मेट्रो ठेका कर्मियों के 8 साल के लम्बे संघर्ष के बाद 28 जून 2016 को ‘दिल्ली मेट्रो रेल कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन’ को मिला सरकारी पंजीकरण
दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन के ठेका मज़दूरों के लम्बे संघर्ष की एक बड़ी जीत!

बिगुल संवाददाता

28 जून 2016 को दिल्ली मेट्रो के ठेका कर्मियों की यूनियन ‘दिल्ली मेट्रो रेल कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन’ को उपश्रमायुक्त कार्यालय ने पंजीकरण दे दिया (पंजीकरण संख्या-F/10/DRTU/NORTH EAST/2016/01)। मेट्रो में कार्यरत ठेका कर्मियों के संघर्ष की यह एक बड़ी जीत है। यह मज़दूरों के हाथ में मालिक से लड़ने का हथियार है जिससे मज़दूर अपनी लड़ाई को क़ानूनी तौर पर भी लड़ने में मजबूत हुए हैं।

ज्ञात हो कि डीएमआरसी के ठेका मज़दूर लम्बे समय से स्थायी नौकरी, न्यूनतम मज़दूरी, ई.एस.आई., पी.एफ. आदि जैसे अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इस संघर्ष में ठेका कर्मियों ने कई जीतें भी हासिल कीजैसे कि टॉम ऑपरेटरों के लिए न्यूनतम मज़दूरी को लागू करवाना, तमाम रिकॉल मज़दूरों के मुकदमों को सफलतापूर्वक लेबर कोर्ट में लड़ना। इस संघर्ष के साथ ही यूनियन पंजीकरण के लिए भी मज़दूर लगातार प्रयास कर रहे थे।

दिल्ली की शान मानी जाने वाली चमचमाती मेट्रो रेल के सुचारु संचालन के पीछे हज़ारों मेट्रो ठेका कर्मियों की मेहनत काम करती है। दिल्ली के नागरिकों को समय से शहर के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुँचाने के लिए ज़िम्मेदार ठेका कर्मियों के खुद के काम की परिस्तिथियाँ बेहद मुश्किल है। टॉम ऑपरेटरों से लेकर हॉउसकीपरों, सिक्योरिटी गार्ड और सफ़ाई कर्मचारियों को न सिर्फ़ ठेका कंपनियों की मनमानी सहनी पड़ती है, बल्कि काम के स्थल पर भी तरह-तरह के शोषण का सामना करना पड़ता है। ठेका कर्मियों को पहले नौकरी हासिल करने के लिए मोटे सिक्योरिटी डिपॉज़ि‍ट देने पड़ते है और फिर रिकॉल के नाम पर (ठेका कंपनियों द्वारा मनमाने और गैर-क़ानूनी तरीके से काम से हटा दिए जाने)  ठेका कंपनियों की मनमानी सहनी पड़ती थी। इन तमाम नाइंसाफ़‍ियों से तंग आकर 2008 से दिल्ली मेट्रो कामगार यूनियन के बैनर तले मेट्रो ठेका कर्मियों ने अपने जुझारू संघर्ष की शुरुआत की। 2008 के मई के महीने में मेट्रो भवन पर अपने अधिकारों के लिए प्रदर्शन कर रहे मेट्रो ठेका कर्मियों को पुलिस ने गिरफ़्तार कर तिहाड़ में डाल दिया लेकिन इसके बावजूद वो इस संघर्ष को कमज़ोर नहीं कर पाये। इसके बाद इस संघर्ष के महत्व को समझते हुए यूनियन के नेतृत्व में मेट्रो के ठेका कर्मियों ने अपनी ज़मीनी कार्रवाई और तेज़ करते हुए ज़्ंयादा से ज़्तयादा मेट्रो कर्मियों को यूनियन से जोड़ने का काम शुरू किया। जैसे-जैसे ठेका कर्मी यूनियन से जुड़ते गए वैसे-वैसे अपनी आर्थिक और राजनितिक मांगों को लेकर उन्होंने अलग-अलग जगह प्रदर्शन और धरनों का आयोजन किया ताकि सरकार और डीएमआरसी के कानों तक उनकी मांगें पहुँच सके।

