कुछ ज्‍़यादा ही लाल… कुछ ज्‍़यादा ही अन्तरराष्ट्रीय

बिगुल के स्वरूप पर आत्माराम का पत्र

पिछले दिनों ‘बिगुल’ को मुम्बई में रहने वाले एक मार्क्‍सवादी बुद्धिजीवी आत्माराम जी का एक पत्र प्राप्त हुआ जिसमें उन्होंने ‘बिगुल’ से प्रकाशित सामग्री की आलोचना प्रस्तुत करते हुए बहुत सारे सुझाव दिये हैं। चूँकि इस पत्र में कही गयी बहुत सी बातें एक क्रान्तिकारी मज़दूर अख़बार के उद्देश्य और स्वरूप के बारे में बुनियादी सवाल उठाती हैं, इसलिए हम अपने पाठकों के लिए श्री आत्माराम का पत्र और उसका विस्तृत जवाब प्रस्तुत कर रहे हैं। – सम्पादक

साथी डॉ. दूधनाथ

सलाम!

आपके सम्पादन में प्रकाशित ‘बिगुल’ के दो अंक मिले धन्यवाद!

दोनों अंक पढ़े। अंक अन्तरराष्ट्रीय स्तर के हैं। अंकों में ज़रूरत से ज्‍़यादा  मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद है और मसला यह है कि क्या वाक़ई ये अख़बार हिन्दुस्तान के मज़दूरों के लिए निकाला गया। जबकि इन अंकों में यदा-कदा कहीं-कहीं हिन्दुस्तान दिखायी देता है।

ऐसा क्यों किया जाये। यह काम तो इस तरह लगता है जैसेकि हम मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद के प्रति अपनी वफ़ादारी दिखा रहे हैं, हमें भारत के मज़दूर-किसानों से क्या लेना-देना। दूसरा मसला यह कि हमारा ज्‍़यादातर मज़दूर-किसान अभी उतना अन्तरराष्ट्रीय नहीं हुआ है, जितना आप ख़ुद हैं और समझते हैं। बहरहाल रेल मज़दूरों के बारे में जानकारी और संघर्ष के बारे में जो छपा है, बेहतर है।

इतना सुन्दर अख़बार, इतना गहरा लाल रंग, मानो 1905 से 1917 की रूसी क्रान्ति की याद दिलाता है – जबकि यह लाल-लाल दिखावा – भारतीय मज़दूरों के संघर्ष में कोई ख़ास मदद करता दिखायी नहीं देता।

कृपया, जहाँ तक ‘नयी समाजवादी क्रान्ति की ज्वाला भड़काने’ का सवाल है उसके लिए एक सही पार्टी चाहिए और उस पार्टी के नेतृत्व में मज़दूर-किसानों का संगठन होना चाहिए। हम सभी जानते हैं, हमारा देश सही अर्थों में एक सही पार्टी की ज़रूरत महसूस करता है और एक आप हैं जो हर लफ़्ज़ को अन्तरराष्ट्रीय बनाये चले जा रहे हैं – अगर यह आपकी राजनैतिक लाइन है तो भी संवाद होना चाहिए और अगर महज़ जज्‍़बात है तो भी बहस की ज़रूरत है – हमारा हर लफ़्ज़ इस मुल्‍क़ की मज़दूर-किसान, मध्यमवर्ग और साधारण जनता के प्रबोधन और उसके संघर्ष को लामबन्द करने के लिए होना चाहिए।

इतिहास (सिवाय भारत के) में घटित घटनाओं को दुबारा छापकर आप बहुत बड़े मार्क्‍सवादी हो सकते हैं परन्तु उससे मज़दूरों व ग़रीब जनता का कोई भला नहीं होने वाला।

विचारणीय मुद्दा है – मज़दूरों के लिए निकलने वाला अख़बार का हर लफ़्ज़ मज़दूरों के लिए, उनकी समस्याओं के लिए और भारतीय परिस्थितियों में उसके टास्क को सम्बोधित हो।

और अगर आपने द्रव्य और श्रम ख़र्च करने का बीड़ा उठा ही लिया है तो उसका इस्तेमाल मार्क्‍सवाद के प्रचार-प्रसार के लिए कम और मज़दूर-किसानों से सरोकार रखने वाले संघर्षों के लिए ज्‍़यादा हो। मैं उम्मीद करता हूँ आप ग़ौर करेंगे। बिगुल को इण्डियन वर्किंग क्लास ओरियण्टेड बनाना चाहिए न कि महज़ अन्तरराष्ट्रीयवादी!

बिगुल की बेहतरी में

 – आत्माराम, मुम्बई

बिगुल, जुलाई-अगस्त 1996


 

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