाने वाले बच्चों को ग़ुलामों की तरह खटना पड़ता है। उनके काम की शुरुआत सुबह 6 बजे से हो जाती है जो 12-14 घंटे लगातार चलता रहता है। बच्चों में से कुछ पहले आरामशीन से जंगल को साफ़ करते हैं, कुछ कोकोआ पेड़ पर चढ़कर छुरे की मदद से बीज तोड़ते हैं। मालूम हो कि कोकोआ फ़ार्म में इस्तेमाल होने वाला यह छुरा काफ़ी भारी, लम्बा और तेज़ धार वाला हथियार होता है। बीज तोड़ने के बाद फिर उन्हें लम्बी बोरियों में भरकर जंगल से लाते हैं। एक बाल मज़दूर ने बताया कि कुछ बोरे तो हमसे भी बड़े होते हैं, जिन्हें दो व्यक्ति मिलकर हमारे सर पर रखते हैं और हमसे ज़रा भी देरी हुई तो बुरी तरह पिटाई करते हैं। सिर पर भारी बोरे रखने के अलावा एक हाथ में बीजों का बड़ा गुच्छा भी पकड़कर लाना होता है।

काम यहीं समाप्त नहीं होता। पेड़ों से बीज तोड़ने के बाद छुरे की मदद से उसका ऊपरी हिस्सा खोलना होता है जिससे चॉकलेट बनता है। बार-बार छुरे की वार बीजों पर करनी पड़ती है, जिससे माँस कट जाने का ख़तरा लगातार बना रहता है। ज़्यादातर बच्चों के हाथ, पैर, बाँहों और कन्धों पर छुरे के गहरे ज़ख्मों के निशान होते हैं। इसके अलावा घाना और आइवरी कोस्ट में बीजों पर बहुत से कीड़े लग जाते हैं जिन्हें ख़त्म करने के लिए काफ़ी मात्रा में औद्योगिक केमिकल का इस्तेमाल करना पड़ता है। घाना में 10 साल के बच्चे बिना किसी सुरक्षात्मक कवच के बीजों पर ख़तरनाक रसायनों का छिड़काव करते हैं।

रोज़ 12-14 घंटे हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी इन मासूम बच्चों को फ़ार्म मालिक घटिया खाना देते हैं जैसे मक्के की लपसी और केला। इसके अलावा इन्हें बिना खिड़की वाली इमारत में लकड़ी के कठोर तख़्त पर सोना पड़ता है जहाँ ना तो पीने का साफ़ पानी होता है और ना ही बाथरूम। अगर कोई बच्चा धीमे काम करता है या काम में सुस्ती दिखाता है तो उसे बुरी तरह मारा-पीटा जाता है। उनकी प्रताड़ना से बच्चे भाग ना जायें इसीलिए रात में उनके कमरों को ताला लगा दिया जाता है। घाना के कोकोआ फ़ार्म में 10 प्रतिशत और आइवरी कोस्ट के 40 प्रतिशत बच्चे स्कूल नहीं जाते। शिक्षा के अभाव में कोकोआ फ़ार्म के बच्चों के पास ग़रीबी हटाने का और कोई रास्ता भी नहीं बचता। एक कोकोआ मज़दूर ने बताया कि पिटाई हमारी ज़िन्दगी का हिस्सा बन चुकी है। दृशा नाम का एक बाल मज़दूर, कुछ ही दिन पहले कोकोआ फ़ार्म की ग़ुलामी से मुक्त हुआ है, उसने जीवन में कभी चॉकलेट नहीं खायी। उसने कहा कि जो लोग हमें कठिनाइयों में डालकर आनन्दित होते हैं, जो लोग चॉकलेट खाते हैं वह दरअसल हमारा माँस खाते हैं।

पूरी दुनिया को एक बाज़ार में तब्दील करके जहाँ विकास की ऊँचाइयों को छूने के दावे किये जा रहे हैं, वहाँ इन बच्चों को नर्क के अँधेरे में ढकेल देने वाले हाथों की शिनाख़्त की जानी चाहिए।

मुनाफ़े की अन्धी हवस में पूँजीपति सस्ते से सस्ता खरीदने और महँगे से महँगा बेचने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। और सस्ता श्रम उन्हें महिलाओं और बच्चों से ही मिल सकता है। इसीलिए वह तमाम मासूमों की ज़िन्दगियाँ दाँव पर लगाकर अकूत मुनाफ़ा बटोर रहे हैं। लूट, शोषण और मुनाफ़े पर टिकी इस आदमख़ोर व्यवस्था को तबाह किये बिना हम बच्चों को बचा नहीं सकते क्योंकि जो व्यवस्था हर हाथ को काम देने के बजाय लगातार बेरोज़गारों की फ़ौज खड़ी करती जा रही है, जो व्यवस्था शिक्षा को खरीद-फ़रोख़्त का सामान बना रही है, उस व्यवस्था के भीतर से बाल मज़दूरों और ग़ुलामों की कतारें पैदा होती रहेंगी।

मज़दूर बिगुल, जून 2016


 

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