एक और मज़दूर दुर्घटना का शिकार, मुनाफ़े की हवस ने ली एक और मज़दूर की जान! 

पिछली 29 मई को मानेसर की ब्रिजस्टोन कम्पनी में ठेके पर काम कर रहा 35 वर्षीय मज़दूर राधेशाम दुर्घटना का शिकार हो गया था और 6 जून को उसने अपने जीवन के लिए संघर्ष करते हुए आखि‍री साँस ली। ऑटोमोबाइल सेक्टर में ऐसी दुर्घटनाएँ कोई नयी बात नहीं है। आये दिन किसी न किसी फैक्ट्री में कम्पनी मैनेजमेंट की आपराधिक लापरवाही की वजह से दुर्घटनाओं में मज़दूर अपनी जान गँवा बैठते हैं या बुरी तरह घायल हो जाते हैं। लाखों मज़दूर अपनी जान जोख़िम में डालकर काम करने के लिए मजबूर हैं।

राधेश्याम बिहार का रहने वाला था और पिछले 7 महीनों से बहुराष्ट्रीय टायर कम्पनी ब्रिजस्टोन में ठेके पर काम कर रहा था। पिछले साल सितम्बर में चली हड़ताल के बाद कम्पनी प्रशासन ने पुराने सब मज़दूरों को काम से निकाल ठेके पर नयी भर्ती की थी। लेकिन कम्पनी में काम करने के तरीके और सुरक्षा नियमों की अवहेलना में कोई तब्दीली नहीं आयी। 29 मई को जब राधेश्याम मेंटेनेंस पर काम कर रहा था तब अचानक पावर सप्लाई ऑन हो जाने के कारण उसे बिजली का जानलेवा झटका लगा। यह दुर्घटना कम्पनी प्रशासन की लापरवाही और धूर्तता को एक दम नंगा कर देती है। दुर्घटना के बाद इस मामले को दबाने के लिए आनन-फानन में राधेश्याम को मानेसर के रॉकलैंड अस्पताल में भर्ती करवा दिया गया जहाँ वह कोमा में बेसुध पड़ा रहा। न तो कम्पनी ने उसके परिवार वालों को सूचित किया और न ही उसके इलाज के लिए कोई ठोस कदम उठाया। यह सच्‍चाई अब सभी जानते हैं कि श्रम क़ानूनों की खुली अवहेलना करते हुए मज़दूरों को ईएसआई कार्ड नहीं दिये जाते हैं लेकिन जब वह काम करते हुए ऐसी दुर्घटनाओं का शिकार हो जाते है तब कम्पनियाँ मज़दूरों की आँखों में धूल झोंकने और अपनी ज़िम्मेदारी से बचने के लिए ईएसआई कार्ड बनवाने की नौटंकी करने लगती हैं। राधेश्याम की हालत दिन-ब-दिन नाज़ुक होती गयी, जब उसके घरवालों को इस हादसे के बारे में पता चला तो वह उसकी ख़बर लेने पहुँचे मगर कम्पनी या ठेकेदार ने उनकी कोई मदद नहीं की। 6 जून को राधेश्याम की मृत्यु के बाद ठेकेदार ने गुंडों से उसके परिवार वालों को डरा-धमका कर उसके शरीर को जबरन दफ़ना दिया। आर्थिक रूप से कमज़ोर पृष्ठभूमि से आने वाले उसके परिवार वालों को डराया-धमकाया गया कि इस मामले में कोई भी कदम उठाया तो अच्छा नहीं होगा। अभी तक पुलिस ने इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं की है उल्टा कम्पनी बाकी ठेका मज़दूरों को काम से निकाल देने की धमकी देकर इस मामले को रफ़ा-दफ़ा करना चाहती है।

इस घटना से दो चीज़ें साफ़ हैं – पहली यह कि यह कोई दुर्घटना नहीं बल्कि पूँजीवादी राक्षस के हाथों राधेश्याम की हत्या है, और दूसरी यह कि चमचमाती गाड़ियों को बनाने वाले इन मज़दूरों की ज़िन्दगी में कितना अँधेरा है। इनकी ज़िन्दगी की क़ीमत बस चन्द हज़ार रुपये है। बड़ी-बड़ी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें ऐसी घटनाओं पर मौन धारण किये बैठी रहती हैं। न तो इनके नेता ठेका मज़दूरों पर फैक्टरियों में हो रहे शोषण के खिलाफ़ आवाज़ उठाते हैं और न ही ऐसी गम्भीर घटनाओं के के बाद मज़दूरों को एकजुट करते हैं। सालाना अनुष्ठान की तरह एकदिवसीय हड़ताल का नाटक करने वाले ये लोग क्यों किसी मज़दूर की ऐसी निर्मम हत्या के बाद पूरे ऑटोसेक्टर का चक्का जाम कर नहीं देते? बात सिर्फ नीयत की है, जिनको अपनी दूकान चलानी है वे रस्मी कवायदों में मशगूल रहेंगे। इसके लिए उन्हें ही सोचना होगा जो रोज़ अपनी ज़ि‍न्दगी दाँव पर लगाकर कारख़ानों के चक्के चलाते हैं।

मज़दूर बिगुल, जून 2016


 

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