जुलाई 2011 में वीडियो द्वारा डीएमआरसी और ट्रिग कंपनी के घोटाले का पर्दाफ़ाश कर यूनियन ने डीएमआरसी पर सभी ठेका कंपनियों द्वारा श्रम क़ानूनों के कड़े पालन करने की माँग को लेकर दबाव बनाया। यूनियन द्वारा इस खुलासे के बाद डीएमआरसी को उनकी माँगों पर आंशिक तौर पर ही सही, मगर कार्रवाई करने पर मजबूर होना पड़ा । मई 2013 में मेट्रो द्वारा मनमाने तरीके से 200 ठेका कर्मियों को काम से निकाले जाने के बाद जंतर-मंतर पर एक विशाल प्रदर्शन का आयोजन किया गया। 2008 से लेकर 2013 तक बड़े प्रदर्शन कर डीएमआरसी और सरकार को ज्ञापन सौंप कर मेट्रो कर्मियों को न्यूनतम वेतन देने और सभी श्रम कानूनों को सख़्ोती सेलागू करवाने की माँग की गई । पंजीकरण हासिल करने के लिए दिल्ली मेट्रो रेल कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन के बैनर तले मेट्रो कर्मियों ने न सिर्फ पुलिस की लाठियों का सामना किया, बल्कि कई बार जेल यात्राएँ भी की। अपने ख़ून और पसीने से इस संघर्ष को सींचते हुए 28 जून 2016 को ठेका कर्मियों ने आखिरकार सरकार और डीएमआरसी को उनकी यूनियन को मान्यता देने पर मज़बूर कर दिया (पंजीकरण संख्या-F/10/DRTU/NORTH EAST/2016/01)। यह मेट्रो के ठेका कर्मियों और उनकी यूनियन की एक ज़बर्दस्ता जीत है।

2 जनवरी 2014 को कौशाम्बी स्थित मुख्यमंत्री केजरीवाल के आवास पर भी मेट्रो से ठेका प्रथा ख़त्म करने और अन्य सभी श्रम कानूनों को लागू करने के लिए प्रदर्शन किया गया। दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने अपने चुनावी घोषणापत्र में लोकरंजक बातें लिख कर खूब प्रचार किया था कि वह नियमित प्रकृति के कार्य से ठेका प्रथा ख़त्म करेगी मगर जब उनके द्वारा किये गए वायदों को लेकर मेट्रो के ठेका कर्मी उनके आवास के बाहर पहुँचते हैं तब वह मौन धारण कर अंदर बैठे रहते है। इसके बाद 3 मार्च 2015 को एक बार फिर से दिल्ली सचिवालय पर जब यूनियन के बैनर तले मेट्रो कर्मी ठेका प्रथा उन्मूलन की अपनी माँग को लेकर मुख्य मंत्री केजरीवाल से मिलने पहुँचे, तो दूसरी बार सत्ता में आई केजरीवाल सरकार ने ठेका कर्मियों पर पुलिस द्वारा लाठीचार्ज के ऑर्डर दे दिए। मोदी सरकार का मज़दूर विरोधी चेहरा तो पहले से ही जग ज़ाहिर है, मगर “साफ़ सुथरी राजनीति के हरकारे” केजरीवाल की काली असलियत दिल्ली के ठेका मज़दूरों और मेट्रो के ठेका कर्मियों के सामने 25 मार्च 2015 को एकदम बेनक़ाब हो गयी जब अलग-अलग क्षेत्रों में कार्यरत ठेका कर्मी ठेका प्रथा उन्मूलन, न्यूनतम वेतन, ई.एस.आई., पी.एफ. और अन्य श्रम कानूनों को सख्ती से लागू करने की माँग लेकर दिल्ली सचिवालय पहुँचे। अपने दुःख-दर्द लेकर अपने प्रतिनिधि के पास पहुँची जनता की बात सुनने की बजाय केजरीवाल ने दिल्ली के पिछले 3 दशक के इतिहास का सबसे निर्मम और क्रूर लाठीचार्ज करवा कर महिलाओं और बच्चों तक को नहीं बक्शा। आँसू गैस के गोलों से लेकर रैपिड एक्शन फ़ोर्स और पुलिस ने जमकर ठेका कर्मियों पर अपनी लाठियाँ भांजी। इतना सब सहने के बाद भी मेट्रो के ठेका कर्मियों का हौसला तोड़ पाने में सरकार नाक़ामयाब रही। बल्कि अपने अधिकारों के इस संघर्ष के दौरान हासिल हुए इन सभी अनुभवों ने उनकी राजनीतिक चेतना को समृद्ध करने का काम किया। इसी का नतीजा है कि इन 8 सालों में मेट्रो के ठेका कर्मियों का उनकी यूनियन पर विश्वास और अपने संघर्ष के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ने उन्हें आज यह जीत हासिल करवाई ।

लेकिन किसी को इस मुग़ालते में नहीं रहना चाहिए कि दिल्ली मेट्रो रेल कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन को पंजीकरण मिलना लेबर कोर्ट या सरकार की दरियादिली या किसी ह्रदयपरिवर्तन का नतीजा है। वैसे तो मेट्रो के संघर्ष से जुड़े किसी भी व्यक्ति को ऐसी गफ़लत नहीं हो सकती मगर यहाँ एक बार राज्य और उसके उपक्रमों के चरित्र पर बात कर लेना अति आवश्यक है। राजनीतिक संघर्ष के साथ-साथ अपनी आर्थिक मांगों की क़ानूनी लड़ाई को और सुदृढ़ करने के लिए 2010 में दिल्ली मेट्रो कामगार यूनियन ने लेबर कोर्ट में पंजीकरण के लिए अर्ज़ी दायर की थी। लेकिन पंजीकरण न देने की नीयत से 2 साल तक फ़ाइल अलग-अलग मेज पर घुमाते रहने के बाद लेबर कोर्ट ने यूनियन के नाम पर आपात्ति  उठाते हुए वह अर्ज़ी ख़ारिज कर दी। एक बार फिर से ‘दिल्ली मेट्रो रेल कामगार यूनियन’ के नाम से नए सिरे से फाइल बना कर पंजीकरण की अर्ज़ी डाली गई लेकिन इस बार भी लेबर कोर्ट ने यूनियन के नाम में ‘कामगार’ शब्द के प्रयोग से काम की प्रकृति यानि नियमित या ठेका साफ़ न होने के चलते फिर से आपत्ति उठाई इसके बाद यूनियन का नाम बदल कर ‘दिल्ली मेट्रो रेल ठेका कामगार यूनियन’ कर दिया गया मगर इस बार भी लेबर कोर्ट ने कोई तकनीकी पहलू निकाल कर पंजीकरण देने से साफ़ मना कर दिया। बार-बार पंजीकरण देने से मना करने के पीछे कोई तकनीकी कारण नहीं, बल्कि सरकार और लेबर कोर्ट की सोची-समझी चाल थी। दिल्ली मेट्रो रेल सरकार और पूरे पूँजीपति वर्ग के लिए एक बेहद ज़रूरी रणनीतिक सेक्टर है। ऐसे में सरकार ने ठेके पर काम कर रहे मेट्रो कर्मियों को असंगठित रखने का हर संभव प्रयास किया। जब तक ठेका कर्मचारी असंगठित रहते हैं तब तक सरकार के लिए उनसे निपटना और पूँजीपतियों और ठेका कंपनियों के लिए उनकी मेहनत की कमाई चूसना और उनका शोषण करना बेहद आसान होता है। इसीलिए कभी इस तो कभी उस तकनीकी ख़ामी का हवाला देते हुए लेबर कोर्ट यूनियन को पंजीकरण देने से इंकार करता रहा। मगर पिछले साल ‘दिल्ली मेट्रो रेल कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन’ के नाम से एक बार फिर अर्जी डालने पर और मेट्रो कर्मियों के संघर्ष के ताप से बने दबाव के चलते लेबर कोर्ट को यूनियन को पंजीकरण देने पर विवश होना पड़ा।यूनियन को सरकारी मान्यता मिलना निसंदेह इस संघर्ष की बेहद महत्वपूर्ण जीत है, मगर अभी असली संघर्ष तो अब शुरू होगा। यूनियन को मान्यता मिलने का एक सबसे बड़ा फ़ायदा यह है कि अब यूनियन सीधे डीएमआरसी से एक क़ानूनी यूनियन के तौर पर लड़ सकती है, सरकार से संवाद कर सकती है और साथ ही मज़दूर हितों के लिए कानूनी संघर्ष और साथ ही राजनीतिक-आर्थिक संघर्ष को कहीं ज़्यादा प्रभावी तरीके से लड़ सकती है। सरकारी मान्यता न होने के चलते पहले सभी मुक़दमे एक व्यक्ति को अपनी ओर से दायर करने पड़ते थे मगर अब सरकारी तौर से मान्यता प्राप्त यूनियन अपने ओर से श्रम कानूनों के उल्लंघन पर न केवल ठेका कंपनियों बल्कि डीएमआरसी को भी अदालत में घसीट सकती है।

लेकिन मज़दूर आंदोलनों के इतिहास से शिक्षा लेते हुए अब इस बात को समझना बेहद ज़रूरी है कि इस व्यवस्था में मेहनतकशों की कोई भी जीत आंशिक ही रहती है, जब तक कि उसका जनआधार और व्यापक नहीं होता। अपने अधिकारों की लड़ाई क़ानूनी ज़मीन पर लड़ने के साथ ही मेट्रो के ठेका कर्मियों को सडकों पर आम जनता तक अपनी राजनीतिक लड़ाई से जोड़ना होगा। अभी केवल दिल्ली मेट्रो रेल कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन को पंजीकरण हासिल हुआ है, नियमित होने की लड़ाई पंजीकरण के संघर्ष से भी मुश्किल होगी। नियमित होने, ठेका प्रथा ख़त्म करने के संघर्ष को लड़ने के लिए यूनियन पंजीकरण की जीत की ख़ुशी को ऊर्जा में तब्दील करते हुए अब आगे के संघर्ष के लिए कमर कसनी होगी।दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार पर नियमित प्रकृति के काम से ठेका प्रथा ख़त्म करने के लिए दबाव बनाने के लिए हर एक मेट्रो ठेका कर्मी को दिल्ली मेट्रो रेल कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन से जोड़ने के साथ, मेट्रो में हो रहे श्रम कानूनों के नंगे हनन का लगातार पर्दाफ़ाश करते हुए बुर्जुआ जनवाद के भीतर संभव अपने हर अधिकार को जुझारू संघर्ष से ही हासिल किया जा सकता है, जिसका एक ज्वलंत उदाहरण है यूनियन को पंजीकरण मिलना।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2016


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments